अस्पृश्यता - 3

“तो तुम कहते हो स्मृतियों में जो विधान है उसके अनुसार दंडित करके किसी को हीन जाति में नहीं डाला जाता था, फिर इनके विधान का क्या मतलब?“

“यदि मैं कहूँ कि ये सामाजिक व्यवहार और समाज के विविध जनों की अपनी रीतियों, नीतियों, परम्पराओं को अभलेखबद्ध करते  हैं, एक तरह का सर्वेक्षण हैं तो तुमको अटपटा लगेगा, परन्तु आठ तरह के विवाह में क्या यह विधान है कि इनमें से किसी तरीके से विवाह किया जाना चाहिए। नहीं, वे उन रीतियों को दर्ज करते हैं जिनका आटविक समाज से ले कर सभ्य समाज तक में चलन था  और कुछ को निन्दनीय मानते हैं, कुछ को श्रेयस्कर, परन्तु यदि उनमें से किसी भी रीति से कोई पति-पत्नी की हैसियत से रहता है तो उसकी संपत्ति या संतान के अधिकारों को मान्यता देनी होगी। तो विधान लोक व्यवहार से आ रहा है, स्मृतियाँ आदेशपरक नहीं है, या हैं तो अपराधों पर दंडविधान के मामले में । परन्तु ये वाद भी सामान्यतः धर्मपीठ या न्यायपीठ तक पहुँचते ही नहीं थे। निपटारा स्थानीय स्तर पर ही हो जाता था, स्वजातीय भी और अन्तर्जातीय भी।

‘’ब्राह्मण भी अपनी विरादरी पंचायतों से मुक्त न थे और यह संस्था आदिम समाज से चली आई थी। हमारे इतिहासकार जब कहते हैं अधूरी सूचना देते हैं कि शाक्यों में उनका अपना निर्वाचित राजा होता था और यह पद बदलता रहता था तब अधूरी सूचना देते हैं । सच यह है कि इन सभी बिरादरियों के अपने राजा या प्रधान होते थे जिन्हें राउत, या महतो  या महरा (महाराज) आदि राजसूचक पदों से अभिहित किया जाता था और इनका निर्वाचन होता था.  हमारे घरों की महिलायें इनके किसी सदस्य का नाम लेने के साथ उनका यह पदनाम अवश्य जोड़ती थीं। तो केवल शाक्यों के प्रत्येक सदस्य के साथ ही राजा नही जुड़ता था, प्रत्येक जन के प्रत्येक सदस्य को उनके प्रधान की पदवी के साथ याद किया जाता था भले वे सेवाकार्य में नियुक्त हों. पेशे से अलग यह कबीलाई गरिमा उनकी सामाजिक पहचान थी और इसका सम्मान सभी करते थे.

“उनकी पंचायतों का संचालन जिस गरिमा से होता था उसका दर्शन हमारी संसद या विधान सभाओं इतने सुशिक्षित सदस्यों के होने के बावजूद या आज की पंचायतों में नहीं होता। इसे मैंने अपनी आँखों से देखा है। उनमें भी जो अभियुक्त अपनी बात सलीके से नहीं रख सकता था उसके पक्ष को प्रस्तुत करने वाले वकील या अधिवक्ता की भूमिका उनके बीच का ही कोई दूसरा व्यक्ति निभा सकता था। तुम जानते हो, वकील के लिए अधिवक्ता शब्द ऋग्वेद से लिया गया है - अधिवक्ता और उपवक्ता दोनों । हमारे इतिहासकार किताबों पर निर्भर थे, जीवन अनुभवों पर नहीं, इसलिए पालि ग्रन्थों में यदि शाक्यों के बारे में यह पढ़ा तो इसे उन्हीं तक सीमित मान लिया।

जो चीज़ भारतीय समाज को इतने ऊँच-नीच, तनाव और स्पर्धा  के बाद भी एक दूसरे से अदृश्य रूप में बांधे हुआ है वह जातीय अवचेतन घुसा यह बोध है कि हम सभी एक ही पृष्ठभूमि से निकले और समान दाय वाले लोग हैं. बिरादरी पंचायतें आज बहुत निर्बल हो गयी है. सामाजिक आर्थिक गतिशीलता के दबाव में वे प्रभावकारी हो भी नहीं सकती. परन्तु अस्पृश्यता का एक पक्ष उनके दंडविधान से जुड़ा रहा है.

एक दूसरे का सम्बन्ध आरोग्य से जुड़ा है. एक स्त्री ऋतुकाल में, प्रसूति काल में, अस्पृश्य रहेगी. किसी के परिवार में कोई मृत्यु हुई है, कारण का पता नहीं, कोई संक्रमण भी हो सकता  है, इसलिए एक नियत अवधि तक उसका परिवार अस्पृश्य बना रहेगा, और उसके बाद ही सुरक्षित  माना जायेगा और फिर साथ उठना बैठना खाना पीना समारोह के साथ आरम्भ होगा. जिस जूते को पहन कर आप जाने कहाँ से होकर आये हैं उन्हें उतार कर ही घर में प्रवेश करेंगे. इनमे से कुछ का ध्यान आई.सी.यू. में तो रखा ही जाता है. तुम्हारी जानकारी में सब है. मैं तो सिर्फ याद दिला रहा हूँ. इसी का विस्तार उन पेशों या कामों तक हुआ जहाँ स्वच्छता का निर्वाह संभव नहीं. निषाद अश्पृश्य नहीं हैं परन्तु मछियारी के काम से जुड़े स्थान, वस्त्र आदि से दुर्गन्ध आती है. बुनकर का काम भला चंगा है पर धागे में मांडी लगाने की विवशता और बरसात आदि के मौसम में सूखने के लिए डाले गए धागे से आती दुर्गन्ध और फिर इसका विस्तार ऐसे सभी पदार्थों तक, लहसन और प्याज तक जिनसे 'दुर्गन्ध' आती हो. हम स्वयं अपने गंदे हाथ से कुछ छू नही सकते. आजकल रोज विज्ञापन आता है कि किसी भी मलिन चीज़ का स्पर्श करने के बाद अपना हाथ अच्छी तरह धोएँ.

