अस्पृश्यता - 5

‘’असली समस्या तो वर्ण के जाति में बदलने की है।‘’

‘’वर्ण जाति में बदलता तब तो जातियाँ होतीं भी तो, चार होतीं। एक एक में कई कई सौ तो न होतीं। विचित्र है एक ही वर्ण में इतनी सारी जातियॉं और उनमें भी ठीक उसी तरह का नीच ऊँच का भाव जैसे वर्णक्रम में और उनके काम काज भी एक जैसे, नहीं तो यह मान लेते कि बाकी का विभाजन पेशे के कारण हुआ। कमाल है, कि जो सच्चा ब्राह्मण है, अग्नि के समान है, जिसका खाया और भोगा हुआ ठीक उसी तरह पितृलोक में पहुँचता है जैसे यज्ञ में अग्नि को समर्पित देवभाग देवों तक पहुँचता है, जिस की संज्ञा महापात्र और महाब्राह्मण की है और वही ब्राह्मणों में अस्पृश्यवत नीचे गिना जाता है । 

“यह तो संसर्ग दोष हुआ, यह तुम पहले कह चुके हो।“ 

“जातियों की समझ से ही हम यह समझ सकते हैं कि हमारा समाज कैसे बना है और हमारी भाषाऍं कितनी बोलियों को रचा-पचा कर अपने वर्तमान रूप में आई हैं।“ 

“तुम फिर घालमेल करोगे। मुझे सिर्फ यह बताओ कि यदि वर्ण का जातियों से संबंध नहीं है तो ये अस्तित्व में आईं कैसे और आईं तो इनमें स्थिरता कैसे आ गई कि किसी जाति में जन्मत लेने मात्र से कोई व्यक्ति वही काम करने को बाध्य हो जाय?” 

‘’जातियाँ वर्ण से असंबद्ध हैं, यह नहीं कह सकते । यह भी नहीं कह सकते कि इनमें गतिशीलता का सर्वथा अभाव था । देखो जब कोई व्यहक्ति कोई काम करता है तो हम यह कह सकते हैं कि यह काम इस कारण हुआ। परन्तु जब ऐतिहासिक परिघटना होती है तो उसमें कई घटक, कई बार, कई कालों के, एक साथ जुड़ते चले जाते हैं और इससे अक्सेर एक चक्र बन जाता है। हम इनके लिए किसी एक को कारण नहीं मान सकते। ’ 

‘’ठीक है। यह तुमने एक बार पहले भी कहा था।‘’

किसानी की ओर बढ़ने वाला जत्थाए अधिक से अधिक कितना बड़ा रहा होगा ? निकला तो वह आहारसंग्रही समाज से ही था] जिसका आकार पचीस-तीस से अधिक हुआ तो खाद्य संकट आ जाय।‘’ 

‘’इतने थोड़े से लोगों ने दुनिया बदल कर रख दी?’’ 

मैं प्रथम चरण की बात कर रहा हूँ, जब यह सूझ किसी स्त्री या पुरुष के दिमाग में आई होगी और उसने अपने जत्थे के लोगों को इसके लाभ नुकसान समझा कर इसे किसी भी कीमत पर कर गुजरने के लिए तैयार कर लिया होगा। अब हम चाहें तो इस जत्थे की जो भाषा थी उसी को आदि आर्यभाषा मान सकते हैं।

