बैताल फिर उसी डाल पर

गाँधी मेरी नजर में बीसवीं शताब्दी के अकेले ऐसे नेता थे जिनको सत्ता की भूख नहीं, एक नया भारत बनाने की उत्कट कामना थी जो आधुनिक भी हो, स्वावलंबी भी हो और अपनी जमीन पर दृढ़ता से खड़ा भी हो। 
अकेले नेता नहीं, दूसरे । ये सपने सबसे पहले स्वामी दयानन्द‍ ने देखे थे। वह क्षेत्र जिसमें गाँधी का प्रभाव सबसे गहन था और वे मसले जिनको गाँधी ने अपने सरोकारों से जोड़ा, और वह जमीन जिसमें गाँधी अपनी फसल उगा सके दयानन्द सरस्वती ने तैयार की थी। उनके सामने भी पूरे समाज का विकास था, आधुनिकता और परंपरा की गहरी समझ, सामाजिक भेदभाव का निवारण, स्त्री शिक्षा का उपक्रम, कुरीतियों, जैसे बाल विवाह, का निषेध और सामाजिक वर्जनाओं, जैसे विधवा विवाह, का विरोध और उच्च जीवनादर्शों का पालन आदि के बहुमुखी और समावेशी कार्यक्रम थे और इनसे जुड़ी थी स्वतन्त्रता की कामना।
तुम इस बात से प्रसन्न होते हो कि मैं दयानन्द को गाँधी से बड़ा और उनसे प्रगतिशील मानूँ तो मान लूँगा। स्वामी जी कई मामलों में गाँधी से आगे थे, उदाहरण के लिए वह विधवा विवाह की बात कर सकते थे, गाँधी सनातनी थे और वर्ण विभाजन तक को मानते थे। कुछ दूसरे मामलों में गाँधी अधिक समावेशी थे, जैसे वह अकेले सभी मतों के लोगों को साथ ले कर चलने की बात करते हैं जब कि दयानन्द जी हिन्दू समाज को भी ले कर नहीं चल सकते थे। उनके कुछ सूत्र कबीर से जुड़ सकते हैं। सबकी आलोचना करते हुए, उनके ढोंग और पाखंड का उपहास करते हुए एक नई राह पर चलने का आह्वान और वह नई राह स्वयं बनाने का प्रयत्न और अकेले दम पर एक आंदोलन और संगठन खड़ा कर सकते है । गाँधी से कम चुंबकीय व्यक्तित्व नहीं था उनका। परन्तु तुम मेरी बात पूरी सुना तो करो। मैंने बीसवीं शताब्दी का अकेला नेता कहा था, अकेला नेता नहीं। उन्नीसवीं शताब्दी के अधिकांश नेताओं में ओजस्विता और तेजस्विता थी। बीसवीं शताब्दी में सबका परिपाक अकेले गाँधी में मिलेगा। तुमने कबीर की ठीक ही याद दिलाई, द्विवेदी जी कबीर के व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए उन्हें अनेकों विरोधों की संधि भूमि पर खड़ा दिखाते हैं।
आज भी जय गांधी जय जय जय गांधी ही चलेगा। तुम ऊबते भी नहीं हो।
मैं यह भी याद दिलाना चाह रहा था कि जिस नये मानव का और ऐसे मानवों से ऊर्जस्वित भारत का सपना वह देख रहे थे, उसके नागरिक शिक्षित होंगे, स्वस्थ होंगे, एक दूसरे से प्रेम करने वाले होंगे और स्वतन्त्र होंगे। उनकी रूढ़िवादिता में भी प्रगतिशील तत्व हैं और एक सोच भी है कि एक व्यवस्था को जो हजारों साल से चली आई हो तुम एक झटके में तोड़ तो सकते हो, सर्वव्यापी वैकल्पिक व्‍यवस्‍था बना नहीं सकते । इसलिए वह इसके साथ हड़बड़ी में कोई बदलाव न करके पहले उसके सबसे विकृत पक्ष को दूर करना चाहते थे । यदि मेरे कथन में कहीं यह लगे कि वह अखोट थे तो विराटता अखोट नहीं होती, लघुता में ही यह संभव है। तुम हिमालय की ऊँचाई भी चाहो और यह भी चाहो कि उसमें खड्ड खाई न हो यह संभव नहीं, यह पिरामिड में अवश्य संभव है, ओबेलिस्म् या लाट में अवश्य संभव है। 
