सच तो ये है कि कुछ पता ही नहीं

तुमसे असहमत होना इसलिए कठिन है कि असमति जताते ही तुम उस पर एक घंटा बोर करोगे। फिर भी यह बताओ मैंने जो पढ़ा है उसमें तो यह बताया गया है कि खेती का आरंभ स्त्रियों ने किया।“

‘‘यह जरा टेढ़ा सवाल है। लगता है तुमने डी.पी. चट्टोपाध्याय की पोथी पढ़ रखी है और उन्होंने एक ओर तो अपनी मातृदेवी प्रधान क्षेत्रीय संस्कृति से प्रेरणा ग्रहण ही और दूसरी ओर मार्गन आदि से। नृतत्व का जो अध्ययन हमारे पास था वह अधूरा था। लेकिन वह आधा सच भी सच तो है ही। ऐसे समाज आज भी हैं जो मातृप्रधान हैं और जिनमें पुरुष लगभग उतने ही दबाव में या वशवर्ती हो कर रहता है जैसे हमारे समाज में स्त्रियाँ। प्रकृति नरप्रधान रही है। पशुओं में भी चाहे हमारा अग्रज बन्दर हो या गोनर्द या दूसरे नरप्रधान हैं।“ 

‘‘मनुष्य में यह उलट कैसे गया। और उलटा तो समग्रतः उलटा या इसके अपवाद थे?”

‘‘इसीलिए अर्थव्यवस्था को सामने रखें तो कुहासा छँट जाता है। जोखिम और दुस्साहस के काम पुरुष के जिम्मे और घर परिवार का कुशल क्षेम स्त्री के जिम्मे। बान्तू जनों में साग, कन्द, बेरी और फल जुटाना, अर्थात् आहार संचय, स्त्री का काम और शिकार का जिम्मा पुरुषों का। जिस समय तक की जानकारी हमें उपलब्ध है उस समय तक वे जत्था बना कर निकलते रहे हैं और कभी-कभी कई-कई दिनों के बाद एक शिकार लादे चले आ रहे हैं। इस बीच वे भी कन्द फल जुटा कर ही पेट भरते रहे होंगे। पर यह माडलों वाला अध्ययन कि एक या कुछ समाजों में कुछ देखा और उसे सब पर लागू कर दिया, यान्त्रिक है, और बौद्धिक आलस्य को भी प्रकट करता है। यदि पुरुष को किसी भी कारण से लंबे समय तक किसी प्रयोजन से अनुपस्थित रहना होगा तो घर परिवार स्त्री के चलाए ही चलेगा। समाज मातृप्रधान रहेगा। केरल के नायर बड़े बहादुर होते है। भाड़े पर उन्हें साहसिक कामों के लिए दूसरे नौचालक भी ले जाते रहे। समाज मातृप्रधान बना रहा। यहाँ तक कि पशुचारी समाजों में भी स्त्री अधिक स्वतंत्र रही है यह तो गोपियों और कृष्ण की लीलाओं में भी देखा जा सकता है। यदि किन्हीं परिस्थितियों में पुरुष उसी परिधि में रहने लगा जिनमें स्त्री रहती है तो आदिम अर्थव्यवस्था में दोनों संभावनाएँ रहेंगी। 

‘‘तुम्हारी समझ से, हमारे समाज की स्थिति क्या थी?”

‘‘हमारा समाज जिन समुदायों से बना है उनमें दोनों प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं। एक ओर तो शाकंभरी देवी है, और दूसरी ओर यह कथा कि देवों ने शाकमेध से वृत्र का वध किया, महिषासुर अर्थात् खेती को क्षति पहुँचाने वाले भैंसो आदि को भगाने का, काम जिसमें आदिम कृषि भी आती है, नारी ने सँभाल रखा है। और दूसरी ओर उसका एक रूप वह है जिसमें शिव को परास्त करके उसके शव की छाती पर पाँव रख कर खड़ी कलकत्ते की काली है। अर्थात् पुरुष प्रधानता पर नारी प्रधानता की विजय। एक ओर दिवस  प्रधान विवस्वान, यमराज और कालदेव की कल्पना, दूसरी ओर रात्रिप्रधान काली के रूप में उसी कालदेव की कल्पना। एक ओर मातृ नाम से व्यक्ति का परिचय कौन्तेय, कौशल्यानंदन, जाबालि, सुवर्णाक्षीपुत्र, गार्ग्य आदि और दूसरी ओर  पांडव, रघुनाथ राघव, मानव। सच तो यह है मेरा अपना अध्ययन टोहपरक या एक्सल्पोरेटरी ही रहा है। उसके एक एक पहलू को गहनता से अध्ययन करने के लिए कई अध्येता अपना पूरा जीवन लगाएँ तब हम अपनी निजी ज्ञानव्यवस्था का निर्माण कर सकते हैं। पश्चिमी ज्ञानव्यवस्था साम्राज्यवादी है। सब कुछ मेरे अधीन हो जाय, जो अधीन नहीं होता उसे सीधे या उपेक्षा से या बदनाम करके नष्ट कर दिया जाय। यह धर्म और विश्वास से आरंभ हो कर ज्ञान विज्ञान तक पहुँचा है।“

“तुम्हारा वश चले तो तुम फिर शिक्षा प्रणाली को गुरुकुल आधारित बना दो और वेद पाठ से अक्षरज्ञान कराना आरंभ करो।“

