इतिहास पुरुष की वापसी

‘‘तुम्हारे इतिहास पुरुष की तो वापसी की गिनती शुरू हो गई। मैं तो उस दिन को सोच कर डर जाता हूँ, जब इतिहास उसे हा शिए पर डाल देगा और उसके साथ तुम भी हा शिए पर चले जाओगे।’’ वह खासे उत्साह में था। 

‘‘तुम्हारी महिमा में कुछ विरुदावलियाँ बहुत पुराने जमाने से लिखी जाती रही हैं, कभी पढ़ा है तुमने?’’

वह उत्सुकता से मेरी ओर देखने लगा।

‘‘वैसे विरुदावली तो मेरी भी लिखी गई है, पर मैं उसका पाठ स्वयं कर लेता हूँ, दूसरे किसी को इतने छोटे काम के लिए कष्ट क्या देना!’’ 

‘‘बताओगे भी क्या लिखा है या पहेलियाँ ही बुझाते रहोगे।’’ 

‘‘तुम्हारी महिमा का गान तो अनन्त है, पर दो ही पर्याप्त होंगे। एक हिन्दी में दूसरी देवभाषा में। हिन्दी में है, ‘मूरख हृदय न चेत जो गुरु मिलहिं विरंचि सम।’ गरज कि मैं कितना भी समझाउूँ कोई बात तुम्हारे भेजे में घुस ही नहीं सकती, और संस्कृत में  है, ‘तावदेव शोभते मूर्खः यावत् किंचिन्नभाषते।’ अर्थात् जब तक तुम मेरी बात चुपचाप सुनते रहते हो तब तक भरम बना रहता है और मुँह खोलते ही असलियत जाहिर हो जाती है।’’

मेरी बात सुनते हुए वह मुस्कराता रहा, ‘‘और तुम्हारी महिमा में क्या लिखा है?’’

‘‘‘वक्तुरेव हि तज्जाढ्यं यत्र श्रोता न बुझ्यते।’ कि अगर मेरी बात तुम्हारी समझ में नहीं आती है, तो यह मेरी जड़ता है।’’

‘‘चलो हिसाब बराबर!’’

‘‘बराबर कैसे होगा। मैं समझाता हूँ तुम समझ जाते हो, फिर अगले दिन सारे किए कराए पर पानी फिर जाता है। फिर वहीं से शुरू करते हो, इसे कम्बलबुद्धि मूर्ख कहा जाता है।“

‘‘मुझे यह सोच कर मजा आ रहा है कि तुम असलियत भाँप कर अभी से सदमे में आ गए हो। अन्तिम चोट तो तुम सँभाल ही नहीं पाओग। मुझे उसकी नहीं, तुम्हारी फिक्र हो रही है!’’  सच। उसने चिन्ता जताते हुए चिन्तित होने का अभिनय भी करना चाहा।

मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो उसने आगे जोड़ा, ‘एक आदमी एक चुनाव जीत गया तो तुमने उसे इतिहास पुरुष बना दिया। तो बिहार के चुनाव ने यह दिखा दिया कि इतिहास तुम्हें ठुकरा चुका है। अब देखो तो तुम्हारा इतिहास पुरुष न विकास कर पा रहा है, न महँगाई रोक पा रहा है, न विदेशों में जमा पैसे वापस ला पा रहा है, न अपने साथियों और सहयोगियों की नकेल कस पा रहा है। जिसे एक छोटी सी सफलता पर तुमने इतिहास पुरुष बना दिया था और कहने लगे थे उसे जो वह चाहे करने दो उसे इतिहास ने धक्के देना शुरू कर दिया न। कमाल की समझ है। इसी पापुलिज्म से फासिज्म पैदा होता है, भाई। इसी पापुलिज्म से हिटलर और उसका राष्ट्रवाद पैदा हुआ था, नाजीवाद। हम इसे आने नहीं दे सकते। हम अपनी जान देकर भी इसे रोकेंगे।’’

