अस्पृश्यता – 16

तुम जानते हो धर्म किस अवस्था की उपज है।

जब एक बार बता दिया कि इस पर हमने विचार नहीं किया तो बार बार इसे क्यों उछालते रहते हो। मार्क्स ने इसे संतप्त समाज का अफीम कहा था! अर्थात् पीड़ाहारी ओषधि जो दुख को दबाने या भुलाने का काम करता है उसके निवारण का प्रयत्न नहीं। उसके बाद से हमने इसे नशा समझ कर इधर से मुँह फेर लिया। हम मुहावरे में भी ईश्वर अल्ला के प्रयोग से परहेज करते हैं।

मार्क्स कई बार बड़े पते की बातें करते हैं परन्तु न तो वह सर्वज्ञ थे न ही मैने उनका समस्त साहित्य पढ़ा है, इतिहास में उतर कर किसी भी व्याधि के कारण को समझने का गहन प्रयत्न उनमें था और उनके साथ ही खत्मम हो गया । उसके बाद इतिहास को समझने की जगह इतिहास को गढ़ने के मार्क्सवादी कारखाने चालू हो गए। इस कारखाने में तुम लोगों ने अफीम को हेरोइन बना दिया और इसका सेवन खुद भी करने लगे और दूसरों को भी कराने लगे।

उससे जवाब देते न बन पड़े।

मैंने कहा, देखो, सभ्यता के विकास में धर्म की महत्व पूर्ण भूमिका है। यह दूसरी बात है कि सम्यता का विकास न्यायपरक नहीं, उत्थानपरक रहा है। सभ्यता जितनी ही उन्नत होती जा‍ती है अन्या‍य की चक्की उतनी ही तेज होती जाती है और कई गतियों से घूमती है। हमारे

यहॉं युगों की दो तरह की कल्पनाऍं हैं। एक काल के प्रसार को समझने के लिए। यह अनन्त और कल्पंनातीत और इसलिए अन्य सभ्यताओं के लोगों को अविश्वसनीय लगता रहा है। इसमें सृष्टि विकास को मानवकाल में समेट लिया गया या कहो मानवकाल को सृष्टि के आदि से ही जोड़ दिया गया इसलिए इसका यह पक्ष हास्यस्पाद प्रतीत होता है जब कि अनन्तता की अवधारणा दिक और काल की अनन्त ता या अनन्तवत सान्तता आधुनिक विज्ञान के निकट है। यह काल्पनिक या तर्कनासर्जित है। एक दूसरा है जो मानव विकास से जुड़ा है और यह अनुभव सिद्ध और इसलिए वैज्ञानिक है। इसके अनुसार मनुष्य का लोभ और इसके चलते सम्पत्ति पर व्‍यक्ति का अधिकार जिस अनुपात में बढ़ता जाता है मानवीयता का उसी अनुपात में ह्रास होता जाता है, नैतिकता का उसी अनुपात क्षरण होता जाता है और अन्याय उसी अनुपात में बढ़ता जाता है और समाज को चलाने के लिए संस्थाओं और युक्तियों और दमन के औजारों का आरंभ और परिष्कार होता जाता है। इस‍ दृष्टि से सतयुग आदिम समाज का और कलियुग लोभ और संपत्ति पर निजी अधिकार की पराकाष्ठा‍ का और इसलिए अवधि में भी सबसे छोटा युग है। इसे धर्म के वृषभ के चतुष्पाद, त्रिपाद, द्विपाद और एकपाद होने की कल्पना बड़ी रोचक है। एक पॉंव पर खड़ा युग घोर अस्थिरता का युग भी है। अब तुम इसे इस नजर से देखो कि धर्म का जिस अनुपात में ह्रास होता जाता है, धर्म के नाम पर तन्त्र या उसका कर्मकांड उतना ही प्रबल और जटिल होता जाता है। जिनको न्याग दिलाने का यह वादा करता है, उन्हीं को इसकी मार सबसे अधिक झेलनी पड़ती है।

