रितु आए फल होय

"आजकल तुम कम्युनिस्ट पार्टी के पीछे हाथ धोकर पड़े हो. सांडों के बारे में सुना था वे लाल कपड़ा देखकर भड़कते हैं, पर तुम तो लाल सलाम सुन कर भी भड़क जाते हो.

"मैं भडकता नही, अपनी व्यथा उजागर करता हू."

"बात वही हुई. अपने पर काबू नही रख पाते. मेरी सलाह मानोगे?

मैं कुछ बोले बिना ही उसकी और देखने लगा.

"मेरे साथ शाहदरा तक चलोगे?"

"तुम्हारे साथ तो नरक में भी जाने को तैयार हूँ, कब चलना है."

"जब भी तुम्हे फुर्सत हो. वहाँ मेरे एक अच्छे दोस्त रहते हैं. वह तुम्हारी मदद कर सकते हैं?"

"मुझे किसकी मदद की ज़रूरत? मैं अकेला ही एक अक्षौहिणी के लिए काफी हूँ."

"तुम नही समझोगे. मानोगे भी नहीं. अकेले तो पड़ ही जाते हैं ऐसे में लोग. हालत थोड़ी और बिगड़ती है तो जिस तिस पर पत्थर भी मारने लगते हैं."

अब मैं समझा, "तो तुम कल का बदला ले रहे थे? थोड़ी गलती मुझसे हुई भी थी. मुझे सही विशेषण का प्रयोग नही करना चाहिए था. सही नाम ले भी नही सकता था. लेकिन देखो तो भेड़ें भी गडरिये के मोड़ने पर मुड़ने में कुछ समय लेती हैं. पर तुम्हारी पार्टी में तो एक बोल पर ही सब के सब मुड़ जाते हैं. भेड़ों का झुण्ड कहता तो तुम और आहत हुए होते और पागलखाने की जगह कत्लगाह में खींच ले जाते. है न?

" मानता हूं कुछ कमियां होती हैं कम्यनिस्ट पार्टियों में भी, मगर कमियां ही देखोगे या अच्छाइयों पर भी ध्यान दोगे?"

"अच्छाई तो हो ही नहीं सकती. लेढ़ा. जानते हो इसका मतलब. नहीं जानते हो. कटहल के फल का जो बतिया होता है वह टूट कर गिर जाता है उसे लेढ़ा कहते हैं. उसी तरह जैसे आम की अमौरी टूट कर गिर जाती है… 

उसने टोका, "हमारे यहाँ उसे अमिया कहते हैं."

"अमिया को हमारे यहां टिकोरा कहते है. उसका तो फिर भी कुछ उपयोग है, मैं उस अवस्था से पहले की बात कर रहा हूँ, अमौरी की. मैंने आज तक न तो किसी को इनमे कोई गुण तलाशते देखा न इनका उपयोग करते देखा. जानवर भी इन्हे सूंघ कर छोड देते है. वैसा ही है तुम्हारा यह कम्युनिस्ट आंदोलन. इसमें न तो कोई अच्छाई पैदा हो सकती थी, न ही पैदा हो सकती है. सड़ने से थोड़ी बदबू भले फैल जाय और उसे खुशबू का जनवादीकरण कह कर भले अच्छे अच्छों को लम्बे समय तक भरमा लिया जाय. पर हुई तो वह भी बर्वादी ही. असमय भ्रूणपात से किस बात की उम्मीद करते हो. यह एक दुर्घटना है. दुर्भाग्यपूर्ण है. इसने असंख्य अनमोल रत्नों को भ्रमित कर दिया पर जो कुछ हुआ वह या तो विनाशकारी रहा या व्यवधानकारी. कल्याणकारी तो कुछ दीखता ही नहीं.”

वह चुप सुनता रहा.

"देखो. तुम लोगों ने बिदेसी पढ़ाई कुछ ज़्यादा की है जो हमारे खास काम की नही है. देसी ज्ञान भी बटोरा होता तो उस इबारत पर भी ध्यान गया होता जो अनपढ़ों की भी ज़बान पर रहता है. 

"धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय. माली सींचे सौ घड़ा रितु आए फल होय."

