भ्रष्टाचार के चालीस तरीके

“तुमसे बात करता हूँ घबराहट होती है.” लीजिये. यह बात भी वह हंसकर कह रहा था.

“क्यों?” मैंने भी हँसते हुए ही पूछा.

“तुम बहुत निराशाजनक चित्र खींचते हो.”

“मुझे तुम भूल जाओ. मान लो मैंने जो कुछ कहा वह बकवास है. क्या इससे तुंम्हारी घबराहट दूर हो जायेगी?”

“दूर तो नहीं होगी, क्योंकि हालत अच्छे नहीं हैं. परन्तु क्या हर चीज़ के लिए हम ज़िम्मेदार हैं?” 

“हमारा जो बुरा हाल है, वह बुरे समाज के कारण है या बुरे नेतृत्व के कारण?”

“ज़ाहिर है बुरे नेतृत्व के कारण.” वह तपाक से बोला.

इस देश का बौद्धिक नेतृत्व वामपंथियों के हाथ में रहा है या दक्षिण पंथियों के हाथ में?  

वह सकपकाया फिर संभल कर बोला, "तुम कहना क्या चाहते हो?"

“मैं कुछ कहना चाहता ही नहीं. मैं तो तुमसे जानना चाह रहा हूँ. बताना तो तुम्हे है.”

“सवालों के माध्यम से भी बहुत कुछ कह दिया जाता है.”

"कहा तो जाता है. इसे भी मैं सवाल के रूप में ही पूछूँगा, क्या ये सवाल पहले तुम्हारे मन में कभी उठे? उठे तो उनका उत्तर क्या मिला?  क्या सवाल उठे और उनसे तुम घबरा गए और उन्हें टाल गए? मुझे भी बताओ. नही उठे तो इनसे कतराते क्यों रहे? और अब जब मैं इन्हे उठा रहा हूँ तो इनसे घबरा कर मुझे ही दोष क्यों देना चाह रहे हो? घबराहट और निराशा से बाहर आने का रास्ता तो इनका जवाब तलाशने से ही मिलेगा.”

"तुम मेरी खिंचाई कर रहे हो."

"खिंचाई ही मान लो. तुम जिस गड्ढे में पड़ गए हो उसमें से तुम्हें खींच कर ही बाहर लाया जा सकता है. मैं उतना पढ़ा-लिखा नहीं हूँ जितने तुम हो. समझने का समय भी तुम पढ़ने-लिखने पर ही लगाते रहे हो. लेकिन सवालों का जवाब न वहाँ से मिलता है, न तुम दे पाते हो, क्योंकि न तो सवाल करते हुए पढ़ा, न सवाल करते हुए सुना और न बाद में सवालों की ओर रुख किया. और अब पूछ रहा हूँ तो कहते हो खिंचाई कर रहा हूँ.” 

वह अकुंठ भाव से हंसा.

“अच्छा अब एक दूसरे पहलू पर नज़र डालो. यदि हालात ख़राब हैं तो पहले ख़राब थे और अब अधिक खराब होते जा रहे है या पहले अच्छे थे और अब खराब होने लगे है या पहले जैसे थे उससे अच्छे हो रहे हैं परन्तु उस गति से अच्छे नही हो रहे हैं जिस गति से करने का आश्वासन दिया था?”

वह इधर उधर देखने लगा. उसके चहरे पर तनाव था. एक क्षण के मौन के बाद बोला, "मैं अपनी बात क्यों करूँ. तुम देख नहीं रहे हो इतने सारे लेखक, बुद्धिजीवी, कलाकार, वैज्ञानिक कितने क्षुब्ध हैं?

“क्या तुम मानते हो कि लम्बे अरसे से इन सभी को यह सिखाया जाता रहा है कि हर चीज़ की राजनीति होती है. हर चीअ के पीछे राजनीति होती है, राजनीति से बचने वालों की भी अपनी राजनीति होती है परन्तु वह इतनी गर्हित होती है कि वे उसका नाम तक नही ले सकते, इसलिए राजनीतिकरण का विरोध करते हैं, इसलिए सभी को अपना काम छोड़कर राजनीति करनी चाहिए. पार्टीजन होना चाहिए. प्रतिबद्ध होना चाहिए. और ये सभी अपने विषय के अधिकारी कम और राजनितिक दलों के बँधुआ अधिक रहे हैं.”

वह चुप रहा. 

मैंने अपनी बात जारी रखी, "कुछ दिन पहले उन सभी राजनीतिक दलों ने एक साथ मिलकर जिस को पराजित करने की कोशिश की उनका सफाया होगया. कारण तुम्हे तलाशना है पर उनके नेता चीख कर कोसते हैं, अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते हुए कोसते हैं, पर उनकी आवाज़ कहीं पहुंचती ही नही. उनसे लगे बंधे बुद्धिजीवी भी उनके पिस जाने  के दिन से ही बौखलाए हुए अट पट बकते और एक दूसरे को दाद देते रहे हैं. इसका कोई असर ही  नही होता था फिर एक को सूझा क्यों न इनाम पर खेल कर दिखा दे और उसने एक गलत आरोप लगाकर वह इनाम लौटा दिया जो उसने खासा जतन कर के जुटाया था.” 

"तुम इतनी दुर्भाग्यपूर्ण घटना को ग़लत आरोप कह रहे हो?"

“करुणा उपजाने की कला ब्लैकमेल करने वाले ही जानते है.  प्रसंग जितना ही दारुण होगा, भावुकता जगाने में उतना ही प्रभावकारी होगा.” 

