न समझे हैं न समझेंगे

न समझे हैं न समझेंगे कभी हिन्दोस्ताँ वाले
छिपे दुबके रहेंगे अपने अपने आशियानों में।
कुलों में जातियों, फिरकों में मजहब के झमेलों में
फसाना बन कर रहना चाहते हैं वे फसानों में।।

अदायगी की दाद दी तो वह सिर पर सवार हो गया। बोला लो कुछ और सुनाता हूँ।

मैंने रोक दिया। धीरज की परीक्षा मत लो। है तो यह इक़बाल की पैरोडी ही न। 

उसका उत्साह ठंडा पड़ गया। मानना पड़ा कि है तो पैरोडी ही, पर बताया कि उर्दू में पैरोडी को  ऊँचा दर्जा हासिल है। लोग दूसरों के मिसरे ले कर अगला मिसरा ठोंक देते हैं और इसी से अपने को उसकी बराबरी का मान कर आईने के सामने अपनी पीठ थपथपाते  हैं। फिर एकाएक छलांग लगाया, ‘यह बताओ, तुम्हें मुस्लिम लीग से ही घृणा क्यों है?’’

जी में आया एक जोर का मुक्का उसके मुँह पर, सीधे नाक पर, मारूँ और पूछूँ यह खयाल तुझे आया कहाँ से? पर सोचा मेरे मुक्के से इसका कुछ बिगड़े या न बिगड़े, उत्तेजित हो कर वह जो घूँसा जमाएगा, उससे मेरे होश हवास गुम हो जाएँगे। इसलिए समझदारी का आविष्कार करते हुए कहा, ‘‘क्या मैं यह नहीं कह आया हूँ कि जो जिससे घृणा करता है उसे समझ नहीं सकता?’’

उसके पास कोई जवाब नहीं था, चुप रहा, पर उस तरह की चुप्पी जिसका अर्थ होता है, उत्तर नहीं सूझ रहा है परन्तु मैं तुम्हारे विचार से सहमत नहीं हूँ।

‘‘मैं जानता था। सहमत होने या समझने के लिए भी कुछ समझ तो होनी चाहिए’’  

‘‘पहेलियाँ मत बुझाओ।“

क्या तुम्हें पता है कि मुस्लिम लीग अंग्रेजों की चाल से ही नहीं, हमारी मूर्खता और बंगाली स्वार्थपरता से पैदा हुई थी। देखो यह मेरी समझ है। कोई दूसरा इसकी छानबीन करे तो इसमें गलतियाँ निकल सकती हैं।“

“मैं समझूँ तो, कि तुम कहना क्या चाहते हो।“

देखो, अंग्रेजों ने कलकत्ता को अपनी राजधानी बनाया। इसमें ही शिक्षा और अमलातन्त्र तैयार करने के अपने प्रयोग किए। अंग्रेजी राज के नीचे से एक बंगाली राज आरंभ हुआ। बंगाल एक बड़ा राज्य था। इसके भीतर बिहार का भी काफी हिस्सा आता था। असम और ओडिशा  का भी समावेश इसी में था। इनकी शिक्षा की भाषा बंगला कर दी गई थी। अध्यापक, डाक्टर, वकील, सरकारी नौकर सब में बंगालियों का प्रभुत्व था और हालत यह की बंगालियों को लम्बे समय तक मुगालता रहा की वे एक सुपीरियर रेस हैं। उनके आचार व्यवहार में इसकी छाया आज तक बची मिलेगी। बंगाली आधिपत्यवाद के चलते ओड़िया, मैथिल, असमिया और पूर्वी बंगाल की भाषाओं को बांग्ला की बोलियाँ माना जाता था। स्थानीय लोग इससे असन्तुष्ट और कुंठित अनुभव करते थे, परन्तु यह आधिपत्य भाव बंगाल के उदार माने जाने वाले लोगों में भी था। ठीक उस समय जब कांग्रेस स्वायत्तता की माँग की दिशा में बढ़ रही प्रशा सनिक तकाजे की आड़ में साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने में ब्रिटिश कूटनीति को सफलता मिली। यदि कुछ परिपक्वता दिखाई जाती, इस प्र शासनिक विभाजन को प्र शासन की समस्या मान कर इसकी ओर ध्यान न दिया गया होता तो इसने दोफाँक बटवारे का रूप नहीं लिया होता। इसकी सबसे बड़ी विषेशता थी कि कांग्रेस के भीतर हो या बाहर सभी मुसलमान विभाजन के पक्ष में थे, और सभी हिन्दू इसके विरोध में। कहें मनोवैज्ञानिक आधार पर पाकिस्तान की नींव इसी समय पड़ गई थी जिससे वह सूत्र निकला था कि मुसलमान हिन्दुओं के साथ सुख-चैन से नहीं रह सकते। जिन्ना ने इसे अधिक तार्किक बना दिया। मोटे तौर पर तुम कह सकते हो, सभी मुसलमानों के भीतर मुस्लिम लीगी चेतना दबे या खुले रूप में बनी रही है, जब कि हिन्दुओं में इसने इतना स्पष्ट तेवर नहीं लिया फिर भी इससे बचा शायद ही कोई था।“

“तुम इसे बहुत इकहरा बना दे रहे हो।“

“हाँ इकहरा तो है, इकहरा इसलिए है कि हम इसके उजागर पक्ष को ले रहे हैं। चेतना के स्तर पर इसकी जड़ें बहुत पीछे तक, तुम कहना चाहो तो मध्यकाल तक, और आगे बढ़ना चाहो तो मुहम्मद साहब तक और उससे भी पीछे ले जाना चाहो तो ईसाइयत के विस्तार काल या उसके जन्म काल तक ले जा सकते हो। हम कोई निर्णय लेते समय कई युगों और युगान्तरों के सूत्रों से प्रभावित होते हैं। वे दिखाई नहीं देते पर उनका दबाब कम निर्णायक नहीं होता।“

“तुम्हारा जवाब नहीं भाई! भइस बिआनी मोहबा गढ़ में पढ़वा गिरा फरुख्खाबाद! लीग को लिए दिए पहुँच गए ईसाइयत के जन्म तक।“

“इसलिए कि मुस्लिम मनोरचना के निर्माण में सामी पृष्ठभूमि का बहुत बड़ा हाथ है परन्तु मुहम्मद साहब ने उस प्रभाव को मेरे अनुमान से ईसाइयों से अपनाया था और कुछ दूर तक उन्हें ही माडल बनाया था। यह जो हिजाब है, यानी बुरका का चलन ईसाई ननों से आया लगता है । जिस कबीले में मुहम्मद साहब का जन्म हुआ था वह तो मातृप्रधान था और जिन बद्दुओं के बीच उनका बचपन बीता था उसमें तो महिलाओं को बहुत स्वतन्त्रता थी। यह ईद, बकरीद, बुतपरस्ती का विरोध सब, नामकरण और माइथालोजी तक। जालीदार टोपी जो हाल में बड़ी लोकप्रिय हुई है पोप के सर पर भी दिखाई दे जायेगी। तो मुस्लिम मनोरचना में अस्मिता के ये जो सूत्र हैं बहुत दूर तक जाते हैं और समय समय पर बखेड़े इनके माध्यम से ही पैदा किए जाते रहे हैं। 

“और बंगाल के जिस बटवारे की बात कर रहा हूँ वह भी सन 1904 में या 1905 में एकाएक नहीं आ गया। इसकी तैयार उन्नीसवीं शताब्दी में ही आरंभ हो गई थी।“

“विश्वास नहीं होता। तुम अक्सर अति पर चले जाते हो।“

“पहले सुनो। जान बीम्स ने जो बहुत अच्छा भाषाषास्त्री था और जिसने कंपैरेटिव ग्रामर आफ आर्यन लैंग्वेजेज लिखा था, उसकी मदद से या उकसावे से फकीर मोहन सेनापति ने ओडिया जागरण का मन्त्र फूँका और उसे एक अलग स्वतन्त्र पहचान दिलवाई। असमिया को अलग पहचान के लिए हेमचन्द्र बरुआ, शायद यही नाम था, वे संघर्ष से जुड़े थे। बंगालियों को यह जो अग्रता मिली थी वह कलकत्ता केन्द्रित थी इसलिए जैसे ओड़िया, असमिया और मैथिल भाषी नौकरियों और अन्य मामलों में उपेक्षित अनुभव करते थे उसी तरह पूर्वी बंगाल के लोग भी अपने को उपेक्षित अनुभव करते थे। पूर्वी बंगाल में मुसलिम आबादी अधिक थी, इसलिए प्रषासनिक सुविधा की आड़ में कहो, या सचमुच इस तकाजे से जब उसे बंगाल से अलग प्रान्त बनाने की घोशणा की गई तो पश्चिम बंगाल के हिन्दुओं ने इसे बंगभंग की संज्ञा दे कर हिंसक आन्दोलन आरंभ कर दिया। यह बंगभंग से अधिक उनके अपने वर्चस्व की लड़ाई थी। अब यहाँ से एक भौगोलिक विभाजन ने साम्प्रदायिक विभाजन का रूप ले लिया। 1905 में बंगाल का विभाजन हुआ था, 1906 में इसे हिन्दू मुस्लिम हितों का प्रश्न बना कर मुस्लिम लीग की स्थापना ढाका में हुई यद्यपि इसमें भाग लेने वाले 3000 प्रतिनिधियों में भारत के अमीर मुसलमानों के प्रतिनिधि ही थे।

मुस्लिम लीग की सबसे बड़ी दुर्बलता सर सैयद की उस आकांक्षा से पैदा हुई जो उन्होंने इंग्लैंड दर्शन के बाद, इंग्लैंड की हर दृष्टि से अग्रता देख कर उनके निकट आने की आकांक्षा में वैसे ही विश्वविद्यालय का सपना देखा और शिक्षा में मुस्लिम पिछड़ेपन को दूर करने के लिए शिक्षा का भार अंग्रेज प्रिंसिपल को दे दिया। जब कि मालवीय जी ने इस तरह की भूल नहीं की। संस्कृत कालेजो की बात अलग थी। वे सरकारी पहल पर खोले गए थे और सरकार ही उनके प्रिंसिपल की नियुक्ति करती थी। इसके माध्यम से वह संस्कृत विद्वानों में अपनी पसन्द का प्राचीन भारतीय इतिहास उतारती रही और इसलिए इन कालेजों के माध्यम से निकले संस्कृत विद्वान आर्य आक्रमणवादी बनते चले गए। शिक्षित मुस्लिम समाज की मनोरचना के निर्माण का काम उन्हें सौंप देना जो उस समाज का अपने लिए उपयोग करना चाहते थे, एक भारी भूल थी।

परन्तु भुलाया नहीं जाना चाहिए कि आरंभ में मुस्लिम लीग मुस्लिम हितों की चिन्ता करने के लिए बनी थी। स्वतन्त्रता आन्दोलन तेज होने के साथ इस संभावना से इसने दहशत का रूप लेना शुरू किया और फिर हिन्दू-द्रोह ही नहीं हिन्दू जान-माल और सम्मान को मिटाने की डरावनी मुहिम बनती चली गई। अलगाव को तीखा करने के हथकंडे अपनाने लगी जो कलकत्ता के दंगे में या सुहरावर्दी के डाइरेक्ट ऐक्शन में देखने में आया। यह जानते हुए कि दंगा इतना बड़ा रूप लेगा तो पहले हिन्दू भले अधिक मारे जाएँ अन्ततः मुसलमानों को ही भुगतना होगा। उस दंगे में हिन्दुओं से अधिक मुसलमान मारे गए थे। पर नफरत की नहीं तो दहशत की दीवार खड़ी करने के उद्देश्य में तो सफल हो ही गए। हैरानी की बात यह कि जिन्ना पाकिस्तान की माँग मनवाने के लिए डाइरेक्ट ऐक्शन की खुली धमकी दे रहे थे और नोआखाली आदि में जो हुआ उसने मुस्लिम लीग का चेहरा अधिक हिन्दूद्वेषी बना दिया । 

दुख की बात यह है कि इसी मुसलिम लीग की आत्मा का प्रवेश वामपन्थी आन्दोलन में हिन्दू समाज को विकृतियों का घर, इसके इतिहास को मलिताओं से ग्रस्त और हिन्दू सांस्कृतिक प्रतीकों को जहालत का प्रमाण बताते हुए,  इन्हें दूर करने के नाम पर अभियान चलाए जाते रहे। जितना ही अधिक तेज आन्दोलन उतना ही अधिक गर्हित होता हुआ हिन्दू समाज। इसी के अनुरूप इतिहास लिखवाये जाते रहे, फिल्मों में इसे जगह जगह घुसाया जाता रहा, साहित्य में इसे प्रोत्साहन दिया जाता रहा और तर्कवाद के नाम पर बहुत कुछ ऐसा किया जाता रहा है जो न किया जाता तो पूरे देश का भला था। मुस्लिम हितों की चिन्ता करने वाली लीग को मैं उचित मानता हूँ और उसकी परिणति को देश और मुसलिमों सहित पूरे समाज के लिए अनिष्टकारी मानता हूँ।“

11/20/2015 12:56:29 PM

इतिहास पुरुष की वापसी

‘‘तुम्हारे इतिहास पुरुष की तो वापसी की गिनती शुरू हो गई। मैं तो उस दिन को सोच कर डर जाता हूँ, जब इतिहास उसे हा शिए पर डाल देगा और उसके साथ तुम भी हा शिए पर चले जाओगे।’’ वह खासे उत्साह में था। 

‘‘तुम्हारी महिमा में कुछ विरुदावलियाँ बहुत पुराने जमाने से लिखी जाती रही हैं, कभी पढ़ा है तुमने?’’

वह उत्सुकता से मेरी ओर देखने लगा।

‘‘वैसे विरुदावली तो मेरी भी लिखी गई है, पर मैं उसका पाठ स्वयं कर लेता हूँ, दूसरे किसी को इतने छोटे काम के लिए कष्ट क्या देना!’’ 

‘‘बताओगे भी क्या लिखा है या पहेलियाँ ही बुझाते रहोगे।’’ 

‘‘तुम्हारी महिमा का गान तो अनन्त है, पर दो ही पर्याप्त होंगे। एक हिन्दी में दूसरी देवभाषा में। हिन्दी में है, ‘मूरख हृदय न चेत जो गुरु मिलहिं विरंचि सम।’ गरज कि मैं कितना भी समझाउूँ कोई बात तुम्हारे भेजे में घुस ही नहीं सकती, और संस्कृत में  है, ‘तावदेव शोभते मूर्खः यावत् किंचिन्नभाषते।’ अर्थात् जब तक तुम मेरी बात चुपचाप सुनते रहते हो तब तक भरम बना रहता है और मुँह खोलते ही असलियत जाहिर हो जाती है।’’

मेरी बात सुनते हुए वह मुस्कराता रहा, ‘‘और तुम्हारी महिमा में क्या लिखा है?’’

‘‘‘वक्तुरेव हि तज्जाढ्यं यत्र श्रोता न बुझ्यते।’ कि अगर मेरी बात तुम्हारी समझ में नहीं आती है, तो यह मेरी जड़ता है।’’

‘‘चलो हिसाब बराबर!’’

