लेखक का दायित्व

“मैं कल उस व्यक्ति की या कहो उन व्यक्तियों को लेकर कयास भिड़ाता रहा जिनका नाम लिए बिना तुमने इशारे किए थे। तुम्हारी कथा का खलनायक अमुक तो नहीं?” उसने उसका नाम लेते हुए पूछा।

मैंने हँसते हुए जवाद दिया, नाम में क्या रखा है। मेरा लक्ष्य उसको आहत करना नहीं अपितु उन पहलुओं को रखना था, जिनसे घृणा की मनोव्याधि को समझा जा सके। परन्तु जिसे तुम खलनायक कह रहे हो, वह खलनायक नहीं एक मनोरोगी है। रोगी से सहानुभूति जताई जा सकती है उसकी व्यथा को बढ़ाया नहीं जा सकता। अपने को अपनी हैसियत से बड़ा दिखाने और बनने की आतुरता के कारण उसके व्यवहार में एक विकृति आ गई और इसके कारण उसका कई लोगों से झगड़ा हुआ, लोगों ने काफी हाउस की उस साप्ताहिक मिलन गोष्ठी से किनारा कसना शुरू कर दिया और अन्ततः आना बन्द कर दिया और फिर तो उसे भी आना बन्द करना ही था। बड़ा लेखक बनने और अपना सारा समय लेखन में लगाने के लिए उसने एक अच्छे खासे पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली थी और हस्र यह कि इस कुंठा में उसने आगे लिखना भी छोड़ दिया। यदि उस शनिवारी गोष्ठी को एक संस्था मानो तो एक व्यक्ति की अनपेक्षित महत्वाकांक्षा ने उस संस्था को नष्ट कर दिया। साथ ही उस पारिवारिकता को भी क्षति पहुँचाई जो लेखकों के बीच बनी हुई थी। इसलिए जब मैं कह रहा था कि अपनी यशलिप्सा की भूख में ये उस संस्था को ही नष्ट करने पर उतारू हैं तो मेरी नजर में वह गोष्ठी भी थी। मुझे लगता था कि वे ऐसा बिना सोचे समझे कर रहे हैं, पर कुछ विलम्ब से समझ में आया कि उनके पीछे दूसरी शक्तियाँ हैं और ये उनके इशारे पर काम कर रहे हैं तो क्षोभ भी हुआ। इनमें कोई ऐसा नहीं है जो सोच समझ कर देश में अराजकता फैलाना चाहे । चाह ही नहीं सकते, परन्तु जो कर रहे हैं वह सफल हो तो अराजकता ही फैलेगी। इसका भी बोध नहीं है। बौद्धिक स्तर यह है कि अपनी करनी के परिणामों तक का पता नहीं और लालसा यह कि सभी उनके बताए मार्ग पर चलें । इसकी विफलता से इनको जितनी ग्लानि होगी उसकी भी वे कल्पना नहीं कर सकते। यह होगी मोदी की उपेक्षा और चुप्पी के कारण और लम्बी कवायद के बाद इनकी थकान के कारण। इसीलिए ये मोदी की चुप्पी से डरते हैं, उसी को बार बार तोड़ने की चुनौती देते हैं।“

“देखो चुप्पी-उप्पी की बात न करो। कह तो वे भी सकते हैं कि हमारे सवालों का जवाब मोदी के पास नहीं है इसलिए उनकी बोलती बन्द है।“

“वे हौवा खड़ा कर सकते हैं, परन्तु कह नहीं सकते। अभी दो दिन पहले ही तो तुमने माना था कि उन्होंने कहा कुछ नहीं, आन्दोलन खड़ा कर दिया, आन्दोलन को उचित ठहराने के लिए जो मांगें रखीं वे भी पूरी हो गईं तो आन्दोलन का विस्तार कर दिया, परन्तु नई माँग क्या है यह बताया नहीं । क्या तुम नहीं मानते कि शोर मचा कर भी कुछ कहा नहीं जा सकता है, चुप रह कर भी बहुत कुछ कहा जा सकता है। 

