सत्‍ता का आलोचना

“मैं तुमसे दो टूक बात करना चाहता हूँ. तुम मोदी को क्या समझते हो?

“कागज़ का पुतला. उससे आगे कुछ नहीं. मैं तो अपने पाठकों तक को नहीं समझ पाता जिनके लिए लिखता हूँ, जिनके निकट पहुँचना चाहता हूँ.” 

“तुम्हारी दलीलों से तो लगता है तुम मोदी के पास भी पहुँचना चाहते हो. पहुँच न पाओ यह दूसरी बात है.”

"कैसे?"

"जो मोदी की आलोचना करते हैं तुम उनके पीछे पड़ जाते हो." 

“एक नितांत व्यक्तिगत बात बताऊँ.” मैंने दबी ज़बान से कहा.

“वह कुछ बोला नहीं, मेरी ओर सवालिया निगाहों से देखता रहा.

"१९७४ में मैं एक पत्रिका मतदाता नंबर ०००००१ के नाम से में एक व्यंग्य कालम लिखता था. संपादक के जगजीवन बाबू से घरेलू सम्बन्ध थे, इसलिए पत्रिका उन्हें भी दे आता था. उन दिनों मैंने इंद्रा जी के संसदीय व्यवहार और अहंकार पर कुछ किश्तें लिखी थीं. बाबूजी ने कहा इस लेखक से मैं मिलना चाहता हूँ. उसने मुझे बताया तो मैंने कहा, जो वह मुझे दे सकते हैं वह मुझे चाहिए नहीं और जो वह मुझसे चाह सकते हैं वह मैं दे नहीं सकता. यह तब की बात है जब मेरी कोई लेखकीय हैसियत भी नहीं थी. मैं जो स्वतः लिखता हूँ वही कोई दूसरा किसी प्रलोभन से लिखवाना चाहे तो मैं नहीं लिखूँगा. सताए हुए के लिए लिख भी दूँ सत्ता से जुड़े व्यक्ति के लिए नही लिख सकता. यह है सत्ता के प्रति मेरा नज़रिया. 

“मैं एक मामूली से पद पर काम करता था. पर उसे आदर्श मानता था. दो कारणों से. एक यह सोचकर कि साम्यवादी व्यवस्था हो तो जितना मुझे मिलता है उससे कुछ कम ही मेरे हिस्से में आएगा. दूसरे यह सोचकर कि लेखक को कभी आर्थिक दृष्टि से निश्चिन्त नहीं होना चाहिए अन्यथा वह समाज में रहते हुए भी समाज से कट जाता है और समाज से कटे हुए आदमी का लेखन सिर्फ समाज से कटे हुए लोगों के काम का रह जाता है. 

“यह मेरी अपनी समझ रही है पर इसका डंका नहीं बजाता. इन दिनों कुछ निश्चिंतता की स्थिति है तो एक लेखक के रूप में झेंप सी महसूस होती है. रूमानी मुझे आहात न किया होता तो इसका ज़िक्र भी न करता ऐसे प्रसंगो को मैं आत्मीय लोगों और अपनी संतानो तक से गोपन ही रखता आया हूँ. क्योंकि अपने आत्मीयों तक के सामने अपने मुँह से अपने आन की बातें व्यक्ति को छोटा बनाती है और अपनी दुर्बलताओं की स्वीकृति से क़द ऊँचा होता है. खुदफरोशों को यह मामूली नियम भी पता नहीं होता. वे जितना अपने लिखे को बेंचते है, उससे अधिक अपने को बेंचते है.”

"खुदफरोश तो उन्हें तुम अपनी तिलमिलाहट में कह रहे हो. ज़िन्दगी आगे बढ़ने का नाम है, ऊपर चढ़ने का नाम है. लिखने का लक्ष्य है अधिक से अधिक लोगों के साथ अपनी अनुभूति, ज्ञान, विचार और विचारदृष्टि को बाँटना. यदि ऐसा कोई करता है तो इसमें बुराई क्या है."