तुम जनबल से, पूरी ताक़त झोंक कर जो चाहते हो कर जाने का सपना देखते हो. भविष्य को भुजबल से खींच कर आगे लाना चाहते हो. इतने सारे लोग सक्रिय होंगे तो कुछ न कुछ तो होगा ही पर वह इच्छित फल देगा यह सम्भव ही नही. जब बहुत अधिक ऊर्जा का उन्मोचन होगा, इतनी कि जिसको नियंत्रित करने का तंत्र हमारे हाथ में न हो, तो वह अनिवार्यतः विनाशकारी होगा, चाहे वह उन्मोचन प्राकृतिक हो या मानवकृत. वह भूचाल हो, महा प्लावन हो, सुनामी हो, अंधड़ हो, एटम बम हो या पलीता. उससे होगा उत्पात या उपद्रव ही.”

“कहते  जाओ. रुक क्यों गए?  मैं सुन रहा हूँ." उसने अनुत्तप्त स्वर में कहा.

"रुक गया इन शब्दों के मूल आशय पर ध्यान चला गया था इसलिए. उत्पात, छलांग लगा कर ऊपर आ जाना. उपद्रव फूटकर ऊपर उछल जाना. तो मैं सोचने लगा जिसे क्रांति कहा जाता रहा है वह है तो उत्पात या उपद्रव ही. तुम्हारा क्या ख़याल है?”

मैंने प्रश्न तो किया था पर उत्तर पाने के लिए नही, उसकीं  खीझ का मज़ा लेने के लिए, इसलिए बिना रुके आगे बढ़ गया, "और देखो, अनियंत्रित भावावेश का भी उन्मोचन होता है तो उससे भी उपद्रव ही होता है भले उसे मानववादी तेवर अपना कर उचित ठहराने का नाटक किया जय. खैर, तुम खुद देखो, हड़ताल, प्रदर्शन गांधी ने भी किये थे परन्तु उसमे उतना ही धैर्य और अनुशाशन भी था. गांधी की हड़ताल को तुमने कहाँ पहुँचा दिया.  पहली बार कलकत्ते में इस हड़ताल का रूप देखा तो मेरे होश उड़ गए. लोग उन्हीं बसों को आग लगा रहे हैं जिनमें उन्हें चलना है. उन्ही ट्रामों के शीसे तोड़ रहे हैं जिनसे उन्हें चलना है. जाड़े के दिन थे और कलकत्ते में भी जाड़ा तो पड़ता ही है. बिलवा मंगल की कहानी याद आई जो उसी डाल को काट रहा था जिस पर वह बैठा था. तुमलोगों को वह कहानी याद नही आती होगी, इसलिए तुम बिल्वमंगल ही बने रहे, कालिदास बन ही नही सके. कितने कल कारखाने नष्ट किये, कितनों को बेकार किया, कभी हिसाब लगाया? भारत को अपनी ज़रूरत के सामान खुद बनाने लायक नही रखा, बाजार उपनिवेशवादियों ने अपने लिए बनाया था. तुमने बाजार से आगे बढ़ने ही नही दिया. घड़ी से लेकर कर टक्सी-तमंचा तक बाहर से आरहा है. आयात हो रहा है. हमारे पैसे से दूसरों का घर भर रहा है, दूसरों को रोज़गार मिल रहा है और तुम मर्दुमशुमारी करते हो इतने किसानों ने आत्महत्या कर ली. यह तुम्हारी समझ की दें है. अंग्रेज़ी राज में भी नहीं सूना था किसानों को आत्महया करते. तुम्हारे बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहेहोंगे पर जहां हमारे बच्च जाते हैं वहां पढ़ाई नहीं होती. तुमने उन्हें यूनियनबाज़ी सीखा दी...." मैं सचमुच उत्तेजित हो रहा था. अपने को नियंत्रित करने के लिए चुप हो गया. 

कुछ संभला तो स्वर को धीमा करते हुए कहा, "अंग्रेज़ों ने हमारे उद्योग धंधों को नष्ट करके इसे बाजार बनाया था. तुमने अपनी सनक में उद्योग धंधों को नष्ट करके उससे भी बदतर बाजार बना दिया. हमारी गुलामी आर्थिक थी – ‘पर धन बिदेस चलि जात यहै अति ख्वारी.’ तुम्हारी कृपा से आर्थिक गुलामी बढ़ी है. पहले गरीबी थी पर क़र्ज़ का बोझ नही था. अब क़र्ज़ का बोझ भी है और जानते हो मॉनेटरी फण्ड का जो पैसा क़र्ज़ के रूप में लिया जाता है वह उन देशों का है जिनका पूंजीवादी विकास हुआ. तुम हम जिन उपकरणों और सुविधाओं का भोग कर रहे हैं वह उनके यहाँ से आयात हो रहा है.” 