“तुम हाहाकार मचाते हो तो सौ डेढ़ सौ की ही भीड़ जुटा पाते हो, डंका बजाते हो कि अब हमारी संख्या इतनी हो गई। यह तक नहीं सोचते कि सवा अरब की जनसंख्या वाले देश में, इतनी प्रचंड समस्या पर, कितने कम लोग तुम्हारे साथ हैं। आम लोग साथ होते तो यह संख्या इतनी नगण्य न होती। तुम सैकड़ों से सन्तुष्ट हो, जब कि इसे कई करोड़ तक जाना चाहिए था। कांग्रेस को जिस बेरहमी से जनता ने नकारा था, क्या उसने तुम्हें उससे भी अधिक निष्ठुरता से हाशिए पर डाल दिया, क्योंकि तुम कभी उसके हुए ही नहीं। उसके लिए कुछ लिखा ही नहीं। तुम अपने लिए (आत्माभिव्यक्ति के नाम पर), गैरजिम्मेदारी से (लेखकीय स्वतन्त्रता के नाम पर)  लिखते रहे और अपने मुखौटों की परिधि तक सिमटे रह गए। कुछ हजार या लाख के बीच। करोड़ तक भी नहीं पहुंच पाए।  लिखा समाज को यह बताते हुए कि यह आपका, आपके लिए, आपके हिरावल दस्ते द्वारा लिखा साहित्य है और लिखते रहे अन्तर्राष्ट्रीय बाजार की अपेक्षाओं को ध्यान में रख कर विष्वविख्यात होने की ललक में अपनी ही साहित्य परंपरा, समाज और मूल्य दृष्टि से मुँह फेर कर। तुम्हें तो यह भी पता नहीं कि हमारा समाज क्या है, तुम्हारा अपना काम क्या है।“

“यदि पता नही, तो तुम्हीं बतादो।“

“लेखक का काम लिखना है। उसका हथियार कलम है, भाषा है। उसे जो करना है अपने हथियार से करना है। उसका काम है अपने कार्यक्षेत्र की सीमारेखा को पहचानना। लेखक का काम है चालू राजनीति से अगल रहना। अपनी स्वायत्तता और सम्मान की रक्षा करना। परन्तु सबसे जरूरी काम है अपने समाज को समझना और उसका विश्वास अर्जित करना।“  

“लेखक राजनीति से दूर रहे, राजनीतिक समस्याओं से दूर रहे, छात्र राजनीति से दूर रहे, वह धर्मग्रन्थ पढ़े, यह कहना चाहते हो। पता है इसके बाद लेखक क्या बन जाएगा?”

“क्या बन जाएगा?”

अजागलस्तन, बकरी के गले की चूँची। और तुम राजनीति से दूर रहने की बात कैसे कर सकते हो। हर तीसरे वाक्य पर तो तुम्हें मोदी दिखाई देने लगता है?“ 

तुम्हारे दिमाग में भूसा भरा है इसलिए कोई बात समझ ही नहीं पाते। राजनीतिक औजार और राजनीतिक समझ में अन्तर होता है। राजनीति पढ़ना, उसकी व्याख्या करना, अपने विवेचन में किसी को सही या गलत ठहराना, राजनीति नहीं बौद्धिक दायित्व है। और मोदी मेरे लिए एक पृष्ठभूमि है जिसमें ही आज की समस्याओं पर अपने समाज से अपने विचार बाँट सकता हूँ। यह नाम तो आगे भी आता रहेगा। हां वह जो धर्मशास्त्र पढने पढाने की बात कर रहे थे, उससे भी डरने की जरूरत नहीं। हमारे जैसे देश में तो धर्मशास्त्र एक विषय भी हो सकता है जिसमें सभी धर्मों-ग्रन्थों से परिचित कराया जा सके। धर्मग्रन्थ पढ़ने से धार्मिकता बढ़े यह जरूरी नहीं पर कट्टरता अवश्य कम हो सकती है। कट्टर लोग अपना धर्मग्रन्थ तक नहीं जानते, अपने साहित्य तक से परिचित नहीं होते। मैं यह काम किसी जुलूस में शामिल हो कर नहीं कर रहा हूँ, कलम से ही कर रहा हूँ।