वह भड़क उठा. “तुम इसे ब्लैकमेल कह रहे हो? ये इतने सारे लोग ब्लैकमेलर हैं?” 

“ब्लैकमेलर नही रुग्ण. भ्रष्टाचार के सहभागी.”

“बताओगे इसमें भ्रष्टाचार कहाँ है?”

“देखो चाणक्य ने कर के मामले में  भ्रष्टाचार के चालीस तरीके गिनाये हैं. उनमे से एक है 

पूर्वसिद्धम् पश्चादवतारितम् , इसका भावानुवाद हुआ 'पहले की घटना को बाद में दिखाना. प्रसंग दाभोलकर.

दूसरा है, अल्प सिद्धम बहुकृतम्, "अर्थात तिल का ताड बना देना. प्रसंग वाल्मीकीय रामायण पर आधारित लेखमाला का विरोध.

तीसरा बहुसिद्धम् अल्पक्रितम् ताड़ का तिल बना देना. अर्थात सीता की रसोई में रामलला के प्रवेश कराने के लिए ताला खोलने से लेकर, अकाली दल को रस्ते से हटाने के लिए भिंडरवाले के उदय और संतीकरण, तलवार लिए संसद में प्रवेश,, उग्रवाद के सुनियोजित विस्तार, हिन्दुओं के निर्मम संहार, कश्मीरी हिन्दुओं के निर्वासन,, हरमिंदर साहिब में रक्तपात, १९८४ के नरसंहार, हिन्दू वोट बैंक के लिए मेरठ मलियाना, कासिमपुरा, से लेकर भागलपुर, रांची तक पूर्वनियोजित और सरकारी पहल से रक्तपात, भोपाल गैस के अपराधियों की सुरक्षा और उसपर नीरो को मात देनेवाला बाँसुरीवदन. तब इस पर चुप इसलिए नही न थे की तब सोये हुए थे, इसलिए जब जागो तभी सवेरा, सोए लोग  बांसुरी  नहीं बजाते. बाँसुरी इस लिए बजा रहे थे कि किसी का ध्यान इन अपराधों की और न जाय. वे खिदमतगार अपराधियों की कोटि में थे. अब मर्मान्तक चीत्कार इसलिए कि उनकी अधोगति के साथ इनके सुनहले दिन चले गए. कहते हैं, 'अपने अच्छे दिनों की जगह हमें बुरे दिन ही लौटा दो क्योंकि वे देश के लिए बुरे दिन रहे हों हमारी तो चांदी थी.'.

चौथा ‘अन्यत सिद्धम अन्यत कृतं, अर्थात इधर का उधर दिखा देना, एक अपराध हुआ कांग्रेस के काल में, दूसरा घटा कांग्रेस के राज में, समाजवादी दल के राज में, उनका कूड़ा भी टीमहारे सर छींटे आ रहे हैं दिल्ली पर.  दिल्ली पर भी नही प्रधान मंत्री पर. उस बेचारे के पास इतनी समझ नही कि वह आपकी मनोकामना पूरी करते हुए उन राज्यों में इमरजेंसी लगा दे. आप सोचते है तो यही सुझा देते कि जिन राज्यों में ऐसा हो रहा है उनको बर्खास्त करो हम तुम्हारे साथ है.

“तुमने उस पैटर्न पर गौर किया जिस पर यह बीमारी फ़ैल रही है?"

"तुम इसे बीमारी कहते हो? प्रतिरोध को बीमारी मानते हो?

"प्रतिरोध होता तो उसमे आतुरता नही होती, न इस तरह धीरे धीरे फैलता. यह बौद्धिक स्वाइन फ्लू है. इससे बचो. परहेज़ करो तो बच गए नही तो गए."

वह चुप रहा पर संतुष्ट नही दीख रहा था. 

खिन्नता में चुप मैं भी था. फिर दुखी स्वर में कहा, "बौद्धिकों का चिंतक से गुर्राने वाले गिरोह में बदलते जाना कितना दुर्भायपूर्ण है. तुम चुप रह कर भी सुरक्षित नहीं हो. लेखकों का, अध्यापकों का, कलाकारों का सम्मान समाज में पहले ही घट चुका है. विश्वास भी घाट रहा है. मैं भी हूँ तो एक लेखक ही. यदि समाज का विश्वास घटेगा तो मैं बचा रहूँगा क्या. किसी देश या समाज के एक या कुछ लोगों के आचरण से देखने वालों पर जो प्रभाव पड़ता है उससे दूसरे भी बच तो नहीं पाते. ये स्थितियों का विश्लेषण करते, जो ही एक बौद्धिक का काम है तो समझ बढ़ती. ये तो सिर्फ गुर्रा रहे हैं.”

तो तुम चाहते हो जो हो रहा है होने दें. चुप बैठ जाएँ.

“नही मैं कहता हूँ अन्याय और झूठ के खिलाफ लड़ो. पर अपने हथियार से. विश्लेषण से. विश्लेषण का मतलब तो जानते हो न. चीर फाड़. चीज़ों को सही सन्दर्भ, सही अनुपात, कार्य, कारण और परिणाम को दिखाते हुए रखना. बौद्धिक का मोर्चा यही है. यदि वह इसे भूल कर घालमेल करने लगे तो वह स्वयं अत्याचारियों में शामिल हो जाएगा."

"यदि दूसरे ऐसा नहीं कर रहे हैं तो तुम क्यों नहीं करते."

"वही तो कर रहा हूँ."

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