बौद्धिक परजीवी

"हाँ अब अपने ‘परन्तु’ की कड़ी आगे बढ़ा सकते हो."  मैंने बेंच पर बैठते हुए स्वयं उसे उकसाया.

"आज भी जल्दी में हो क्या? आराम से बैठो तो सही."  फिर कुछ सकुचाते हुए बोला, "कड़ी बढ़ाने जैसी कोई बात नहीं है. मुझे तुम्हारी बातों से लग रहा था कि साहित्यकारों के बारे में तुम्हारी राय अच्छी नहीं है."

"तुम्हे यदि ऐसा लग रहा था तो गलत नहीं था."

"तब तो तुम्हारी राय अपने बारे में भी अच्छी नही होगी." उसने मुझे घेरना चाहा.

"अपने बारे में ही नही, भारतीय बुद्धिजीवियों के बारे में ही मेरी राय खराब है. हम बौद्धिक परजीवी हैं. पश्चिमी प्रचारतंत्र का हिस्सा, और मज़े की बात यह कि हम इसे जानते तक नही."

"तुम चौंकाने के लिए ऎसी बात कर रहे हो या सचमुच गंभीर हो?"

मैं अपनी ही रौ में बोलता रहा, "हम अपने ज़मीनी पड़ताल के लिए आज भी उनके तथ्यसंग्रह और शोधकार्यों पर निर्भर हैं पुराना लिखा भण्डार तो नब्बे प्रतिशत उनका ही है. जो बुनियादी काम करेगा वह बड़ी मासूमियत से अपने इरादों के अनुसार तुम्हारा इस्तेमाल कर लेगा. तुम समझोगे ज्ञान बटोर रहे हो और वह तुम्हारी पीठ थपथपा रहा है. हमारे बुद्धिजीवी सोचते नहीं हैं सोचे हुए का मंचन करते हैं. हम बौद्धिक नहीं हैं बौद्धिक की भूमिका करने वाले ऐसे पात्र हैं जो वैचारिकता का भ्रम पैदा कर लेते हैं. हम न तो अपनी समस्याओं को समझ पाते हैं न ही उनके समाधान की योग्यता रखते हैं. हमारी सारी शक्ति अपने को दूसरों से आगे रखने मैं चली जाती है."

“अब देखो साहित्य के नाम पर इतना लिखा जा रहा है और हमारे पास अपना साहित्य है ही नहीं."

"यह तुम्हारा नया मायावाद है. जो है वह होकर भी नहीं है और जो परम सत्य है वह पकड़ आ ही नहीं सकता."

" जिसे हम अपना साहित्य कहते हैं वह हमारी भाषा में उनका साहित्य है. उनका साहित्य भी नहीं, उनका साहित्यलिखने की कोशिश मात्र है जो न हमारे लोगों के काम का है न उनके. हाँ यदि उसमे इस बात का चित्रण है कि हम कितने गर्हित हैं तो इस पर वे तालियां बजाना नहीं भूलते. इसे हमारे लेखक दाद समझ लेते हैं और अपना जीवन सार्थक मान लेते हैं. हमने औपनिवेशिक मानसिकता के कारण अग्रणी देशों जैसा बनने की कोशिश में उनकी नक़ल की. उनसे सीखा नहीं. नक़ल की. और यह नक़ल माइकेल मधुसूदन दत्त से ही आरम्भ हो गया था. उनके जैसा बनने, उनके जैसे छंद और कलविधान में लिखते हुए उनके बराबर आने की छटपटाहट. छटपटाहट से आरम्भ और छटपटाहट में अंत.. अपने अंतिम दिनों में मधुसूदन दत्त को तो अपनी चूक समझ में आगई पर बंकिम बाबू और रबिन्द्र नाथ के माध्यम से वह पुरे हिंदुस्तान में छा गई.”

“"शरतच्चन्द्र  के बारे में तुम्हारा क्या ख़याल है?" 

"शरत और देवकीनन्दन खत्री और प्रेमचंद में हमारी पुरानी किस्सागोई और पाश्चात्य कथशिल्प का अपने अपने ढंग का मिश्रण है. द्विवेदी जी ने भी कोशिश की. ऐसे प्रयोग इधर हाल में असगर वज़ाहत ने किये हैं. कविता में उर्दू वालों ने इसे बचाया लेकिन उसका सबसे आधुनिक शायर ईरानियों जैसा होने की कोशिश में लग गया और भाषा की सामत आगई वह अपने ही जनसमाज से दूर जाने लगी. हमारे लेखकों ने पश्चिम का जो भी चर्चित लेखक हुआ उसकी रचनाओं को पढ़कर, उसकी संवेदनाओं को आत्मसात करते हुए वैसा लिखने को अपनी उपलब्धि मान ली. वे लेखक अपने समाज के मिजाज के अनुसार अपनी संवेदना और शिल्प को पैना करते रहे और हम अपनी भाषा में उनके जैसा लिख कर किसी विदेशी भाषा में अनूदित होने को अपने ही समाज में पहुँच बनाने से अधिक महत्व देने लगे."

"तुम किसी भी बात को इतना फैला देते हो कि लगता है क्लास ले रहे हो."

"मैं उस व्याधि को समझा रहा था जिसके चलते लिखा बहुत कुछ जा रहा है पर समाज तक नहीं पहुँच रहा है और लेखक पुरस्कारों को पाने और खोने को, अनूदित होने और न होने को लेखकीय सफलता की कसौटी मानने लगे हैं.  हमें अपने पुराने कलारूपों में आज की चुनौतियों के अनुसार कुछ निखार लाना था और इस दिशा में प्रयोग करते हुए एक नया सौंदर्यशास्त्र  विकसित  करना था, वह नही किया. राजनीति करने लगे. राजनीतिक घटियापन को साहित्यिक चुनौतियों से अधिक प्राथमिकता देने लगे."

"तुम्हारा  मतलब है, यह जो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए लेखकों का आक्रोश है वह घटियापन है?"

"तुम अभी वहीँ पर खड़े रहा गए हो जहां कल थे."

"खड़ा मैं नहीं हूँ. मैं डटा हुआ हूँ.  खड़े हो रहे हो तुम फासिस्टों के साथ."

"तुम मूर्ख नही जड़ हो. तुमसे बात करने का लाभ? तुम्हे यह तक नहीं दिखाई देता  ये साहित्य के बल पर नहीं गठजोड़ के बल पर राजनीतिज्ञों की कृपा पर पलने वाले लोग हैं जिनमें इतनी भी समझ नहीं कि यदि राजनीति ही करनी है तो सीधे राजनीति में उतारो. अपने को इस देश का प्रथम घराना मानने वाले कहते हैं कि सत्ता उनके हाथ में नही रहेगी तो संसद नहीं चलने देंगे. विकास नहीं होने देंगे. उनकी कृपा पर पलने वाले पुरस्कार विजेता कहते हैं सत्ता हमारे कृपालुओं के हाथ में नहीं रहेगी तो साहित्य और कला की संस्थाओं को नष्ट कर देंगे. तर्क नही है. इसे अराजकता कहते हैं विरोध नहीं."

मैं क्षोभ में उठ खड़ा हुआ. वह, ‘रुको रुको. अभी तो बात पूरी हुई ही नहीं’, कहता रहा पर मैंने उसकी ओर ध्यान ही न दिया.  

10/14/2015 9:57:14 AM

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