‘‘बराबर कैसे होगा। मैं समझाता हूँ तुम समझ जाते हो, फिर अगले दिन सारे किए कराए पर पानी फिर जाता है। फिर वहीं से शुरू करते हो, इसे कम्बलबुद्धि मूर्ख कहा जाता है।“

‘‘मुझे यह सोच कर मजा आ रहा है कि तुम असलियत भाँप कर अभी से सदमे में आ गए हो। अन्तिम चोट तो तुम सँभाल ही नहीं पाओग। मुझे उसकी नहीं, तुम्हारी फिक्र हो रही है!’’  सच। उसने चिन्ता जताते हुए चिन्तित होने का अभिनय भी करना चाहा।

मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो उसने आगे जोड़ा, ‘एक आदमी एक चुनाव जीत गया तो तुमने उसे इतिहास पुरुष बना दिया। तो बिहार के चुनाव ने यह दिखा दिया कि इतिहास तुम्हें ठुकरा चुका है। अब देखो तो तुम्हारा इतिहास पुरुष न विकास कर पा रहा है, न महँगाई रोक पा रहा है, न विदेशों में जमा पैसे वापस ला पा रहा है, न अपने साथियों और सहयोगियों की नकेल कस पा रहा है। जिसे एक छोटी सी सफलता पर तुमने इतिहास पुरुष बना दिया था और कहने लगे थे उसे जो वह चाहे करने दो उसे इतिहास ने धक्के देना शुरू कर दिया न। कमाल की समझ है। इसी पापुलिज्म से फासिज्म पैदा होता है, भाई। इसी पापुलिज्म से हिटलर और उसका राष्ट्रवाद पैदा हुआ था, नाजीवाद। हम इसे आने नहीं दे सकते। हम अपनी जान देकर भी इसे रोकेंगे।’’

मैं तो सचमुच घबरा गया। जान दे बैठा तो बात किससे करूँगा। समझाया, देखो, तुम्हें जान देने की जरूरत नहीं है। सिर्फ अक्ल से काम लेने से काम चल जाएगा। पहली बात तो यह समझो कि जब मैं इतिहास पुरुष कहता हूँ तो इसका मतलब यह नहीं कि वह इतिहास बदल सकता है। कालदेव के सामने तो मैं पहले ही बता चुका हूँ कि एक व्यक्ति तो क्या पूरे पूरे आन्दोलन और दल तक एक तुच्छ खिलौने से अधिक कुछ नहीं। मेरा मतलब सिर्फ यह था कि वह इतिहास के एक खास बिन्दु पर पैदा प्रशासनिक शून्य को भरने के लिए कालदेव द्वारा सबसे उपयुक्त व्यक्ति  उसे ही पाया गया था। चुनाव से एक साल पहले ही यह घाषित हो गया था कि हमारे मनमोहन सिंह उस कागज के टुकड़े से भी गए बीते हैं जिसे राहुल ने सार्वजनिक रूप से फाड़ कर फेंक दिया था। जो बात राहुल और उसकी अभिभाविका को पता नहीं थी, वह यह कि आर्थिक अपराधों में सीधी और खुलेआम संलिप्तता के कारण इतिहास ने उन्हें भी फाड़ कर फेंक दिया है। उसके बाद ही जनमत संग्रहों में इस शून्य को भरने वाले व्यक्ति के रूप में मोदी का चुनाव हो गया था। यह कालदेव का चुनाव था। जनता के सहज मन की अभिव्यक्ति जिस पर चुनावी प्रचार की कीचड़ और कालिख का निशान न था। इसके बाद चुनाव एक औपचारिकता थी। यदि मोदी कुछ नहीं करते एक वाक्य का भाषण देते कि आप यदि चाहते हैं कि मैं इस देश का नेतृत्व करूँ तो केवल मुझे नहीं, जिसे जिसे मैं कहूँ उसे भी चुन कर भेजिए कि मैं पूरे श्रम और सहयोग से काम कर सकूँ तो भी नतीजा वही होता जो बेकार की डंकेबाजी से हुई। ढोल नगारे से बहुत कम लाभ होता है और अक्सर तो नुकसान होता है। 

‘‘यदि मनमोहन सिंह उतने बेअसर, हो कर भी अनुपस्थित, न होते और कांग्रेस का आलाकमान यह सोच कर कि अपने दिन लद गए जो हाथ लगे समेट लो की हड़बड़ी में न आ गया होता तो चुनाव दलों के बीच होता, व्यक्तियों के बीच नहीं। परन्तु यह जो ताबड़तोड़ हुआ वह वह भी कालदेव के इशारे पर ही, विनाशकाले विपरीत बुद्धि के तर्क से ही, या जैसा कहते हैं देवता लाठी डंडे से नहीं मारते हैं, मति ही फेर देते हैं, और तुम खुद अपने विनाश की प्रक्रिया तेज कर देते हो, इसे कालदेव का इशारा और इतिहास पुरुष का चयन कह सकते हो। इससे पहले ऐसी नौबत कभी नहीं आई थी।  इतनी बात समझ में आई या कुछ कमी रह गई है।’’

‘‘मैं तो उस पर बहस ही नहीं कर रहा था। मैं तो कह रहा था उसे उसी इतिहास ने वापस लौटाना शुरू कर दिया है और उसका सदमा तुम्हें झेलना पड़ेगा।’’

‘‘तुम्हें यह भूल गया कि मैंने विचारक और संस्कृतिकर्मी और यहाँ तक कि छात्रों और अध्यापको तक को व्यावहारिक राजनीति से अलग रहने की बात कही थी। इससे उनका अपना काम प्रभावित होता है। राजनीति की समझ तक प्रभावित होती है। अच्छे बुरे का फर्क नहीं रह जाता। जिस राजनीति से जुड़े हो, सिर्फ उसे सही मानने की आदत पड़ जाती है। निर्णय क्षमता खत्म हो जाती है। इसलिए मेरे विचार को चुनाव परिणाम प्रभावित नहीं कर सकते। और अगर चुनावी हार से ही वापसी शुरू होनी थी तो यह बात तो इससे भी अधिक सशक्त रूप में दिल्ली के चुनाव ने घोषित किया था। बिहार की स्थिति तो फिर भी अच्छी है।’’

‘‘तुम कहना चाहते हो, बिहार के चुनाव परिणामों से तुम्हें निराशा नहीं हुई?’’

‘‘निराशा हुई, पर उन कारणों से नहीं, जिन्हें तुम गिना रहे हो, या अखबार लट्ठ ले कर पीट रहे हैं। निराशा हुई इतिहास पुरुष की हार से।’’

वह उछल पड़ा, ‘‘भई यही तो मैं कह रहा था।’’

‘‘तुम तो यह भी नहीं जानते कि बिहार के सन्दर्भ में इतिहासपुरुष कौन था?  उसी प्रशासनिक शून्य से जो दूसरा संभावित विकल्प उभरा था वह नीतीश कुमार थे। उनसे आशा थी कि यदि विविध कारणों से मोदी को अवसर नहीं मिलता है तो स्वच्छ प्रशासन और विकासोन्मुखी दिशा नीतीश दे सकते हैं।“

‘‘नीतीश तो जीत ही गए। कल शपथ ग्रहण करेंगे।“

‘‘देखो, बिहार में मोदी बनाब नीतीश चुनाव नहीं था, सुशील बनाम नीतीश था। बिहार के लिए नरेन्द्र मोदी उपलब्ध नहीं थे। हर हालत में नीतीश को जीतना था। नरेन्द्र मोदी इतिहास के संकेत के विरुद्ध अपनी शक्ति आजमा रहे थे। मैं यह भी कह आया हूँ अपार शक्ति भी कालदेव के रास्ते में धूल गर्द साबित होती है। निष्प्रभाव। शक्ति अधिक लगी तो परिणाम अधिक विपरीत होंगे। इसलिए नीतीश अकेले दम पर उसी तरह जीत सकते थे जिस तरह केन्द्र के लिए मोदी जीते थे। वह चुनाव से पहले ही हार गए और हारते चले गए। तुम एक हारे हुए मुख्यमन्त्री को कल शपथ लेते देखोगे।“

‘‘अजीब आदमी हो। मुँह छिपाने को यही बहाना मिला था। कहते तो मैं अपना रूमाल निकाल कर दे देता।“

‘‘ पहली हार गठबन्धन के रूप में आई। जिस भ्रष्टाचार के विरुद्ध उन्हें इतिहास पुरुष के रूप में चुना गया था, उसके लिए विख्यात दल के साथ गठबन्धन। दूसरी नरवसनेस के रूप में आई, तान्त्रिक के पास भागने लगे। तीसरा, विकास का स्थान जातिवादी समीकरण ने ले लिया और जातिवाद को उभारतने के लिए उस विज्ञापन एजेंसी की मदद लेनी पड़ी जिसे यह भ्रम था कि मोदी का प्रचारतन्त्र उसके हाथ में था इसलिए वह जीते थे। और अन्तिम परिणाम इसके अनुरूप होना ही था, जातिवादी समीकरण में आगे पढ़ने वाला सहयोगी आगे पहुँच गया,  निर्णयशक्ति उसके पास आ गई, नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने से ले कर बाद के सभी निर्णय, जैसे मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने से ले कर बाद के निर्णय पीछे से लिए जाते थे। सकल लब्धि यह कि विकास पीछे चला गया जातिवाद की वापसी हो गई। इतिहास आगे चला गया वर्तमान पीछे लौट गया। मैं इतिहासपुरुष की इस त्रासदी से दुखी हूँ। भाजपा की हार से नहीं।“

उसे काटो तो खून नहीं। मैंने अन्त में जोड़ा, ‘‘और वह जो फासिज्म वासिज्म की बात है न उसका एक जवाब इतिहासपुरुष ने अन्तर्राष्ट्रीय मंच से दिया है। ध्यान दिया तुमने?”

उसकी समझ में नहीं आया, मैं कह क्या रहा हूँ। मैंने कहा, ‘‘उसने कहा, जिन शब्दों और प्रवृत्तियों से खतरा है उनका अवसरवादी उपयोग न करो, डिफाइन करो। परिभाषित करो और फिर बात करो। जो बात उसने टेररिज्म के विषय में यूएनओ में कही, वही वह तुमसे कहता आया है। पहले सम्प्रदायवाद, भगवावाद, फासिज्म को परिभाषिात करो फिर बात करो। बताओ जो सबका साथ सबका विकास का सपना ले कर चलता है वह क्या है और जो जाति, धर्म समुदाय के नाम पर बाँट कर रखना चाहता है वह क्या है।“

11/18/2015 12:54:46 PM

नाच न जाने आंगन टेढ़ा

“तुम को कभी कभी पीटने का मन करता है।“

“इसमें बुराई क्या है।  जिसके पास जो औजार है उसी का इसतेमाल तो करेगा। अक्ल होती तो अक्ल की बात करते, नहीं है तो लाठी डंडे से ही बात करो। लाठी- डंडा ले कर आना चाहिए था। खाली हाथ क्यों चले आए।“

“ मैं मज़ाक नहीं कर रहा हूँ। मुझे अपनी बात रखने का मौका दिए बिना ही उठ जाते हो, ‘चलो, अब चलें!’ के अन्दाज में। यह बात करने का कोई तरीका है?

“तो अब कह लो, जो कल न कह पाए।“

“तुम पढ़ते-लिखते हो भी या जो जी में आया बकते चले जाते हो?”

“सोचता हूँ जब पढ़ने वाले आसपास हैं, तो उनको सुन कर जान लूँगा, देखने वाले कम हैं, जितना देख सकूँ देखूँ। तुम बताओ क्या पढ़ना रह गया मुझसे?”

“तुमने कहा, सारे दंगे कांग्रेस ने कराए हैं। उस शोध कार्य का पता है जिसमें बताया गया है कि दंगे इसलिए भड़कते रहे कि पुलिस बल का सांप्रदायीकरण हो गया था।  और जानते हो, यह ऐसी पाये की बात है, जिसके लिए अंग्रेजी में एक मुहावरा है, ‘फ्राम हार्सेज माउथ।“

“मुहावरे कई बार समझ में नहीं आते। तुम कह रहे हो वह सांप्रदायिक हो चुका था, और बता रहा था कि वह कैसे सांप्रदायिक हुआ?”

“नहीं, वह सांप्रदायिक हो चुका होता तो यह बताता क्यों। वह अकेला बच रहा था और दूसरे सभी सांप्रदायिक हो चुके थे।“ 

“क्या उसमें यह भी है कि कब तक सांप्रदायिक नहीं थे और कब और किन कारणों से सांप्रदायिक होने लगे और सांप्रदायीकरण की व्याधि कयों इस कदर फैलती चली गई कि उसके सिवा कोई बचा ही नहीं।“

“वह अचकचाया।“

“फिर तुमने मुहावरा भी गलत चुना। घोडे के मुँह से नहीं, तुम्हें कहना चाहिए था साईस के मुँह से। वह जिसे घोड़ों को साधने और सही खूराक देने, सही हालत में रखने की जिम्मेदारी दी गई थी, वह अपना काम करना तो जानता ही नहीं था, दोष उनको दे रहा था जो उसकी लापरवाही या बेवकूफी से सांप्रदायिक होते चले गए थे। इसके लिए भी अंग्रेजी में और हिन्दी में भी और सच कहो तो दूसरी भाषाओं में भी मुहावरा मिल जाएगा । अंग्रेजी का मुहावरा है अनाड़ी कारीगर अपने औजार को दोष देता है। ए बैड वर्कमैन ब्लेम्स हिज़ टूल्स। इसका हिन्दी रूप हैं नाच न आए आँगन टेढ़ा। और मैंने दूसरी भाषाओं में भी  इसलिए कह दिया कि  इसी बीच तमिल मुहावरा ‘नाट्ट माट्टादु तेवळियाळुक्कु कूलम् कोणम्” याद आ गया अर्थात नाच न जानने वाली देवदासी को आँगन टेढ़ा लगता है। खैर, तुम उस आदमी से कभी मिले हो?”

“मिलने न मिलने से क्या होता है?” 

“मिलते तो पता चलता कि वह नजदीक की चीजों को देख पाता है या नही?”

“तुम्हें बातों को विचित्र बनाने का रोग है।“

“भई ये लोग जो सर्विसेज की तैयारी करते हैं न, उन्हें बहुत दूर की चीजें देखने की ऐसी आदत पड़ जाती है कि नजदीक की चीजें देख नहीं पाते। वे चर्मचक्षु से नहीं लोभचक्षु से देखने लगते हैं। वह दोहा, बिहारी का है, शायद, ‘दिये लोभ चसमा चखनु लघु पुनि बड़ो दिखाय।’ तो उन्हें थोड़ी भी चीज बहुत बड़ी और बहुगुणित दिखाई देने लगती है।  उसे जब अपने विभाग को, कम से कम अपने अधीनस्थ बल को अपने नियन्त्रण में रखना चाहिए था, निर्देशों- आदेशों का सही पालन करना सिखाना था तब उस जरूरी काम को छोड़ कर वह शोध कार्य करने लग गया। शोध की प्रेरणा और सूझ या तो कहीं से मिली होगी या उसने खुद ही भाँप लिया होगा कि कहाँ से किस तरह क्या हासिल किया जा सकता है। यह बताओ इतने निकम्मे साईस को सिपहसालार का ओहदा मिला या नहीं?”

“सिपहसालार तो वह पहले से था। उसे और क्या चाहिए था?”

“कुछ उससे भी बड़ा। वह जिसे मैंने कहा था, छोटा मोटा उपराज्य!”