‘खैर, इस मुकाम पर यदि मुझसे कोई युगों के आरंभ की तिथि तय करने को कहे तो दूसरे युगों का आरंभ तो न बता पाउूँगा परन्तु कलियुग का आरंभ मैं औद्योगिक क्रान्ति और पूँजीवादी विकास से अवश्य जोड़ना चाहूँगा और इसी अनुपात में दूसरे युगों की कालसीमा घटाना चाहूँगा और अगर कोई कल्कि के अवतार की बात करे जिसके पुराने लोगों ने कभी बाद में पैदा होने की तुक भिड़ाई थी तो मैं पूँजीवाद को कल्कि अवतार मानने में गुरेज न करूँगा।‘

तुम चंडू के आदी तो नहीं ।

मेरी बात बुरी लगी।

बुरी नहीं, भड़ास लगी, कहीं टिक कर रहते नहीं, कहॉं से कहॉं भटक जाते हो।

मैं तुम्हे यह समझाने की कोशिश कर रहा था कि धर्म अन्यांय को सही ठहराने का एक बहुत प्रभावशाली औजार है। मार्क्स ने इससे क्या समझा यह मुझे नहीं पता, परन्तु यदि तुम सोचो कि धर्म को खत्म कर दिया जाय, उसकी पहचान मिटा दी जाय तभी सामाजिक और आर्थिक न्याय स्था‍पित किया जा सकता है, तो यह नासमझी है। इससे भी अधिक नादानी यह समझ है कि यदि धर्म की उपेक्षा या उपहास किया जाय या उसकी ओर से मुँह फेर लिया जाय तो वह अपने आप मर जाएगा, ये तीनों बदहवासी के तीन रूप हैं और अव्यावहारिक भी।

सही तरीका यह है कि यदि समता और समरसता स्थातपित हो जाय, लोभ और निजी संग्रह को अल्पतम पर ला दिया जाय, धर्म को नैतिक स्वाभि‍मान से प्रतिस्थापित कर दिया जाय तो अन्याय और वर्चस्व के तन्त्र के रूप धर्म का अन्त हो जाएगा और इसका स्थान वह धर्म ले लेगा जिसे सामाजिक समता, न्या‍य और स्वतन्त्रता के रूप में हमारे पुराणों में पहचाना गया है और जिसे मार्क्स ने आदिम समाजवाद के रूप में पहचाना भी।

मैं जो कह रहा हूँ वह यह कि तुम धर्म को नहीं, धर्मतन्त्र को खत्मं करने का सपना देख सकते हो, धर्म की स्थापना का सपना तो स्वयं तुम्हारा है। तुम समझ रहे हो मैं क्या कह रहा हूँ।

जितना मेरी समझ में आ रहा है तुम पिनक में बोल रहे हो। तुम न्यााय, समानता, स्वचतन्त्रनता को धर्म बता रहे हो, जब कि...

मुझे गुस्सा तो आया पर पी गया, नरमी से बोला, ‘भाई जरा धर्म को वृषभ के रूपक और आदिम अवस्था को चतुष्पाद धर्म या धर्म की पूर्णता की अवधारणा पर तो गौर किया होता। तुम लोग इतने आत्महद्रोही क्यों हो कि बचाने के औजार तुम्हारे पास हैं, तुम उन्हें जानते नहीं, काम लाते नहीं, हड़बड़ी में पकड़ना हो तो धार की तरफ से पकड़ते हो और मूठ की ओर से वार करते हो, विरोधी का कुछ नहीं होता, खून तुम्हाररा जाया जाता है और तुम उसे दिखाते फिरते हो कि मैंने समाज को बदलने के लिए इतना खून बहाया।