"इसका ही विस्तार कुछ कामों, पेशों, स्थानों - जैसे श्मशान, और वस्तुओं तक हुआ होगा?"

"ठीक कहते हो. पर इसका गर्हित पक्ष यह था कि इसे जन्म और जाति से जोड़ लिया गया. इसका भी कारण यह कि पहले परिवार के काम और पेशे के अतिरिक्त जीविका का दूसरा कोई रास्ता न था. परन्तु बाद के समय में, या स्नान आदि के बाद स्वच्छ कपड़ों में होने के बाद भी इसका व्यक्ति से जुड़ा रहना अमानवीय और दंडनीय दोनों है."

“मूर्खतापूर्ण भी क्योंकि ऐसा कोई मलिन काम नहीं है जिसे एक मां अपने बच्चे या  बीमार के लिए या हम स्वयं अपने आशौच  में न करते हो। स्वच्छ होजाने के बाद इनका नाम या जाति से चिपके रहना कितना अतर्क्य है? परन्तु साथ ही कितने अतर्क्य हैं हमारे पूर्वग्रह। सबसे कठिन संघर्ष हमें उनके साथ ही करना होता है।“

"तुम्हारी जानकारी में खान पान से कोई सम्बन्ध नहीं?"

“खान-पान से भी रहा है, परन्तु कुत्ते और बिल्ली आदि या कहो, मांसाहारी पशुओं का मांस खाने वालों के प्रति।“

“कुत्ते और बिल्ली का तो एक आर्थिक पक्ष भी रहा होगा। बिल्ली चूहों का शिकार करके और कुत्ता रखवाली के कारण हमारे सबसे उपयोगी पशुओं में था।“

“तुम ठीक कहते हो, शायद यही मुख्य कारण रहा होगा।”

“गो वध पर प्रतिबन्ध लगने के बाद सबसे उग्र प्रतिक्रिया गोमांस भक्षी जनों के प्रति हो गया जिसकी एक धुंधली तस्वीर हमारे सामने है.

“परन्तु एक बात जानते हो. खान-पान की अस्पृश्यता एक तरह का बराव है, इसका ऊँच-नीच से कोई सम्बन्ध नहीं. हमारे गांव में कोइरी, साग-सब्ज़ी उगने वाले असामी कंठी धारी थे. वे हमारे घर में कच्चा खाना नहीं खाते, पक्का चलेगा. कच्चा याने पानी से पका, पक्का घी में तला. कारण क्षत्रिय परिवारों में सामिष आहार वर्जित नहीं है. वे भगत या निरामिष. चमारों में भी कुछ भगत हो जाते थे और उनका सामाजिक दर्जा कुछ बदल जाता था. हिन्दू ज़मींदारों और मुस्लिम ज़मींदारों में जहाँ शादी व्याह में आना जाना होता था वहाँ मुस्लिम आतिथेयी स्वयं अलग चूल्हे, ब्राह्मण रसोइये का प्रबंध करते थे. हमारे परिवार में मेरे दादा जी मांसाहारी थे. लगभग नित्य शाम को, वह स्वयं पकाते. जिस बर्तन में मांस पकता वह एक किनारे पड़ा रहता और इस बात का ध्यान रखा जाता कि दूसरे बरतन उससे छू न जाएँ. दूसरा बर्तन छू गया तो अपवित्र हो गया. अब उसे फिर पवित्र करने के लिए उसमें जौ रख कर गधे को खिलाना होगा। उसकी सांस से बर्तन पवित्र हो जाएगा। इतिहास कैसे-कैसे कोनों में बचा रहता है. देवों के वैद्य अश्विनीकुमार  जो गर्दभी पुत्र माने जाते हैं उनके स्पर्श से और उनके श्वास से बरतन पवित्र हो गया. छूत मिट गयी.

“पक्के शाकाहारी ऐसे होटलों में खाना नहीं खाते जिनमे आमिष आहार बनता हो.”

“शाकाहार और मांसाहार में तुम किसे ठीक मानते हो?”

“भाई अपने लिए ठीक तो शाकाहार को ही मानता हूँ पर मांसाहार से परहेज़ को पिछड़ापन भी मानता हूँ. खानपान में वर्जनाएँ हमारी समायोजन क्षमता को कम करती हैं. वर्जना से मुक्ति आपको किसी भी परिस्थिति में जीने में सक्षम बनाती है. हमारी भारतीय चेतना अहिंसा प्रेमी है इसलिए जो मांसाहारी हैं वे भी शाकाहार को श्रेयस्कर मानते हैं.

“परन्तु खेती को हानि पहुंचाने वाले जानवरों का शिकार किये बिना कृषि का विकास नहीं हो सकता था, इसलिए खेतिहर समाज अमिषाहारी होने को बाध्य था. ब्राह्मण आग्रहपूर्वक मांसाहारी बने रहे इसका भी एक कारण यह हो सकता है, यद्यपि वे कृषिकर्म से ही नहीं श्रमकार्य से ही विरत हो गए थे. किसान खेती में उपयोगी जानवरों के वध के विरोधी थे. इसलिए ऋग्वेद में गाय को माँ माननेवाले किसान और वैश्य हैं जिनके देवप्रतीक मरुद्गण हैं. ब्राह्मण का तो न  अमांसो मधुपर्कः स्यात.

12/23/2015 11:32:46 AM

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