वह थोड़ी देर सोचता सा लगा और फिर जोर की धौल मेरी जाँघ पर मारते हुए हँसा, ‘‘अब समझा, अब समझा, हाँ भाई मिला तो, मिला तो, वह वाइस चान्सलर हो गया था।“  

‘‘तुम पता यह भी लगाना कि वह अलीगढ़ पावर सेंटर से तो नहीं जुड़ा। मैंने सुना जुड़ा था। वहाँ से जुड़ने के बाद लोग अपना काम भूल जाते हैं और इतिहासकार बन जाते हैं, इतिहास में हिन्दुओं को शास्त्रीय गालियाँ देने की योग्यता अर्जित कर लेते हैं। कोसंबी जैसा विलक्षण प्रतिभा का आदमी अलीगढ़ पावर सेंटर से जुड़ने के बाद अपनी डगर भूल गया था। 

“मैंने सुना इसने भी रास्ता उधर ही मोड़ लिया था। उस पावर सेंटर का प्रताप ऐसा है कि उसे इतिहास का निर्माता कहा जाता है। उसके कंट्रोलर की महिमा में जो प्रशस्ति ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था और जिसमें साम्प्रदायिक पैंतरेबाजी में माहिर सारे इतिहासकारों के लेख थे उसका शीर्षक कुछ ऐसा ही था। इतिहास निर्माता जैसा। इतिहास में केवल यह तलाश कर के कोई ला दे कि हिन्दू इतिहास, हिन्दू समाज, हिन्दू मूल्य कितने गर्हित है, हिन्दू समाज कितना सांप्रदायिक है, हिन्दी और हिन्दुस्तान सांप्रदायिकता से जुड़े हुए पद है, हिन्दी में लिखते हुए भी हिन्दी लेखकों को हिन्दीवाला कहने की आदत पड़ जाय तो उसे बाँस लगाकर ऊपर चढ़ा दिया जाता है। ऊपर वह चढ़ भी गया, अपना पुलिस का महकमा सँभाल न पाने वाले को उठा कर सर्वाधिकार संपन्न कुलपति बना दिया गया।’’

‘‘तुम विषय से भाग रहे हो और व्यक्तिगत आरोप लगा रहे हो जिसे तुम स्वयं भी अच्छा नहीं मानते।“

‘‘मेरा तो इस ओर ध्यान भी उसी ने दिलाया। उसने अपने ही पत्र के संपादकीय में साहित्य अकादमी के अध्यक्ष को सांप्रदायिक करार दे दिया और बताया कि वह इस पद के योग्य नहीं थे और इसे जोड़ तोड़ से हासिल किया है। तब मुझे सचमुच वह जोड़-तोड़ दिखाई दिया जो इस व्यक्ति ने किया था। अरे भई जोड़ तोड़ की भी अपनी साधना होती है। ये साधक लोग है सिद्धि प्राप्त भी।

”लगातार दस साल तक या कम से कम सौ अंकों तक एक पत्रिका अपने पैसे से निकाल कर वह ऐसे तैसे को भेजता रहा और इस तरह संपर्कसूत्र जोड़ते हुए उन भाषाओं के प्रतिनिधियों तक को पटा लिया जिनको हिन्दी साहित्यकारों से चिढ़ थी। अज्ञेय तक जिसे न पा सके उसे उसने पहली बार पाया। योग्यता इतनी बुरी नहीं। वक्ता अच्छा है, एक विश्वविद्यालय में अध्यक्ष रह चुका है और जैसा मैं पहले कह चुका हूँ संस्थाओं के शीर्ष पदो पर दोयम दर्जे के साहित्यकारों और विद्वानों को या चुके हुए लोगों को ही जाना चाहिए, क्योंकि वहाँ प्रतिभा की नहीं प्रबन्धन की आवश्यकता होती है। 

“परन्तु इस आत्मप्रक्षेपण में ही तुम्हारे शोधकर्ता का अपना रहस्य और अपना जोड़तोड़ भी उजागर हो गया। तभी तो कहता हूँ हम जो लिखते या बोलते हैं उसे लोग अपने ढंग से पढ़ते और सुनते हैं और अपने को परदे से ढकने की को शिश में भी लोग अपने को नंगा कर देते हैं।”

‘‘तुम जिसके पीछे पड़ जाते हो...’’

‘‘पीछे मैं नहीं पड़ा। मोर्चे पर तुमने सिपाही को खड़ा कर दिया । इसे तो यह भी पता नहीं कि वह जो नतीजा निकाल रहा था उसका मतलब क्या है?

‘‘मतलब भी तुम्हीं बता दो।’’

‘‘जिस नतीजे पर पहुँच कर भी वह उसका सारा दोष अपनों पर मढ़ देता है, वे सीधे एक नरसंहार के अपराधी हैं जिसके लिए अर्धसैन्य बल को उकसाया गया था। वे यदि स्वतः ऐसा कर बैठे तो उनके विरुद्ध शीघ्र और कठोर कार्रवाई सरकार को करनी थी, उसने उन्हें संरक्षण दिया। उन्हें बचाने का काम किया। अर्थात् पुलिस बल को कांग्रेसी दौर में योजनाबद्ध रूप में सांप्रदायिकत बनाया जाता रहा जिससे सांप्रदायिक समस्या बनी रहे और इसका चुनावी लाभ उठाया जा सके। असहिष्णुता कांग्रेस पैदा करती है और आज भी कर रही है।’’

‘‘बात तो हैरान करने वाली है पर, यार, नतीजा तो यही निकलता है।’’

‘‘देखो, पुलिस बल को अपनी ट्रेनिंग के दौरान कोई ऐसा पाठ नहीं पढ़ाया जाता जिससे उसे सांप्रदायिक बनाया जा सके। यदि पुलिस बल का सांप्रदायीकरण हो गया है तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं। उस समाज का सांप्रदायीकरण हो चुका है, जिसमें से पुलिस बल के लोग आते हैं, और अलीगढ़ पावर सेंटर के लिए इतना ही काफी है। 

“परन्तु यह सही होता तो उस समय से ही सत्ता दक्षिणपन्थी हाथों में होती जो नहीं थी। वह कांग्रेस को ही वोट दे रही थी। अतः हिन्दु समाज का सांप्रदायीकरण नहीं हुआ था न हुआ है। 

“अब दूसरा विकल्प बच जाता है, कि पुलिस बल को सत्ताधारी राजनीति योजनाबद्ध रूप में  सांप्रदायिक बना रही थी। उससे कहा तुर्कमान गेट तोड़ दो तो तोड़ने वालों के साथ खड़ी हो गई, मेरठ मलियाना या हाशिमपुरा कांड करा दो तो कराने को तैयार हो गई। वह तो हुक्म का इतना ताबेदार है कि सत्ता में बैठा आदमी कहे भैंस खोजने पर जुट जाओ तो भैंस खोजने चल देती है। पकड़े हुए अपराधी को छोड़ने को कहो तो छोड़ कर हाथ साबुन से धोने लगती है कि कहीं अपराधी की गन्ध उसके हाथ न लगी रह गई हो। 

“वास्तविक अपराधी का बचाव करने के कारण तुम्हारे शोधार्थी की भी मुरादें पूरी हुईं और अलीगढ़ पावर सेंटर की भी पूरी हुईं, नहीं तो आइ एस की तर्ज पर पहला जघन्य अपराध तो कांग्रेस के प्रशासन में हुआ था और उस समय अलीगढ़ केन्द्र में खामोशी थी और आज वही किसी का ठीकरा किसी के सिर फोड़ता हुआ चीत्कार कर रहा है।

11/17/2015 1:10:54 PM

सूच्यग्रा हि अनर्थकाः

“तुम तो गुजरात में जो हुआ उसका भी जिम्मा कांग्रेस पर डाल सकते हो।“

डाल सकता हूँ, पर डालूँगा नहीं।

वह हँसने लगा। डाल सकते हो जरा सुनूँ तो कैसे।

तुम्हे मालूम है बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद अयोध्या में इस बाबरी मस्जिद गिराए जाने के विरोध में साहित्यकारों, पत्रकारों, कलाकारों एक प्रदर्शन हुआ था। उसमें मुझसे भी चलने को कहा गया तो तैयार हो गया। पूछा, ‘टिकट का पैसा किसके पास भेज दूँ।‘ जबाब मिला, ‘उसका इन्तजाम हो गया है।‘ मैंने कहा, ‘उस हालत में मैं नहीं जा सकता, क्योंकि जिस भी ऐजेंसी ने भाड़े की व्यवस्था की है, वह मेरा इस्तेमाल कर रही है।‘ यह आयोजन सहमत ने किया था। स्पे शल ट्रेन का पैसा और ऊपर से एक मोटी रकम उसी कांग्रेस ने दिया था जिसके विरुद्ध नुक्कड़ नाटक करते हुए सफदर हाशमी  शहीद हुए थे। इसे चिता पर रोटी सेंकना भी कह सकते हो। तुम जानते हो उसके बाद सफदर हाशमी की पत्नी, क्या नाम है उसका, माला हाशमी या जो कुछ भी हो, उसने सहमत से नाता तोड़ लिया था। मुमकिन है बाद में उससे जुड़ भी गई हो। अब सहमत नुक्कड़ नाटकों के लिए नहीं धन्धेबाजी और शगल के लिए जाना जाता है।“ 

“मैं पूछ रहा हूँ कुछ और तुम बहक गए सहमत की ओर।“

“तो अयोध्या में जो प्रदर्शन हुआ था उसमें रामकथा से सम्बन्धित बहुत सारी सामग्री थी। मेरी अपनी पुस्तक ‘अपने अपने राम’ भी थी। अनर्गल बहुत कुछ था। जोर अनर्गल पर ही था। असल में इसमें प्रतिशोध का भाव था न कि समझ पैदा करने का प्रयत्न । प्रदर्शन का ठीक ठीक रूप क्या था यह मैं नहीं जानता, परन्तु संघ से जुड़े कुछ तत्वों ने वहाँ भारी बखेड़ा किया था। मानबहादुर सिंह ने मुझे बाद में बताया कि यदि मैं वहाँ होता तो मेरी जान भी जा सकती थी। अगर वह आयोजन उसमें भाग लेने वालों के अपने पैसे से हुआ होता और मुझे यह कोई अग्रिम सूचना देता कि वहाँ मुझ पर हमला होगा तो मैं उसके बाद भी उसमें शामिल हुआ होता और यदि मारपीट से पहले कहा-सुनी का मौका मिलता तो उन्हें समझाने का प्रयत्न भी करता कि राम की जो महिमा अपने अपने राम में है वैसा इससे पहले की किसी कृति में नहीं।“

“तुम फिर भटक गए।“

“भटका नहीं हूँ। मैं कह रहा हूँ कि यदि उस प्रदर्शन की प्रतिक्रिया ऐसी उग्रता ले लेती जैसी गोधरा में देखने में आई और उसके बाद इसने भयानक आयाम लिया होता तो उसकी जितनी जिम्मेदारी अर्जुन सिंह पर आती उतनी ही जिम्मेदारी मैं गुजरात के दंगों के लिए मोदी की मानता हूँ।“

बाबरी कांड के दस साल पूरे होने पर स्पेशल ट्रेन में स्वयं सेवक भर कर भेजने की व्यवस्था उन्होंने की थी और वह भीड़ उस तरह की सुशिक्षित भी नहीं थी जो सहमत वाले प्रदर्शन में थी। वे जिस तरह के उत्तेजक नारे लगाते हुए घूम रहे थे उसे टीवी पर देख कर मेरा खून खौल रहा था और मैं घबरा रहा था कि इसके परिणाम बहुत अनिष्टकर हो सकते हैं।  

“अनियन्त्रित भीड़ संचित ऊर्जा का ऐसा भंडार होता है जिसका यदि किसी रूप में उन्मोचन हो वह ध्वंसकारी ही होगा। प्राकृतिक प्रकोप की तरह। यदि किसी तरह की छेड़छाड़ हो जाती तो यह अयोध्या में ही बहुत विकट रूप ले सकता था। गोधरा में इस भीड़ का चरित्र, नारेबाजी या कृत्य क्या था यह पता नहीं, परन्तु गोधरा सांप्रदायिक दृष्टि से संवेदन शील क्षेत्र है।

“एक दुर्घटना हो गई और तुमने पूरे क्षेत्र को संवेदन शील ठहरा दिया।“

“गोधरा में 1947 के बाद1952, 1959, 1961, 1965, 1967, 1972, 1974, 1980, 1983, 1989 और 1990 में दंगे भड़क चुके थे। और यह संभव है कि पेट्रोल आदि पहले से ही जुटा लिया गया हो कि आने पर खबर लेंगे। गोधरा के बाद गुजरात घटित होना ही था।“ 

चाणक्य का एक सूत्र है, ‘सूच्यग्रा हि अनर्थकाः भवन्ति’ । सुई की नोक जैसी चूक भी बहुत बड़े अनर्थ का कारण बन जाती है। इस बोध को हमारे यहाँ कई रूपों में दुहराया जाता रहा है। जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को अपने किसी भी कथन या कार्य में कितनी सावधानी बरतनी चाहिए यह तो इस सूत्र में है ही। उस चूक के बाद नियन्त्रण आपके हाथ से निकल जाता है, कालदेव आगे के चक्र को सँभाल लेते हैं।“

“फिर आगए कालदेव पर।“

“कालदेव से मेरा मतलब उन अज्ञात, दृश्य-अदृश्य अनन्त तत्वों से है जिनको चिन्हित या परिभाषित नहीं किया जा सकता।

“तो मैं उस पहली चूक के लिए, जो ही अपने निर्णय और विवेक और नियन्त्रण की सीमा में थी, मोदी को जिम्मेदार मानता रहा हूँ। गुजरात को नियन्त्रित करने में कुछ प्रमाद भी हो सकता है और कुछ सबक सिखाने का भाव भी। यह स्वाभाविक है। लेकिन इसकी तुलना उन दंगों से नहीं की जा सकती जो सोच समझ कर कांग्रेस द्वारा कराए जाते रहे और जिसमें पुलिस या अर्धसैनिक बल किसी की भी मदद ली जाती रही है।“

“तुम तो हद कर देते हो।“ 

“देखो मध्यकाल में शासकों ने, उनके अमलों ने हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार किए, परन्तु कभी सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए। ब्रितानी काल में सारे दंगे अंगे्रजों की खुली या दबी शह पर किए जाते रहे और इसी के बल पर उन्होंने मुसलमानों को यह भी समझा लिया था कि वे तभी तक सुरक्षित हैं जब तक अंग्रेजी शासन है। तुम्हें याद है न सर सैयद ने क्या कहा था।“

“कभी इतने विस्तार से सैयद अहमद को पढ़ा नहीं।“

“उनका मानना था कि यदि भारत को स्वतन्त्रता मिल भी जाय तो यूरोप का कोई दूसरा देश  इस पर आक्रमण करके इसे अपने अधीन कर लेगा और किसी अन्य यूरोपीय देश का प्रशासन अंग्रेजी प्र शासन से बहुत कठोर और बुरा है इसलिए अंग्रेजों के अधीन रह कर ही हम प्रगति कर सकते हैं, इसलिए ब्रिटिश सरकार को यहाँ अनन्त काल तक रहना चाहिए। 

और कुछ ऐसा ही विश्वास हिन्दूफोबिया पैदा करके कांग्रेस ने मुस्लिम वोट सुनिश्चित करने के लिए पैदा किया और इसको बनाए रखने के लिए दंगे भी कराती रही और यह डर दिखा कर कि हिन्दूशासन से तो यह हर हालत में अच्छा है, इसका जितना लाभ उठा सकती थी, उठाती रही। हम केवल यह जानते हैं 1950 से 1990 के बीच 2500 दंगे हुए थे और उस दौर में शासन कांग्रेस का ही था।

“तुम बातें तो अच्छी गढ़ लेते हो यह जानता था, अब लगता है आँकड़े भी गढ़ लेते हो। कहाँ से मिला यह आँकड़ा।“ 

“17.12.1990 को टाइम्स आफ इंडिया में संसद में विजय कुमार मल्होत्रा के बयान की रपट में यह दावा था।“ 

“और तुमने मान लिया?”

