घृणा की जड़ें

“तुम्हे जिस व्यक्ति में गुण ही गुण दिखाई देते हैं, उससे बहुत सारे लोग घृणा करते हैं, यह तो तुम भी मानते हो. फिर कुछ तो ऐसी बुराइयां होगी जिनके कारण घृणा करते हैं, तुम उसकी तारीफ करते हुए उन दुर्गुणो को क्यो भूल जाते हो। उनको सामने रख कर मूल्यांकन होना चाहिए न?”

“मूल्यांकन के लिए गुण-दोष विचार तो जरूरी है ही, परन्तु यह समझ भी जरूरी है कि गुण-दोष होता क्या है।“

“मतलब?”

“मतलब गुण-दोष सभी कालों और सभी समाजों में एक ही नहीं होते, ये समाज-सापेक्ष्य होते हैं. यही स्थिति सभी सामाजिक आदर्शों और मूल्यों की है. अब यदि हम इन सबकी समीक्षा में जाएं तो विषयान्तर होगा, परन्तु यह समझो कि कुछ सभ्यताओं में रक्त की शुद्धता का इतना प्रबल आग्रह था कि रक्तदोष से बचने के लिए वे सगी बहन से विवाह को उचित मानते थे। जैसे मिस्र के राजा लोग। फिर उसके कुछ दोष प्रतिरोध क्षमता में ह्रास आदि के रूप में प्रकट हुए तो इसमें कुछ सुधार कर के दूधबराव करते हुए अपनी बहनों से विवाह को अधिक अच्छा माना जाता रहा। मुस्लिम समाज ने इसे अपनाया परन्तु इसका धर्म से कोई संबन्ध नहीं है। श्रीलंका में और दक्षिण भारत में भी यह प्रचलित था. इसके प्रभाव से दक्षिण गए ब्राह्मणों ने समायोजन करते हुए अन्य प्राचीन विधान रखते हुए इतनी रियायत की कि ममेरी बहन से विवाह को श्रेयस्कर मानने लगे. दक्षिणभारतीय शास्त्रकारों के विधान में इसे स्वीकृति मिली तो अब विरल मामलों में उत्तर भारत में भी प्रचलित हुआ। ये सभी चाहें तो दूसरों में प्रचलित पद्धति को निन्दनीय मान सकते हैं. कबीर की वह उक्ति तो तुम्हें याद होगी ‘मुसलमान के पीर औलिया मुर्गा मुर्गी खाई, खाला केरी बेटी ब्याहैं घरहि में करें सगाई’. तो यहां निजी खान पान और विवाह की रीति को ही निन्दनीय ठकराया गया है. सामाजिक तालमेल में कमी हो तो इसी को सामाजिक घृणा में बदला जा सकता और उस समाज को गर्हित सिद्ध किया जा सकता है, जिसकी सामाजिक रीतियां तुम्हारी अपनी रीतियों से भिन्न पड़ती हों।

“तो पहली बात तो यह कि घृणा के लिए किसी व्यक्ति या समाज में किसी दोष का होना जरूरी नहीं, यहाँ तक कि उसके किसी गुण या श्रेष्ठता से चिढ़ घृणा का रूप ले सकती है और इसको बढ़ने दिया जाय तो यह हत्या और रक्तपात का रूप ले सकता है।“ 

“क्या बकते हो!” 

“ऐसे किस्से तो तुमने सुने ही होंगे जिसमें एक छात्र अपने ही दोस्त की जान इसलिए ले बैठा क्योंकि वह अधिक मेधावी था या उसके रहते वह औवल नहीं आ सकता था।

मैं अपना व्यक्तिगत अनुभव सुनाता हूं । मेरा एक मित्र है जिसने दो तीन अच्छे उपन्यास लिखे हैं। वह  मुझसे घृणा करता है मेरा जिक्र आए तो चुगली शुरू कर देगा. मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि धृणा मेरी समझ से हमारी आत्मिक सड़ाध से पैदा होती है। यह एक तरह का घाव है जो हमारे भीतर रिस रहा है और इसका मवाद जुगुप्सा और भाव या निन्दागान के रूप में बह कर बाहर निकल रहा है यह हमें ही गर्हित बना देता है परन्तु मवाद के बाहर निकलने के बाद जैसे थोड़ी राहत मिलती है उसी तरह की राहत निन्दकों को मिलती है मुझे उनपर क्रोध नहीं तरस आता है परन्तु मेरे प्रयत्न से वह घाव भरेगा नहीं और विषाक्त होगा।“

“तुम कोई दृष्टान्त देने जा रहे थे और लगे सिद्धान्त बघारने.”

