हार की जीत

‘‘तुम जानते हो, मैं कब हारता हूँ?’’ सवाल अजीब था और अजीब सवालों के जवाब भी अजीब ही होते हैं। वह मुझे इस तरह देखने लगा जैसे देखना भी अन्धों की तरह टटोलना हो और फिर कुछ सोच कर बोला, ‘‘जब तुम मानते हो कि तुम गलत हो ही नहीं सकते और अपने विचारों को दूसरों पर लादते हो।’’

‘‘नहीं, तब नहीं, बल्कि तब जब तुम मेरी ऐसी बातों को भी मान लेते हो जो बाद में मुझे गलत  लगती हैं। मैं अपने को सही नहीं सिद्ध करना चाहता, चाहता हूँ मुझे गलत सिद्ध करने के लिए सोचना आरंभ करो और हम वाद-प्रतिवाद से किसी सही नतीजे पर पहुँच सकें। हमारे बुद्धिजीवियों में आरोप प्रत्यारोप अधिक चलता है, सोच विचार कम। वे समझना नहीं चाहते हैं, अपनी गलत बातों को भी दूसरों से मनवाना चाहते हैं। वे जीतना चाहते हैं इसलिए जहां हैं वहीं ठहरे रह जाते हैं। आगे नहीं बढ़ पाते। यह एक तरह की हार है। इसमें दोनों की हार होती है। सही चर्चा में गलती को समझने का मौका मिलता है और इसलिए दोनों का हित होता है। या कहो दोनों जीतते हैं। इसलिए जब तुम मुझे सही मान कर, या लाजवाब हो कर चुप लगा जाते हो और बाद में मुझे लगता है कि तुम ठीक कह रहे थे तो मुझे लगता है मैं हार गया। मैं ही नहीं हम दोनों। 

‘‘ये पवित्र विचार तुम्हें सूझे कहाँ से?’’

“कल कुछ देर बाद मुझे लगने लगा कि जिसे मैंने फोरम फार फ्रीडम कहा था उसका नाम कुछ और था। फिर अपने नोट देखे तो पता चला उसका नाम कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम था। चलो यह तो मात्र नाम की चूक हुई, परन्तु यह तो सूझा ही नहीं कि इसका जन्म स्तालिन के उस शान्ति अभियान के विरोध के लिए हुआ था जिसमें वह अमेरिकी पूँजीवाद को नया फासीवाद कह कर उससे बचाने के लिए दुनिया भर के बुद्धिजीवियों और कलाकारों को संगठित करने के प्रयत्न में था। इसमें अमेरिका के भी बहुत सारे बुद्धिजीवी शामिल हुए थे। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का नहीं, सांस्कृतिक स्वतन्त्रता का नारा दे कर, लोकतन्त्र खतरे में है का नारा देकर, दुनिया के बुद्धिजीवियों को बरगलाने का प्रयत्न था, जिसमें बहुत बड़े बड़े बुद्धिजीवी बेवकूफ बन गए थे। बट्रेंड रसेल जैसे लोग तक, क्योंकि पहले यह पता ही न चला कि इसे सी.आई.ए. चला रही है। दुनिया की ऐसी ऐसी नामी पत्रिकाएँ, पत्रकार, दार्शनिक, कलाकार, संगीतज्ञ, जितने भी नामी गरामी लोग थे। और जब पता चला तब तक उनकी साख गिर चुकी थी। जयप्रकाश नारायण और अज्ञेय जी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। कहां से कहां आ गए। लेकिन अज्ञेय जी के उत्थान में भी वह एक कारक था।“

उसके चेहरे पर सन्तोष की चमक उभर आई।

“और देखो तुम यह भी सही कह रहे थे कि अन्याय पर टिकी हुई व्यवस्था छूट दे सकती है;  स्वतन्त्रता नहीं दे सकती, परन्तु उस छूट को ही स्वतन्त्रता के रूप में परिभाषित कर सकती है।  इसलिये पूंजीवादी समाज की स्वतन्त्रता की परिभाषा और स्वतन्त्रता की गारंटी भी एक धोखा है। उसने समाजवाद के प्रति आकर्षित पीढ़ी को जो जी चाहे करने की छूट दी। नंगा नाचो बीच सड़क पर।  दम मारो दम की छूट, भीड़ के बीच रतिलीला की छूट - बच्चे, बच्चियां, बूढ़े बूढ़ियां पास से गुजर रही हैं, तुम स्वानसाधना में लगे हो, कोई आपत्ति नहीं कर सकता। छूट है। कुछ भी करो, पूंजीवादी शोषण और दोहन ने एक पूरी पीढ़ी को नशेड़ियों और बदहवाशों की पीढ़ी बना कर रख दिया। उधर लगे रहो और हमें अपना काम करने दो। पिछले साठ सत्तर सालों में दुनिया में जितने उपद्रव हुए हैं या हो रहे हैं वे अमेरिकी शस्त्र उद्योग को जिन्दा रखने के लिए।“

“मैं तो यह कहूँगा कि जितनी भी भ्रष्टता फैल रही है वह अमेरिकी फैशन बाजार को आगे बढ़ाने के लिए और जितनी बीमारियाँ पैदा हो रही हैं उनके पीछे अमेरिकी दवा उद्योग को आगे बढ़ाने के लिए है और जितने भी संचार माध्यम चल रहे हैं उनके सामने अमेरिकी संचार माध्यमों की नकल कर रहे हैं। और और...”