एक बार आग लगने के बाद वह कितने क्षेत्र को साफ कर देगी इस पर तो आग लगाने वालों का नियन्त्राण होता नहीं था। वे आग लगा कर वहाँ से खिसक लेते। यह पता ही न चलता कि आग किसी ने लगाई है या दावाग्नि थी। महीनों बाद वे लौट कर उसके जितने हिस्से में कुछ उगा और सींच सकते थे उसे उगाते। जब इसका रहस्य पता चला तब इनको दूसरे सभी मिल कर भगा देते, दु:साहस के लिए दंडित भी करते । ब्राह्मण तो आज तक एक वर्ण है इसलिए यदि बरमपुर, बभनान, बभनौली जैसे नाम मिलें भी तो उनसे कोई मदद नहीं मिलती। परन्तु देवास, देवघर, देवस्थहली, देवली, जैसे नाम जब ऐसे क्षेत्रों में मिलते हैं जो तथाकथित आदिवासियों का निवास रहा है और उपाधि के रूप में देव, देउआ, जैसे प्रयोग दूर दराज तक मिलते हैं तो उनका यह दावा सच प्रतीत होता है कि वे उत्तेर दक्षिण पूरब पच्छिम भागते रहे कि कहीं यज्ञ को स्थाापित कर सकें पर उन्हें हर जगह से भगाया जाता रहा । यज्ञ का मतलब तो जानते हो न।’’

^^जानूँगा क्यों नहीं, अभी वह तेलंगाना का मुख्यहमन्त्री अपने राज्य में भूख से मरने वालों को बचाने के लिए जाने कितने करोड़ खर्च करके पता नहीं कौन सा यज्ञ करा रहा है।**

^^यज्ञ का अर्थ होता है उत्पा दन*। आहार जुगाने की जगह, वन्य प्रघासों को स्वयं पैदा करना। जिस तरह का यज्ञ यह मुख्य मन्त्री करा रहा है, वह उत्पादन की प्रतीकपूजा या नकल है और यह कई हजार साल बाद आरम्भ हुआ, परन्तु इसके पीछे एक सोच भी थी और एक चालाकी भी और इसी से पैदा हुआ उस पुराने ब्राह्मण की जगह वह कर्मकांडी ब्राह्मण जो खेत की जगह वेदी पर फसल उगाने लगा और हल की मूठ पकड़ने तक को, उत्पाादन के किसी भी काम को, अपने लिए अकरणीय मानने लगा – अश्रमेण शरीरस्य् कुर्यात् धनसंचयम्। परन्तुत इसे एक क्षीण याद इस बात की बनी रही कि जंगल की सफाई करके खेती योग्ये ब्राह्मणों ने या देवों ने बनाया था इसलिए ये अपने को भूदेव भी कहते रहे और इस बात का दावा भी करते रहे कि समस्त धरती अर्थात् कृषि भूमि का स्वामी ब्राह्मण है और उसी की कृपा से सारी दुनिया को आहार और वस्त्र मिलता है। यूँ तो मैंने मनु (मनु. 1.100-101) के इस कथन का अपने अपने राम में उपहास किया है, परन्तुा उसका ऐतिहासिक आधार यही है। अरे यार तुम्हें कभी हरबंस मुखिया मिल जायँ तो उन्हें कह देना अपने फ्यूडलिज्म वाले लेख में जिसे उन्होंने किसी संस्क़ृतज्ञ के सहारे भूछिद्रन्याप समझ लिया है, वह भूमि छेदन्‍याय है। भूछिद्रन्याय पातालसोख पानी वाले कुँए जैसे अक्षय दानी के लिए प्रयोग में आता है और यह जमीन को खोद कर खेती योग्‍य बनाने वाले के जमीन पर अधिकार का मामला है।

‘’बीच बीच में तुम अपना ज्ञान बघारने लगते हो। विषय पर तो टिके रहो।’’ 

‘’तो यदि यज्ञ उत्‍पादन है, उसी के कारण ब्राह्मण ब्राह्मण बना, भूदेव बना, तो आज के देव और ब्राह्मण तो वे हैं जिन्हें तुम शूद्र मानते हो, क्योंकि उत्पादन और संभरण के सारे काम उन्होंने सँभाल रखे हैं और तुम उन असुरों की तरह उत्पादन करने वालों को उत्पीोडि़त करते रहे। 