“इस कहानी में कई पात्र हैं और उनकी बड़ी रोचक प्रतिक्रियाएं हैं. विष्णु प्रभाकर जी  दिल्ली की हिन्दी अकादमी और साहित्य अकादमी दोनों में निर्णायक पोजीशन में थे। मैं आज तक उन पदों का नाम नहीं जानता कि उसे क्या कहा जाता है.  दो मित्र साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए प्रयत्नशील, वे प्रयत्नपूर्वक प्रभाकर जी के आजू बाजू बैठते.  एक संयत और शालीन परन्तु दूसरा मुखर ही नहीं अतिमुखर। विष्णु जी को आलोचकों में नामवर जी और कहानीकारों में राजेन्द्र यादव से गहरी शिकायत थी कि इनके कारण उनको वह स्वीकृति नहीं मिली जिसके वह अधिकारी थे। यह एक पीड़ा थी जो जब तब आह की तरह उभर आती थी.

अतिमुखर प्रतिसपर्धी इन दोनों का किसी न किसी बहाने प्रसंग लाकर उनका नाम लेकर गालियाँ दिया करता था। विष्णु जी उससे अति प्रसन्न। मैं शनीचरी विजिटर था। जिस साल उसका प्रयत्न जोरों पर था उस साल दुर्भाग्य से हड़प्पा सम्यता और वैदिक साहित्य की चर्चा थी।  अपनी अतृप्त यशलिप्सा के अतिरिक्त विष्णु जी में अनेक दुर्लभ गुण थे और मैं आवारा मसीहा के लेखक के रूप में उनका बहुत आदर करता था परन्तु उनके साहित्य अकादमियों से जुड़े होने के कारण मैं उन्हें अपनी पुस्तक उपहार स्वरूप भी नहीं देता था और उसी मेज पर बैठे हुए भी निर्णायक दूरी बनाए रखता था। रहबर जी से पता चला कि मेरी पुस्तक पुरस्कृत होने वाली थी और उसे विष्णु जी ने वीटो का प्रयोग करके रोक दिया और इसे दूसरे नम्बर की पुस्तक को दिया गया। सूचना मेरे लिए आश्चर्यजनक थी क्योंकि मुझे यह विश्वास ही न था कि वह कहीं प्रतिस्पर्धा तक में है। रहबर जी ने यह बात विष्णु जी से किसी कुढ़न के कारण तो नहीं कही इसलिए  मैंने एक मित्र के साथ एकान्त में विष्णु जी से पूछा तो उन्होंने बताया कि बात सही है। मैंने मजा लेते हुए कहा, पहले मध्येशिया के इतिहास पर राहुल जी को और संस्कृति के चार अध्याय पर दिनकर जी को तो मिला था। उन्होंने कहा, मेरे रहते ऐसा नहीं होगा। मेरे संबन्ध न पहले निकटता के थे न इसके बाद दूरी के हुए, क्योंकि पुरस्कार को मैं महत्व देता ही नहीं। आ गया तो ले भी लिया। उसके लिए किसी तरह का प्रयत्न या उसके न मिलने पर खिन्नता मुझे अपमानजनक अवश्य लगती रही।

