काश पूछो की मुद्दा क्या है?

देश का हमने क्या अहित किया है इसका हिसाब तो कल लूँगा, परन्तु तुम करना क्या चाहते हो? 

उस दहशत को, उस  हिन्दू फोबिया को दूर करना जिसे अंग्रेजों ने  मुस्लिम असुरक्षा की चिंता दिखाते हुए धार्मिक अलगाव  को साम्प्रदायिक घृणा में बदल कर अपनी सुरक्षा सुनिश्चित की और हमें लड़ाते हुए अपने हित साधते रहे और हुआ यह उसी देश में जिसमें बिल्ली और बन्दरबांट की कहानी हजार डेढ़ हजार साल पहले से अनपढ़ों तक की जबान पर थी।  तुमने अपने चुनावी हितों के लिए हिन्दू फोबिया लगातार उभारते हुए जिन्दा रखा जो ही उन सामाजिक समस्याओं की जड़ है जिन्हें लेकर इतनी छटपटाहट दिखाई दे रही है। तुम किसी व्याधि को उकसाओगे भी और उसी से चिंतित भी रहोगे दोनों  एक साथ तो नहीं हो सकता। इस दहशत को जितनी बेशर्मी से तुमने उभारा  है उतनी  बेशर्मी से अंग्रेजों ने भी नहीं किया था, क्योंकि उनमें प्रशासनिक परिपक्वता थी। मैं उस दहशत की जड़ों की पड़ताल करते हुए उसे दूर करने का प्रयत्न कर रहा हूँ । कर पाऊँगा या नहीं यह नहीं जानता।“ 

“तुम्हें आरएसएस दूध की धुली संस्था लगती है।“ 

“यार दूध की धुली चीज़ में तो बदबू आने लगेगी, अपने को भी मत धोना दूध से। पानी ही काफी है। धोने पखारने की नही, उसकी सीमाओं और संभावनाओं को नए सिरे से समझने की कोशिश करो। तुम मेरी बात सुनोगे भी या नहीं, नहीं जानता, क्योंकि यह एक दुष्चक्र का, एक विशस सर्कल का रूप ले चुका है जिसमें कोई अवलेप से मुक्त नहीं है।”

“उससे सावधान रहने, डरने की कोई आवष्यकता नहीं।“

"मैं जानता हूँ तुम और ऐसे करोड़ों लोग उस अवस्था में हैं जिसे पुराने लोग वशीकरण और उच्चाटन मन्त्रों का प्रभाव कहते थे. ये किसी एक के विविध रूपों में निरंतर निंदा अथवा प्रशंसा से उत्पन्न अवस्थाएँ हैं जिनमे जो कण में लगातार भरा गया है और उसे ग्रहण करने की अनुकूल परिस्थितियां भर्त्सना, उपेक्षा, तिरस्कार अथवा अनुमोदन, प्रशंसा और पुरष्कार द्वारा तैयार की जाती हैं उनमे कुछ बातों को सुनना तक सम्भव नहीं हो पता, समझना तो दूर की बात है, वही कुछ को उस नाम से जुड़ जाने के कारण हम मुग्ध भाव से स्वीकार कर लेते हैं. मुग्ध का अर्थ मूर्ख होता है यह तो जानते हो न।"

"नहीं जानता हूँ तो तुम्हे देख कर जान लूँगा।" उसने चुटकी ली।

"नहीं जान पाओगे. मैं आईना दिखाता भर हूँ पर आईना तो हूँ नहीं।" मैंने कुछ चिंतित दीखते हुए कहा, ”तुम धुले हुए मस्तिष्क के आदमी जो ठहरे।"

वह इसे अपनी प्रशंसा मान कर प्रसन्न हो गया, पर जब आगे कहा, "तुम्हारी ब्रैनवॉशिंग पूरी हो चुकी है। हमारी शिक्षा-प्रणाली जिनके हाथों में रही है, उन्होंने लम्बे समय से यही किया है।" तो उसकी हालत देखने लायक हो गई।

मैंने विषय को मोड़ दिया, “मैं जब अपने बच्चों के पास अमेरिका में था तो फुर्सत रहती थी इसलिए टीवी भी देखता था। वहाँ कुछ शिक्षा के बड़े रोचक कार्यक्रम देखने को मिले। एक था डर और घृणा से लड़ने पर। जिन जानवरो, कीड़ों मकोड़ों से हम डरते हैं या देख कर ही भन्ना उठते हैं उनको वे छोटे बच्चों की हथेली पर ही रख देते थे। वे कुछ नहीं करते। इससे ही साहस पैदा होने पर तुमने कई बार हिंस्र जानवरों को या साँपों को भी पालने, उनको अपने शरीर पर रेंगने देने के घरेलू दृश्य देखे होंगे। 

“हाँ देखे तो हैं। परन्तु क्या वहाँ जानवरों को पिजड़े में रखने पर रोक नहीं हैं?” 

