अस्‍पृश्‍यता का संजाल

“तुमने कहा तो मान गये, चुप लगा गये, पर बात गले उतरती नहीं कि अस्‍प़ृश्‍यता आदिम समाज से आई है। लगता है, तुमने पुरातनपंथिता की हिमायत करने का नया तरीका अपनाया है। मैं मानता हूँ तुम खाक को खल्‍क साबित कर सकते हो, और इसका सम्‍मान भी करता हूँ पर विश्‍वास नहीं जम पाता। 

’’तुमने कभी बिरादरी पंचायतें देखी हैं, मेरा मतलब खाप से नहीं है, बारी, धोबी, नाई, कहॉंर, चमार आदि की पंचायतें ?”

वह कस्‍बे में पैदा हुआ था इसलिए कभी पाला नहीं पड़ा था। समझाना पड़ा, ‘’उनमें बिरादरी के अपने नियम विधान होते हैं और उनके उल्‍लंघन के लिए दंड का विधान होता है। उूँची जाति के लोग जिनसे वे सामान्‍य व्‍यवहार में कॉंपते हैं] यदि कोई गर्हित अपराध करते हैं तो उनको अपनी सेवा से वंचित करने का भी अधिकार होता है। ये पंचायते सवर्ण असवर्ण सभी की रही है। उसी भूस्‍वामी से काँपने वाले धोबी, कहाँर आदि की अपनी बिरादरी पंचायत ने उसके किसी अपराध के कारण निर्णय ले लिया कि उसे बहिष्‍क़त किया जाता है, तो कोई उसे अपनी सेवा प्रदान नहीं करता था और इसका सम्‍मान वह स्‍वामी भी करता था।‘’ 

‘’समाज का अपना न्‍यायांग था?‘’ 

‘’स्‍वयं करता था और सामान्‍यत:  किसी से कुछ छिपा नहीं होता था इसलिए उस तरह की बेईमानी या गलत बयानी की नौबत नहीं आती थी। लोग किसी बाहरी आदमी को पट्टी पढ़ा  भी दें, आपस में झूठ नहीं बोलते था। यह उनके संस्‍कारों का हिस्‍सा बन चुका था । 

‘’और जिस तरह की दलितों की हत्‍यायें या उत्‍पीड़न की कथाएँ सरकारी न्‍याय व्‍यवस्‍था स्‍थापित होने के बाद सुनने को मिलती रहीं, और जिनमें कमी नहीं आ रही, वे पहले नहीं होती थीं। हत्‍या किसी व्‍यक्ति की हो या ऐसे पशु की जिसके वध की वर्जना है, वह गाय हो, या बिल्‍ली, या आज के दलित कहे जाने वाले किसी जाति के व्‍यक्ति की, उसका साहस कोई नहीं कर सकता था।  गलती से भी अपराध हो गया तो उसे ‘हत्‍यारी’ लग जाती थी। तब तक के लिए जाति बहिष्‍कार जब तक वह प्रायश्चित्‍त के एक इतने पीड़क दौर से नहीं गुजरता जिसमें वह अपने पातक को विज्ञापित करने वाले प्रतीक, हरे बाँस के कंछे की छड़ी लिए और कई साल भीख माँगता हुआ नहीं बिताता और फिर लौट कर आत्‍मशुद्धि नहीं करा लेता जिसमें सवर्णों में ब्राह्मण को कुछ दान आदि की व्‍यवस्‍था होती थी। सेवक जातियों की अपने‍ बिरादरी भोज आदि का विधान होता था। हमारा कानून जो पश्चिमी मानक पर बना है, अपराध को अधिक बढ़ाता है, बनिस्‍बत उस पुराने बिरादरी विधान के । किसी को म़़ृत्‍युदंड का अधिकार न था, इसलिए ऐसे पातक जिनकी प्रायश्चित्‍त से भी शुद्धि नहीं हो सकती थी, उनका दंड था, जाति बहिष्‍कार या टाट से बाहर कर देना । उसका हुक्‍का पानी बन्‍द । उनका स्‍पर्श वर्जित । यह प्राणदंड जैसा दंड नहीं था, पर निर्वासन जैसा दंड अवश्‍य था। इसी के सामाजिक व्‍यवहार के रूप थे उपेक्षा या विर्सजन या सम्‍पर्क काट लेना हमारे मूल्‍यों में आ सका। हम उदार थे, हिंसा से बचते थे, परन्‍तु सर्वथा अरक्षित नहीं थे। जहाँ दूसरे समाज वध से नीचे कोई दंड नहीं सोच पाते थे वहाँ हमारे यहॉं भी कम कठोर विधान न था। परन्‍तु नरहत्‍या से बचने का प्रयास भी था। यह हमारे संस्‍कारों में आ चुका था।‘’  

‘’इसमें ब्राह्मण की कोई भूमिका नहीं होती थी, स्‍मृतियों में तो यह विधान है कि अमुक अपराध से अमुक जाति और अमुक से अमुक जाति बनी है?’’ 

‘’समाज बहिष्‍क़ृत करने के बाद इन्‍हें उन जातियों में स्‍थापित कौन करने जाता था? वे जातियाँ इनको स्‍वीकार कैसे करतीं? जिन्‍हें हम आज या कहें परवर्ती समझ से हीन जातियाँ मान बैठते हैं वे कम स्‍वाभिमानी‘ नहीं थीं, परन्‍तु उनमें से कुछ में वे वर्जनाएँ न थीं और कुछ समुदायों में आज भी नहीं हैं जिन्‍हें हम पुरुष प्रधान समाज में पाते हैं। उनमें किसी नये व्‍यक्तिको हर तरह की छूट मिल सकती थी और ये उनकी श्रेणी में पहुँच जाते थे। परन्‍तु शास्‍त्रकारों के विधानों के अनुसार यदि ऐसे समाज वहिष्कृत व्‍यक्ति आसपास कहीं अलग गुजर करने लगें तो लोग संभवत: उसी संज्ञा से उन्‍हें अभिहित करते रहे होंगे जैसे मध्‍यकाल में किसी मुसलमान का छुआ पानी भी पी लिया तो उनके परिजनों ने उन्‍हें मुसलमान मान लिया और मुसलिम समाज ने उन्‍हें सहर्ष स्‍वीकार कर लिया। तुम ठीक कह रहे थे कि इसका खमियाजा हिन्‍दू समाज को भुगतना पड़ा है परन्‍तु शायद इसके पीछे के फरेब को तुमने न समझा हो।‘’ 

‘’तुम्‍हारा मतलब है इसे योजनाबद्ध रूप में किया जाता रहा?’’

‘’तुमने वह कौवाली तो सैकड़ों बार सुनी होगी, क्‍योंकि तुम्‍हें वह ठीक-ठीक याद थी, कि ‘छाप तिलक सब छीनी रे तोंसे नैना मिलाइके । इसका मतलब भी जानते हो? 

‘’मतलब ?’’ 

‘’हिन्‍दू समाज में, यहाँ मेरा तात्‍पर्य उस समूचे समाज से है जो यहाँ के अरण्‍यजीवी समुदायों से क़ृषि की ओर अग्रसर होते वर्णसमाज में प्रविष्‍ट या उनकी सेवा में लगे, और वे जो वन्‍य अवस्‍था में ही रह गए, सभी से है। इनमें जादू-टोने, सोखा ओझा, यज्ञयाग और मन्‍त्र शक्ति में विश्‍वास बहुत प्रबल रहा है । सिद्धों के चमत्‍कार में जनता के विश्‍वास की बहुत अच्‍छी समझ सूफियों में थी और उन्‍होंने उसी तरह के हथकंडे अपना कर अपना प्रभाव जमाया। उनमें सम्‍मोहन आदि की शक्ति या कौशल भी रहा होगा, क्‍योंकि आज के जादूगरों और सम्‍मोहन विशेषज्ञों को देखो तो समझ में आ जाएगा कि इसमें किसी आध्‍यात्मिक सिद्धि का प्रश्‍न ही नहीं है। यह एक पद्धति का अभ्‍यास और प्रयोग है ।‘’ 

‘’तुम्‍हारा मतलब है शेख सलीम चिश्‍ती, निजामुद्दीन, बाबा फरीद जैसे सूफियों के पास कोई सिद्धि या साधना नहीं थी?‘’ 