हम सभी एक ही झुंड में बैठते थे चाहे मेजें दो तीन सटानी पड़ें। जिस व्यक्ति की बात कर रहा हूं वह पहले मेरे साथ बड़ी शिष्टता और शालीनता से पेश आता था। इसके बाद उस व्यक्ति के व्यवहार में एकाएक नाटकीय परिवर्तन हुआ. वह मुझे आते देख कर उपहास भरे स्वर में साथ बैठे मित्रों को मेरी ओर इंगित करता हँस कर कहता लो हड़प्पा से सीधे चले आ रहे हैं। उसकी ओर से उपहास का यह वाक्य मुझे विनोद वाक्य प्रतीत होता और मैं हँसता हुआ पास पहुँच कर सबसे हाथ मिलाता और बैठ जाता। कई बार के प्रयत्न के बाद जब उसे लगा कि मुझ पर उसकी कटूक्ति का कोई असर ही नहीं हो रहा है, एक दिन अकारण, मेरी ओर मुड़ कर कुछ गरूर के साथ बोला, मेरी किताबें आप के सारे लेखन से भारी ही पड़ेगी। यह स्वर भी मुझे बुरा लगा और बिना किस प्रसंग के यह तुलना भी। मैंने हँसते हुए ही उत्तर दिया, देखो इसमें तो सन्देह ही नहीं तुम्हारा लेखन भारी पड़ेगा, नीचे दब जायेगा, पलड़ा तो हमारा ही ऊपर रहेगा न।  इस बात का मलाल रहा कि क्या इस पर केवल हँस कर नहीं रहा जा सकता था। 

कुछ कहना मुझे छोटापन लगा। 

इस समस्या के एक और आसंग की ओर तुम्हारा ध्यान दिला दूँ। एक दूसरे मित्र  साथ बैठे काफी पी रहे थे. वह विष्णु जी को गालियाँ देने लगे। मैंने मना किया तो भंड़ककर और गालियाँ । कारण व्यक्तिगत  न था, वह किसी विभाग में हिन्दी निदेशक के पद पर थे और एक दो बार विष्णु जी शिकायत कर चुके थे कि अरे भाई हमें तो आपके यहां कभी बुलाया ही नहीं जाता। वह सलाहकार समितियों में उपस्थिति चाहते थे . परन्तु यहां वह कारण भी न था। पुरस्कार की प्रतिस्पर्धा में कभी रहे नहीं। विष्णु जी अपनी प्रशंसा में पिछली घटनाएँ सुनाते रहते थे, यह बात  बुरी लगती थी।  इसका विरोध आमने सामने रह कर वह नही कर पाते थे इसलिए उनकी खिन्नता उग्र रूप लेकर बाहर निकल रही थी और गालियों का रूप ले ले रही थी।

उनकी गालियों का दौर पूरा हो गया तो मैंने कहा] हम सभी लिखते पढ़ते हैं। बिरादरी कहो या परिवार यही तो है अपना। मान लो इस परिवार के बूढ़े को अपनी कामना के अनुसार महत्व न मिलने की टीस बनी रह गई हो और वह ऐसी चीजों में रस लेने लगा हो] मान लो वह हमारा पिता या दादा हो] तो क्या हम उसे गालियाँ देंगे? इस पहलू की ओर ध्यान जाने पर वही आवेग ग्लानि में बदल गया। अब जो उनका नया व्यवहार प्रभाकर जी के साथ आरंभ हुआ तो विष्णुप्रभाकर उनके इतने मुरीद कि उन्होंने अपने खर्चे से एक आयोजन करके उनका जन्मदिन मनाया। स्वयं विष्णुप्रभाकर जी ने एक सात्विक जीवन जिया था और अपने को उच्च आदर्शों के अनुसार ढालते हुए आन के साथ जिन्दगी बिताई थी इसे तो कोई इन्कार कर ही नहीं सकता।

“तुम मुझे बोर क्यों कर रहे थे।“

“इसके बिना तुम्हारे सवाल का जवाब पूरा हो नहीं सकता था। देखो तो ये सभी बहुत अच्छे लोग हैं। परफेक्ट नहीं हैं, न कोई होता है। लेखक भी अच्छे आदमी भी अच्छे. उस मुंहजोर को भी बुरा कोई न कहेगा यद्यपि उसकी इस लत के कारण कई लोगों से उसके झगड़े हुए, एक बार पिटा भी और इस विफलता के बाद उसने रचनात्मक लेखन सदा के लिए छोड़ दिया। इस परिदृश्य में आकांक्षा, प्रयत्न, विफलता, ईष्या, अहंकार, हृदय परिवर्तन के सारे नमूने मिल जायेंगे और घृणा के दुष्परिणाम भी घृणा करने वाले को ही भोगने पड़ते हैं, इसका नमूना भी।

जरूरी नहीं कि जिससे घृणा किया जाता हो, दोष उसमें ही हो। वह निर्दोष ही होता है, यह भी नहीं।

11/7/2015 5:39:44 PM

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें