तदेकं वद निश्चित्य

तुम कुछ चीजों में घालमेल करते हो। पहले कहा, देव और ब्रह्म का अर्थ आग होता है फिर कह कहा देव, ब्राह्मण और सुर का मोटा अर्थ किसान था। 

समय बचाने के लिए ऐसा करना पड़ता है। सुर का अर्थ तो उत्पादक है। सू जिसका पुराना रूप् चू रहा, जो च्यवन में बचा रह गया है, का अर्थ मूलतः जल था। ब्रह्म का पुराना रूप बरम् था। और उसका उससे पुराना परम् अर्थात् जल। देव जिस ‘दी’ से निकला प्रतीत होता है उसका पुराना रूप ती था, और अन्य बोलियों में यह दी, धी, टी आदि में बदला। इसका भी मूल अर्थ जल था, बाद में आग हुआ और फिर तो प्रकाश, ज्ञान, रूप आदि। इसके मूल जलर्थक भाव से तेलुगु का तिय्यन और भोज. तेवना या स्वादुकर जुड़ा है। 

“आग की संज्ञा जल से क्यों जुड़ी है। इसका काम चलाऊ समाधान यह कि जल से वृष्टि प्रधान क्षेत्र की भाषाएँ निकली हैं। वातप्रधान शुष्क देशों की भाषाएँ वायु की ध्वनियों से प्रभावित रही है। तो यदि इस जातक की ओर लौटता तो कहानी लंबी हो जाती। इसलिए कहा मोटे तौर पर इनका अर्थ था किसान। राक्षसों अर्थात् प्राकृतिक संपदा और पर्यावरण के रक्षकों से इनका दार्शनिक विरोध था। वे उस प्रकृति को जो सब कुछ स्वतः माँ की तरह देती है, फल, कन्द, मछलियाँ, उसे जलाने र या उसके साथ हिंसक व्यवहार के विरोधी और अल्पसंतोषी थे। हमारे आतिथ्य, उदारता, अहिंसा, संतोष, अपरिग्रह, सत्य, त्याग, बलिदान आदि के मूल्य इन राक्षसों की देन है।“

“तुम कहते हो राक्षसों की मूल्य व्यवस्था का ही दूसरा नाम हिंदुत्व है और इसका ब्राह्मणवाद से सदा से विरोध रहा है?” 

"तुमने ठीक समझा. पूंजीवाद ही नहीं प्रगति अपने प्राचीनतम चरण से सर्जनात्मक ध्वंश रहा है. कृत्रिम उत्पादन प्रकृति पर विजय. अब इस नज़रिये से देखो तो जो ब्राह्मणवाद प्रतिक्रियावादी प्रतीत होगा और हिंदुत्व या सामाजिक समरसता की मांग यथास्थितिवादी."

उसने सर पीट लिया. 

ये झाड़ झंखाड़ जला कर खेती करने वाले, धरती खोद कर पानी निकालने वाले फरेबी, मक्कार, धोखेबाज थे और इसी के कारण देवताओं को हमारे साहित्य में भी कपटी कुचाली आदि कहा जाता रहा है और दूसरी ओर उन्हें ही अपना आदर्श माना जाता रहा - अनु देवानां पन्थाम चरेम। 

“ बहुत छल कपट करते हुए ही देवों को अपना कृषियज्ञ चलाना पड़ता था फिर पता लगते ही इनको भगा दिया जाता था। इसी भागम भाग में ये उत्तर दक्खिन पच्छिम की ओर भागते फिरे। पहाड़ी क्षेत्रों को खेती के लिए सुरक्षित मानने का निर्णय भी इनका ही था। इसलिए ही पहाड़ी क्षेत्र देवभूमि बना। इसी पलायन में इनकी कोई एक शाखा पश्चिम एशिया के उस क्षेत्र में  पहुँची जिसे उर्वर अर्धचन्द्र कहा जाता है परन्तु जिसकी जातीय स्मृति में यह बना रहा कि देवताआओं का स्वर्ग कहीं पूरब में था और उसी समृद्धि लोग या ईदन गार्डन से निर्वासित होने के कारण आदम वहाँ पहुँचे थे। 

