समझ का फेर

“तुमने कल मुझे चुनौती दी थी गलती निकालने की तो, गलती तो मेरी पकड़ में आ गई।“

मैंने उत्सुकता प्रकट की तो उसने कहा जो तुम अग्नि को सखा, बन्धु, पिता आदि कह रहे थे वह तो गीता का श्लोक है और इसमें विष्णु भगवान के साथ यह संबन्ध दिखाया गया है। तुमने उसे अग्नि पर विष्णु विष्णु से उठा अग्नि पर आरोपित कर दिया।“

"देखो, मैंने कहा है, सोचना अकेले में किया जाता है, पर यदि वह अपने तक सीमित रह जाय तो उसमें बहुत सारी कमियाँ रह जाती हैं। जब हमारे विचार दूसरों से टकराते हैं तो हमें अपनी कमियाँ समझ में आती हैं। मुझे कई कारणों से अपने एकान्त में ही काम करना पड़ा। मैं जानता हूँ मेरी तर्क श्रृंखला जितनी भी सुथरी लगे, किन्हीं पहलुओं की ओर ध्यान न जाने के कारण गलतियाँ हो रही होंगी। जब तुमने कहा तुमने गलती पकड़ी तो मुझे खुशी हुई और जब तुमने बताया,  वह गलती क्या है तो निराशा हुई क्योंकि इसे तो मैं पहले से जानता था, परन्तु उस रूप में नहीं बल्कि दूसरे रूप में।“

“तुम किसी न किसी तरह अपने को सही साबित करोगे, यह मैं पहले से जानता था।“  

“यह मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे बात करने को तुम्हारे सिवा कोई मिलता नहीं और तुम्हें सिखाया गया है कि तुम कभी अपनी गलती मानना नहीं।  मैं यह अपनी किसी किताब में लिख आया हूँ कि अग्नि तत्व को ही विष्णु नाम दिया गया। विष्णु का अर्थ है जो फैलता है, ईंधन उपस्थित हो तो एक जगह आग लगा दो तो वह स्वयं फैलता जाएगा। अग्नि ही सर्वत्र विद्यमान है, पानी में भी अन्यथा बड़वाग्नि की कल्पना और समझ क्यों होती, पानी बरसाने वाले बादलों में बिजली कैसे पैदा होती। काठ में अव्यक्त है,  स्पर्श मात्र से आग में बदलता चला जाता है। पत्थर पर कहीं भी चोट करो, उससे चिनगारियाँ निकलतीं हैं। इस तरह की अनेक उूहापोहों के बाद विष्णु की, उनके वामनावतार की अर्थात् आग की एक चिनगारी के रूप में कल्पना की जा सकी। इसका संबन्ध भी कृषिकर्म के आरंभ से है। मेरी जानकारी की जिस सबसे पुरानी कहानी में  इसका चित्रण है उसमें बलि और उनसे जुड़ी कथा का प्रवेश नहीं हुआ है।

“विष्णु का एक नाम उपेन्द्र है, अर्थात् इन्द्र से कुछ छोटा । विष्णु कृषि कर्म के साथ पैदा हुए, झाड़- झंखाड़ की सफाई के लिए प्रयुक्त अग्नि के स्फुल्लिंग के रूप में। परन्तु अग्नि तो स्वयं देवों तक उनका भाग पहुँचाने वाली सत्ता है। बम्बई के डिब्बावालों का आदिम रूप। इस सेवा कार्य में लगा कोई भी व्यक्ति या सत्ता सर्वोपरि तो हो नहीं सकती थी। जमीन की सफाई के बाद, खेती के लिए सबसे प्रधान समस्या सिंचाई की थी, इसलिए पानी का देव, जलाने और फैलने वाले देव या खेती की जमीन तैयार करने वाले देव पर भारी पड़ गया। आर्थिक उन्नयन के साथ यह पानी का देवता धन, वैभव और मस्ती का देवता भी बन गया। उसका यह रूप ही नागर सभ्यता के ह्रास और पुनः कृषि के एकमात्र आधार रह जाने के कारण उपेन्द्र के सर्वोपरि बनने और इन्द्र के पराभव का जिम्मेदार माना जा सकता है। यह मेरा विचार है। 