“जैसे मैं अकेला मार्क्सवादी हूँ और दूसरों को भाववादी या अवसरवादी कम्युनिस्ट मानता हूँ, उसी तरह मैं अकेला ऐसा लेखक हूँ जो अपने समाज को समझना, उस तक पहुँचना चाहता है और पहुँचने के रास्ते निकालने के प्रयत्न में है, दूसरे सभी समाज से कटे और पश्चिमी समाज को अपने समाज पर आरोपित करके उसकी झिल्ली से समाज को देखना और समझना चाहते हैं इसलिए जो अपने को यथार्थवादी लेखक मानते हैं उन्हें भी भाववादी कलाबाज मानता हूँ।“

“मैं समझा नहीं अपने समाज को समझने से तुम्हारा मतलब क्या है?”

अपने समाज को समझने का पहला कदम है यह समझना कि समाज के अशिक्षित लोगों के पास भी अपना दिमाग होता है और वे उसी के काम लेते हैं। उनको बेवकूफ समझना और अपने को इतना चालाक समझना कि यहाँ-वहाँ की तमाम बातों का घालमेल करके उनके दिमाग में उतारा जा सकता है, परले दर्जे की मूर्खता है। समाज मिलावट से परहेज करता है।“ 

“चलो, और दूसरा?”

दूसरा यह कि हमारा समाज अपने देश में रहता है जिसकी अपनी कलादृष्टि, अपनी कला परंपरा, अपना इतिहास, अपना पुराण रहा है  और वह जैसे अपनी जमीन से जुड़ा होता है वैसे ही इनसे भी जुड़ा होता है। इनको समझे बिना उसकी मनोरचना तक को नहीं समझा जा सकता जिस तक अपनी बात पहुँचानी है।“ 

“और कुछ?”

“बौद्धिक का काम है अपनी भूमिका को पहचानना।“

“भूमिका मतलब?”

“बौद्धिक की दो भूमिकाएँ हैं। एक रम्य और बोधगम्य शैली में समाजशिक्षा जिसे कान्तासम्मित उपदेश कहा गया है और दूसरा जो भी उसी से जुड़ा है, चिकित्सक की भूमिका। इन दोनों के माध्यम से ही वह लोकमंगल कर सकता है।“ 

“यदि समाज में असहिष्णुता का विस्तार हुआ है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार ने अपना काम नहीं किया। इसका अर्थ है, साहित्यकारों और कलाकारों ने  लम्बे समय से अपना काम किया ही नहीं। यह जो तुम शोर मचाते हो कि अमुक की हत्या हो गई अमुक को धमकी दी गई अमुक के आयोजन में विघ्न डाला गया, उसके लिए तुम जिम्मेदार हो। सरकार नहीं।  तुम खुद अपने निकम्मेपन को सरकारों पर डाल रहे हो और वह भी उस सरकार पर जो वहाँ है ही नहीं । ये जितनी हत्याये हुई हैं उनके लिए हम सभी जिम्मेदार हैं क्योंकि हम यह तक नहीं जानते कि अपने समाज से बात किस भाषा में और किस शैली में किन मर्यादाओं में रह कर की जाती है जिससे उसका ज्ञान बढ़े, वह सीखे, उत्तेजित न हो। उत्तेजना तुम फैलाओ और असहिष्णुता के विस्तार की जिम्मेदारी सरकार पर डाल दो यह ठीक नहीं। सरकार का काम अघटनीय के घटित हो जाने के बाद आता है और यदि वह उसमें शिथिल दीखे तभी उसको उसके लिए जिम्मेदार माना जा सकता है।

11/8/2015 11:51:39 AM

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