अस्पृश्यता - 4

“अस्पृश्यता की सबसे अधिक पीड़ा उनको भोगनी पड़ी है, जिनके कारण यह दुनिया हमारे रहने लायक बनी रहती है।“

‘‘तुम किसके बारे में बात कर रहे हो?’’

‘‘उनके बारे में जिनको अपने नाम के साथ वाल्मीकि लगाना पड़ता है।’’

‘‘लगता है तुमसे कोई ज्यादती हो रही है।’’

वही सूनापन, वही अविश्वास और विस्मय का मिला जुला रूप जो उसकी आँखों में ऐसे मौकों पर झाँकने लगता है।

‘‘अभी नहीं समझ पाओगे। पहले यह बताओ दिल्ली से सटी एक छोटी सी जगह है दुमका।’’

‘‘फिर भागने लगे तुम। उसने जबान होठों पर फेरते हुए उनका गीलापन कम किया।’’

‘‘इसी तरह के दूसरे बहुत से नाम है, डुमरियागंज, डुमराँव, डुमरी, डोमिन गढ़ । और पीछे इतिहास में लौटो तो बुद्ध काल में डोम्भी गाम। मेरे गाँव के पास एक छोटी सी जगह है उसे डेमुसा कहते हैं। बाद में खयाल आया यह भी डुमसा ही रहा होगा। यह इसलिए याद दिला रहा था कि तुम्हें बता सकूँ कि यह एक बहूत प्रतापी गण था और बहुत दूर-दूर तक इनका प्रसार था। लेकिन आहार संग्रह और आखेट के चरण पर इन्हें किसी दूसरे जानवर का मारा हुआ शिकार किसी तरह हाथ लग गया या कोई मरा जानवर मिल गया तो उसका आहार करने में इनको न संकोच था। उसका शिकार किया या वह मरा मिल गया, फर्क क्या पड़ता है। कृषिजीवी समाज में व्याधि और रोग की चिन्ता प्रधान थी इसलिए वे ऐसा नहीं करते थे। अपने मृत पशुओं को वे उन्हें सौंप देते थे, उनके शिकार की जरूरत पूरी हो जाती थी।“

‘‘मैंने किसकी समस्या उठाई और तुमने किनकी कहानी सुनानी आरंभ कर दी।’’

‘‘मै यह याद दिला रहा था कि डोम राजा या डोमिन गढ़ जैसे पदों से ही नहीं, इनकी बिरादरी पंचायतों से भी, इनके लिए महरा और महरी के प्रयोग से भी इनके जनजातीय इतिहास की वैसी ही झलक मिलती है। परन्तु क्या कोई स्थान नाम भंगी या मेहतर या हेल्ला नाम से देखा या सुना है। कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है?’’

वह कुछ विस्मय और कुछ अनिच्छा से, आधे मन से मेरी बात सुन रहा था। देख अवश्य मेरी ही ओर रहा था।

मैंने कहा, ‘‘डोम या चमार पहले भर्त्सना में एक साथ प्रयोग में आते थे। परन्तु चमार चर्म उद्योग से जुड़ने के कारण एक व्यावसायिक नाम है और इस रूप में यह लोहार, बढ़ई, कुम्हार आदि की तरह एक पेशे का नाम या पेशे से जुड़ी जाति है। जब कि डोम पेशे का नहीं, कोलों, भीलों, संथालों की तरह एक जनजातीय संज्ञा है, जो अपनी पुरानी खानपान की रीति के कारण एक ऐसे पेशे से जुड़ी रही जिसे गर्हित माना जाता था । 

‘‘पर सफाई के पेशे के लिए हिन्दी सा संस्कृत में कोई संज्ञा नहीं मिलेगी। हाल में नया शब्द गढ़ा गया। मिलेगी केवल फारसी में मेहतर, फर्राश, झाड़ू बरदार, हेल्ला।’’ 

‘‘भंगी क्या फारसी शब्द है?’’

‘‘सुनो, पहले सुनो, मैं तुम्हारी किस गलती की बात कर रहा था।  मुहावरा है ‘मार-मार कर भंगी बना देना।‘ 

‘‘हाँ, एक और अन्तर तुम्हें मिलेगा। चमार या डोम एक जन से निकले और एक जाति बने रहे, इनकी उपजातियाँ नहीं हैं, इनके उपनाम नहीं हैं। अपनी ओर से राम, या रैदास, हरिजन जैसे उपनाम अपनाते रहे हैं।  वाल्मीकियों की दर्जन से अधिक उपजातियाँ हैं। उनमें अनेक का दावा है कि वे राजपूत हैं । वे शहरावत, रजावत, चैहान, तोमर, राजवंशी आदि उपनाम भी लगाते हैं। ये वे राजपूत हैं जिन्होंने असह्य यातनाओं को सहन करते हुए भी धर्मान्तरण स्वीकार नहीं किया, परन्तु भूख और यातना ने अन्ततः उनके मनोबल को तोड़ ही दिया और उस जघन्य काम को करने पर मजबूर कर दिया जिसकी वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे। इस अधोगति के बाद भी रहेंगे हिन्दू ही। धर्म नहीं बदलेंगे। विश्वास करने को जी नहीं करता, पर अविश्वास का कोई कारण नहीं दीखता।’’

‘‘तुम तो हर चीज को सांप्रदायिक रंग दे देते हो, और फिर भी आड़ मार्क्सवाद की लेते हो। मल निस्तारण का काम करने वालों में मुसलमान नहीं होते?’’