" बुराई है" मैंने कहा तो, परन्तु उसने मेरी बात पर ध्यान ही नहीं दिया. अपनी रौ में बोलता रहा, "तुम्हें पता है जिसे आज किताबों में प्रस्तावना लिखा जाता है, वह इंट्रोडक्शन का अनुवाद है? और जानते हो इसके लिए उससे पहले, किस शब्द का प्रयोग किया जाता था." उसने मेरे उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की. वह जानता था कि मुझ जैसे तीन अक्षर के बादशाह को यह रहस्य पता नहीं होगा. उसका सोचना गलत भी नहीं था. कुछ ज़ोर देकर बोला, ' ऐड्वरटिज़्मेंट. विज्ञापन.'  तुम्हें पता है तुम आत्मविज्ञापन को आत्मविक्रय और खुदफरोशी कह कर अपनी कबीलाई मानसिकता पर पर्दा डालना चाहते हो? 

उसने अपनी टिप्पणी का उपसंहार करते हुए जड़ा, “जो अल्प से संतुष्ट होता है वह अधोगति को जाता है. जो बहु की दिशा में अग्रसर होता है, भूमा के महत्व को जानता है वही आधुनिक है.”

“तुम क्यों मान लेते हो कि मैं अपने को सही मानता हूँ.  मैं अपने पक्ष को पूरी दृढ़ता से गलत सिद्ध किये जाने के आमन्त्रण के साथ, प्रस्तुत करता हूँ कि अकेले सोचने पर मुझे ऐसा लगता है. तुम मुझे गलत सिद्ध करो तो उसे भी लाभ हो जो अपने विचार और मंतव्य को रखते हुए तुम्हें गलत सिद्ध कर रहा है और तुम्हें सोचने को विवश कर रहा है. मेरा लक्ष्य अपने को सही सिद्ध करना नहीं है, मित्रों के सुन्न पड़े स्नायमण्डलो को उत्तेजित करना है जिनमें जान आने पर आदमी सोचना आरम्भ करता है.. यदि तुमने मुझे गलत सिद्ध कर दिया तो मेरा लक्ष्य पूरा हो गया.”

“अब तो मान लिया न की तुम गलत आरोप लगा रहे थे?”

"नहीं इतनी आसानी से कैसे मान लूँगा. जब अल्प से संतोष को तुम कबीलाई मानसिकता कह रहे थे तो मेरा उससे कोई विरोध नही था. पर जानते हो वह अल्प पैदा करने से बेचने तक का सारा काम उसी को करना पड़ता है क्योंकि वहाँ कार्य विभाजन नही है. कार्य बिभाजित समाज में हम अपना काम करें और विज्ञापन और वितरण का काम उसे सौंप दें जिसे उस का भार सौपा है तो वह अधिक अच्छा हो. जो श्रम आत्मविज्ञापन पर बर्वाद करते हैं वह अपने काम पर लगायें, उत्पादन पर लगायें तो अधिक अच्छा हो."

"ठीक है. यह बात समझ में आती है, परन्तु यदि कोई आत्मविज्ञापन का काम भी संभाल लेता है तो तुम्हें इस पर आपत्ति क्यों हो."

"क्योंकि इससे एक गलत प्रवृत्ति पैदा होती है. जुआड़ियों वाली, बाज़ी मार ले जाने वाली. बौद्धिक गरिमा की कीमत पर, शालीनता की कीमत पर. इससे बौद्धिक पर्यावरण दूषित होता है. छिछोरेपन का प्रसार होता है. इससे कुछ तात्कालिक लाभ हो भी जाय तो साख को बट्टा लगता है. दूरगामी परिणाम कुफलदायक होते हैं."

बात तो सत्ता से शुरू हुई थी. तुम मानते हो बौद्धिक को सत्ता से नहीं जुड़ना चाहिए? 