“तब तक मानना पड़ेगा जब तक कोई दूसरा अधिक भरोसे का स्रोत नहीं मिल जाता क्योंकि संसद में किसी ने इसका खंडन नहीं किया था।“

“किया भी हो तो टाइम्स आफ इंडिया का उस दौर का संपादक उसे छापता ही नहीं।“

“तुम जानते हो वोटबैंक की राजनीति कौन करता आया है? बाँट कर रखने के हथकंडे कौन अपनाता आया है? दहशतगर्दी करते हुए भी हिन्दू फोबिया उभार कर रक्षक की भूमिका में कौन आता रहा है? नहीं जानते हो तो पता लगाओ। तब पता लगेगा कि अंग्रेजों से बाँटो और राज करो की नीति विरासत में किसने ली, फिर खुद इस नतीजे पर पहुँच जाओगे कि जब तक उसका शासन रहेगा दंगों से, घृणा और दंगे-फसाद से और असुरक्षा के हथकंडों से मुक्ति नहीं मिल सकती।“ 

“हिन्दू संगठनों का जो चरित्र पहले था उसमें सचमुच इनका चेहरा डरावना बना दिया गया था, परन्तु अब पहली बार एक व्यक्ति ऐसा आया है जो आपसी लड़ाई से आगे विकास की दि शा में ले जाने की बात करता है और उस पहली चूक के बाद उसने आज तक कथनी या करनी के स्तर पर ऐसा कुछ नहीं किया है जिससे उसका यह दावा ढोंग लगे। वही सैयद अहमद के उस सपने को भी पूरा कर सकता है जिसकी ओर तुम्हारा ध्यान न गया होगा। 

वह मेरी ओर देखने लगा । 

“उनका मानना था कि हिन्दू और मुसलमान आपसी मेल&जोल से ही अपना अधिकतम विकास कर सकते हैं।  वह इसी दिशा में भीतरी और बाहरी दबावों के बीच काम कर रहा है। उसे काम करने दो। आलोचना करो, फतवेबाजी बन्द करो।“

11/16/2015 12:16:51 PM

इतिहास की गति - 2

“जब तुम कह रहे थे कि किसी परिघटना के असंख्य घटक होते हैं जिनमें से कोई एक न होता तो या तो वह घटित ही नहीं होती या किसी दूसरे रूप में घटित होती तो क्या तुम कुछ लोगों को जिम्मेदारी से बचाने के लिए कह रहे थे?”

“देखो इतिहास को हम पूरी तरह नहीं समझ सकते। मार्क्स जब कहते हैं कि व्यक्ति अपने आप में कुछ नहीं होता वह अपने युग की अभिव्यक्ति होता है या ऐसा ही कुछ तो वह व्यक्ति की भूमिका को नकारते नहीं हैं। यह रेखांकित करते हैं कि वह जो कुछ करता या करने का प्रयत्न करते हुए नहीं कर पाता वह अकेले उसके कारण नहीं होता। इसलिए वह इतिहास की समझ पर जोर देते हैं परन्तु कितने मार्क्सवादी हैं जो इसको समझते या इसका ध्यान रखते हैं। तुम देखो तो अधिकांश तो इतिहास से ही नहीं, उन स्रोतों तक से नफरत करते हैं जिनसे इतिहास को समझा जा सकता है और दूसरे हैं जो उन स्रोतों में ही जहर घोलते हैं कि इतिहास की समझ पैदा ही न होने पाए। तुम्हारे पेशेवर इतिहासकार तो लगातार यही करते आ रहे हैं।“

“तुम अपनी बात कहो, फिर हवाई सफर पर मत निकलो।“

“मैं हवाई सफर नहीं कर रह था न भाग रहा  था। कह मात्र इतना रहा था कि मैं जहां से आरंभ कररूंगा उसके पीछे भी बहुत कुछ अदृश्य रह जाएगा।“ 

“फिर भी।“

“देखो पुरातत्व की एक नियमावली है,  एक आचारसंहिता है और उसके संरक्षण के लिए कुछ कानून कायदे हैं, जैसे यही कि 1947 में में पुरातात्विक स्थल जिस भी हालत में था उससे किसी तरह की छेड़ छाड़ नहीं की जाएगी।“

“यह तो मैं भी जानता हूं।“

“इसके अनुसार ही जो मन्दिर, मस्जिद, पहले से पुरातत्व की संपदा है, उसमें पूजा-नमाज़ आदि नहीं होता उसमें पूजा वगैरह नहीं की जाएगी, उसमें कोई सजावट जोड़ तोड़ नहीं की जाएगी, यहां तक कि मरम्मत करते समय भी इस बात कर ध्यान रखा जाएगा कि यह लक्ष्य किया जा सके कि यहां पहले कुछ टूट गया था।“ 


“यह भी जानता हूं।“

“अब यह बताओ कि किसी देश का राष्ट्रपति ही इसका उल्लंघन करे तो क्या कहोगे?”

“किसकी बात कर रहे हो तुम?”

“फखरुद्दीन अली अहमद की। उन्होंने कहा कि पहले जवानी में मैंने एक बार कुदसिया मस्जिद में नमाज पढ़ा था इसलिए एक बार पढूंगा।“

“यह शुरुआत थी और उसके बाद दिल्ली के ही नहीं दूसरी जगहों पर भी धीरे धीरे दखल बढ़ने लगा और उनमें ढांचागत बदलाव भी किए जाने लगे। पुरातत्व विभाग शिकायत करता तो पुलिस से कोई मदद नहीं मिलती। समस्या को सांप्रदायिक नुक्ते से देखा जाने लगता और वह पीछे हट जाती। यह  प्रवृत्ति जिसे धार्मिक मुखौटे वाला अतिक्रमण कह सकते हो बेरोक टोक बढ़ता रहा है यह तुम जानते हो, उसी का यह दूसरा रूप था लेकिन इसकी जिम्मेदारी पुरातत्व विभाग पर नहीं थी।

“जिन दिनों भारतीय पुरातत्व के महानिदेशक पद पर मुनीश जोशी थे उन दिनों यह प्रवृत्ति रोकने के एक कोशिश उन्होंने ने की थी पर कोई नतीजा नहीं निकला। यह बात सबको मालूम थी कि जिसे बाबरी मस्जिद के नाम से उछाला गया उसका नाम मस्जिदे जन्मस्थान था। वह राम मन्दिर तोड़ कर ही बनाई गई थी भले यह सुल्तानी दबदबे का सिक्का जमाने के लिए किया गया हो या मजहबी जुनून में या दोनों इरादों से। उसकी पुरानी तस्वीर पर नज़र डालो तो भी पता चल जाएगा कि यह एक भव्य ढांचे को तोड़ कर उसके मलमे के (Ramkot Hill ("Rama's fort").) ऊपर बनाई गई थी। 

तुलसी दास जब ‘मसीत को सोइबो’ की बात करते हैं तो वह यही मसीत है। इसके बाद दहशत का माहौल जारी रहा और लोगों ने घरों के अन्दर पूजापाठ के कोने या अपने अपने मन्दिर बना कर पूजा पाठ शुरू किए जिसका अन्देशा होने पर भी कुछ सिरफिरे घरों में घुस कर उन्हें तोड़ देते थे जिसमा दुखड़ा तुलसी दास रोते दिखाई देते हैं। यह स्थिति अकबर के समय तक बनी हुई थी क्योंकि अकबर स्वयं उदार हो सकते थे उनके अधीनस्थ अधिकारी और सिपहसालार उनके समय में भी अपनी ही करते थे।“

“तुमने उनका वह दोहा पढ़ा है न ‘गोंड़ गंवार नृपाल कलि जवन महामहिपाल’’ कि सिलबट्टे तक को यह कह कर तोड़ देते थे कि इसकी भी पूना की जाती होगी। अयोध्या में रामभक्ति ऐसी कि घर-घर में मन्दिर थे पर कोई सार्वजनिक मन्दिर नहीं। तुलसी तो कलिकाल को दोष देकर सब्र कर लेते थे पर यह बात आम जानकारी में थी कि यह रामजन्मभूमि पर बनी मस्जिद है।

खीझे हुए मुनीश जोशी ने स्वराज्यप्रकाश गुप्त को जो संघ से जुड़े थे और  शाखा में भी जाते थे, कहा कि वह राममन्दिर के सवाल को क्यों नहीं उठाते।  

“अब फिर क्या था। स्वराज्य प्रकाश गुप्त की पहल थी जिसमें साधुओं संन्तों का वह जमघट और प्रदर्शन लालकिले के सामने हुआ था और इसी के साथ हुआ था विश्वहिन्दू परिषद और का गठन। इसके साथ ही भाजपा पर लद गया था मन्रि का कार्यक्रम, साधुओं का जमघट और राजनीतीकरण और विश्व हिन्दूपरिषद का अभियान

पेशेवर इतिहासकारों ने सर्वविदित और सर्वमानय को सन्दिग्ध बनाने के लिए अपना पूरा जोर लगा दिया। वे ठोस प्रमाण की मांग करने लगे। राम की ऐतिहासिकता का सवाल उठाते रहे। गरज की राम ऐतिहासिक हों तो ही उनका मन्दिर बन सकता है अन्यथा नहीं। ये इतने चालाक लोग हैं कि इन्हें हर मसले को उलझाना आता है और अच्छे अच्छों को मूर्ख बनाना आता है, पर किसी परिघटना को समझते केवल इसक कोण से हैं कि इससे उनको क्या मिलेगा।  सवाल पेशे का ठहरा। वे लोगों को मूर्ख बनाते रहे। इसके बाद जरूररत हुई ठोस प्रमाणों की तो

मुनीश ने ब्रजबासी लाल को जो रामकथा से जुड़े स्थलों की खुदाई कर चुके थे इसके सटे पड़ोस में खुदाई का कार्यभार दिया और वहां पुरातात्विक प्रमाण भी निकल आए।  

ये उनको भी झुठलाने का प्रयत्न करते रहे। खैर अब तो मामला कोर्ट कचहरी का बन चुका है और उससे हमें मोई लेना देना नहीं।

मैं केवल यह कहना चाहता हूं कि अप्रिय से अप्रिय सत्य को झुठलाने या छिपाने से इतिहास विषाक्त होता है और इतनी समझ जिनमें नहीं है वे चाकरी-पेशा भले करते हों, इतिहासकार नहीं हैं। 

“स्वराज्य प्रकाश गुप्त की हैसियत क्या थी? विद्वान थे वह। बहुत अच्छे पुरातत्वविद थे। परन्तु अपनी चाकरी से अलग थे मात्र संघ के स्वयंसेवक।  अकेले उनका निर्णय। भाजपा से उनको नफरत के हद तक चिढ़ थी क्योंकि उनका मानना था कि ये लोग राजनीतिक लाभ के लिए कोई समझौता कर सकते हैं। उनके हस्तक्षेप के कारण सन्तसमाज का राजनीतीकरण और विश्व हिन्दू परिषद दोनों का भाजपा के उपर लद जाना कितनी छोटी सी घटना और कितना बड़ा मोड़.

“तुम जानते हो भाजपा की मन्दिर की लड़ाई अकादमिक स्तर पर स्वराज्यप्रकाश गुप्त लड़ते रहे। कम से कम प्रधानता उनकी ही थी। 

“अरे भाई वह तो तुम्हारे भी दोस्त थे, रोका क्यों नहीं।“

“मैं तो उनकी शाखा का मजाक उड़ाता था और निकर कल्ट का भी। पर जब तुम्हें कुछ सिखा नहीं पाता तो उन्हें कैसे सिखा पाता।

“यह सब सबाल्टर्न मामला है। कहने में कुछ इधर उधर भी हो जैसा याद रह गया है बता दिया। सकता है। दरयाफ्त करते ठीक कर लेना। अब तुम स्वयं देखो, यदि इनमें से कोई भी कड़ी गुम होती तो घटनाक्रम क्या दिशा लेता। इसलिए इतिहास में  किसी को अपराधी सिद्ध कर ना आसान है उसे और अकेले उसे जिम्मेदार मानना गलत है। जब तुम इस तरह व्याख्या करना सीख जाते हो तो जो विषाक्त था उसका विष समाप्त हो जाता है और वह अपराधी स्ख्यं एक निमित्त बन कर रह जाता है। 

तोल्स्तोय युद्ध और शान्ति के उपसंहार में यही तो करते हैं जिसमें नैपोलियन महानायक से एक तुच्छ खिलौने में बदल जाता है। मात्र एक निमित्त।

“और ठीक यही बात जो तोल्सतोय कहते हैं गीताकार कहता है जिसमें वह काल प्रवाह में कर्ता को मात्र एक निमित्त मानता और बनने की सलाह देता है। कालोस्मि लोकान्द्वायकृत प्रवृद्ध: लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः। भारत में इतिहास भी था और एक गहरा इतिहासबोध भी था, मानोगे?”

“तुम तो निरे भाग्यवादी हो भाई। भाग्यवाद ने इस देश का बेड़ा कितना डुबोया है इसका पता है?”

“मैं नहीं जानता भाग्यवाद की तुम्हारी व्याख्या क्या है, पर मेरी समझ से जो मानता है उसके बस का कुछ नहीं, जो भाग्य में लिखा होगा वही होगा और इस सोच के कारण जिसकी कर्मठता घट जाती है वह भाग्यवादी है। जो मानता है भले हमारे वश में सब कुछ न हो परन्तु हमारे किए ही जो होना है उसके बिना तो उतना भी नहीं बदलेगा जो मैं बदल सकता हूं या बदलने का प्रयत्न करता हूं और इसलिए अधिक तत्परता से, अविचलित भाव से काम करता है, वह कर्मयोगी है। और जो सोचता है मैं जो चाहूं कर सकता हूं, वह जितना भी विद्वान या शक्ति-साधन-सम्पन्न हो, वह उसी अनुपात में प्रचंड मूर्ख है और सत्यानाश की जड़ भी। मैं अपने को दूसरी श्रेणी में गिनता हूं और तुम चाहो भी तो अपने को तीसरी श्रेणी में आने से बचा नहीं सकते।“

11/14/2015 3:42:02 PM

इतिहास की गति

“तुम वकील बहुत अच्छे हो सकते थे। सही पेशे का चुनाव करना चाहिए था। मालामाल हो जाते।“

“पेशा करता तो मालामाल तो हो जाता, पर यह क्यों सोच लिया कि सबसे अच्छी चीज पेशा करना और मालामाल होना है।“ 

उसे छकाने में मुझे बहुत मजा आता है। फतह करने को एक ही चीज है, एक दूसरे का दिल जो जिद के कारण न उसका मेरे हाथ आएगा न मेरा उसके, फिर भी खेल जारी रहेगा। मुझे ही पूछना पड़ा, ‘‘तुमको वकालत वाली बात क्यों सूझी?”

‘‘तुम्हीं ने तो कहा था, मैं जालिम के पक्ष में खड़ा हो रहा हूँ और उसे मजलूम सिद्ध करके रहूँगा और सिद्ध भी कर दिया । मैं खुद कायल हो गया, फिर याद आया तुमने बाबरी के ध्वंस को किस तरह आँखों से ओझल कर दिया। कमाल है न?”

