अस्पृश्यता – 19

तुम कोसते रहे, मैं सुनता रहा। बुरा नहीं लगा। लगा तुम पूरी तरह बदहवास नहीं हो। मैं तुम्हें सही मान भी लूँ तो तुम्हारे बीच ही ऐसे लोग मिल जाऍंगे जो तुम्हें शूली पर चढ़ा देंगे। वे मुसलमानों से उससे भी अधिक नफरत करते हैं जितना तुम ईसाइयों से करते हो और इसलिए यदि उन्हें चुनना ही हो तो वे पहले ईसाई बनना पसन्द करेंगे, मुसलमान बनना नहीं।

पहली बात तो यह कि जो अपने विचारों के साथ होता है, वह ईश्वर तक के साथ नहीं होता। उसके साथ उसके विचार के कवच को छोड़ कर कुछ नहीं होता इसलिए वह आत्मिक रूप में जिनता दृढ़ और अच्छेद्य और अभेद्य होता है, भौतिक रूप में वह उतना ही असुरक्षित होता है। तुम ठीक कहते हो ऐसे व्यक्ति को शूली पर चढ़ाया जा सकता है और चढ़ाया उन्हीं लोगों द्वारा जा सकता है जिनके साथ वह खड़ा है और जिनको आगे ले जाना चाहता है। परन्तु ऐसी मृत्युे का सुख कई कई जिन्‍दगियों के सुख से अधिक होता है।

तुमने वह मुहावरा सुना है कि केंकड़े के अंडे अपनी मॉं को ही खाकर जीवन प्राप्त करते हैं।

सुना है।

परन्तु उस आनन्द की पराकाष्ठा की कभी कल्पना न की होगी जिसे भोगते हुए वह चुप चाप पड़ी रहती है और अपनी भावी पीढि़यों के लिए खाद बन जाती है। इससे बड़ा गौरव कोई हो नहीं सकता। परन्तु जिनके विरोध को शूली की हद तक ले गए, वे अर्धचेत हो सकते हैं और स्वयं को सचेत मान कर मुझे अर्धचेत मान सकते हैं, परन्तु जिस परंपरा में पले हैं और जिसको बचाने की चिन्ता में वे ऐसी बातें करते हैं, वे मुझे शूली पर चढ़ाने की जगह मेरा नाम ले कर रोना शुरू कर सकते हैं। मौत यह भी होगी, पर दर्द अनुभव करते हुए। वे मुझे शूली पर नहीं चढ़ा सकते, वे मुझे गोली मारेंगे और मारने की पीड़ा अनुभव करते हुए। मुझे नमन करते हुए। गोडसे की तरह, यद्यपि मैं गांधी होने का सपना तक नहीं देख सकता।

तुम गलतफहमी में हो। तुमको पता नहीं वे क्या कर सकते हैं।

अपनी नादानी पर मुझे इतना अखंड विश्वास है कि एक गधा भी कहे कि तुम गलत हो तो, उसे विचारणीय मान सकता हूँ, पर सच नहीं मान सकता। उसकी खोज करनी होगी। तुम्हारी याददाश्त में कोई कमी है। मैं कह चुका हूँ, जो घृणा कर सकता है वह समझ नहीं सकता। जो समझ नहीं सकता उसकी समझ पर और उसके सुझावों पर चला नहीं जा सकता। यदि ऐसा किया गया तो उसके परिणाम भयावह होंगे। परन्तु मैंने आधा सच कहा था, कहना चाहिए था कि किसी भी भावावेग के प्रबल होने पर हम जानवरों में बदल जाते हैं और आदमी वह हो नहीं सकता जो जानवरों से नसीहत ले।

तुमने कहा, मैं ईसाइयत से घृणा करता हूँ । मैं तो तुमसे भी घृणा नहीं कर सकता जो हर समस्या को दुम के सिरे से हल करना चाहते हो और जबड़े के शिकार हो जाते हो, क्योंकि मैं जानता हूँ तुम अपनी समझ से देश और समाज हित में काम कर रहे हो। तुम्हारे रास्ते पर चलने के खतरे उससे अधिक हैं जितने उसके, जिससे तुम मुझे डरा रहे हो। वह तो स्वयं डरा हुआ आदमी है और मैं पहले कह चुका हूँ वह तब तक अधिक खतरनाक भी है जब तक उसका डर दूर नहीं हो जाता। डर दूर करने का एक ही तरीका है कि हम उसे समझा सकें कि डरने वाला मारने में पहल तो करता है परन्तु मरने वालों से पहले मारा जाता है। उसका सर्वस्व छिन जाता है।

हम अपने को नहीं जानते अपनों को नहीं जानते, परंतु हम अपने उस कोने को बहुत अच्छी तरह जानते हैं जहां शताब्दियों का जहर भरा हुआ है। हमें एक समाज के रूप में अपनी शक्ति को पहचानना होगा, कि जिन मध्‍येशियाई कबीलों का आतंक यूरोप तक छाया हुआ था उन तक एक बार इस्लाम की तलवार पहुँची तो सभी आनन फानन में झुक कर इस धर्म को मान बैठे, अपवाद तक नहीं रह गया, परन्तु भारत में सात सौ साल के शासन, दमन और उत्पीड़न के बाद भी उनकी संख्या 10 पन्द्रह प्रतिशत से आगे क्यों न बढ़ सकी। वह शक्ति हिंसा और घ़णा की नहीं थी। हम तो लाचार थे। हारे हुए। पता लगाओ वह कौन सी ताकत थी जो तलवारों और उत्पीड़नों पर भारी पड़ी। तब तक के लिए तुम्हें मगजमारी के लिए छुट्टी।

1/17/2016 11:48:06 PM

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