जगद्गुरु भारत

"तो तुम्हारा कहना है, दुनिया में जो कुछ अच्छा है वह सब भारत से गया हुआ है? भारत जगद्गुरु है?"

"मैं यह कहता हूँ की सभ्यता का चरित्र वैश्विक है, इसलिए भारत में जो कुछ है वह पूरी मानवता का है. और यह कहना चाहता हूँ  कि इसे जितनी स्पष्टता से भारत ने समझा था, उतनी स्पष्टता से पूरे इतिहास में कभी किसी दूसरे ने नहीं समझा. आजतक.

"तुम तो पेंग भरते रहते हो. उछलते तो 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा’ गाने लगते हो और पीछे लौटते  हो तो 'न हमने कुछ कहा न हमने कुछ किया का राग’.  पर अगले ही क्षण पेंग आगे और जैकारा शुरू."  

“गाने तुम गा रहे हो. जो समझते नही वे गाने गाते हैं. वह "सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्ताँ "  हो, या " मो सम कौन कुटिल खल कामी हो.' मैं तुम्हे सिर्फ इतना बता रहा हूँ की दूसरी सभ्यताओं के सपूतों ने अपने इतिहास को नकार दिया. उसका सत्यानाश कर दिया और हमारे ऊपर कटाक्ष करते रहे कि हमारे पास न इतिहास है, न इतिहास बोध, जब कि हम अकेले हैं जिन्होंने अपने इतिहास को बचाया और..."

"तुम कहो, हमने इतिहास को पूजा और उससे बाहर निकल ही नही सके, न ही निकलना चाहते है."

"तुममे सुनने का धीरज तो होना चाहिए. हम अकेले हैं जिन्होंने इतिहास की गति और गतिकी को समझा और उसे सूत्रबद्ध किया. तुमने वह नीति वाक्य सुना है, 'चक्रार पंक्तिरिव गच्छति भाग्य पंक्तिः'  जानते हो यह कितना पुराना है? नहीं जानते. यह ऋग्वेद से लिया हुआ है."

"ऋग्वेद से?" उसे चौंकना ही था. 

"हाँ, ऋग्वेद की इबारत अधिक स्पष्ट है, "ओ हि वर्तन्ते रथ्येव चक्रा अन्यम् अन्यम् उपगच्छन्ति राय: ' अरे ये धन-वैभव तो आज एक के पास है कल दूसरे के पास चला जाएगा. कहीं टिकता नहीं. पहिये के अरों की तरह घूमता रहता है. कभी एक अरा ऊपर आता है तो कभी दूसरा.’ पश्चिम ज्ञान और विज्ञान में सबसे अग्रणी होने का दावा करता है पर अहंकारवश इस सूत्र को जानते हुए भी समझने और मानने को तैयार नहीं होता. अपने या गोरी जाति के शाश्वत-वर्चस्व-सिंड्रोम से बहार निकल ही नही पाता."

मैं सोच रहा था वह बीच में टोकेगा, परन्तु वह पहली बार ध्यान से सुन रहा था. 

"जो इतिहास को जानता है, वह इतिहास से बंधता नहीं है. इसीलिए यह हज़ारों साल पहले से युगधर्म की बात करता आया है. जो कभी चलन में था, दूसरे युग या भिन्न देश में वर्ज्य हो सकता है. जो वर्ज्य था वह व्यवहार्य हो सकता है. परन्तु विश्व-गुरु-सिंड्रोम से यह भी ग्रस्त रहा है यह भी मानना होगा, क्योंकि सबसे पुराने विश्वविद्यालय यहीं थे, और उनमें पढने के लिए दूर-दूर से लोग खतरे उठाकर आया करते थे. "

"जब तुम इतिहास को बचाने की बात कर रहे थे तब मैं सोच रहा था कि तुम्हें चीन क्यों भूल गया."

"देखो, चीन पुराना देश है. उसकी संस्थाओं और उपलब्धियों को उस निषेधवादी विचार से नहीं गुजरना पड़ा जिस में धर्मोदय के साथ अपने ही इतिहास और अपने ही पुरखों को नकार ही नही दिया जाता है, उन्हें गर्हित, अंधकारपूर्ण ही नही बताया जाता है, अपितु उन्हें नारकीय यातना का पात्र तक मान लिया जाता है. उन्हें शैतान की गिरफ्त में मान लिया जाता है. और वह भी बुद्ध धर्म क़े संपर्क में आने क़े बाद भी.

“बुद्ध धर्म तो किसी को शैतान कहता नही." 

मैं मुस्कराता हुआ कुछ देर तक उसकी हैरानी का मज़ा लेता रहा. जब उसे खीझ होने लगी तो कहा, "देखो अभी तक तो तुम इस बात से घबराये हुए थे. मैं प्राचीन जगत के एक दौर की उपलब्धियों का ही श्रेय भारत को दे रहा हूँ तो तुम मानने को तैयार नही. परन्तु अब जब मैं कहने जा रहा हूँ कि दुनिया की अनेक बुराइयों की जड़ भी यहाँ तलाशी जा सकती है तो तुम झटपट मान लोगे, क्योंकि यही वह चीज़ है जिसे लोग बिना जाँचे परखे मान लेते हैं."

"तुम यह क्यों सोचते हो की मैं क्या मानूँगा, क्या नहीं. मैंने तो सिर्फ इतना कहा कि बौद्धमत में"

"मत, मत कहो. धर्म कहो. पहली बार एक व्यापक और आज की शब्दावली में कहें तो सेक्युलर और वैज्ञानिक शब्द को बुद्ध ने संकीर्ण अर्थ में लेते हुए अपने मत को धर्म की संज्ञा दी."

"चलो वही सही. पर मेरा प्रश्न.."

"आता हूँ उस पर. तुम यह तो मानोगे कि बौद्ध धर्म दुनिया का पहला मिशनरी धर्म है."

वह आश्चर्य से मुझे देखने लगा तो, मैंने अपनी भूल सुधारी. मुझसे चूक हुई, पहला नहीं. मिशनरी धर्म जिसे तब धर्म नहीं, व्रत कहते थे और जो अपने आदर्श मूल्यों और मानों के प्रसार को समर्पित था, ऋग्वेद क़े समय में ही अस्तित्व में आ गया था. आखिर 'सूर्यम दिवि रोहयन्त: सुदानव आर्या व्रता विसृजन्तः अधिक्षमि' और 'कृणवामो विश्वमार्यम' क़े पीछे तो मिशनरी भावना ही है.

“और मिशनरी धर्मों का एक अनिवार्य लक्षण है अपनी धर्मसीमा से बाहर क़े लोगों क़े प्रति घृणा पैदा करके दूसरों को अपने धर्म में दीक्षित होने को बाध्य करना."

"ऋग्वेद में भी है यह?"

"क्यों नहीं है. अनीन्द्र (इंद्रा को न माननेवाले), अदेवयूं (देवों को न मानने वाले), अन्यव्रत और अनार्य (आर्य जीवनपद्धति न अपनाने वाले) लोगों क़े प्रति घृणा तो ऋग्वेद में भी है. पूरे भारोपीय क्षेत्र में उससे पहले का कोई धर्म, विश्वास बचा दिखाई देता है."

वह भौचक. संभलने में कुछ समय लगा, "परन्तु, बौद्धधर्म तो अहिंसा का प्रचारक है."

"अहिंसक भी हिंसकों से घृणा कर सकते हैं न? जितनी अहिंसा को उचित मानते हैं उससे आगे बढ़ी अहिंसा से घृणा कर सकते हैं न. जिनमे हिंसा पूर्णतः वर्जित नहीं है उनका कुत्सित चित्रण कर सकते हैं न?"