‘खैर, देव कहीं टिक कर अपना काम करना चाहते थे। आरंभ में उनको न यह सूझा कि कोई दूसरा काम करे और वे आराम करें, न उन्होंने किसी को अपना सेवक बनाया। टिक कर खेती करने का सुयोग कहीं पूर्वोत्तंर में मिला। ठीक किस अंचल में स्पाष्ट नहीं है, पर अनुमानत: यह पश्चिमी बिहार और पूर्वी उत्तंर प्रदेश के उत्तर में कहीं आज के नेपाल में था। जहाँ भी यह था इसे देवभूमि कहा गया। इसके साथ स्था्यी आवास और स्थांयी खेती आरंभ हुई। उनकी अगली आकांक्षा थी कि कृषिकर्मियों की संख्या् बढ़े जिससे उनकी शक्ति बढ़े, इसे यज्ञ का तन्वन और यज्ञविस्तािर कहा गया है। यह प्रयत्न बहुत बाद तक चलता रहा। मूल सरोकार शान्ति से रहने का था। यदि दूसरे जन भी खेती और पशुपालन और अर्थार्जन पर ध्यान दें तो वे लूट-पाट बन्द कर देंगे और उनकी खेती-बारी और व्यापार बिना किसी खतरे के चल सकेगा। किसानी और बागबानी के लाभ वे दूसरों को भी समझाते। इसी को वे आर्यव्रत कहते थे, जो आर्या व्रता: विसृजन्तक: अधिक्षमि, या कृण्वकन्त: विश्वरमार्यम् में उद्घोषित है। उनका लक्ष्य सभी को आर्य बनाने का था किसी को शूद्र बना कर रखने का नहीं था। इसलिए जो आगे नहीं बढ़ सके, स्‍वयं खेती करने को पातक मानते रहे, बाद में उन्हीं खेतिहरों की सेवा में दूसरे प्रलोभनों से सारे काम करते रहे।‘’ 

‘’मुझे तो लगता है खेती को पातक मानने वाली मानसिकता कहीं बुद्ध तक में चली आई थी।‘’

‘’कभी कभी तो तुम ठीक सोच ही लेते हो,पर उधर मुड़ेंगे तो फिर भटक जाएँगे।‘’ 

‘’जिन कामों को उद्योगविद्या से जुड़ा काम कहते हैं और जो शूद्रों के द्वारा किया जाता रहा वह भी खेती के पातक से बचते हुए भी किसानों से अनाज पाने की लालसा से प्रेरित था, किसी ने उनको इस बात के लिए बाध्य नहीं किया। 

जिसे हम वैदिक समाज कहते हैं, या आर्य जन कहते हैं, उसमें खेती अपनाने के साथ दूसरे बहुत से जन मिलते गए, परन्तुन खेती का आरंभ जिन्हों ने किया था उनसे ही इसकी विद्या सीखनी थी इसलिए उनकी भाषा प्रधान बनती चली गई और दूसरे जनों की भाषाओं के शब्द और दूसरे तत्व उसमें मिलते गए। हमारे ज्ञात इतिहास में शाक्यों के किसानी अपना कर क्षत्रिय बनने का उदाहरण सामने है। शाक्य में शक गणों की छाया दिखाई देगी। यह साकेत, साकल, सक्सर जैसे नामों भी मिलेगा। इसी तरहए काशी, कुशीनारा से लेकर कश्मीर तक के नामों से पता चलेगा कि कस/खस खसिया की पहाडि़यों तक सीमित नहीं थे, इनका क्षत्रियों और दूसरे जनों में उत्थानन हुआ। कोलिय जिनकी युवती से सिद्धार्थ ने विवाह किया था, उसके मूल को कोल जनों में तलाश सकते हो। लिच्छ।वियों, मल्लों के साथ भी यही हुआ। जो जन स्वयं अपनी पुरानी वर्जनाओं से मुक्त हो कर खेती का सहारा ले कर आत्मोनिर्भर बन गए वे सभी क्षत्रिय बन गए। बन तो गए, पर अपनी पुरानी जनजातीय अस्मिता पर उन्हेव गर्व था। दूसरे भी उनको अपने बराबर नहीं मानते थे। इस तरह एक ही क्षत्रिय वर्ण में अनगिनत उपजातियाँ। इनके बीच एक दूसरे से श्रेष्ठ होने के दावे। यह दावा भी रक्त से संबंधित नहीं था। पुराने ब्राह्मण नये नये बने ब्राह्मणों को या शिक्षा आदि से जुड़े नये जनों को अपनी बराबरी का नहीं मान सकते थे। पहले तो ऊपर उठने वालों को उस वर्ण का दावा स्वयं करना होता जिसे पुराने मानने को तैयार नहीं होते। फिर आर्थिक संपन्नाता बढ़ने पर उनकी लड़की को विवाह में स्वीेकार किया जाता, क्योंकि अनुलोम में लड़की अपने से हीन जाति की ही होनी चाहिए। इस तरह ये रिश्तेि बढ़ते और फिर यह भूल जाता कि वे कभी जनजातीय पृष्ठनभूमि से निकले थे। परन्तु अकाल आदि दुर्दिनों में किसी वर्ण के लोगों को यदि स्था‍नान्तरित होना पड़ता तो उस क्षेत्र में उस वर्ण की जिन जातियों या उपजातियों के लोगों की संख्या अधिक होती उन्हें श्रेष्ठ मानना ही होता। वैश्यों में से कुछ के क्षत्रिय बनने के हवाले या ऐसे दावे कि वे पहले क्षत्रिय थे मिल जाऍंगे। बैसवाड़ा बैस क्षत्रियों का निवास है, गुप्त वंश के बारे में भी ऐसे मत हैं। मौर्यों के विषय में कहानियॉं हैं। नन्द भी इससे बचे नहीं । कहो यदि किसी ने बाहुबल से किसी क्षेत्र पर अधिकार कर लिया और अपने को क्षत्रिय घोषित कर दिया तो देर सवेर उसे क्षत्रिय मान लिया जाता था । एक तेली है, तेल पेरने का काम करता है इसलिए वह शूद्र है, वह तेल का व्यापार करने लगता है, या सुगन्धित तेल का कारोबार करता हुआ गंधी बन जाता है जो वह बनिया हो जाता है। परन्तु उनकी इस ऊर्ध्व गति में बाधक ब्राह्मण नहीं बनता था, उसी वर्ण के पुराने लोग बनते थे। यदि वे संपन्न हैं और ब्राह्मण को दान दक्षिणा देते हैं तो वह बिना किसी अवरोध के उनके विवाह आदि के संस्का्र करा देगा। वह उनके उच्चणवर्ण में या अवर्ण समाज से वर्ण समाज में प्रवेश में सहायक ही रहा है, बाधक नहीं। आक्रमणकारियों ने भी यहाँ के वर्ण समाज में इसी तरह जगह बनाई। परन्तुह ब्राह्मण का यह आग्रह बराबर रहा है कि वर्णसमाज बना रहे क्योंकि इसके चलते ही सा‍मान्य आर्थिक स्थिति में या विपन्नता की स्थिति में रहते हुए भी वह अपनी सामाजिक श्रेष्ठता कायम रख सकता था। 

तो जातियों के वंशागत होने का एक प्रधान कारण अपनी जनजातीय पहचान को बचाए रखने की चिन्ता और दूसरों को इधर से उधर होने से रोकने की चिन्तात रही है। सभी जातियों की स्थिति यही रही है और निर्वासित होने, पराजित होने आदि की स्थितियों में वनगमन करने वालों ने जनजातीय जीवन अपना लिया, और अपने पूर्वजों के क्षत्रिय होने का दावा करते हैं। परन्तु कुछ भी ऐसा न था जो आसान था, कुछ भी ऐसा नहीं जो असाध्य था।

२६/१२/१५ १६:५१:४०

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