मैं तो सचमुच घबरा गया। जान दे बैठा तो बात किससे करूँगा। समझाया, देखो, तुम्हें जान देने की जरूरत नहीं है। सिर्फ अक्ल से काम लेने से काम चल जाएगा। पहली बात तो यह समझो कि जब मैं इतिहास पुरुष कहता हूँ तो इसका मतलब यह नहीं कि वह इतिहास बदल सकता है। कालदेव के सामने तो मैं पहले ही बता चुका हूँ कि एक व्यक्ति तो क्या पूरे पूरे आन्दोलन और दल तक एक तुच्छ खिलौने से अधिक कुछ नहीं। मेरा मतलब सिर्फ यह था कि वह इतिहास के एक खास बिन्दु पर पैदा प्रशासनिक शून्य को भरने के लिए कालदेव द्वारा सबसे उपयुक्त व्यक्ति  उसे ही पाया गया था। चुनाव से एक साल पहले ही यह घाषित हो गया था कि हमारे मनमोहन सिंह उस कागज के टुकड़े से भी गए बीते हैं जिसे राहुल ने सार्वजनिक रूप से फाड़ कर फेंक दिया था। जो बात राहुल और उसकी अभिभाविका को पता नहीं थी, वह यह कि आर्थिक अपराधों में सीधी और खुलेआम संलिप्तता के कारण इतिहास ने उन्हें भी फाड़ कर फेंक दिया है। उसके बाद ही जनमत संग्रहों में इस शून्य को भरने वाले व्यक्ति के रूप में मोदी का चुनाव हो गया था। यह कालदेव का चुनाव था। जनता के सहज मन की अभिव्यक्ति जिस पर चुनावी प्रचार की कीचड़ और कालिख का निशान न था। इसके बाद चुनाव एक औपचारिकता थी। यदि मोदी कुछ नहीं करते एक वाक्य का भाषण देते कि आप यदि चाहते हैं कि मैं इस देश का नेतृत्व करूँ तो केवल मुझे नहीं, जिसे जिसे मैं कहूँ उसे भी चुन कर भेजिए कि मैं पूरे श्रम और सहयोग से काम कर सकूँ तो भी नतीजा वही होता जो बेकार की डंकेबाजी से हुई। ढोल नगारे से बहुत कम लाभ होता है और अक्सर तो नुकसान होता है। 

‘‘यदि मनमोहन सिंह उतने बेअसर, हो कर भी अनुपस्थित, न होते और कांग्रेस का आलाकमान यह सोच कर कि अपने दिन लद गए जो हाथ लगे समेट लो की हड़बड़ी में न आ गया होता तो चुनाव दलों के बीच होता, व्यक्तियों के बीच नहीं। परन्तु यह जो ताबड़तोड़ हुआ वह वह भी कालदेव के इशारे पर ही, विनाशकाले विपरीत बुद्धि के तर्क से ही, या जैसा कहते हैं देवता लाठी डंडे से नहीं मारते हैं, मति ही फेर देते हैं, और तुम खुद अपने विनाश की प्रक्रिया तेज कर देते हो, इसे कालदेव का इशारा और इतिहास पुरुष का चयन कह सकते हो। इससे पहले ऐसी नौबत कभी नहीं आई थी।  इतनी बात समझ में आई या कुछ कमी रह गई है।’’

‘‘मैं तो उस पर बहस ही नहीं कर रहा था। मैं तो कह रहा था उसे उसी इतिहास ने वापस लौटाना शुरू कर दिया है और उसका सदमा तुम्हें झेलना पड़ेगा।’’

‘‘तुम्हें यह भूल गया कि मैंने विचारक और संस्कृतिकर्मी और यहाँ तक कि छात्रों और अध्यापको तक को व्यावहारिक राजनीति से अलग रहने की बात कही थी। इससे उनका अपना काम प्रभावित होता है। राजनीति की समझ तक प्रभावित होती है। अच्छे बुरे का फर्क नहीं रह जाता। जिस राजनीति से जुड़े हो, सिर्फ उसे सही मानने की आदत पड़ जाती है। निर्णय क्षमता खत्म हो जाती है। इसलिए मेरे विचार को चुनाव परिणाम प्रभावित नहीं कर सकते। और अगर चुनावी हार से ही वापसी शुरू होनी थी तो यह बात तो इससे भी अधिक सशक्त रूप में दिल्ली के चुनाव ने घोषित किया था। बिहार की स्थिति तो फिर भी अच्छी है।’’

‘‘तुम कहना चाहते हो, बिहार के चुनाव परिणामों से तुम्हें निराशा नहीं हुई?’’