अब इसे फिर इस सिरे से समझो। धर्म का उदय राज्य की स्थापना के साथ हुआ। उससे पहले कबीलों के अपने अपने विश्वास थे, मान्यताएँ थीं जो पितरो की आत्माओं से बढ़ते हुए अपने टोटेमों आदि तक पहुँची जिनकी वे अपने को सन्तति मानते थे और उनके विषेश गुणों और शक्तियों पर गर्व करते थे और विश्वास करते थे कि इससे उनकी समस्याओं का हल निकल आएगा। देखो मेरा इस विषय में बहुत कामचलाउू अध्ययन ही है। अपने कुल के पितरो पर वे बाद में भी आए हो सकते हैं। इसे एक कल्पित व्याख्या समझ कर सुनो और बाद में कुछ गलत लगे तो सुधार लेना। खैर वर्जना या टैबू या हराम की अवधारणा का आरंभ भी उसी चरण से है जब वे उन जीवों-जन्तुओं के मांस को अभक्ष्य मानते थे] और कई बार किसी साम्य के कारण या एक ही कबीले में कई विश्वासों वाले समुदायों के मिलने के कारण, एक साथ कई जीवों का आहार निषिद्ध मान लिया जाता था और इस निषेध का पालन कठोरता से किया जाता था। यह वर्जना किसी साम्य पर भी निर्भर करती थी, जैसे आदमी के पाँच उँगलियाँ होती हैं इसलिए ऐसे जानवर जिनके पाँच उँगलियाँ हों उनका भक्षण नहीं किया जा सकता और फिर इसमें कुछ ढील देते हुए यह सोचना कि अमुक पाँच जीवों को उनके पाँच नख वाले होने के बाद भी भक्षण किया जा सकता है।

तुम धर्म के उदय की बात करने चले और मुड़ गए खान-पान की ओर और ऐसी बातें दुहराने लगे जिन्हें मैं पहले से जानता था!

मैं यह समझने की कोशिश कर रहा था कि धर्म के साथ खान-पान की वर्जनाएँ कैसे जुड़ गई और फिर कैसे उनमें कई बार ढील दी जाती रही या नई वर्जनाएँ जुड़ जाती रहीं। इन पहलुओं का हमारे नृतत्वविदों द्वारा अध्ययन किया जाना चाहिए था। हम विदेशी विद्वानों के भरोसे बैठे रहे। जो काम है वह मुख्यतः उनका किया हुआ ही और उन्होंने केवल धर्मप्रचार के उद्देश्य से जितना जरूरी था उससे अधिक का बखेड़ा मोल नहीं लिया और जिनका धर्मान्तरण करा लिया उनके इतिहास और संस्कृति का भी सफाया कर दिया या बचाया भी तो कुछ पुरानी कहानियों को जब कि मूल्यव्य‍वस्था का अलग से गहराई से अध्ययन किया जाना चाहिए था। कहो, उन्होंने अपने काम की चीज तो तलाश ली, हमने अपने काम की चीज तलाशने की जरूरत नहीं समझी, न उधर ध्यान जा रहा है, जब कि हमारे यहाँ सामाजिक समस्यायें राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं से इस तरह उलझी दिखाई देती है कि आगे का रास्ता की नहीं मिलता।

अब तुम तो बाहर निकलो।

यदि धर्म अन्यामय को ढकने वाला औजार है तो विज्ञान भले इससे जुड़े अन्धसविश्वासों को ढीला कर दे, अन्यााय करने वाले अपने हथियार को छोड़ नही सकते। आज कल इसका सबसे सफल उपयोग और सबसे क्रूर उपयोग अमरीकी दरिन्दगी की पहल से हो रहा है। जिसे तुम सांप्रदायिक समस्या समझते हो उसकी जड़ों को धर्म में नहीं, कुटिल राजनीति में तलाशने का प्रयत्न करो और उस कुटिलता का सामना करने के औजार तैयार करो।

1/14/2016 7:16:35 AM

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें