त्रिकालदर्शी

“तुम एक दिन कह रहे थे, ‘इतिहासकार त्रिकालदर्शी होता है. ऋषि हो जाता है’. कहा था या नही?”

“कहा तो था.”

“आज भी मानते हो?”

“न मानने का कोई कारण नहीं.”

"तो यह देखो इतिहासकार क्या कहते है?" उसने हिन्दू का सम्पादकीय और समाचार वृत्त मेरे सामने कर दिया. इसमे अनेक जाने माने, अनेक कुर्सियों को तोड़ कर अनेक संभावनाओं की तलाश में देश-विदेश भटकते लोगों का नाम बड़े आदर से लिया गया था, जो कभी इतिहास पढ़ाया करते थे, प्राइमरी स्कूल के बच्चों से लेकर विश्वविद्यालय के छात्रों तक के लिए  इतिहास के रूप में पढाई जाने वाली किताबें लिखा करते थे. बच्चे उन किताबों को छोड़ कर दूसरी कोई किताब पढ़ न सकें, इसका भी इंतज़ाम कर लिया था. ये वे लोग थे, जिन्होंने आई सी एच आर को चलाया और उसके प्रोजेक्टों में काम किया था और जिनका नाम देश से लेकर विदेशों तक फैला था. इनको लग रहा था कि आज से बुरे दिन उन्होंने देखे ही नहीं. हो सकता है इतिहास की किताबों में कहीं पढ़ा भी न हो, क्योंकि देखने और पढ़ने का उनका तरीका दूसरों से कुछ अलग था.

सो उसने अख़बार मेरे सामने पटकते हुए कहा, "देखो ये इतिहासकार क्या कहते है?"

अखबार दो तीन दिन पुराना था, इसलिए लगा वह अपनी मनवाने की तैयारी के साथ आया था. मैंने पूछा " इनमें इतिहासकार कौन है?" 

वह हंसने लगा, "अब ऊँट आया पहाड़ के नीचे. मैं बताऊंगा ये कौन हैं?"

"बड़े लोग हैं, मैं भी जानता हूँ. पर इनमे इतिहासकार कौन है?" मैंने फिर दुहराया.

"तुम सीधे कहो कि ये इतिहासकार नही हैं."

"यही तो कह रहा हूँ. और यह मैं नहीं कहता, ये बेचारे खुद कहते हैं कि ये धंधेबाज इतिहासकार हैं, प्रोफेशनल हिस्टोरियन. कहते हैं या नहीं?"

"कहते हैं. कहते इसलिए हैं कि ज़िंदगी भर इतिहास ही पढ़ाया है. प्रोफेसर रहे है हिस्ट्री के."

"तो यह कहो कि इतिहास पढ़ाते रहे हैं. इतिहासकार क्यों कह दिया. जो आदमी ज़िन्दगी भर हिंदी साहित्य पढ़ाता रहा हो उसे साहित्यकार, आलोचक मान लोगे? जो फलसफा पढ़ाता रहा हो उसे फिलॉसफर मान लोगे. हद करते हो यार!”

“फिर तुम्ही बताओ कौन है इतिहासकार?” 

“दूर-दूर तह कोई दिखाई नही देता. जो है उसे मैं खुद नहीं देख पाता. नाम लेना शिष्टाचार के विरुद्ध है, पर तुम देखना चाहो तो देख सकते हो." 

वह कयास भिड़ाने लगा, फिर छातीफाड़ हँसी से लोटपोट हो गया. संभला तो बोला, "भई, कल एक बिल्ला बनवाकर लाऊंगा. तुम छाती पर लगा लेना, उस पर लिखा होगा, "रास्ता छोडो. इतिहासकार आ रहा है."

"निहायत अहमक आदमी हो. सोचा भी तो बिल्ले की बात. पूरा सूट नहीं बनवा सकते?" 

उसने हाथ मिलाया. चलो यही सही. 

मैंने समझाने का प्रयास किया, “सच कहूँ तो ये ऊँचे घरों के सुशिक्षित, परन्तु कामचलाऊ प्रतिभा के लोग हैं, जैसा कि सुविधाजीवी परिवारों के बच्चे होते हैं. पारिवारिक हैसियत का लाभ मिला है. पहुँच ऊंची है. इन्हे अंग्रेजी तो आती है पर इतिहास नही आता. इतिहास की परिभाषा तक नहीं जानते. इतिहासकार के कार्यभार तक को नहीं जानते. पढ़ रखा है. किताबों की कमी कभी हुई ही नहीं. घर में ही इतनी कि खिलौनों से ऊबे किताबों में पहुंचे. पर ज्ञान भी स्वभाव के अनुसार आत्मसात होता है. इनमे आत्मरति और द्रव्यादान-लोभ इतना प्रबल रहा है कि वर्तमान में भी केवल यह देख पाते हैं कि कहाँ-कहाँ से क्या-क्या, किस जुगत से, जोड़ा, कमाया और जुगाया जा सकता है. वैभव इनके पास प्रभूत मिलेगा. इनके व्यक्तिगत सान्निध्य में आने वाला इनके स्नेह और अनुग्रह से अभिभूत हो जाता है. ये गुण महिमा बढ़ाने में उपयोगी होते है.  

“ये इतिहास के तथ्यों से अवगत हैं परन्तु उनका उपयोग ईमानदारी से नही करते. इसका असर समझ पर पड़ता है. पक्षपात से विज़न मलिन हो जाता है - भाप से धुंधलाये शीशे या चश्मे की तरह. इसके लिए अवलिप्त बुद्धि का प्रयोग किया जा सकता है. गलत सिद्ध होने से घबराते हैं. वकीलों जैसी स्थिति है. सत्य और न्याय की रक्षा नहीं, जीत एकमात्र कसौटी है. लफ़्फ़ाज़ी और आत्मविज्ञापन पर अधिक भरोसा करते हैं.

“सत्ता से जुड़े लोग, चाहे वह राजसत्ता हो या धर्मसत्ता, सफलता चाहते हैं, सत्य की प्रतिष्ठा नहीं. वे पक्षधर होते हैं, अतः समदर्शी और तत्वदर्शी नहीं हो सकते. कम्युनिस्ट विचारधारा में तो प्रतिबद्धता पर, पक्षधरता पर वैसे ही ज़ोर दिया जाता रहा है. पक्षधर लोग तत्वद्रष्टा नही हो सकते. इतिहासकार जैसा कि तुमने याद रखा ऋषि होता है. दार्शनिक होता है वह. पूरी दुनिया में ऐसे द्रष्टा लम्बे समय बाद ही मिलते हैं. हम केवल यही कर सकते हैं कि निष्पक्ष होकर विचार करें और गलतियों का आभास मिलते ही उन्हें सुधार लें. इतिहासकार कहलाने के लिए इतना भी पर्याप्त है, परन्तु ये ऐसा नहीं करते.”

वह मेरी बात सुन तो रहा था, पर कुछ अनमनेपन से. मेरी बात समझने का दिखावा करते हुए, पर छूट भागने की सुरंग तलाशते हुए, मैं तरंग में था, "इन्होने तो इतिहास को भी गाली बना कर रख दिया. उन गालियों को ही युगसत्य बताकर उसकी ऎसी आदत डालते रहे कि तुम्हारे तथाकथित बुद्धिजीवियों को गाली बनाए जा चुके इतिहास क़े बिना मज़ा ही नहीं आता. ऐसा इतिहास जो गालियों को अनुचित और अवांछित बताये, वह सच हो सकता है, इसका इन्हे भरोसा ही नहीं होता, इसलिए विरोध करने पर वे तन कर कहते हैं, 'इसमें गलत क्या है." दुर्भाग्य से जो कम जानता है वह अपनी जानकारी पर बड़ी दृढ़ता से जमा रहता है. हारिल की लकड़ी छूटी तो ज़मीन पर आ गिरेगा. 

“रोज़ी रोटी के लिए इतिहास चुनने वाले बंधुआ पाठकों के मन में भले यह इतिहास उतार दिया गया हो, परन्तु इतिहास में जिनकी सहज रूचि है, उन्हें इनसे क्षोभ हो, उनमे से कुछ के मन में उग्र आक्रोश हो तो उसका जवाबदेह कौन है. उसे सनकी कह कर केवल उसे दोष देना समस्या का समाधान नहीं है.” 

मै रुका तो उसने ज़बान खोली, "जानते हो मैं चुप क्यों था."

“क्यों.”

"मै सोच रहा था तुम थक जाओगे तो अपने आप थक कर बैठ जाओगे."

मै हतप्रभ नही हुआ, "तुम घबरा रहे थे न? पर इतना तो समझ में आ ही गया होगा कि जो इतिहास को गालियों में बदल सकते है वे वे हैं, और जो गालियों को इतिहास मान सकते है वह तुम और तुम जैसे लोग हैं, जिन्हे कुर्सिया दिखाई देती है, पर सचाई नही. वे शांति के माहौल में भी अपने लेखन से उत्तेजना फ़ैलाने का प्रयत्न करते रहे है, वे उत्तेजित माहौल में इतनी देर तक बैठे रहे, यही आश्चर्य की बात है.

“थोड़ा ठहर कर मैंने पूछा, “जानते हो, किसी भी अन्य शाखा का कोई विद्वान अपने को पेशेवर (पेशेवर समाजशास्त्री, पेशेवर अर्थशास्त्री आदि) नहीं कहता. पहले ये भी नही कहते थे. इन्होने अपने को पेशेवर इतिहासकार कब से और क्यों लिखना आरम्भ किया?” 

वह नहीं जानता था. मैने बताया “1987 से.” 

“१९८७ से क्यों? उसमे ऎसी क्या खास बात थी.”

“उस साल एक किताब प्रकाशित हुई थी. एक ऐसे आदमी की जो अपने को आज तक इतिहासकार नही कहता.”

“क्या खास बात थी उस किताब में.”

“उसमें पन्ने पन्ने पर ऐसे सवाल उठाए गए थे जो देश देशान्तर के ऐसे इतिहास लेखको के उस काल पर समस्त लेखन को कचरे की ढेर बना देते थे.”

“मैं समझा नहीं. तुम पहेलियों में बात करते हो. उदहारण देकर बात करो.”

“मैं उसके एक मुद्दे की बात करूँ. लिखा था ऋग्वेद में रथ के हवाले गोरु के हवालों से अधिक बार और अधिक निर्णायक रूप में आए हैं. परिवहन के उन सभी साधनों का हवाला है जिनका भाप के इंजिन से पहले दुनिया में उपयोग होता था. नदियों को यात्रा पथ बताया गया है, फिर यह समाज चरवाहों का समाज हुआ या उन्नत अर्थव्यवस्था और अंतर्देशीय व अंतर्राष्ट्रीय व्यापार करने वाले समाज का? यह हड़प्पा सभ्यता का नाश करने वालों का साहित्य है या हड़प्पा भ्यता का अपना साहित्य? तुम समझ रहे हो मेरा मतलब? दिल्ली से नेहरू विश्वविद्यालय तक तहलका मच गया था. उस किताब को पढ़ने वाले छात्र जब सवाल करने लगे तो इसका खंडन करने की जगह यह बताया जाने लगा की ‘किसकी बात करते हो तुम, वह तो साहित्यकार हैं. पेशेवर इतिहासकार हैं ही नही.”

“तुम किस किताब की बात कर रहे हो?”

“यह न पूछो तो ही अच्छा. पर यह बताओ ऐसे लोगों को तुम इतिहासकार कह सकते हो?  ये इतिहास का पेशा करने वाले लोग हैं. इतिहासकार के पास दृष्टि होती है इनके पास कुर्सी रही है.”

“लेकिन एक बात तो मानोगे. अध्यापक बहुत अच्छे हैं”.

“वाक्कुशल हैं. अपनी बातों से मुग्ध कर देते हैं. अपनी गलत बातों को इस तरह रख लेते हैं की सुनने वाले को लगे यही सही है. पर अपने छात्रों को जान बूझ कर गलत इतिहास पढ़ाने वालों को अच्छा अध्यापक कह सकते हो? ये तो इतिहास के चार्ल्स शोभराज हैं. मशहूर वह भी कम नहीं है मगर वह अपनी सही जगह पर है, ये गलत जगह पर.

तुम कहोगे साहित्य और कला के भी चार्ल्स शोभराज होते है.

मैंने कहा, "तुम्हारे मुंह घी शक्कर!"

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