‘‘अगर मैं कहता कि बाबरी मस्जिद कांग्रेस ने गिरवाई, उनको तो मुफत का बदनाम कर दिया, तो तुम्हारी समझ में आता?  नादान लोगों को वे ही बातें बताई जाती हैं जो उनकी समझ में आ सकें।“ 

‘‘तुम कुछ भी कह दोगे मैं मान लूँगा?’’

‘‘नहीं मानोगे, यह पहले से जानता हूँ। सही बात को मानने के लिए भी समझ, यानी सही गलत में फर्क करने की तमीज, चाहिए। हाँ इसमें थोड़ा हाथ तुम लोगों का भी था।’’ 

‘‘और तुम्हारा?’’ 

‘‘मैंने बचाने की एक छोटी सी कोशिश की थी, कामयाब नहीं हुआ। गो मैं यह मानता था कि वहाँ पहले कोई मन्दिर था।’’

‘‘और फिर भी तुम चाहते थे, मस्जिद गिराई न जाय?”

‘‘इसलिए कि प्राचीन भारतीय न्यायविचार के अनुसार उसे नहीं गिराया जाना चाहिए था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के नियमों के अनुसार उसकी रक्षा की जिम्मेदारी भारत सरकार की था और उसको किसी तरह की क्षति कानून का उल्लंघन था। और हिन्दू रीति के अनुसार उसे गिरा कर मन्दिर बनाने का औचित्य नहीं था। और इस मस्जिद में उस प्राचीन भारतीय वास्तुशिल्प का एक अघ्याय बचा हुआ था जिसका पता इसे ध्वस्त करने वालों को नहीं था। होता भी तो उसका सम्मान नहीं करते।’’ 

‘‘वह जो तुम पुरानी न्याय विचार की बात कर रहे थे और हिन्दू रीति वगैरह, की बात?’’ 

‘‘मुझे अधिकारी मान कर मत चलो। जानकारी की बात कर सकता हूँ। हमारे शास्त्रों में क्षेत्राधिकार के विषय में यह विधान रहा है कि अमुक अमुक स्थलों पर किसी व्यक्ति का अधिकार कितने समय तक रहता है।  यदि दूसरा ज़बरदस्ती उस पर कब्जा करले तो इतने समय के भीतर उस पर अपने अधिकार का दावा ठोंका जा सकता है। यदि उसके भीतर ऐसा नहीं हो सका तो वह स्थान उसका हो जाएगा, जिसने कब्जा जमा लिया है। यह पंचतन्त्र की एक कहानी में आया है और यह हमारे समय में प्रचलित कालातीत मामलों या टाइम बार्ड मामलों जैसा है। रहा रीति का तो टूटी हुई प्रतिमा या टूटा हुआ देवालय पूजा के योग्य नहीं रख जाता। प्रतिमा बनने से पहले पत्थर था, पत्थर तराश कर प्रतिमा बनने तक भी वह एक कृति था, उसमें जब देव की कल्पना करते हुए उसकी प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है तब वह देवता हो जाता । यही बात देवालय का है। एक बार जो भग्न हो गया उस मन्दिर को बनाना तो संभव नही।’’

‘‘इसमें प्राचीन वास्तुशिल्प के सुरक्षित रहने की बात?”

‘‘कानेरी की गुफाएँ तुमने देखी हों तो उनमें एक पुराना प्रेक्षागृह या नाट्यशाला है। उसकी सबसे बड़ी वि शेषता है उसकी ध्वनि व्यवस्था जिसमें एक कोने की मामूली फुसफुसाहट भी दूसरे कोने तक साफ सुनी जा सकती है। ध्वनिप्रसार की यही व्यवस्था बाबरी मस्जिद में काम में लाई गई थी। इस दृष्टि से यह एक असाधारण विरासत थी जिसकी क्षतिपूर्ति वहाँ कुछ भी बना कर नहीं की जा सकती। परन्तु न तो मस्जिद को बचाने वालों ने कभी इन पहलुओं को उठाया न उस स्थान को वापस माँगने वालों को इसका ज्ञान था। दोनों के आग्रह धार्मिक थे और इसकी ओट में धर्मभावना नहीं शुद्ध राजनीतिक लाभ था।’’

‘‘राजनीतिक लाभ के लिए धर्म का इस्तेमाल धर्म का अपमान है, धर्म को भुनाने या बेच खाने का रूप।’’ 

मै उससे सहमत था, पर साथ ही जोड़ा, ‘‘पर भाजपा को तो उसमें झोंक दिया गया। यह आग तो कांग्रेस ने लगाई थी और वि श्वास नहीं करोगे, स्वतन्त्र भारत में सबसे पहले इसे नेहरू ने शुरू किया था और वह भी आचार्य नरेन्द्र देव जैसे आदमी को हराने के लिए जिनका वह व्यक्तिगत रूप में आदर भी करते थे, परन्तु वह समाजवादी थे और समाजवादियों से उन दिनों कुछ भय बना हुआ था, इसलिए नेहरू ने इसको इस्तेमाल किया।“

‘‘आचार्य जी हार गए थे?’’ 

‘‘हारना ही था। और फिर राजीव गांधी ने हिन्दू जनमत को अपनी ओर करने के लिए जो कुछ किया वह तो सबकी जारकारी में है। ऐसी हालत में, एक ऐसा दल जिसका एक मात्र आधार हिन्दू संस्कृति और सम्मान की रक्षा था, यदि सचेत हुआ कि यह तो हमें ही अपने घर से बेदखल किया जा रहा है और अयो ध्या के साथ काशी मथुरा को भी समेट लिया तो यह तो उसकी विवशता थी। आत्मरक्षात्मक कदम। उनकी अपनी योजना इसे गिराने की नही थी, इस मुद्दे को लम्बे समय तक उठाते हुए, मुस्लिम समुदाय को अनुदार सिद्ध करते हुए हिन्दुओं का समर्थन जुटाने की थी. इसे गिराकर स्वयं को उग्र और अनुदार सिद्ध करने की नही थी. इस दुर्घटना से उनका पासा पलट गया। वे धमकी नहीं दे रहे थे, मुस्लिम समुदाय से याचना कर रहे थे। याचना का सम्मान करते हुए यदि इन तीनों स्थलों को सौंप दिया जाता तो मन्दिर की राजनीति खत्म हो जाती। इसमें मुस्लिम समुदाय की छवि उज्ज्वल होती। इस्लाम में बुतपरस्ती निषिद्ध है इसलिए कुरान की पुस्तक या मस्जिद की पूजा नहीं की जाती, नमाज कहीं भी अदा की जा सकती है। कुरान की आयतों का, न कि पोथी का महत्व है, इसलिए जो कट्टर मुस्लिम दे श हैं उनमें भी लोकनिर्माण के कार्यों में अवरोध पैदा करने वाली मस्जिदों को कई बार गिराया गया है। मुस्लिम समुदाय इस पर सहमत होता भी नजर आ रहा था. बाबरी को तो उन्होंने पहले से ही छोड़ दिया था। समुदाय के रूप में वे वे इतने संवेदनहीन भी नहीं थे कि हिन्दू भावना का आदर न करते, परन्तु उकसावे की जो भूमिका पहले ब्रितानी हुक्मरान की थी उसे उत्तराधिकार में तुमने ले लिया था। इस बार उकसाने भड़काने का काम तुमने किया. तुमने धार्मिक भावना को भावना को इतना उग्र कर दिया और इसे मुस्लिम अस्मिता से जोड़ दिया, कयोंकि सांम्प्रदायिक आग भड़काने और बुझाने के अलावा तुम्हारे पास कोई मुद्दा बच ही नही गया है। उनको लाचार हो कर तुम्हारा साथ देना पडा और जब मस्जिद का पतन हुआ तो आहत धर्म-भावना नहीं जातीय अस्मिता हुई, जिसे लेकर मुसलिम समुदाय में गहरा मलाल था, और अब भी है । यह नौबत तुम्हारी वजह से आई थी। भीड़ वि श्व हिन्दू परिषद की थी। आज तक मेरे लिए यह रहस्य है कि गिराने की योजना और उसकी जैसी-तैसी तैयारी किसकी थी। पर यह उस दौर के दृश्य माध्यमों से प्रकट था कि इस सूचना से स्वयं आडवा नी हैरान हो गए थे और फिर ‘चलो छुट्टी हुई वाली मुस्कराहट उनके होठों पर उसी भावभंगिमा के साथ आई थी। 

मैंने जो कहा वह सब कहानी है। सबाल्टर्न या इतरेतर इतिहास मान लो। कुछ गलत लगे तो सुधार भी लेना। इसके परिणामो को तो जानते ही हो। कहने का मतलब तोड़-फोड़ उनकी योजना में नहीं थी। भीड़ और भावना का लाभ उठाना चाहते थे। कांग्रेस सरकार ने इसे किसी भी हस्तक्षेप के बिना हो जाने दिया। अब सही अपराधी तय करने चलो तो मुश्किल में पड़ जाओगे।

परन्तु यह जो गोचर है वह उन असंख्य शक्तियों का क्षुद्र अंश है जिनकी दृश्य अदृश्य सक्रियता और संपुंजन से कोई परिघटना मंचित होती है। इस महानाट्य का सूत्रधार इतिहास या कालदेव की अदृश्य योजना है। यदि तुम जानना चाहोगे तो कभी बताउूंगा कि उनमें से कोई भी एक कम हो जाता तो यह घटना घटती ही नहीं या किसी अन्य रूप में घटती। जैसे हमारे म स्तिष्क के क्षुद्र अंश को ही हम जानते हैं जब कि हम जो कुछ करते हैं उसमें उस अवचेतन की भी भूमिका होती है जिसने हमारे मस्तिष्क के अधिकतम क्षेत्र को घेर रखा है पर हम उनकी भूमिका को सही सही जान नहीं सकते, उसी तरह कुछ इतिहास  की घटनाओं के साथ भी होता है। हमारे निर्णय और योजनाए धरी की धरी रह जाती हैं और जो घटित होता है वह अक्सर अप्रत्याशित होता है। इसे इतिहास की गति कहो या नियति।

11/13/2015 3:52:35 PM

फिर बीता ज़माना याद आया

"तुम एक बार कहते हो इतिहास को समझे बिना वर्तमान को जाना ही नहीं जा सकता, दूसरी बार कहते हो, इतिहास को वर्तमान में खींच कर मत लाओ। क्या यह उल्टी बात नहीं है?"

"उल्टी इसलिए लगती है कि तुम्हारी खोपड़ी उल्टी है। मैं कहता हूँ इतिहास को जानो, इतिहास को जिओ मत। जीने के लिए वर्तमान ही काफी है। इतिहास सीख लेने के लिए है, वर्तमान जीने के लिए है। भविष्य इन दोनों की सामग्री जोड़ कर सपने देखने के लिए है और तुम जैसे लोग जो इनके बीच-घाल मेल करते हैं, या इन तीनों में से किसी एक से भागते-बचते हैं, वे भाड़ में जाने के लिए हैं।"

"मैं भी इतिहास से सीख लेकर ही कह रहा हूँ, क्या तुम एक ऐसे दल को जिसने बाबरी का ध्वंस किया हो, गुजरात का नरसंहार किया हो, जिसके पास स्वयंसेवकों की इतनी बड़ी फ़ौज़ हो और जिसे रोज कवायद कराकर लड़ने के लिए तैयार रखा जाता हो, उसे तुम शान्तिप्रेमी मान सकते हो? छोड़ दो उस किताब को जो १९३९ में लिखी गई थी, मगर क्या तुम्हें नहीं मालूम कि हिट्लर की जीवनी सबसे अधिक वे ही पढ़ते हैं। उनका गणवेष, सलाम करने का तरीका सब नाजियों से लिया हुआ है। और उनकी मूँछ, खैर सबकी नहीं, पर आडवानी जी की तितली कट मूछ तो सीधे हिटलर से ली गई है यार!"

"तुमने तो इतनी चीजों का घोल बर्तमान में भी बना दिया कि समझ में नहीं आता कहाँ से शुरू करूँ। फिर भी मेरी कद-काठी देख रहे हो न। स्वभाव भी देख रहे हो। यदि मैं तन कर कहूँ मैं शेर हूँ, मुझे मामूली मत समझना, तो डरावना मान लोगे?"

वह हँसने लगा, ‘‘मानूँगा क्यों नहीं, सिंह तो तुम्हारे नाम के साथ ही लगा हुआ है।’’

हँसी में मैं भी शामिल हो गया, ‘‘अब तो कहने को कुछ बाकी रहा ही नहीं। मैं अपनी जबान में बोलूँगा तो तुम्हारी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाएगी।’’

‘‘वह तो तुम आदमी की जबान में बोलते हो तब भी गुम हो जाती है। यह तो उन विरल मौकों में से एक है जब मैंने तुम्हारी सिट्टी-पिट्टी गुम कर दी है, और बगलें झाँक रहे हो।’’

मैंने पैंतरा बदल दिया, “तुमने इतने सारे सवाल एक साथ उछाल दिए कि मैं सचमुच चक्कर में पड़ गया, इसलिए अब तुमसे ही पूछता हूँ, ‘‘संघ को समर्थन देने वाले कौन हैं? मतलब उसका सपोर्ट बेस क्या है?"

‘‘बनिया-व्यापारी।"

‘‘जब दंगे-फसाद होते हैं तो किसकी दूकानें और असबाब लूटे और जलाए जाते हैं?’’

‘‘जाहिर है जिसकी दूकानें और माल असबाब होंगे उन्हीं के ।’’

‘‘कर्फ्यू लगता है तो किसका कारोबार सबसे अधिक प्रभावित होता है?"

अब वह चौंका, ‘‘तुम साबित क्या करना चाहते हो?’’

‘‘साबित करना यह चाहता हूँ कि यह हाथ जितना भी भाँजे, दंगे फसाद नहीं चाहेगा। इससे पहले भी जैन मत हो या बौद्धमत इनको सबसे जबर्दस्त समर्थन व्यापारियों से ही मिला, क्योंकि वे चाहते थे कि यदि सभी लोग शान्ति का मन्त्र सीख लें तो लूट पाट बन्द हो जाय, वे अपना कारोबार शान्ति से कर सकें और इसलिए कई बार तो उन्होंने अपनी समस्त संपदा इन मतों को दान दे कर स्वयं भी वैराग्य ले लिया और इन मतों में दीक्षित हो गए। इतिहास से इतिहास की आत्मा को ग्रहण करो, उसकी स्पिरिट को ग्रहण करो, उसका चोंगा लबादा नहीं। उसमें तो बार-बार बदलाव होते रहते हैं और जहां कोई किसी दूसरे जैसा होना चाहता है वह उसकी भँड़ैती तो कर सकता है, हो नहीं पाता. शेर की खाल ओढ़ कर शेर दिखने वाले गधे की कहानी तक नहीं पढ़ी तुमने तो। धन्य हो। मार्क्स ने इतिहास की पुनरावृत्ति पर जो कुछ कहा है वह तो याद रखते.’’