“तुम कुछ आवेश में आ गए हो, पर बात मोटा-मोटी सही कह रहे हो। अब तुम यह बताओ कि एक ओर जहाँ रोज अकल्पनीय घृणित अपराधों की वृद्धि हो रही है दूसरी ओर नग्नता और हर तरह की छूट को रुचि और परिधान और जीवन शैली की स्वतन्त्रता कह कर उसकी जबरदस्त वकालत करने वालों के पीछे किसका हाथ है?” 

“जाहिर है, अमेरिकी फैशन बाजार का और उस पर पलने वाले हमारे व्यापारिक संचार माध्यमों का।“

“विश्व सुन्दरियां जल्दी जल्दी भारत से क्यों चुनी जाने लगीं? क्योंकि भारत में गोरे रंग के प्रति आकर्षण लगभग बीमारी के स्तर तक है। यह तुम्हें अफ्रीका में नहीं मिलेगा। यहां कालों को गोरा बनाने वाले कारोबार के लिए खुला बाजार था।“ 

“तो सौन्दर्य, सुरुचि और स्वतन्त्रताओं के नाटक के पीछे खतरनाक स्वार्थ छिपे बैठे हैं!” 

“स्वतंत्रताओं की आड़ में अपराधों का विस्तार किया जा सकता है और उनके पीछे अपराधियों का हाथ हो सकता है। हमारी कलाएँ और साहित्य इसके अपवाद नहीं हैं। कानून और व्यवस्था पुलिस का सिरदर्द है, परन्तु उसका उन फैक्टरियों पर कोई नियन्त्रण नहीं जो अपराध की मानसिकता पैदा करती हैं और अपराध के पैसे पर पलती-बढ़ती हैं, क्योंकि इसी स्वतन्त्रता के नाम पर उनका बचाव किया जाता है। तुमने देखी आज के अखबार में छपी रपट कि हमारे सिनेजगत में अपराधियों का पैसा काले से सफेद होता आ रहा है और इसी से समझ सकते हो कि अपराधियों की रुचि जिन चीजों में होती है उन्हीं की पूर्ति हमारे अधिकांश चित्र क्यों करते आ रहे हैं और उसी की बदौलत पहले जहाँ स्टार हुआ करते थे वहाँ सुपर स्टार क्यों पैदा होने लगे। दिलीप कुमार स्टार हैं और उसके बाद सुपरस्टारों की कतार, पर दिलीप ने जिस बदनाम गली की ओर नजर डालना तक उचित नहीं समझा, उसी गली में सुपरस्टार तेलमालिश करते फिरते हैं। पैसे की अपार भूख ने कला की महिमा को रौंद कर रख दिया है फिर भी सुपरस्टार स्वतन्त्रता का झंडा लेकर खड़ा हो जाएगा, कि  हम अपराध और नंगे नाच के दृश्यों पर कैंची नहीं चलने दे सकते। सेंसर में बैठे पहले के महान फिल्मकारों ने इन्हें इतनी कारीगरी से बढ़ावा दिया है, इस पर आंच आई तो समाज में यथार्थ का चित्रण प्रभावित होगा। समाज का सब कुछ  मिथ्या है, अपराध उसका यथार्थ है। समाज के अपराधीकरण में इस यथार्थ प्रेम का कितना हाथ है इसे कोई तय कर सकता है? अपराध के तरीकों का आविष्कार करने के लिए प्रतिभाशाली लेखकों को लगाओ और अपराध की नई संभावनाएं तलाश करो और अपराधिकयों की कल्पनाशीलता में सहयोग करो और अपराध को इतना रंजक बना दो कि अपराध मनोरंजन का स्थान ले ले। इन सबको घबराहट उस सेंसर से है जो इनकी बदतमीजियों पर कैंची चला सकता है।

“देखो जंगलीपन से आगे बढ़ते हुए मनुष्य सभ्य बना है। सभ्यता के प्रथम पाठ के रूप में उसने सीखा आत्मसंयम। उसने स्वतन्त्र होने के लिए मनमानेपन को कम किया ताकि दूसरों के साथ सही तालमेल कायम करके अधिक सुरक्षित और अधिक गौरवशाली बन सके। यदि स्वतन्त्रता के नाम पर मनमानेपन को बढ़ावा दिया जा रहा है तो चाहे वह हमारे वेश में हो या परिवेश में, हम अपराधी तत्वों के हाथ में खेलते हुए, जंगल की ओर वापस लौट रहे हैं। एक नये किस्म के जंगलीपन की ओर। इसलिए देखना यह होगा कि स्वतन्त्रता स्वतन्त्रता की कसौटी पर सही उतरती है या नहीं। वह हमारा उत्थान करती है या पतन; हमारी समस्याओं का समाधान करती है या समस्यायें पैदा करती है। हमारे बड़बोले अपनी अक्ल से काम ले रहे हैं या उन्हें कोई और प्राम्ट कर रहा है।“

“पैसे में बड़ी ताकत होती है यार।“

“बड़ी। जानते हो कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम के योजनाकार सिडनी हुक ने क्या कहा था? कहा था:

Give me a hundred million dollars and a thousand dedicated people, and I will guarantee to generate such a wave of democratic unrest among the masses--yes, even among the soldiers--of Stalin's own empire, that all his problems for a long period of time to come will be internal. I can find the people.   

“जरा सूरज की तरफ तो देखो। क्या आज भी पूरब की ओर से ही निकला है? हमारे विचारों में इतनी समानता कैसे पैदा हो गई?”

12/10/2015 9:01:37 AM

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