“तुम बेवकूफ के बेवकूफ इसलिए रह गए कि ध्यान से न किसी बात को सुनते हो न समझते हो, डरे रहते हो कि यदि समझ में बात आ गई तो अपनी विचारधारा बदलनी पड़ जाएगी। ध्यान देते तो याद आता कि मैं कई बार कह चुका हूँ पश्चिम ने हमसे जो कुछ सीखना था, चुपचाप सीखा और इस तरह आत्मसात् कर लिया मानो यह उसी की परंपरा का अंग हो। उसने नकल किसी चीज की नहीं की। तुमने पश्चिम से सीखा कुछ नहीं केवल नकल की और उसके छायापुरुष और मरीचिका बनने के प्रयत्न में अपनी सत्ता तक मिटा दी।“ 

‘‘हम कृषि पर बात कर रहे थे। उस पर ध्यान दो। यह मेरी समझ है, गलत भी हो सकती है। आरंभिक चरण पर विविध कारणों से जिनमें से एक शिशु-पालन भी हो सकता है, गर्भ का भार भी हो सकता है, बंधे दायरे का काम, कहो शाकाहार का प्रबन्ध, स्त्री के जिम्मे था और शिकार आदि का पुरुष के, इसलिए यह सूझ स्त्री की हो सकती है कि जिन अनाजों को हम झड़ जाने के बाद यथालभ्य जुटा कर लाते हैं और जिनको भून और कूट कर खाने से अधिक शक्ति मिलती है उनको स्वयं उगा कर और दूसरे जानवरों से बचा कर क्यों न रखा आय। झूम खेती तक उसकी भूमिका प्रधान रही हो सकती है, परन्तु वहाँ भी रक्षा का भार पुरुष पर या वह जो शिकार पर निकला करता था उसकी ही रही होगी। परन्तु जहाँ से स्थायी खेती आरंभ हुई, जमीन को खरोंचने के यन्त्रों की बाध्यता हुई, औजारों की जरूरत हुई  वहाँ से पुरुष की भूमिका बढ़ने लगी। और फिर जब एक नुकीले डंडे या अर/अल को खींचते हुए आसानी से अधिक खरोंच संभव हुआ। पुरुष उस डंडे से बँधी रस्सी खींच रहा है जिसका आगे चल कर हरीस के रूप में विकास हुआ और स्त्री उस नुकीले डंडे को दबाए हुई है। इस अर या अल जो विकसित हो कर हल/हैरो बना, को ही आर्य या कृषिकर्मी की संज्ञा का भी जनक कहा जा सकता है। 

तस्वीर बहुत साफ नहीं है। काम ही नहीं हुआ। दूसरे उस गहनता में उतर कर काम करते तो उनकी वे मान्यताएँ खंडित होतीं जिनको बड़े श्रम से उन्होंने हमें गुमराह करने को तैयार किया था और हो सकता है उनसे उनकी समझ भी प्रभावित हुई हो। इन विचारों के पश्चिमी ज्ञानव्यस्था में घुन की तरह बने रहने के कारण, पश्चिम का आज का चिन्तन भी अन्तर्विरोधों से भरा मिलेगा और पश्चिम के भी पूरे काम का नहीं है, हमारे काम का तो हो ही नहीं सकता।

तुम्हें कोई दूसरा जान तो सकता है परन्तु उसकी पहुँच उस विशाल भंडार तक नहीं हो सकती जो अव्यक्त रह गया है फिर भी तुम्हारे विचारों और कार्यों को प्रभावित करता है। इसे तुम्हे जानना होगा। आत्मानं विद्धि का सूत्र एक व्यक्ति के रूप में उतना ही सार्थक है जितना एक समाज के रूप में। हमने किसी क्षेत्र में कोई ऐसा काम नहीं किया जिसके नियम और पाले पश्चिमी वर्चस्ववादी तकाजे से न तैयार किए गए हों जब कि कच्चे माल का विशाल भंडार हमारे पास है, परन्तु उसे इस पाले में रहकर या नियमावली में बँध कर नहीं समझा जा सकता। 

“खैर जिस वर्णव्यवस्था की बुनियाद की बात मैं कर रहा था वह स्थायी कृषि के संस्थित या पूरी तरह स्थापित हो जाने से आरंभ होती है जहाँ कृषि कर्मियों की शक्ति इतनी तो बढ़ ही गई थी कि वे असुरों का जमकर प्रतिरोध कर सकें न कि जान बचा कर किसी अन्य क्षेत्र में पलायन करें। परन्तु क्या हम वर्णव्यवस्था को भी समझते हैं। जातिव्यवस्था तो इससे बिल्कुल भिन्न है और अस्पृश्यता का उदय और भी जटिल है और इसका एक पहलू उससे जुड़ा है जिसे क्वारैंटाइन कह सकते हो।  इन पर अधिकारी लोगों को समय लगा कर काम करना चाहिए। पर वे काम करने की जगह राजनीति करते रहे। झगड़ा लगाने के लिए जितना काम जरूरी था वह वे कर गए। मिल कर रहने के लिए जिस गहरी समझ की जरूरत है उसे तुम्हें करना चाहिए था। वाचालों की तुम्हारी पूरी लश्कर में कोई एक भी विद्वान हो जिसने इन सवालों को गहराई से समझने का प्रयत्न तक किया हो तो उसका नाम पता लगा कर बताना। उसका दर्शन करना चाहूँगा।“

12/18/2015 10:09 AM

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