"लगा उसे मेरी बात समझ में नही आ रही है. मैंने कहा, "यदि तुम देखो कि बुद्ध महावीर की कितनी निंदा करते हैं और महावीर बुद्ध को कितनी खोटी खरी सुनाते हैं तो दांतों टेल उंगली दबा लोगे. और यह जो बौद्ध साहित्या में मिलता है की यज्ञ में अनगिनत गायों की बलि दी जाती थी, वह बौद्धधर्म के कारण बंद हुआ, या बौद्ध मत में दीक्षित होने से पहले अशोक चांडाशोक था और अपने आठ भाइयों का वध कर दिया था और कलिंग युद्ध में लाखों  का संहार हुआ था, या अंगुलिमाल नामक डाकू का हृदय परिवर्तन हुआ था इन्हे ज़रा सोचते समझते हुए पढ़ना चाहिए. कम-से-कम इतनी समझ तो होनी ही चहिये कटी उँगलियों की सड़ांध उसे पसंद न रही होगी. मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि अपने को स्वीकार्य बंनाने कि लिए मिशनरी धर्म दूसरे धर्मों, और अपने उदय से पहले के विचारों और लोगों की निंदा करने के लिए उनमें बुराइयों का आरोपण करते और प्रचलित बुराइयों की अतिरंजना करते है."

"लेकिन सनातन धर्म में तो किसी को अपनाने की प्रवृत्ति ही नहीं रही है. वे तो अपने सीमित दायरे से बाहर के भूभागों को भी अशुद्ध मानते रहे है."

"तब तक, जब तक उसे जीतकर, या उसके शासक को मनाकर, उसमें वर्णव्यवस्था लागू न कर दी जाय."

"परन्तु भारत से बाहर तो वर्णव्यवस्था पाई नहीं जाती."

"पाई नहीं जाती, क्योंकि प्रभाव क्षीण पड़ने के बाद वह मंद पड़ते-पड़ते लुप्त हो गई, परन्तु वर्णव्यवस्था का प्रसार भी किया गया था और ईरानियों, गालों, रोमनों आदि में लम्बे समय तक बनी रही. दस्तूर भी तो आखिर ब्राह्मण ही हैं न."

उसे विश्वास नहीं हो रहा था तो मुझे मेधातिथि की टीका का एक अंश दुहराना पड़ा, "यदि कश्चिद् क्षत्रियादि जातीयो राजा साध्वाचरणो म्लेच्छान पराजयेत् चातुर्वर्ण्यं वासयेत्, म्लेच्छान च आर्यावर्त इव व्यवस्थापयेत् सो अपि स्यात् यज्निया:, यतो भूमि: न स्यात् दुष्टा संसर्गात् हि दुष्यति. (यदि कोई क्षत्रिय या किसी अन्य जाति का सदाचारी म्लेच्छों को पराजित करके वर्णव्यवस्था स्थापित करे तो वह क्षेत्र भी यज्ञ के उपयुक्त हो जाएगा, क्योंकि धरती स्वयं दूषित नहीं होती संसर्ग से दूषित होती है).

उसे सब कुछ नया नया सा लग रहा था. मैंने आगे जोड़ा, "तो यह जो मिशनरी धर्म की बीमारी है, जिसे सेमेटिक कह कर एक दरबे में दाल दिया जाता है, उसकी जड़ भी भारत ही है. यह वहां दो खेपों में पहुंची. पहला खेप वैदिक, दूसरा खेप बौद्ध.

और दूसरी बुराई जुआ और सट्टेबाज़ी. यहीं से निर्यात हुई

और तीसरी रेस-कोर्स. हाँ इसमें इतना और जोड़ दो कि रेस में पहले रासभ ही जोए जाते थे. आखिर रास, रासभ, रेस, रैश में ध्वनि साम्य तो है ही.

2015-10-22

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