बहुत देर बाद उसने ज़बान खोली, "यह बताओ, हिस्ट्री-विस्ट्री पर काम करते हो यह तो सुना था, लेकिन तुम अर्थशास्त्री कब से हो गये.

हिस्ट्री विस्ट्री पर काम नही करता रहा हूँ इतिहास पर काम करता हूँ जिसे तुम तब तक नही पढ़ पाते जब तक वह हिस्ट्री न बने, अंग्रेज़ी में न आजाय. इसलिए तुमने पढ़ा नही है, सुना है. पूरा सुना भी नहीं होगा नहीं तो कथाएं और अंतर्कथाएँ सुननी पडती. रही अर्थशास्त्री बनाने की बात तो यह जानने के लिए अर्थशास्त्री होने की ज़रूरत नही पडती कि लाखों किसानों ने आत्महत्या की और तुम्हारे पास उसकी कोई समझ थी न सही व्याख्या. तुम्हारी कृपा से हमने ज्ञान का भी ऐसा सत्यानाश किया है कि अब कोई विदेशी इस पर शोध करेगा तो हमें पता चलेगा किसान आत्महत्या करने के शौकीन कैसे हो गए. तुम्हारे अध्यापक तो अपने विषय को छोड़कर राजनीति करते रहे.    

तुम्हारी पार्टियों को जहां भी मौक़ा मिला है यही किया है. 

"एक बात और सुन लो. जानता हूँ सुन कर भी मानोगे नही. अभी कुछ दिन पहले एक दुधमुंहे मित्र ने पूछ दिया ‘इतनी बड़ी-बड़ी बातें करते हो, तुम्हारे साथ कितने लोग हैं. हैसियत क्या है तुम्हारी?’ तो लगा बात तो ठीक ही है. किसी बात के प्रभावशाली होने के लिए वक्ता का प्रभावशाली होना एक ज़रूरी शर्त तो है ही, इसलिए उसके माध्यम से इसे कहना चाहूँगा जिसे तुमने तो ज़रूर पढ़ा होगा. पढ़ा होगा पर समझा नही होगा."

वह हंसने लगा. 

"तुम लोग पढ़ते इतना अधिक हो कि समझने की फुर्सत ही नही होती यह सोच कर तो कहा ही, इसलिए भी कहा कि इससे न रूसियों ने सबक सीखा न तुमने. जिसकी बात कर रहा हूँ उसका नाम है टॉलस्टॉय.  

युद्ध और शांति पढ़ा है न. पढ़ा है तो उसके अंतिम पन्नों में, वह उपन्यास का हिस्सा भी नही है. उसका उत्तरकाण्ड है. एपिलोग. टॉलस्टॉय का वह दार्शनिक विवेचन याद करो जिसमें वह नैपोलियन को महाकाल के हाथ का एक क्षुद्र खिलौना सिद्ध करते है.

मैंने कहा पास ही तो चलना है . चलो दिखाता हूं. मैंने 'वॉर एंड पीस' का एपिलोग उसके सामने रख दिया और उसमें से एक ख़ास पन्ने के कुछ वाक्यों को जिन्हे अंडरलाइन कर रखा था ध्यान से देखने को कहा और पूछा क्या तुम्हे पता था की लेनिन टॉलस्टॉय की कृतियों से क्यों डरते थे. कई लोग कई कारण गिनाएंगे, पर मुझे लगता है युद्ध और शांति के उत्तरकाण्ड के कारण." एक वाक्य अंग्रेज़ी तर्जुमे में इस तरह है:

Power is the collective will of the masses, vested by expressed  or tacit consent in their chosen leader. 

और मैं कहना चाहूँगा कि तानाशाह सबसे कमज़ोर और डरा हुआ प्राणी होता है. उसे अपने अंगरक्षकों तक से डर लगता है, आईने से भी डर लगता है.

और दूसरा वाक्य: 

Through his reason man observes himself, but only through consciousness does he know himself.

“आत्मनिरीक्षण करो. अपने को जानो. अपनी  पार्टी को भी. अभी तो तुम्हे यह भी पता नहीं कि तुम खड़े कहाँ हो.. चाय चलेगी.”

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