‘’इसके बारे में कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं है क्‍योंकि आज के समाज में पाशविक भावाकुलता का विस्‍तार और तार्किकता का ह्रास हुआ है और वे जो दुनिया को अपनी मुट्ठी में रखना चाहते हैं वे एशियाई देशों में भावुकता और धार्मिकता का विस्‍तार और तार्किकता का विनाश करने की शातिर योजनाओं से लैस हैं और धर्मोन्‍मादी एक ओर उनका ही विरोध करते हैं और दूसरी ओर उनकी योजना के अनुसार काम करके अपने को अरक्षणीय बनाते हैं। खैर यह विषयान्‍तर होगा, परन्‍तु मैं न योगियों, सिद्धों की प्रचारित सिद्धि में विश्‍वास कर पाता हूँ, न सूफी सन्‍तों की सि‍द्धि में जिन्‍होंने अपना बारूदखाना बनाने में उनसे ही गुरुमन्त्र लिया था और उसी का प्रयोग इस्‍लाम के प्रसार के लिए किया था। परंतु इसे तो तुम समझ ही नहीं पाओगे। पीछे जाना होगा।‘’ 

‘’तुम मुझे अपने ही जैसा मूर्ख समझते हो?‘’

‘’नहीं, मैं अपने को तुम जैसा मानने का दुस्‍साहस नहीं कर सकता: अपने को ज्ञान वंचित अल्‍पज्ञ मानता हूँ और तुम्‍हें ज्ञान-गुरु-गौरव-गर्वित-मूर्ख मानता हूँ। मैं कहना यह चाहता था कि सम्‍मोहन के कई रूप और कई स्‍तर होते हैं और इन सबके पीछे प्रबल शक्ति है अविवेचित विश्‍वास, दूसरों के कहने में आना, यह मान लेना कि इतने लोग और इतने प्रबुद्ध लोग भी ऐसा सोचते हैं तो सच तो होगा ही, और अपनी तर्कबुद्धि को विश्‍वास को समर्पित कर देना। इससे प्रचारित विश्‍वास के कारण स्‍वत: तर्क को समर्पित करने वाले विश्‍वासियों के दायरे में विस्‍तार के साथ सामाजिक मुग्‍धता या सम्‍मोहकता का पर्यावरण तैयार हो जाता है। 

अब इसमें उप‍स्‍थित व्‍यक्तियों या व्‍़‍यक्ति को मुग्‍ध या हतचेत या कहो परनिर्देश पालन का उदय हो जाय तो काम पूरा हो गया। इसी को समझने और इस्‍लाम के प्रसार में अपना योगदान देने के कारण सूफियों को रियायत मिली थी। वे अजान से ले कर मुल्‍ला मौलवी तक का मजाक उड़ा सकते थे, पर कुरान का नहीं, पैगंबर का नहीं। तुम तो मुझसे अधिक उर्दू जानते हो, उर्दूकी  सर्वोत्‍कृष्‍ट शायरी इसी से प्रेरित है।‘’ 

‘’तुम विषय पर बात तो कर ही नहीं रहे हो, बच रहे हो उस सवाल से जिसे तुमने ही आमन्त्रित किया था।‘’ 

‘’मुझे भी लगता है‍ कि भटक गए हैं, परन्‍तु यह समझो कि आटविक काल से चले आ रहे और भारतीय भूभाग में अपेक्षाक़त प्रबल विश्‍वास का योजनाबद्ध विस्‍तार करते हुए हिन्‍दू समाज में जिन श्रद्धालुओं का मजमा जुटाना आरम्‍भ किया वे अन्‍ध भाव से, भक्तिभाव से, लगभग उसी भाव से जिससे वे आज भी गाते हैं ‘शेरां वाली माता तेरी जय हो’ और दुष्‍कर चढ़ाइयॉं समर्पित भाव से चढ़ते हैं उसी जैमाता दी वाली श्रद्धा से दरगाह पर जुटने वालें श्रद्धालुओं को जब वह अपने हाथ से शरबत का गिलास देता था तो वे इसे पीने से इन्‍कार भी नहीं कर सकते थे। यह उनके लिए प्रसाद था और हिन्‍दू मत की संकीर्णताओं को देखते हुए उसका एक सुनियोजित कार्यक्रम कि इतने हिन्‍दू मुसलमान हुए । अब यदि छाप तिलक सब छीनी का मतलब समझ में आ गया हो तो आगे की बात कल करेंगे।

मंगलवार, 22 दिसम्बर 2015

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