"जब मैं कहता हूँ यह गलत भी हो सकता है तो आपसे दो निवेदन करता हूँ, पहला यह कि मेरे कहे को मत मानो, स्वयं जाँचो और सोचो। दूसरा यह कि सही तो कोई हो ही नहीं सकता। कारण, यथार्थ., या वस्तुस्थिति इतनी जटिल होती है कि उसके अंशमात्र को ही हम देखने, समझने और बदलने और अपनी इच्छानुसार चलाने का स्वप्न देख सकते हैं। मैं जब कई बहानों से अपनी आलोचना करने को  तुमको उकसाता हूँ तो इसलिए नहीं कि मैं अपने को सर्वथा सही मानता हूँ। सही जैसा कुछ होता ही नहीं। सही कोई होता ही नहीं। हम सही होने का प्रयत्न कर सकते हैं परन्तु पूरी तरह सही कभी हो ही न पाएँगे। हो गए तो प्रलय आ जाएगी। मौत उपस्थित होगी और मौत से पहले इन सवालों का कोई दूसरा समाधान नहीं है इसलिए पूर्णता होती नहीं। हम उसे हासिल करने की मंजिलें तय करते रहते हैं।“

“तुम कह रहे हो मैं कल तुम्हारी बातें सुनते सुनते जँभाइयाँ लेने लगा था। मुझे तो अभी से जँभाई आने लगी। तुम किसी की सुनते नहीं हो अपनी ही हाँके जाते हो।“

“मैं यही चाहता हूँ । तुम मेरी सुनो पर मानो नहीं, अपनी समझ से काम लो और मुझे उस दिशा में एक चरण आगे बढ़ने में मदद करो और अपना फर्ज पूरा करो। जो तुम्हें अधिक समझदार बनाना चाहता है, उसे तुम भी कुछ समझदार बनाओ। उससे सीखो भी और उसे सिखाओ भी। तुमने अभी शुरुआत की है, कल से और गलतियाँ तलाशना।“ 

“मैं नहीं समझ पाता कि तुम कब कोई बात व्यंग्य में कह रहे हो और कब सच बोल रहे हो।“

“देखो जो सच को जानना चाहता है वह सोचते समय व्यंग्य से भी बचेगा और विनोद से भी बचेगा। मैं अपनी समझ की सीमाएँ दिखावे के लिए, अपने को विनम्र सिद्ध करने के लिए नहीं बताता हूँ । जो सच है उसे जानता हूँ और स्वीकार करता हूँ। पर मानता हूँ  कि हम ज्ञान के अगले चरणों पर अपनी कतिपय पिछली सीमाओं को समझ पाएँगे और पहले से अधिक जान पाएँगे पर सब कुछ तब भी न जान पाएँगे। इस सवाल को ले कर अस्तित्ववादियों ने एक बार गहरी पड़ताल आरंभ की थी, पर उनको समझने में चूक हुई।

“मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि मैं जो कुछ जानता हूँ ठीक वही तुम नहीं जानते और कुछ बातें तुम जानते हो जिनका मुझे पता नहीं। उस अगली जानकारी के कारण तुमको मैं गलत लग सकता हूँ। तुम यह मान कर चुप रह जाओ कि मैं कुछ अधिक जानता हूँ तो मुझसे जो चूक होती आ रही है उसे मैं समझ नहीं पाऊँगा। इसलिए तुम मुझे गलत बता कर मुझे अपनी गलतियों को सुधार कर पहले से अधिक समझदार बनाने में मदद कर रहे हो। यह काम छोटे बच्चे भी कर सकते हैं। ज्ञान से अधिक जरूरी है अपने विचार को बिना किसी आवेग के या सादर पर निडर हो कर प्रस्तुत करना। ज्ञान के उत्कर्ष की यात्रा यहाँ से शुरू होती है। यह मेरी समझ है पर जरूरी नहीं कि यह सही हो।

12/16/2015 9:40:46 PM

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