लगा बात उसकी समझ में कुछ-कुछ आ रही है।

मैंने वातावरण को कुछ और हल्का बनाने के लिए कहा, ‘‘बुद्ध के बाद यह पहला तो संघ बना यार और तुम इसे भी कोसते रहते हो।’’ और फिर अपनी बात पर आ गया, ‘‘देखो जब बनिया-व्यापारी दंगा फसाद पसन्द नहीं करता तो उसकी पार्टी कैसे चाहेगी। तुमने सुना नही पंजाब में उग्रवादी उभार के दौर में उग्रवदियों ने कई बार संघ की शाखाओं को ही निशाना बना लिया। चलती बसों से सवारियों को उतार कर हिन्दुओं को अलग करके उन्हें गोलियों से भूनते रहे, शादी व्याह में लोग जुटे हुए हैं, एके फार्टीसेवन से निरीह लोगों पर गोलियाँ बरसने लगीं। इतने सारे उकसावों के बाद भी उन्होंने कभी सिक्खों को निशाना बनाया? कम से कम जहाँ हिन्दू बहुमत था, वहाँ तो बना सकते थे। ऐसा नहीं किया, क्योंकि उन्होंने यह होश-हवास कभी नहीं खोया कि कुछ बिगड़े दिमाग के लोगों के लिए पूरी जाति या समुदाय को न तो दोषी माना जा सकता है न ही उपद्रव से हमारा भला होना है, जब कि जैसे-को-तैसा के मुहावरे में इस तरह की प्रतिक्रिया भी किसी उत्तेजक क्षण में पहली क्रिया की तार्किक परिणति ही होती। उल्टे इन्होंने 1984 के दंगों में सिक्खों को जहाँ बचा सकते थे बचाया। बाद में अपराधियों को दंडित करने की माँग में अकाली दल के साथ खड़े हुए। और जानते हो जिस अकाली दल को हाशिये पर डालने के लिए राजीव गांधी ने उग्रवाद को सहारा दिया था, भिंडरांवाले को संत बताया था वही सिक्खों का सही प्रतिनिधि और हितैषी है इसे उन्होंने उस भयानक दौर में भी समझा था, उनकी घ्राणशक्ति तुमसे अच्छी है।“

‘‘तब फिर…” वह एक भूलभुलैया में फँस गया था।

‘‘देखो, संघ का जन्म उस दौर में आत्मरक्षा के लिए हुआ था जब आये दिन साम्प्रदायिक दंगे हो जाते थे। सरकारी तन्त्र दंगों को उकसाता था, दंगाइयों को छूट देता था, इसलिए जान माल का सबसे अधिक नुकसान हिन्दुओं को ही झेलना पड़ता था। इस किंकर्तव्यता की स्थिति में जब कुछ नहीं सूझ रहा था तब हेडगेवार ने इस संगठन की परिकल्पना की थी और नाना जी ने जो संभवतः इसके प्राथमिक सदस्यों में थे, एक बार गर्व करते हुए कहा था, कि संघ  की स्थापना  के बाद जब मुसलमानों ने हमला बोला तो हम डट कर खड़े हो गए और उन्हें भाग जाना पड़ा। उनको भगा देना इनकी सबसे बड़ी सफलता थी।"

‘‘तुम तो हर चीज को उलट-पलट देते हो। कहीं कोई बात छूट रही है, नहीं तो आज तक तो ऐसा किसी ने कहा ही नहीं।“

‘‘उलटता-पलटता कुछ नहीं हूँ। दूसरे इतिहास के घटकों को राजनीति के ईधन के रूप में देखते हैं और मैं ठहरा मार्क्सवादी इतिहासकार, अकेला मार्क्सवादी यह भी दुहरा दूँ, समय की नब्ज पर हाथ रखने वाला, इसलिए मैं किसी परिघटना के आर्थिक आधार पर पहले नजर डालता हूँ।

‘‘अब तुम्हें यह भी समझ में आ जाना चाहिए कि बात-बात पर उत्तेजित हो जाने वाली जमातें व्यापारिक कारोबार में पिछड़ी भी होती हैं, और न हों तो भी पिछड़ जाएँगी। इसलिए किसी मुसलमान दूकानदार के पास बैठो या हिन्दू बनिये के पास, जबान दोनों की बड़ी सलीस मिलेगी। मीठी, दिल जीतने वाली।

"और अब इसी से यह भी समझ सकते हो कि संघियों का आइ क्यू भले तेज हो, उनमें पढ़े लिखों के लिए न तो आदर है न पढ़ाई लिखाई पर जोर। बल्कि इसे हतोत्साहित किया जाता है।"

‘‘यह क्यों?" 

"क्योंकि छोटा बनिया जानता है कि दूकान सँभालने के लिए ज्यादा पढ़ना-लिखना ठीक नहीं। उसके बाद लड़के का दिमाग दूकान-व्यापार में लगेगा नहीं, नौकरी चाकरी पसन्द करने लगेगा और जितना कमाएगा उससे दस गुना वह अपनी कामचलाऊ पढ़ाई से अपने कारोबार से कमा लेगा। पैसा हो तो एक क्या चार पढ़े लिखों को उनकी फीस देकर अपनी सेवा में लगा सकता है।

"लेकिन….” मैं एक मिनट के लिए उसे ताड़ने के लिए रुका. वह सुन रहा था.

"लेकिन छोटी से छोटी बात पर जब वह किसी पढ़े लिखे के सामने दीन भाव से खड़ा होता है तो उसको जो हीनता अनुभव होती है वही संघ से जुड़े बुद्धिजीवियों को विद्वानों के सामने अनुभव होती है।

"उनकी दुर्दशा का रहस्य यही है कि जहाँ वे बेकसूर रहते हैं वहाँ भी तुम उनकी लानत-मलामत करने लगते हो और वे बेचारे अपमान झेलते हुए भी मीठा बोलते रहते हैं कि कभी तो तुम भी यह बात समझ ही जाओगे."  

"तुम विचारों की असहमति पर जान मारने की धमकियाँ देने वालों को, यहाँ तक कि जान मारने वालों को मीठा बोलने वाला कहोग?’’

‘‘पहले यह पड़ताल तो करो कि उनमें से कितने संघ से संबन्ध रखते हैं और कितने छुट्टा संगठनों से या चुटकी बजाते एक संगठन बना कर उनके मुखिया बन जाते हैं।"    

‘‘अच्छा यह बताओ, साफ-साफ बताना, तुम्हीं कह रहे थे कि छोटे बनियों की पार्टी है, वे पढ़े लिखे होते नहीं, छोटा बनिया सोचता है  फीस दे कर पढ़े लिखों से काम करा लेंगे। और तुमने यह भी कहा था तुम उनके पक्ष में खड़े हो रहे हो, साफ साफ बताना, इसके लिए फीस कितनी मिली है?’’

‘‘चोरों उचक्कों को यह राज नहीं बताया जाता।" मैंने कहा, और दोनों ने एक साथ ठहाका लगाया।

11/12/2015 5:3:36 PM

काश पूछो की मुद्दा क्या है?

देश का हमने क्या अहित किया है इसका हिसाब तो कल लूँगा, परन्तु तुम करना क्या चाहते हो? 

उस दहशत को, उस  हिन्दू फोबिया को दूर करना जिसे अंग्रेजों ने  मुस्लिम असुरक्षा की चिंता दिखाते हुए धार्मिक अलगाव  को साम्प्रदायिक घृणा में बदल कर अपनी सुरक्षा सुनिश्चित की और हमें लड़ाते हुए अपने हित साधते रहे और हुआ यह उसी देश में जिसमें बिल्ली और बन्दरबांट की कहानी हजार डेढ़ हजार साल पहले से अनपढ़ों तक की जबान पर थी।  तुमने अपने चुनावी हितों के लिए हिन्दू फोबिया लगातार उभारते हुए जिन्दा रखा जो ही उन सामाजिक समस्याओं की जड़ है जिन्हें लेकर इतनी छटपटाहट दिखाई दे रही है। तुम किसी व्याधि को उकसाओगे भी और उसी से चिंतित भी रहोगे दोनों  एक साथ तो नहीं हो सकता। इस दहशत को जितनी बेशर्मी से तुमने उभारा  है उतनी  बेशर्मी से अंग्रेजों ने भी नहीं किया था, क्योंकि उनमें प्रशासनिक परिपक्वता थी। मैं उस दहशत की जड़ों की पड़ताल करते हुए उसे दूर करने का प्रयत्न कर रहा हूँ । कर पाऊँगा या नहीं यह नहीं जानता।“ 

“तुम्हें आरएसएस दूध की धुली संस्था लगती है।“ 

“यार दूध की धुली चीज़ में तो बदबू आने लगेगी, अपने को भी मत धोना दूध से। पानी ही काफी है। धोने पखारने की नही, उसकी सीमाओं और संभावनाओं को नए सिरे से समझने की कोशिश करो। तुम मेरी बात सुनोगे भी या नहीं, नहीं जानता, क्योंकि यह एक दुष्चक्र का, एक विशस सर्कल का रूप ले चुका है जिसमें कोई अवलेप से मुक्त नहीं है।”

“उससे सावधान रहने, डरने की कोई आवष्यकता नहीं।“

"मैं जानता हूँ तुम और ऐसे करोड़ों लोग उस अवस्था में हैं जिसे पुराने लोग वशीकरण और उच्चाटन मन्त्रों का प्रभाव कहते थे. ये किसी एक के विविध रूपों में निरंतर निंदा अथवा प्रशंसा से उत्पन्न अवस्थाएँ हैं जिनमे जो कण में लगातार भरा गया है और उसे ग्रहण करने की अनुकूल परिस्थितियां भर्त्सना, उपेक्षा, तिरस्कार अथवा अनुमोदन, प्रशंसा और पुरष्कार द्वारा तैयार की जाती हैं उनमे कुछ बातों को सुनना तक सम्भव नहीं हो पता, समझना तो दूर की बात है, वही कुछ को उस नाम से जुड़ जाने के कारण हम मुग्ध भाव से स्वीकार कर लेते हैं. मुग्ध का अर्थ मूर्ख होता है यह तो जानते हो न।"

"नहीं जानता हूँ तो तुम्हे देख कर जान लूँगा।" उसने चुटकी ली।

"नहीं जान पाओगे. मैं आईना दिखाता भर हूँ पर आईना तो हूँ नहीं।" मैंने कुछ चिंतित दीखते हुए कहा, ”तुम धुले हुए मस्तिष्क के आदमी जो ठहरे।"

वह इसे अपनी प्रशंसा मान कर प्रसन्न हो गया, पर जब आगे कहा, "तुम्हारी ब्रैनवॉशिंग पूरी हो चुकी है। हमारी शिक्षा-प्रणाली जिनके हाथों में रही है, उन्होंने लम्बे समय से यही किया है।" तो उसकी हालत देखने लायक हो गई।

मैंने विषय को मोड़ दिया, “मैं जब अपने बच्चों के पास अमेरिका में था तो फुर्सत रहती थी इसलिए टीवी भी देखता था। वहाँ कुछ शिक्षा के बड़े रोचक कार्यक्रम देखने को मिले। एक था डर और घृणा से लड़ने पर। जिन जानवरो, कीड़ों मकोड़ों से हम डरते हैं या देख कर ही भन्ना उठते हैं उनको वे छोटे बच्चों की हथेली पर ही रख देते थे। वे कुछ नहीं करते। इससे ही साहस पैदा होने पर तुमने कई बार हिंस्र जानवरों को या साँपों को भी पालने, उनको अपने शरीर पर रेंगने देने के घरेलू दृश्य देखे होंगे। 

“हाँ देखे तो हैं। परन्तु क्या वहाँ जानवरों को पिजड़े में रखने पर रोक नहीं हैं?” 

“नहीं, उस तरह की मूर्खतापूर्ण रोक नहीं है जिस तरह की रोक उनकी ही नक़ल पर जानवरों के प्रति क्रूरता की नकली समझ के कारण हमारे यहाँ लगा दी  गयी। जीव-जंतुओं के प्रति जिज्ञासा बढ़ती, प्रेम बढ़ता है, और उनसे दूर रहने पर निष्ठुरता न भी आये, उदासीनता और असुरक्षा का भाव तो पैदा होता ही है। अन्य सामानों की तरह जानवर भी बिकते हैं। जब चाहो खरीद कर ला सकते हो। पर उसके बाद उनकी देखभाल में असावधानी बरती गई तो उसकी जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर  है। शिकायत मिलने पर सजा भी मिलेगी। निकट परिचय से भय दूर हो जाता है। अपरिचय एक तरह का अन्धकार  है और जैसे अँधेरे से डर लगता है कि पता नहीं उसके भीतर कहाँ  क्या छिपा बैठा हो, उसी तरह अपरिचय की स्थिति में लगता है कि अगला पता नहीं कब धोखा देदे और क्या कर बैठे।“

वह सहमत हुआ, “हाँ यह बात तो है”

मैंने अपनी बात जारी रखी, “हम शत्रु देशों से भी अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए लगातार उनके साथ बात करते हैं, उनके दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न करते हैं और वही काम हम अपने ही समाज के भीतर नहीं कर सकते इससे दुर्भाग्यपूण बात क्या हो सकती है।“

“बात तो अपनी जगह सही लगती है।“ उसने अनमने ढंग से हामी भरी.

मैंने उसकी खबर लेते हुए जड़ा, “और इस अस्पृश्यता के जनक तुम हो।  तुम से मतलब वह शिक्षा प्रणाली जिसने वैचारिक असहिष्णुता और अस्पृश्यता को पैदा किया, बढ़ावा दिया और खुद ही  रोना रो रही है कि वैचारिक असहिष्णुता बढ़ रही है और दोष दूसरों के मत्थे डाल रही है। ‘कर के खुद क़त्ल अब वह खुद हमीं से पूछते हैं, ये काम किसने किया है, ये काम किसका है?" 

वह अपनी से बाज तो आ नहीं सकता, “तुमने ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ पढी है।”

“तुमने अपनी आँखों से कुछ देखा है?