‘‘निराशा हुई, पर उन कारणों से नहीं, जिन्हें तुम गिना रहे हो, या अखबार लट्ठ ले कर पीट रहे हैं। निराशा हुई इतिहास पुरुष की हार से।’’

वह उछल पड़ा, ‘‘भई यही तो मैं कह रहा था।’’

‘‘तुम तो यह भी नहीं जानते कि बिहार के सन्दर्भ में इतिहासपुरुष कौन था?  उसी प्रशासनिक शून्य से जो दूसरा संभावित विकल्प उभरा था वह नीतीश कुमार थे। उनसे आशा थी कि यदि विविध कारणों से मोदी को अवसर नहीं मिलता है तो स्वच्छ प्रशासन और विकासोन्मुखी दिशा नीतीश दे सकते हैं।“

‘‘नीतीश तो जीत ही गए। कल शपथ ग्रहण करेंगे।“

‘‘देखो, बिहार में मोदी बनाब नीतीश चुनाव नहीं था, सुशील बनाम नीतीश था। बिहार के लिए नरेन्द्र मोदी उपलब्ध नहीं थे। हर हालत में नीतीश को जीतना था। नरेन्द्र मोदी इतिहास के संकेत के विरुद्ध अपनी शक्ति आजमा रहे थे। मैं यह भी कह आया हूँ अपार शक्ति भी कालदेव के रास्ते में धूल गर्द साबित होती है। निष्प्रभाव। शक्ति अधिक लगी तो परिणाम अधिक विपरीत होंगे। इसलिए नीतीश अकेले दम पर उसी तरह जीत सकते थे जिस तरह केन्द्र के लिए मोदी जीते थे। वह चुनाव से पहले ही हार गए और हारते चले गए। तुम एक हारे हुए मुख्यमन्त्री को कल शपथ लेते देखोगे।“

‘‘अजीब आदमी हो। मुँह छिपाने को यही बहाना मिला था। कहते तो मैं अपना रूमाल निकाल कर दे देता।“

‘‘ पहली हार गठबन्धन के रूप में आई। जिस भ्रष्टाचार के विरुद्ध उन्हें इतिहास पुरुष के रूप में चुना गया था, उसके लिए विख्यात दल के साथ गठबन्धन। दूसरी नरवसनेस के रूप में आई, तान्त्रिक के पास भागने लगे। तीसरा, विकास का स्थान जातिवादी समीकरण ने ले लिया और जातिवाद को उभारतने के लिए उस विज्ञापन एजेंसी की मदद लेनी पड़ी जिसे यह भ्रम था कि मोदी का प्रचारतन्त्र उसके हाथ में था इसलिए वह जीते थे। और अन्तिम परिणाम इसके अनुरूप होना ही था, जातिवादी समीकरण में आगे पढ़ने वाला सहयोगी आगे पहुँच गया,  निर्णयशक्ति उसके पास आ गई, नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने से ले कर बाद के सभी निर्णय, जैसे मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने से ले कर बाद के निर्णय पीछे से लिए जाते थे। सकल लब्धि यह कि विकास पीछे चला गया जातिवाद की वापसी हो गई। इतिहास आगे चला गया वर्तमान पीछे लौट गया। मैं इतिहासपुरुष की इस त्रासदी से दुखी हूँ। भाजपा की हार से नहीं।“

उसे काटो तो खून नहीं। मैंने अन्त में जोड़ा, ‘‘और वह जो फासिज्म वासिज्म की बात है न उसका एक जवाब इतिहासपुरुष ने अन्तर्राष्ट्रीय मंच से दिया है। ध्यान दिया तुमने?”

उसकी समझ में नहीं आया, मैं कह क्या रहा हूँ। मैंने कहा, ‘‘उसने कहा, जिन शब्दों और प्रवृत्तियों से खतरा है उनका अवसरवादी उपयोग न करो, डिफाइन करो। परिभाषित करो और फिर बात करो। जो बात उसने टेररिज्म के विषय में यूएनओ में कही, वही वह तुमसे कहता आया है। पहले सम्प्रदायवाद, भगवावाद, फासिज्म को परिभाषिात करो फिर बात करो। बताओ जो सबका साथ सबका विकास का सपना ले कर चलता है वह क्या है और जो जाति, धर्म समुदाय के नाम पर बाँट कर रखना चाहता है वह क्या है।“

11/18/2015 12:54:46 PM

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