‘‘मैं जानता था, यह सवाल तुम जरूर पूछोगे और ठान रखा था कि तब मैं पूछूंगा, उनको अधोगति में क्या ब्राह्मणों के विधान ने पहुँचाया? पूछूंगा, मनुस्मृति में कोई ऐसा विधान है कि अमुक अपराध के दंड स्वरूप किसी को अमुक जाति में डाल दो या उससे अमुक काम कराओ।’’

‘‘मेरी ऐसी किताबें पढ़ने में कोई रुचि नहीं जो हमें दो या चार हजार साल पीछे ले जाती हैं। वे तुम्हें मुबारक हों। मैं तो यह जानता हूँ कि मलनिस्तारण करने वाले हिन्दुओं को डोम और भंगी कहा जाता था।’’

‘‘तुम ठीक कहते हो, पर ये उनके उपनाम नहीं हैं। इनका प्रयोग वे नहीं करते, दूसरे उनके लिए करते रहे हैं। मुझे लगता है, इसका इतिहास कुछ जटिल है। तुम भी इस पर विचार करना। उपनाम एक दिन में बदले या अपनाए जा सकते हैं, परन्तु उपजातियाँ  एक झटके में नहीं बनाई जा सकतीं। इस पेशे में ऐसा कोई आकर्षण नहीं है कि इसे कोई स्वेच्छा से चुनता। फिर हमारे यहां क्रीतदास से भी कोई ऐसा काम न कराया जा सकता था जो उसकी मानवीय गरिमा के विपरीत हो। इसके अतिरिक्त हमारे यहाँ हिजाब की वह धारणा नहीं थी जो इस्लाम में थी।

“असूर्यंपश्या क्या फारसी का शब्द है?”

“यह राजाओं के अन्तःपुरों की कल्पना है। सामान्य व्यवहार में ऐसा न था।“

‘‘फिर यह भी देखो कि मुस्लिम सफाई कर्मियों को मेहतर और हेल्ला कहा जाता था। हेल्ला का मतलब जानते हो न?

जानता हूँ और उस मुहावरे को भी  ‘टु हेल विद यू।’  

‘‘नरक के रास्तों की तुम्हारी जानकारी ब्राह्मणों से भी अधिक अच्छी है। पर हेल्ला से मुझे लगता है कि पहली पार इसे पारसियों ने सिकन्दर की विजय के बाद सीखा होगा और ग्रीक अपने युद्ध बन्दियों को अमानवीय स्थितियों में रख कर अमानवीय कार्यो के लिए विवश करते रहे होंगे और फिर यह शब्द और यह प्रथा उनके बीच प्रचलित हुई होगी। भारतीय समाज में नगर भी बहुत बड़े नहीं होते थे और उनके बीच भी खाली जगहें होती थी जिनमें परदे के लिए कुछ सदाबहार झाड़ियाँ लगी होती थीं । यह बच्चों और  महिलाओं के लिए संरक्षित होता था पुरुषों को पिबटने के लिए नगर या बस्ती से दूर मैदान जाना, जंगल जाना पड़ता था। निवास के ही किसी कोने में मलविसर्जन का भी प्रबन्ध हो यह उनकी शुचिता की अवधारणा के विपरीत था। 

‘‘मैं यह याद दिलाना चाहता था कि पुरुष सूक्त पढ़ते ही जिन लोगों को यह इल्हाम हो जाता है कि ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था कायम की उन्हें यह मानना चाहिए कि कोई सूक्त लिख कर कोई न वर्णव्यवस्था कायम कर सकता था, न जाति व्यवस्था। इनका अपना जनजातीय आधार और जनजातीय स्रोत रहा है और शेष काम अर्थतन्त्र ने किया है। केवल अन्तिम यातना और उत्पीड़न के सहारे मध्यकाल में अस्तित्व में आया। इससे पहले मरे हुए कुत्ते बिल्ली को हटाने तक का काम ही सबसे गर्हित माना जाता था। 

श्मशान आदि के कर्मियों और महापात्रता आदि को जो भी ब्राह्मणों के बनाए नहीं बना। ब्राह्मणों में सच्चे ब्राह्मण तो महापात्र ही हैं क्योंकि उन्हें अर्पित आहार से ले कर सुविधा के दूसरे सामान दूसरे लोक तक पहुँचते हैं, पर मृत्यु और श्मशान से जुड़े ब्राह्मण भी अस्पृश्यों जैसे ही निरादर के पात्र थे। 

“क्या इस विकृति को समाप्त नहीं किया जा सकता?”

“किया जा सकता है यदि इसका संकल्प हो।  हमारे नेतृत्व  में अदूरदर्शी  लोग हैं जो सोचते हैं कानून बना देने से काम पूरा हो गया। किसी को उसके जाति नाम से पुकारा नहीं जा सकता। परन्तु जलमल प्रबन्धन में अमानवीय कार्यो को समाप्त करने के लिए यन्त्रों और रोबोटों का प्रबन्ध तो किया जा सकता है। सफाई कर्मचारियों को वेतन अधिक दे कर उनको वर्दी और दस्ताने आदि दे कर उनकी स्थिति में सुधार तो किया जा सकता है। उनकी जीवनशैली  में बदलाव तो लाया जा सकता है। उनके बीच जागरूकता तो लाई जा सकती है।  जब तक गन्दगी के  साथ किसी का सम्बन्ध रहेगा उसके साथ क्षद्म भेदभाव बना रहेगा।  परन्तु दलित नेताओं की भी दिलचस्पी अपनी राजनीति के लिए दलितों का उपयोग करने तक सीमित है। टट्टी का अर्थ तो टाट ही होता है, मल नहीं, झाड़ा का अर्थ जंगल होता है, पाटी का अर्थ पोटरी होता है, शौच तो शद्धि है, पर जब शब्द तक अपना अर्थ बदल देते हैं तो आदमी के उससे जुड़े रहने पर दिखावा कुछ भी हो क्षद्म परहेज़ बना रहेगा।“

12/25/2015 10:29:33 AM

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