अब देखो, तुम्हारे पुरातत्ववेत्ता बताते रहे कि खेती का आरंभ जर्मो जेरिको, नातूफ आदि में हुआ और  वहाँ से कृषि के प्रसार के साथ भाषा का भी प्रसार हुआ और इस तरह भारतीय आर्य भाषा भारत पधारी। कारण, हमारे यहाँ पुराने स्थलों का पता तब नहीं था और एक बार प्रचारित हो जाने के बाद जब यहाँ के स्थलों का पता चला तब तक शिक्षित समाज की चेतना में यह बात घर कर गई थी। परन्तु भारत में ये स्थल लगभग पूरे भारत में विखरे रहे हैं। और दुनिया का सबसे विशाल उर्वर क्षेत्र तो सिन्ध-सरस्वती-गंगा का मैदान ही रहा है। सुविधाओं और तकनीकी पिछडेपन के कारण उसकी तुलनात्मक प्रति एकड़ उपज भले दूसरे देशों से कम हो। 

“खैर मेहरगढ़ की खुदाई करने वाले जैरिज को लहुरादेवा के पता चलने के बाद अन्ततः स्वीकार करना पड़ा कि पहला किसान भारत में पैदा हुआ। अब यदि कृषि विद्या के साथ भाषा और संस्कृति का प्रसार हुआ तो उसकी भी दिषा समझ में आ सकती है। परन्तु यह काम एक बार या एक झटके में नहीं हुआ, कई चरणों में हुआ। 

‘‘मैंने भी मान लिया यार भारत देश महान्। कहो तो नमस्त सदावत्सले मातृभूमे भी गा दूँ।

‘‘तुम जिस उपहास से गाने की बात कर रहे हो, गाओगे भी तो गाली जैसा लगेगा। उसके लिए वह समर्पण भाव चाहिए जो हम तक उस राक्षसी अवस्था या आसुरी अवस्था चे प्रवाहित होती आई है - धरती माँ, सब कुछ स्वतः देने वाली माँ, नदी माँ जल स ेले कर मछली आदि प्रदान  करने वाली माँ , पर्वत पिता ओशधियों और फलों से लदा हुआ प्रदेश, देवलोक। इनको न तुम समझ सकते हो न इनका सम्मान कर सकते हो। बिना समझे बूझे लट्ठ जरूर चला सकते हो। और तुम्हारे लट्ठ को लोग न्यायसंगत भी मान लेंगे, क्योंकि जिनमें यह भाव बचा रह गया है या जो इसकी राजनीति करते हैं वे तो खासे जाहिल हैं। उूपेर से तुमने बदनाम भी कर रखा है।श्

‘लट्ठ चलाने से पहले समझने का प्रयास तो करो। और माक्र्सवाद जिन्दाबाद सिद्ध करने के लिए नहीं क्योंकि तुम उसके जैकारे के साथ उसका भी सर्वनाश करते हो। हमारे सामाजिक रचाव को तो देखो। ती का अर्थ आग है।  पर आग क मूल जल। जानते हो आग को पानी के गर्भ से उत्पन्न कहा गया है - ‘अपांगर्भः’। ‘समुद्रो अस्य योनिः’। तो ती/ति का उसी का जल अर्थ रस की तरह मीठे जल के लिए प्रयोग में आने लगा जिसे अग्रेजों ने चाय के लिए ग्रहण कर लिया और तुम्हारा टी बना। 

इसका उच्चारण दी, धी, टी आदि रूपों में होता रहा उन समुदायों में जिनकी ध्वनिमाला भिन्न थी। किसी में मूर्धन्य वर्ग की आदि ध्वनि जिसे अघोश अल्पप्राण ध्वनिं थी, तो उसका घोश अल्पप्राण रूप् नहीं था यानी त था पर थ, द, ध नदारद जैसा कि तमिल में आज भी है। हमारे प्राचीन मानवयूथा का संसार भी छोटा था उसे व्यक्त करने के लिए सीमित ध्वनियाँ पर्याप्त थी।  सबकी ध्वनिमाला बहुत सीमित थी। आज भी पूरी वर्णमाला का प्रयोग कोई नहीं करता। संस्कृत के विद्वान भी भाषा को भाखा बोलते थे। आग वाला शब्द प्रकाश, ज्ञान, बुद्धि वगैेरह का अर्थ वहन करने लगा। 

अब बस भी करोगे।

मैं जानता था तुम उूब जाओगे। मैं अपनी बात ठीक से रख भी नहीं पाता। पर जरा इस बात पर तो ध्यान दो कि बहुत पहले से जब हमारे मानव समुदायों के पास बहुत थोड़ी सी ध्वनियाँ थी, उसी समय से उनका परस्पर भिन्न भाषा बोलने वालों के साथ मेलजोल आरंभ हो गया था और एक ही शब्द लगभग एक ही अर्थ में अपनी अपनी ध्वनिसीमा में वे बोलने और समझने लगे थे। उसके कई हजार साल बाद उस वर्णमाला का विकास हुआ जिसे हम प्राचीनतम भारोपीय कह सकते हैं और फिर उसका भी बहुत बाद में भारत से यूरोप तक प्रसार हुआ। और हमें इस सचाई को उलट कर पढ़ाया जाता रहा। हम उस उलटी विद्या को जितना ही अधिक जानते हैं उतने ही बेवकूफ बनते जाते हैं। 