“मैंने जो पूछा उसका जवाब तो दिया नहीं।” 

“मैंने अभी हाल ही में पढ़ी है। तुम उसे पढ़ नहीं सकते क्योंकि तुम्हे पढ़ने भी नहीं आता. तुम फ़िक़रे तलाशते हो जो रोड़े पत्थर की जगह ज़बानी जंग में काम आ सकें।”

वह उत्सुकता से देखने लगा तो अपने स्वर को कुछ संयत करते हुए कहा, "देखो कोई लिखित या कथित बात हवा में नहीं होती। उसका एक सन्दर्भ होता है। उसका अर्थ और प्रभाव उस सन्दर्भ से ही निर्धारित होता है। तुमने शब्दों को देखा होगा, सन्दर्भ का ध्यान न रखा होगा।  यह पुस्तक १९३९ में लिखी गई थी। उस समय बहुत काम लोग थे जो होश हवास में बातीं कर रहे थे। यह सिलसिला बहुत पहले शुरू हो गया था. १९२1 में ही जब खिलाफत आंदोलन के बाद पुस्कार में, अंग्रज़ों की कूटनीतिक चातुरी से मोपला विद्रोह का नज़राना मिला था, जिसमे हिन्दुओं को इतने बड़े पैमाने पर मारा गया था की गांधी जी तक ने कहा था उन्हें भी मारना चाहिए था। जब १९२३ में उसी मुहम्मद अली ने जिन्हे गांधी जी ने मुसलामानों का नेता माना था, कांग्रेस के मंच से कहा था, एक गिरा से गिरा हुआ मुसलमान गांधी से अच्छा होता है। जब इक़बाल जैसा शायर कहा रहा था, "न सँभलोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्तान वालो, तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दस्तानों में’, इतना ही नहीं, ऎसी खून खौलाने वाली पंक्तियाँ तक कि "मुहब्बत का जुनूँ बाक़ी नहीं है, मुसलामानों में खूँ बाक़ी नहीं है।' जब चौधरी रहमत अली का पाकिस्तान का खाका मुस्लिम लीग के ज़हन में उतर आया था और उत्तर प्रदेश की पहली सरकार को मुस्लिम लीग के अड़ंगों के कारण भंग होना पड़ा था और मुस्लिम लीग दंगे भडकाने वाले मुहावरों में धमकियां देने लगी थी और यह ऐलान करने लगी  थी कि हिन्दुओं के साथ मिलकर मुसलमान रह ही नही सकते और कम्युनिस्ट पार्टी के मुस्लिम नेता दबे सुर में लीग के मुहावरे अपनाने लगे थे और उन्हें साथ रखने के लिए दूसरे भी रंग बदलने लगे थे। इतिहास को इतिहास में जाकर समझा जाता है, वर्तमान में घसीट कर नहीं। मैं इनमे से किसी को दोष नहीं देता, परन्तु तुम से भी यह चाहता हूँ कि कोई बात पूरे सन्दर्भ को सामने रख कर समझो और आज जब  मैं इस समस्या के हल के लिए आज के सन्दर्भ में सवाल खड़े कर रहा हूँ तो जड़बुद्धि की तरह १९३९ के सन्दर्भ को मत रखो। वर्तमान से इतिहास में तुम लोग भागते हो, क्योंकि तुम वर्तमान का सामना नही कर सकते. बहुत अनर्थ किये हैं तुमने। अब उनसे बाहर निकलने के रास्ते तलाशने में मदद करो।

11/11/2015 5:11:17 PM

हम भी एक मोटी समझ रखते हैं

तुम अपने को मार्क्सवादी भी कहते हो और मार्क्सवादियों को ही अपना निशाना बनाते हो। तुम्हें विश्वासघाती माने या कुलघाती, चुनाव तुम पर छोड़ता हूँ। और कभी सोचा भी है कि हमारा साथ छोड कर एक ऐसी राजनीति का साथ दे रहे हो जो मार्क्सवाद विरोधी है सबसे अधिक गालियां मार्क्स को वे ही देते हैं. जातपांत को, कहो वर्णवाद को वही आगे बढ़ाते हैं. समाज को बांटने का काम उनका ही है, हम लोग तो समाज को जोड़ने का काम करते हैं और मुझे ही तुम्हारी उल्टी सीधी सुननी पड़ती है। गलत कह रहा हूं?”

“तुम गलत कह ही नहीं सकते। जिस दिन गलत कहने की हिम्मत जुटा लोगे उसी दिन आदमी की तरह बात करने लगोगे।“

“मैं आदमी की तरह बात नहीं कर रहा हूँ?”

“तुम माउथपीस की तरह बात कर रहे हो। जिसे तुम मार्क्सवाद विरोधी कह रहे हो वह तुम्हारी नहीं, उस मुस्लिम लीग का विरोध करता आया है, जिसकी प्रतिक्रिया में उसका जन्म हुआ था, और जिसका कार्यभार तुमने अपना लिया है।“ 

“तुम्हारे और उस संगठन के बीच कुछ गहरी समानताएँ हैं, यह तो जानते होगे?”

“हमारी उससे क्या समानता हो सकती है? हम तो उसे फूटी आँखों भी देखना नहीं चाहते।“

“गलत कह दिया। कहना चाहिए था कि हम तो अपनी आँख तक फोड़ सकते हैं कि उसे देखना न पड़े। गरज कि तुममें वह नफरत है जिसका आरोपण तुम उस पर करते हो। वे तुम्हारा विरोध करते हैं, तुमसे नफरत नहीं कर सकते, क्योंकि वे विचारो की भिन्नता और स्वतन्त्रता में विश्वास करते हैं तुम नहीं।“

“विचारों की स्वतन्त्रता ही पर तो उनका हमला है.

“विचारों की स्वतन्त्रता पर नहीं, गालियां देने की स्वतन्त्रता पर। हमला भो वे ज़बान से करते हैं कभी कभी वह तरीका भी अपना लेते हैं जो तुम हड़ताल के मौके पर काम में लाते रहे हो। ग़रज़ की इसे भी उन्होंने तुमसे सीखा।“

“और वह जो हत्याएं हुई हैं, जिन को लेकर माहौल गर्म है।“

“वे न उनके किसी सदस्य् द्वारा हुई हैं, न उनके शासित राज्य में।“

“किया तो किसी हिन्दू ने ही।“

“तो उसका विरोध भी तो हिन्दू ही कर रहे हैं। तुम हिन्दू नहीं हो क्या? विरोध करने से रोका क्या? देखो तुम किसी भी संगठन से जुड़े हिन्दू के अपकृत्य को उनके सर मढ़ रहे हो तो किसी भी संगठन से जुड़े हिन्दू के सुकृत के श्रेय से भी वंचित न करो और फर्क करना है तो होश हवास में रह कर करो। अपनी नफ़रत के कारन घालमेल मत करो।“ 

“विरोध का विरोध तो कर रहे हैं न?”

“विरोध का विरोध नहीं विरोध के तरीके का विरोध और वह भी तार्किक और न्यायोचित तरीके से। इस तरह का घालमेल वे नहीं करते, नफ़रत तुममे है तुम उसे फैलाते हो एक हिन्दू के किये के लिए उससे नफ़रत और फिर हिन्दू नाम जहां जहां दिखाई दिया उससे नफरत। वे ऐसा नही करते। ज़बान तक उनकी मीठी मिलेगी, किसी से अधिक शालीन, कड़वी है तो तुम्हारी. नफ़रत से भरी। तुम बिना गाली के बात ही नहीं करते. असहिष्णुता तुममे अधिक है।

“शिष्टाचार सीखना चाहो तो उनसे सीख सकते हो. वे कम पढ़े लिखे हैं. क़ायदे से अपना पक्ष नहीं रख पाते.  तुम्हारे पास वाग्विदों की सेना है. तुम अपने गलत को भी सही साबित करते आये हो. पर सभ्य तुमसे अधिक वे हैं.”

“तुम्हे हो क्या गया है, यार?”

“मैंने कहा था न बौद्धिक का काम सताए हुए का पक्ष लेना है। मैं उनका पक्ष ले रहा हूँ. जवाब तुम्हे देना है। गालियां देने चलोगे तो वे तर्क से टकरा कर तुम्हारे ऊपर जा गिरेंगी. सत्य के पक्ष में हूँ इसलिए तुम्हारे वाग्विदों की पूरी फ़ौज़ को अकेले चुनौती देता हूँ। तर्क और प्रमाण के साथ आओ और मुझे गलत साबित करो। गलत साबित हो गया तो भी मेरी जीत होगी क्योंकि गलती समझ में आ जाएगी और सुधार कर लूँगा।”   

“छोडो वह बात। तुम तैश में आगये हो। हाँ, समानता की क्या बात कर रहे थे तुम। वह बताओ।“

“तुम्हारी पार्टी का और उसका जन्म एक ही साल में हुआ था, 1925 में। एक ही ऐतिहासिक परिस्थिति से, एक ही विक्षोभ के भीतर से। दोनों में ऐसे लोग थे जो कांग्रेस से जुड़े रहे थे, इसलिए विदेशी शासन से मुक्ति चाहते थे और कुछ समय तक कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग भी लेते रहे थे। दोनों ने कांग्रेस द्वारा तैयार की गई ज़मीन में अपनी अलग खेती शुरू की थी। दोनों जात-पांत विरोधी थे परन्तु देानों में सवर्ण ही लगातार हावी रहे।“ 

“नहीं, कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में ऐसा नहीं कह सकते।“

“मैं क्या कहूँगा। मेरे पास तो अध्ययन भी कम है, अक्ल भी कम। यह तो बाबा साहब ने अनुभव किया था।“

“बाबा साहब की वजह दूसरी थी। वह समझते थे कि दलित समाज की पेट की भूख उतनी ही प्रबल है जितनी आत्मा की भूख। उसे एक धर्मव्यवस्था चाहिए जिसमें वह इसकी पूर्ति कर सके। इसलिए उन्होंने सोच-विचार कर बौद्धमत को अपने अनुकूल पाया था। हमारे यहाँ ईश्वर के लिए जगह नहीं थी।“

“यह अर्धसत्य है। तुम्हारे संगठन में सभी नहीं तो लगभग-सभी कुलीन थे। दबे पिछड़ों को अपनी फ़ौज में भरती करना चाहते थे पर उनके साथ नहीं थे वर्ना बाबा साहेब को अपनी और लाने का प्रयत्न करते.  समझाने का प्रयत्न करते की ऊंची जातियां ही नहीं उनका ईश्वर भी दलितों को दबा कर रखता है। नाम सर्वहारा का लो या अल्पहारा का, उनके सपने कुलीनतान्त्रिक थे। जीवनशैली अभिजनवादी थी।  उनके निजी जीवन और सार्वजनिक चेहरे में सीधा विरोध था। कभी मौका मिले तो पढ़ना ध्यान से राज थापर की वह किताब। धुन्ध छँट जाएगी।“ 

वह हँसने लगा, “तुम समझते हो मैंने पढ़ा नहीं है।“

“पढ़ा तो हजम नहीं कर सके। उसकी किसी ने आलोचना भी नहीं की। रास नहीं आती थी तो उसे भूल भी गए। ऐसा न होता तो तुम भी मान लेते कि तुम्हारी पार्टी के खाने के दाँत और थे, दिखाने के दाँत और ।“ 

“तुम डिस्टार्ट कर रहे हो।“

“इसीलिए तो कह रहा हूँ कि जिस किताब को तुम भी पढ़ चुके हो, उसकी ही एक इबारत को देखो तो सहीः

I understood little of it myself moving naturally and effortlessly, almost sleepwalking, towards the communists, who were as much part of the social elite of Bombay at the time as anyone else. P. 6.  

“आरएसएस मोटे तौर पर बाहर भीतर एक समान थी और इसलिए अधिक अरक्षित।“

“अरक्षित। तुम यह क्यों भूल जाते हो कि ब्रितानी शासन में उस पर कभी कोई रोक-टोक नहीं लगी जब कि हमारे संगठन को भूमिगत रहना पड़ता था।“

“वह इसलिए कि वे शान्तिप्रेमी थे, तुम उपद्रवी।  उनकी जड़ें भारत में थीं, तुम्हारी बाहर। वे अपनी समझ से काम कर रहे थे। तुम दूसरों के सिखाने पर। सच तो यह है कि कम्युनिस्ट पार्टी के पीछे भी ब्रितानी बुद्धि ही काम कर रही थी। वहाँ जो भी पढ़ने जाता वह मुसलमान हुआ तो कट्टर लीगी बन कर आता था और हिन्दू हुआ तो कच्चा पक्का कम्युनिस्ट।

“हाँ, तो समानता की बात तो रही गई। दोनों को बहुत अनुशासित दल माना जाता रहा है जिसका अर्थ है दोनों से जुड़ने वाले सोचना बन्द कर देते हैं और फैसला मानने की आदत डाल लेते हैं। उनकी स्वतन्त्रता उसी सीमा तक रहती है जिस सीमा तक सिखाए को भूल जाने के कारण उसे दुहराते समय अपनी इबारतें गढ़ने को लाचार होते हैं।

“परन्तु दोनों में जो सबसे बड़ा अन्तर है वह यह कि वे खंडित मानवता की बात करते हैं और तुम महामानवता के सपने दिखाते हो इसलिए हमारे सर्वोत्तम प्रतिभा सम्पन्न तरुण तुम्हारी ओर आकर्षित होते रहे हैं, जब कि उनके साथ मोटी समझ के लोगों का समूह था। वे गूंगे थे तुम वाचाल।

“परन्तु देश का जितना अहित तुमने किया है उसका शतांश भी उन्होंने नहीं किया होगा।

नहीं हैं कहीं भी नहीं लहू के निशान

भई मैं तो यह देख कर दंग रह जाता हूँ कि मोदी को बचाने के लिए तुम सारा इल्जाम अपने माथे पर ले लेते हो, ऐसी वफादारी तो गुलामों में ही देखी जाती है।

मैं हँसने लगा,"मैंने कहा था न कितनी भी कोशिश करूँ, कोई नतीजा नहीं निकलना। यहाँ तक कि गालियों की भाषा में बात करने की आदत भी नहीं छुड़ा सकता।

यह बताओ, दंगे भड़काएँगे राजनीति करने वाले, भड़काने वाली भाषा में बात करेंगे राजनीति करने वाले और समाज में बढ़ती असहिष्णुता की जिम्मेदारी होगी साहित्यकारों और चिन्तकों की। इससे बेतुकी बात क्या हो सकती है?

दंगे भड़काने वाले शिक्षित हैं या अशिक्षित/"

"कहने को तो हैं शिक्षित ही।"

"कहने भर को शिक्षित रंगरूट निकालने वाली शिक्षा प्रणाली ने अपना काम सही किया?"

वह थोड़ा चकराया।

"यह उसी छात्र राजनीति का नतीजा है जिसमे छात्र अपना काम, अर्थात  अध्ययन छोड़ कर राजनीति करते हैं। तुम कहते हो संसदीय प्रणाली के प्रशिक्षण के लिए छात्र राजनीति जरूरी है, और उस राजनीति के कारण वे बाहर निकल कर न संसद में संसदीय भाषा का प्रयोग करते हैं न बाहर शिष्ट व्यवहार। तुम स्वयं राजनीति करते हो और अपने छात्रों के भविष्य को विकृत करते हुए अपना काडर तैयार करते हो। इसमें पहली कमी बौद्धिक वर्ग के कारण आई है, शिक्षा प्रणाली को आन्दोलन-प्रणाली में बदलने से आई है या नहीं। उसी का उपयोग राजनीतिक करते हैं जो सदा से सत्ता के लिए हिंसा, झूठ, फरेब, चुगलखोरी का सहारा लेते हैं। हम अपने काम की जिम्मेदारी लें और अपनी जमीन पर खड़े हो कर अपनी लड़ाई लड़ें तो इस विकृति से बचा जा सकता है या नहीं? देखो, हमारा मोर्चा अधिक निर्णायक है, राजनीतिक भविष्य का निर्णय भी वही करता है।" 

"ये जो अमुक स्वामी और अमुक साध्वी जहरीली बातें करती हैं वह हमने सिखाई हैं?"

"वे राजनीतिक भी नहीं हैं, समाज के सबसे गैर ज़िम्मेदार लोग हैं यह मैं दो दशक पहले बता चुका हूँ और इसके लिए भाजपा को चेतावनी भी दे चुका हूँ. वे न जीना जानते हैं, न अपना घर सम्भालना जानते हैं, न बोलना जानते हैं न सीधी राह चलना जानते हैं. मोदी ने उन्हें सिरे से किनारे दरकिनार किया है इसलिए बौखलाए ऊटपटांग बकते हैं. उन्हें दरकिनार किया जा सकता हैं पर तुम्हें? 