“मैं ऐसा नही मानता. साहित्य, कला और संस्कृति के ऐसे संस्थान हैं जिनसे जुड़ना भी सत्ता से जुड़ना ही होता है और इनका भार बौद्धिक ही संभालें तो अच्छा रहेगा. मैं यह अवश्य मानता हूँ कि इनसे जुड़ने वालों की अपनी सर्जनात्मकता अवरुद्ध होती है और इसलिए यदि कोई अपनी सर्जनात्मक क्षमता पर भरोसा करता है तो उसे इनसे जुड़ने से बचना चाहिए. यह सर्वोत्तम मेधा की जगह नही है. महत्वकांक्षी रचनाकार को सत्ता से बचना और अपनी समस्त ऊर्जा को अपने चुने हुए क्षेत्र को अर्पित करना चाहिए. अपनी पूर्णतम सम्भावना पर पहुँचने का प्रयत्न करना चाहिए. इसलिए संस्थानों से जुड़ने के लिए आतुर रहने वाले साहित्यकारों को या तो दोयम दर्ज़े का मानता हूँ या आत्महंता. परन्तु यदि सर्जनात्मकता चुक गई है, कोई मजे से दिन काटने के लिए सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़ना चाहता है तो किसी को उससे क्या आपत्ति हो सकती है? हाँ सत्ता में ऊंची पहुँच के कारण वह ऊँचा साहित्यकार या विचारक भी है यह मैं नहीं मानता. कुछ लोग इनसे इसलिए जुड़ते हैं कि इनके बिना उनकी लेखकीय हैसियत रह ही नही जायेगी. इन्हे मैं मज़माबाज़ लेखक मानता हूँ यह छिपाऊँगा नहीं.”

मोटी बात यह कि जो सत्ता में होता है उससे तुम्हे चिढ है.

“चिढ नही, चिढ नहीं होती. चिढ़ने का मतलब है तुम स्वयं हीनता से ग्रस्त हो. मैं उनका आदर करता हूँ.”

“फिर परहेज़ किस बात किस बात का?”

“जो सत्ता में होता है उससे मेरी दूरी बढ़ जाती है. पहले से जान पहचान हुई तो भी कम हो जाती है.” 

“क्यों झेंप के कारण?”

“मेरा एक छोटा सा तर्क है. वही व्यक्ति जब सत्ता में होता है तो वह वही नही रह जाता, वह सत्ता प्लस वह आदमी हो जाता है. उससे मिलता था तो बराबरी के स्तर पर. अब जो कुछ वह पहले था उससे कुछ बड़ा और इसलिए मुझसे भी बड़ा होगया. उससे मिलना उससे छोटा बनकर ही हो सकता है. यह मेरे स्वाभाव में नहीं है. दैन्य नहीं साम्य. उम्र, ज्ञान, पद, अनुभव में छोटे लोगों से भी बराबरी के स्तर पर ही मिलता हूँ. तुम थोड़ा बहुत जानते भी हो. तुमने बात मोदी से आरम्भ की थी इसलिए इतना जान लो मैं उस प्रधान मंत्री से जिसका नाम मोदी है न तो निकटता रख सकता हूँ न उसे समझ सकता हूँ न समझना चाहता हूँ, न समझने की योग्यता रखता हूँ. यदि कुछ समझना चाहता हूँ तो केवल इतना कि वह अपने पद और दाइत्व का कितनी ईमानदारी से निर्वाह कर रहा है.”

“पर तुम्हारी बातें सुनकर तो मुझे बार बार यह अंदेशा होता है कि तुम उसका समर्थन कर रहे हो.” 

“समर्थन के लिए व्यक्ति को समझना ज़रूरी नहीं. इतना ही पर्याप्त है कि उसका काम सही है या गलत.”

चलो यही सही. तो तुम मोदी को सही समझते हो. यही तो तुमसे उगलवाना चाहता था.”

उसने मेरे कंधे पर हाथ मारा और उठ कर खड़ा हो गया.

1 टिप्पणी:

  1. एक बौद्धिक व्यक्ति द्वारा अपने बेबाक नजरिए को एक वार्तालाप के रूप में प्रस्तुत किया....इसे हर शख्स अपने तईं समझ सकता है...बहुत-सी बातें अच्छी लगीं, और कुछ के बारे में सिर्फ इतना ही कहूंगा, कि कोई भी नजरिया बनाने से पहले देश, काल व परिस्थितियों का सम्यक आंकलन भी किया जाना जरूरी है.....

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