यह बखेड़ा लेकर क्यों बैठ गए, यार। 

इसलिए कि हम उस कारा से मुक्त हो कर सोचने लगें। किसी के ज्ञान से आतंकित न हो कर अपनी समझ पर भरोसा करना आरंभ करें तभी उस मानसिक गुलामी से मुक्त हो सकेंगे जिसे ज्ञान और सूचना के स्रोतों पर अधिकार करके वे हमें बौद्धिक रूप् में अपने उूपर निर्भर बनाते आए हैं। जितना अथक प्रयत्न उन्होंने हमारे बौद्धिक कार्यभार को स्वयं उठा कर हमें अपना मानसिक गुलाम बनाने के लिए किया है उतना ही हम अपने को उनकी बौद्धिक कारा से मुक्त होने के लिए करें तो हमारी अस्सी प्रतिशत समस्यायें सुलझ जाएँ।’’

‘‘यह तो हमेशा होता रहा है। ब्राह्मणों ने शिक्षा, ज्ञान और सूचना संग्रह का सारा कार्यभार स्वयं ले कर और दूसरों को इससे वंचित करके, पहले भी तो यही किया।’’

‘‘इसी के बल पर तो वे हमारे पूरे समाज को नियन्त्रित करते रहे। परन्तु जब भी किसी ने ठान लिया कि हम इनके किताबी ज्ञान की धौंस में नहीं आएँगे, जो हमें दिखाई देता है उस पर भरोसा करेंगे तो वह अशिक्षित रहा तो भी उसके विचारों के सामने बड़ा से बड़ा पंडित झुकने को बाध्य हुआ। कबीर, रैदास, नानक की शिक्षा क्या थी? रैदास कहते हैं वेद पढ़ने वाले ब्राह्मण भी उन्हें ‘दंडौत’ करते हैं। सिखों में वेदी उपाधि तो आज तक चलती है। परन्तु जब इनको देवता बना दिया गया, इनको लेकर किंबदन्तियाँ गढ़ी जाने लगीं उसके बाद उनके विचारों की धार कुन्द हो गई। 

‘‘लोग शिक्षित होने के उपाय करते हैं, तुम अशिक्षा का महत्व समझा रहे हो।’’

‘‘नहीं, मैं कह रहा हूँ जानते समय किसी के ज्ञान से आतंकित हो कर उसकी बात मान मत लो, जितना भी ज्ञान और समझ है उसमें ही उसकी विवेचना करते हुए पढ़ो और सुनो। यह मत सोचो कि पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाएगा तभी अपनी बात कहूँगा या किसी का प्रतिवाद करूँगा। वह दिन कभी आएगा ही नहीं। किसी का ज्ञान दो प्रतिशत या दस प्रतिशत नहीं होता। ज्ञान जितना भी है पूर्ण होता है। उसके चतुर्दिक ज्ञेय का अनन्त विस्तार है। मत सोचो कि जब सारा अन्धकार मिट जायेगा तब आँखों से काम लोगे। रोशनी अधिक तेज हो तो आँखें चैंधिया भी सकती हैं। जितना भी प्रकाश है उसमें जो कुछ दीखता है उससे काम लो और प्रकाश अधिक होता चले इसका प्रयत्न करो। तुम्हारे पास भरोसा करने के लिए सिर्फ अपना दिमाग है, खड़ा होने के लिए सिर्फ अपना ही पाँव है - दूसरों के दबावों से जितना मुक्त है उतना ही विश्वसनीय। दूसरों के दबाव या बहाव में वह भी नहीं रह जाता। वह विचारों का रेला होता है जिसमें किसी के पाँव ठिकाने नही पड़ते और किसी का दिमाग काम नहीं करता। परन्तु विरोध में नम्रतायुक्त दृढ़ता हो तो ही पता चलेगा कि होश-हवास में हो।’’ 

‘‘तुमको उपदेशक होना चाहिए। किसी चैनल पर जगह मिल जाए तो दूकानदारी खूब चलेगी।’’

12/17/2015 4:51:38 PM

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