“जहर तो तुमने उससे अधिक बोए हैं, पर इसका तुम्हें पता ही नहीं। उनके विषय में मैंने कुछ पंक्तियाँ तुम्हें पढ़ने को दी थीं। तुमने पढ़ा भी था पर भूल गए।  आक्टोपस वाली उपमा तुम्हें याद है, न हो तो 17 अक्तूबर को उसे फेसबुक पर भी डाल दिया था। पृ.212 के अन्तिम पैराग्राफ को फिर से पढ़ो तो समझ में आ जाएगा कि बौद्धिक राजनीतिक से बहुत आगे तक देखता है। राजनीतिक उसके पीछे चले तो उसे लाभ होगा और साहित्यकार का गौरव भी बढ़ेगा। यही बात प्रगतिशील  लेखक संघ के पहले अधिवेशन में प्रेमचन्द ने अपने भाषण में कही थी, परन्तु तुम्हारी समझ उल्टी थी। वह लेखक को राजनीतिक के पीछे हाँकता रहा। परिणाम, साहित्य न समाज के काम का रहा, न चेतना के विकास में सहायक हो सका, न ही राजनीति को मदद पहुँचा सका, जो इसके वश का भी नहीं था। उल्टे प्रगतिषीलता की ऐसी विकृत समझ को बढ़ावा देता रहा जिससे जनभावना को ठेस पहुँचती रही। हम कभी इस दुर्भाग्यपूर्ण मोड़ पर चर्चा करेंगे जब कम्युनिस्ट पार्टी मुस्लिम लीग का मुखौटा बन गई और इसकी गतिविधियाँ मुस्लिम लीग की योजनाओं के अनुसार चलती रहीं और उसे  इसका पता ही न चला। वास्तव में कम्युनिस्ट पार्टी का अन्त तो उसी समय हो गया था जब उसने मुस्लिम लीग से हाथ मिलाया और यह हाथ लगातार पर्दे के पीछे मिला ही रहा।“ 

“तुम कहाँ से इतनी वाहियात बातें ढूँढ़ लाते हो भाई।“

“मेरी जानकारी बहुत कम है, परन्तु इस बात को तो लगभग सभी कम्युनिस्ट जानते हैं कि उन्होंने धर्म के आधार पर राष्ट्रीयता की अवधारणा का समर्थन किया था और विभाजन के सवाल पर जनमतसंग्रह के समर्थक थे। यदि तुम्हें नहीं पता तो मैं एक कम्युनिस्ट कार्ड होल्डर राज थापर की कष्टकथा की कुछ पंक्तियों की ओर ध्यान दिला सकता हूँ:

Sleeping, walking, dreaming, I was tormented by the precipitous edge that Jinnah had brought to the country to. And when Mohan, communist and dedicated, produced a string of defences for the term, day in and day out, I found myself wanting to throw things at him and everyone else for not being able to see that self determination could not be based on religion; culture and religion were not synonymous terms....

... And of all people, Mohan,  who then I though had devoured all the basic writings of Marxism, how could he hold, support and supply Jinnah with intellectual arguments he so urgently needed? 

Raj Thapar: All These Years: A Memoir, Penguin Books, 1991, p. 8

“प्यारे भाई यह भूल तो तुम्हारी पार्टी मान भी चुकी है पर भूलें मान कर भूलें करते जाना जुम्हारी अदा में शामिल है।“

“मुहावरा है नाम में क्या रखा है। पर नाम में बहुत कुछ रखा है। सारे गोरखधन्धे अच्छे और पवित्र नामों की आड़ में ही किए जाते हैं। नाम है कम्युनिस्ट पार्टी, कार्यभार है मुस्लिम लीग का। मुस्लिम लीग तभी तक जिन्दा रह सकती है जब तब उसकी प्रतिरोधी कोई हिन्दू पार्टी हो। इसलिए हिन्दू साम्प्रदायिकता को साम्प्रदायिकता विरोध के नाम पर उत्तेजित करते रहना तुम्हारी जरूरत है और सांप्रदायिक तनाव और असहिष्णुता को बढाने में तुम्हारी भूमिका सबसे अधिक है। धर्मनिरपेक्षता मुस्लिम साम्प्रदायिकता का दूसरा नाम है जैसे खुराफातियों के कई उपनाम होते हैं उसी तरह। वर्ना आरएसएस तो कभी का किनारे लग गया होता। उसे नया जीवन तुम्हारी असहिष्णुता ने दिया है। उत्तेजना भड़काने का जितना सुनियोजित और सिलसिलेवार काम तुमने किया है वैसा तो किसी ने किया ही नहीं।

11/8/2015 10:41:09 PM

लेखक का दायित्व

“मैं कल उस व्यक्ति की या कहो उन व्यक्तियों को लेकर कयास भिड़ाता रहा जिनका नाम लिए बिना तुमने इशारे किए थे। तुम्हारी कथा का खलनायक अमुक तो नहीं?” उसने उसका नाम लेते हुए पूछा।

मैंने हँसते हुए जवाद दिया, नाम में क्या रखा है। मेरा लक्ष्य उसको आहत करना नहीं अपितु उन पहलुओं को रखना था, जिनसे घृणा की मनोव्याधि को समझा जा सके। परन्तु जिसे तुम खलनायक कह रहे हो, वह खलनायक नहीं एक मनोरोगी है। रोगी से सहानुभूति जताई जा सकती है उसकी व्यथा को बढ़ाया नहीं जा सकता। अपने को अपनी हैसियत से बड़ा दिखाने और बनने की आतुरता के कारण उसके व्यवहार में एक विकृति आ गई और इसके कारण उसका कई लोगों से झगड़ा हुआ, लोगों ने काफी हाउस की उस साप्ताहिक मिलन गोष्ठी से किनारा कसना शुरू कर दिया और अन्ततः आना बन्द कर दिया और फिर तो उसे भी आना बन्द करना ही था। बड़ा लेखक बनने और अपना सारा समय लेखन में लगाने के लिए उसने एक अच्छे खासे पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली थी और हस्र यह कि इस कुंठा में उसने आगे लिखना भी छोड़ दिया। यदि उस शनिवारी गोष्ठी को एक संस्था मानो तो एक व्यक्ति की अनपेक्षित महत्वाकांक्षा ने उस संस्था को नष्ट कर दिया। साथ ही उस पारिवारिकता को भी क्षति पहुँचाई जो लेखकों के बीच बनी हुई थी। इसलिए जब मैं कह रहा था कि अपनी यशलिप्सा की भूख में ये उस संस्था को ही नष्ट करने पर उतारू हैं तो मेरी नजर में वह गोष्ठी भी थी। मुझे लगता था कि वे ऐसा बिना सोचे समझे कर रहे हैं, पर कुछ विलम्ब से समझ में आया कि उनके पीछे दूसरी शक्तियाँ हैं और ये उनके इशारे पर काम कर रहे हैं तो क्षोभ भी हुआ। इनमें कोई ऐसा नहीं है जो सोच समझ कर देश में अराजकता फैलाना चाहे । चाह ही नहीं सकते, परन्तु जो कर रहे हैं वह सफल हो तो अराजकता ही फैलेगी। इसका भी बोध नहीं है। बौद्धिक स्तर यह है कि अपनी करनी के परिणामों तक का पता नहीं और लालसा यह कि सभी उनके बताए मार्ग पर चलें । इसकी विफलता से इनको जितनी ग्लानि होगी उसकी भी वे कल्पना नहीं कर सकते। यह होगी मोदी की उपेक्षा और चुप्पी के कारण और लम्बी कवायद के बाद इनकी थकान के कारण। इसीलिए ये मोदी की चुप्पी से डरते हैं, उसी को बार बार तोड़ने की चुनौती देते हैं।“

“देखो चुप्पी-उप्पी की बात न करो। कह तो वे भी सकते हैं कि हमारे सवालों का जवाब मोदी के पास नहीं है इसलिए उनकी बोलती बन्द है।“

“वे हौवा खड़ा कर सकते हैं, परन्तु कह नहीं सकते। अभी दो दिन पहले ही तो तुमने माना था कि उन्होंने कहा कुछ नहीं, आन्दोलन खड़ा कर दिया, आन्दोलन को उचित ठहराने के लिए जो मांगें रखीं वे भी पूरी हो गईं तो आन्दोलन का विस्तार कर दिया, परन्तु नई माँग क्या है यह बताया नहीं । क्या तुम नहीं मानते कि शोर मचा कर भी कुछ कहा नहीं जा सकता है, चुप रह कर भी बहुत कुछ कहा जा सकता है। 

“तुम हाहाकार मचाते हो तो सौ डेढ़ सौ की ही भीड़ जुटा पाते हो, डंका बजाते हो कि अब हमारी संख्या इतनी हो गई। यह तक नहीं सोचते कि सवा अरब की जनसंख्या वाले देश में, इतनी प्रचंड समस्या पर, कितने कम लोग तुम्हारे साथ हैं। आम लोग साथ होते तो यह संख्या इतनी नगण्य न होती। तुम सैकड़ों से सन्तुष्ट हो, जब कि इसे कई करोड़ तक जाना चाहिए था। कांग्रेस को जिस बेरहमी से जनता ने नकारा था, क्या उसने तुम्हें उससे भी अधिक निष्ठुरता से हाशिए पर डाल दिया, क्योंकि तुम कभी उसके हुए ही नहीं। उसके लिए कुछ लिखा ही नहीं। तुम अपने लिए (आत्माभिव्यक्ति के नाम पर), गैरजिम्मेदारी से (लेखकीय स्वतन्त्रता के नाम पर)  लिखते रहे और अपने मुखौटों की परिधि तक सिमटे रह गए। कुछ हजार या लाख के बीच। करोड़ तक भी नहीं पहुंच पाए।  लिखा समाज को यह बताते हुए कि यह आपका, आपके लिए, आपके हिरावल दस्ते द्वारा लिखा साहित्य है और लिखते रहे अन्तर्राष्ट्रीय बाजार की अपेक्षाओं को ध्यान में रख कर विष्वविख्यात होने की ललक में अपनी ही साहित्य परंपरा, समाज और मूल्य दृष्टि से मुँह फेर कर। तुम्हें तो यह भी पता नहीं कि हमारा समाज क्या है, तुम्हारा अपना काम क्या है।“

“यदि पता नही, तो तुम्हीं बतादो।“

“लेखक का काम लिखना है। उसका हथियार कलम है, भाषा है। उसे जो करना है अपने हथियार से करना है। उसका काम है अपने कार्यक्षेत्र की सीमारेखा को पहचानना। लेखक का काम है चालू राजनीति से अगल रहना। अपनी स्वायत्तता और सम्मान की रक्षा करना। परन्तु सबसे जरूरी काम है अपने समाज को समझना और उसका विश्वास अर्जित करना।“  

“लेखक राजनीति से दूर रहे, राजनीतिक समस्याओं से दूर रहे, छात्र राजनीति से दूर रहे, वह धर्मग्रन्थ पढ़े, यह कहना चाहते हो। पता है इसके बाद लेखक क्या बन जाएगा?”

“क्या बन जाएगा?”

अजागलस्तन, बकरी के गले की चूँची। और तुम राजनीति से दूर रहने की बात कैसे कर सकते हो। हर तीसरे वाक्य पर तो तुम्हें मोदी दिखाई देने लगता है?“ 

तुम्हारे दिमाग में भूसा भरा है इसलिए कोई बात समझ ही नहीं पाते। राजनीतिक औजार और राजनीतिक समझ में अन्तर होता है। राजनीति पढ़ना, उसकी व्याख्या करना, अपने विवेचन में किसी को सही या गलत ठहराना, राजनीति नहीं बौद्धिक दायित्व है। और मोदी मेरे लिए एक पृष्ठभूमि है जिसमें ही आज की समस्याओं पर अपने समाज से अपने विचार बाँट सकता हूँ। यह नाम तो आगे भी आता रहेगा। हां वह जो धर्मशास्त्र पढने पढाने की बात कर रहे थे, उससे भी डरने की जरूरत नहीं। हमारे जैसे देश में तो धर्मशास्त्र एक विषय भी हो सकता है जिसमें सभी धर्मों-ग्रन्थों से परिचित कराया जा सके। धर्मग्रन्थ पढ़ने से धार्मिकता बढ़े यह जरूरी नहीं पर कट्टरता अवश्य कम हो सकती है। कट्टर लोग अपना धर्मग्रन्थ तक नहीं जानते, अपने साहित्य तक से परिचित नहीं होते। मैं यह काम किसी जुलूस में शामिल हो कर नहीं कर रहा हूँ, कलम से ही कर रहा हूँ।

“जैसे मैं अकेला मार्क्सवादी हूँ और दूसरों को भाववादी या अवसरवादी कम्युनिस्ट मानता हूँ, उसी तरह मैं अकेला ऐसा लेखक हूँ जो अपने समाज को समझना, उस तक पहुँचना चाहता है और पहुँचने के रास्ते निकालने के प्रयत्न में है, दूसरे सभी समाज से कटे और पश्चिमी समाज को अपने समाज पर आरोपित करके उसकी झिल्ली से समाज को देखना और समझना चाहते हैं इसलिए जो अपने को यथार्थवादी लेखक मानते हैं उन्हें भी भाववादी कलाबाज मानता हूँ।“

“मैं समझा नहीं अपने समाज को समझने से तुम्हारा मतलब क्या है?”

अपने समाज को समझने का पहला कदम है यह समझना कि समाज के अशिक्षित लोगों के पास भी अपना दिमाग होता है और वे उसी के काम लेते हैं। उनको बेवकूफ समझना और अपने को इतना चालाक समझना कि यहाँ-वहाँ की तमाम बातों का घालमेल करके उनके दिमाग में उतारा जा सकता है, परले दर्जे की मूर्खता है। समाज मिलावट से परहेज करता है।“ 

“चलो, और दूसरा?”

दूसरा यह कि हमारा समाज अपने देश में रहता है जिसकी अपनी कलादृष्टि, अपनी कला परंपरा, अपना इतिहास, अपना पुराण रहा है  और वह जैसे अपनी जमीन से जुड़ा होता है वैसे ही इनसे भी जुड़ा होता है। इनको समझे बिना उसकी मनोरचना तक को नहीं समझा जा सकता जिस तक अपनी बात पहुँचानी है।“ 

“और कुछ?”

“बौद्धिक का काम है अपनी भूमिका को पहचानना।“

“भूमिका मतलब?”

“बौद्धिक की दो भूमिकाएँ हैं। एक रम्य और बोधगम्य शैली में समाजशिक्षा जिसे कान्तासम्मित उपदेश कहा गया है और दूसरा जो भी उसी से जुड़ा है, चिकित्सक की भूमिका। इन दोनों के माध्यम से ही वह लोकमंगल कर सकता है।“ 

“यदि समाज में असहिष्णुता का विस्तार हुआ है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार ने अपना काम नहीं किया। इसका अर्थ है, साहित्यकारों और कलाकारों ने  लम्बे समय से अपना काम किया ही नहीं। यह जो तुम शोर मचाते हो कि अमुक की हत्या हो गई अमुक को धमकी दी गई अमुक के आयोजन में विघ्न डाला गया, उसके लिए तुम जिम्मेदार हो। सरकार नहीं।  तुम खुद अपने निकम्मेपन को सरकारों पर डाल रहे हो और वह भी उस सरकार पर जो वहाँ है ही नहीं । ये जितनी हत्याये हुई हैं उनके लिए हम सभी जिम्मेदार हैं क्योंकि हम यह तक नहीं जानते कि अपने समाज से बात किस भाषा में और किस शैली में किन मर्यादाओं में रह कर की जाती है जिससे उसका ज्ञान बढ़े, वह सीखे, उत्तेजित न हो। उत्तेजना तुम फैलाओ और असहिष्णुता के विस्तार की जिम्मेदारी सरकार पर डाल दो यह ठीक नहीं। सरकार का काम अघटनीय के घटित हो जाने के बाद आता है और यदि वह उसमें शिथिल दीखे तभी उसको उसके लिए जिम्मेदार माना जा सकता है।

11/8/2015 11:51:39 AM