“नहीं, उस तरह की मूर्खतापूर्ण रोक नहीं है जिस तरह की रोक उनकी ही नक़ल पर जानवरों के प्रति क्रूरता की नकली समझ के कारण हमारे यहाँ लगा दी  गयी। जीव-जंतुओं के प्रति जिज्ञासा बढ़ती, प्रेम बढ़ता है, और उनसे दूर रहने पर निष्ठुरता न भी आये, उदासीनता और असुरक्षा का भाव तो पैदा होता ही है। अन्य सामानों की तरह जानवर भी बिकते हैं। जब चाहो खरीद कर ला सकते हो। पर उसके बाद उनकी देखभाल में असावधानी बरती गई तो उसकी जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर  है। शिकायत मिलने पर सजा भी मिलेगी। निकट परिचय से भय दूर हो जाता है। अपरिचय एक तरह का अन्धकार  है और जैसे अँधेरे से डर लगता है कि पता नहीं उसके भीतर कहाँ  क्या छिपा बैठा हो, उसी तरह अपरिचय की स्थिति में लगता है कि अगला पता नहीं कब धोखा देदे और क्या कर बैठे।“

वह सहमत हुआ, “हाँ यह बात तो है”

मैंने अपनी बात जारी रखी, “हम शत्रु देशों से भी अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए लगातार उनके साथ बात करते हैं, उनके दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न करते हैं और वही काम हम अपने ही समाज के भीतर नहीं कर सकते इससे दुर्भाग्यपूण बात क्या हो सकती है।“

“बात तो अपनी जगह सही लगती है।“ उसने अनमने ढंग से हामी भरी.

मैंने उसकी खबर लेते हुए जड़ा, “और इस अस्पृश्यता के जनक तुम हो।  तुम से मतलब वह शिक्षा प्रणाली जिसने वैचारिक असहिष्णुता और अस्पृश्यता को पैदा किया, बढ़ावा दिया और खुद ही  रोना रो रही है कि वैचारिक असहिष्णुता बढ़ रही है और दोष दूसरों के मत्थे डाल रही है। ‘कर के खुद क़त्ल अब वह खुद हमीं से पूछते हैं, ये काम किसने किया है, ये काम किसका है?" 

वह अपनी से बाज तो आ नहीं सकता, “तुमने ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ पढी है।”

“तुमने अपनी आँखों से कुछ देखा है?

“मैंने जो पूछा उसका जवाब तो दिया नहीं।” 

“मैंने अभी हाल ही में पढ़ी है। तुम उसे पढ़ नहीं सकते क्योंकि तुम्हे पढ़ने भी नहीं आता. तुम फ़िक़रे तलाशते हो जो रोड़े पत्थर की जगह ज़बानी जंग में काम आ सकें।”

वह उत्सुकता से देखने लगा तो अपने स्वर को कुछ संयत करते हुए कहा, "देखो कोई लिखित या कथित बात हवा में नहीं होती। उसका एक सन्दर्भ होता है। उसका अर्थ और प्रभाव उस सन्दर्भ से ही निर्धारित होता है। तुमने शब्दों को देखा होगा, सन्दर्भ का ध्यान न रखा होगा।  यह पुस्तक १९३९ में लिखी गई थी। उस समय बहुत काम लोग थे जो होश हवास में बातीं कर रहे थे। यह सिलसिला बहुत पहले शुरू हो गया था. १९२1 में ही जब खिलाफत आंदोलन के बाद पुस्कार में, अंग्रज़ों की कूटनीतिक चातुरी से मोपला विद्रोह का नज़राना मिला था, जिसमे हिन्दुओं को इतने बड़े पैमाने पर मारा गया था की गांधी जी तक ने कहा था उन्हें भी मारना चाहिए था। जब १९२३ में उसी मुहम्मद अली ने जिन्हे गांधी जी ने मुसलामानों का नेता माना था, कांग्रेस के मंच से कहा था, एक गिरा से गिरा हुआ मुसलमान गांधी से अच्छा होता है। जब इक़बाल जैसा शायर कहा रहा था, "न सँभलोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्तान वालो, तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दस्तानों में’, इतना ही नहीं, ऎसी खून खौलाने वाली पंक्तियाँ तक कि "मुहब्बत का जुनूँ बाक़ी नहीं है, मुसलामानों में खूँ बाक़ी नहीं है।' जब चौधरी रहमत अली का पाकिस्तान का खाका मुस्लिम लीग के ज़हन में उतर आया था और उत्तर प्रदेश की पहली सरकार को मुस्लिम लीग के अड़ंगों के कारण भंग होना पड़ा था और मुस्लिम लीग दंगे भडकाने वाले मुहावरों में धमकियां देने लगी थी और यह ऐलान करने लगी  थी कि हिन्दुओं के साथ मिलकर मुसलमान रह ही नही सकते और कम्युनिस्ट पार्टी के मुस्लिम नेता दबे सुर में लीग के मुहावरे अपनाने लगे थे और उन्हें साथ रखने के लिए दूसरे भी रंग बदलने लगे थे। इतिहास को इतिहास में जाकर समझा जाता है, वर्तमान में घसीट कर नहीं। मैं इनमे से किसी को दोष नहीं देता, परन्तु तुम से भी यह चाहता हूँ कि कोई बात पूरे सन्दर्भ को सामने रख कर समझो और आज जब  मैं इस समस्या के हल के लिए आज के सन्दर्भ में सवाल खड़े कर रहा हूँ तो जड़बुद्धि की तरह १९३९ के सन्दर्भ को मत रखो। वर्तमान से इतिहास में तुम लोग भागते हो, क्योंकि तुम वर्तमान का सामना नही कर सकते. बहुत अनर्थ किये हैं तुमने। अब उनसे बाहर निकलने के रास्ते तलाशने में मदद करो।

11/11/2015 5:11:17 PM

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