साहित्‍यकार की भाषा

"अरे, तुम तो अपनी खोल उतार कर पूरी तरह मोदी  के साथ खड़े हो गए. मैंने फेस बुक पर तुम्हारी कबिताई पढ़ी तो दंग रह गया. कुछ दिन पहले तो तुम कह रहे थे साहित्यकार को सत्ता के निकट नहीं जनता के निकट पहुँचना चाहिए. तुम्हारा तो कायाकल्प  हो गया." 

वह बोलता रहा और मैं मुस्कराता हुआ सुनता रहा. चुप हुआ तो पूछ, "कुछ और?"

"अब इसके बाद कहने को बचा ही क्या रह जाता है?" 

"कहने को न इससे पहले तुम्हारे पास कुछ था, न अब है, न आगे  हो सकता है. तुम ट्विटर युग के तोते हो. आदमी की आदतें भूल गए हो. जानते हो आज का साहित्यकार किस से अपनी भाषा सीख रहा है?"

“तुम्हारी मानें तो तोतों से.”

"तोतों से नहीं मक्कारों से. हमारे युग की शासिका भाषा एड्वर्ल्ड की भाषा है जिसमे माल बेचने वाले ऐसी फंतासी तैयार करते हैं जिसे सुनते समय तुम जानते हो यह झूठ है.  इसकेलिए उनके लोभ का इस्तेमाल किया जाता है जिनकी कलाबाज़ी के पीछे तुम पागल रहते हो.  इसकी स्क्रिप्ट लिखने वाला जानता है कि वह झूठ लिख रहा, परन्तु वह इस बात पर गर्व करता है कि वह अपनी प्रतिभा से सच को झूठ और झूठ को सच बना सकता है.इसे सुर देने वाला गायक जनता है कि वह पैसे के लिए अपनी तड़प उस इबारत में भर रहा है जिसका एक एक शब्द मक्कारी से भरा है, इसके लिए अपनी अदा समर्पित करने वाला जानता है कि वह उनके साथ धोखा कर रहा है जो उसकी एक झलक के लिए जोखिम मोल ले लेते हैं और यह भी जनता है कि वे इस धोखाधड़ी को भांप लेंगे.कहो इनके उत्पादक, प्रायोजक, लेखक, कवि, कलाबाज सभी को यह पता होता है कि इसे बार-बार दुहरा कर अवचेतन में उतार देने के बाद इस धोखे को भाँपने वाले इस धोखाधड़ी से अपने को बचा नहीं सकेंगे. वे एक रूसी की समस्या को इस तरह उछाल सकते हैं कि उसके सामने महामारी भी तुच्छ लगे, ऐसी समस्या कि जिसके सुलझे बिना जीवन ही व्यर्थ हो जाये. भाषा का इतना कमाल कि ज़रूरत पड़ने पर यह भी समझा सकें कि रूसी को बढ़ने दो, रूसी क्रांति रूसी बढ़ने से ही हुई थी. तुम इन लफ़्फ़ाज़, लोभियों को कला  और साहित्य या साहित्यकार की चिंता से कातर समझ बैठते हो, तुम उन्हें बुद्धिजीवी मान बैठते हो जो सम्मान बटोरने की कला भी जानते हैं और सम्मान उछालने की भी कला जानते हैं और इस जुनून में सम्मान देनेवाली संस्था तक का सम्मान नष्ट कर देते हैं?  तुम नही बुद्धिमान मान लेते हो जो जानते हैं कि यह धोखाधड़ी है पर दर जाते हैं कि वे उन्हें सम्मान का लोभी न मान बैठें और  अपने विवेक को त्याग कर कहते हैं चलो भाई हमने भी फ़ेंक दिया. इसका भी जस बटोरलो."

"मैं सोचता हूँ कि..." उसने कुछ कहने की भूमिका बनाई ही थी कि मैंने उसे दबोच लिया, "सोचना कब से शुरू कर दिया तूने. यह खतरनाक काम है. पहले मानने की आदत छोडो, समझने की कोशिश करो, फिर सोचने भी लगोगे. अभी तो मेरे समझाने के बाद भी तुम तोहमत लगाने की आदत तक नही छोड़ पाये. उस तुकबंदी तक को नही समझ पाये जिसके साथ एक चित्र और इबारत भी दी गई थी."

“पर कविता तो...”

"पहले उस कविता में उठाये गए सवालों के जवाब तलाशो.  जो बात तुम्हें अज्ञात कारणों से गलत और मुझे ज्ञात कारणों से सही लगती है उसे कहने की मुझे आज़ादी  दो. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सबसे बड़ा शत्रु कौन है? जो  तर्क और प्रमाणों के आधार पर कुछ कहता है वह या वह जो अभियोगों और लांछनों की भाषा से ऎसी उत्तेजना पैदा करता है कि संवाद संभव ही न रह जाय. संवेदनहीन कौन है जो दुखद घटनाओं को लुकाठा बनाकर आग लगाने और ऐसी संस्थाओं को भस्म करने को दौड़ पड़ता है जिनके बनाने में युग लग जाते हैं या वह जो उन मर्मान्तक घटनाओं पर स्तब्ध रह जाता है?"

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