मैं जिस विषय पर आना चाहता था वह यह कि गाँधी अकेले हैं जिनमें उन्नीसवीं सदी की विद्रोही उर्जा और बीसवीं सदी के निहत्थेपन के मेल से असहयोग और सत्याग्रह के हथियार गढ़ने की क्षमता थी। गाँधी के इस हथियार के व्यापक प्रसार से मानसिक रूप में यह फैसला हो गया था कि अब स्वराज्य को रोका नहीं जा सकता। अब अंग्रेजी शासन भी मनोवैज्ञानिक पराजय स्वीकार कर चुका था और यह सौदेबाजी आरंभ कर चुका था कि कितना देना है, कैसे देना है, कितनी तैयारी के बाद देना है, और किनको किनको क्या देना है कि किसी के प्रति अन्याय न होने पाए और इस बहाने वह ऐसी परिस्थितियां पैदा करने की कोशिश में लगे थे जिसमें परिस्थितियां इतनी बेकाबू हो जायँ कि स्वतन्त्रता की मांग करने वाले स्वयं हथियार डाल दें और कहें हुजूर आप ही इसे संभाल सकते हैं आप ही तब तक सँभालिये जब तक हम दोनों सौतेले भाइयों में मिल जुल कर रहने की समझ नहीं पैदा हो जाती और गाँधी जानते थे कि जब तक अंग्रेजी हुकूमत है वह दोनों भाइयों के बीच प्रेम तो दूर समझदारी तक पैदा नहीं होने देगी। यहीं गाँधी एक ऐसे असमंजस के शिकार हो गए थे कि वे भी जल्द से जल्द ब्रितानी दबोच से बाहर लाने के उस अभियान में शामिल हो गए थे और इस आशा में शामिल हो गए थे कि जिन कामों और तैयारियों को वह मानवाकार जंतुओं को मनुष्य बनाने के लिए जरूरी समझते हैं वे स्वतन्त्र भारत में ही पूरी हो सकती हैं।
‘’तुम्हारे मन में अंग्रेजों के प्रति इतना जहर भरा हुआ है कि तुम सोच ही नहीं सकते कि उनमें कोई सदाशयता भी थी। मुस्लिम लीग जिसे तुमने सौतेला भाई कहा वह उसके बाद आती है।‘’
’’देखो सैयद अहमद के बाद नीरद चन्द्र चौधरी दूसरे आदमी थे जो अंग्रेजों को दुनिया का सबसे सभ्य समाज और उनके शासन को सबसे सभ्य शासन मानते थे। उस कतार में तुम मुझे तीसरी जगह पर खड़ा मान सकते हो और मैं तुम्हारे आकलन से सहमत भी हो जाऊँगा, क्योंकि अंग्रेजों ने जो कुछ भी किया अपने निजी हित के लिए नहीं, अपने देश के हित के लिए किया। हमारे अपने राजनीतिज्ञों ने, नेहरू से ले कर आज तक के कांग्रेसियों ने, अपने और अपनों के हित को प्रधानता दी और देशोद्धार करने वाले सभी संगठनों ने, देश और समाज को बांटने और लूटने की जिस नीति को अपनाया उसे देखने के बाद वे भी श्रद्धेय बन गए, श्रेष्ठता के कारण नहीं, हमारे अपने ही नेतृत्व से कम जघन्य होने के कारण। जघन्यता को भी देश सेवा बताया जा सकता है, इसकी तो पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, परन्तु हाल में अकारण या कुतर्कपोषित कारणों से जिस तरह के देशविघातक आयोजन होने लगे हैं उसे देखते मेरा अपना भी पतन हो रहा है, कुछ लोग मुझे बौद्धिक से अधिक ज्योतिषी मान सकते हैं क्योंकि मैंने पीछे कभी कहा था कि कांग्रेस और वामपंथी दलों के पास अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए कोई औचित्य बचा नहीं है, इसलिए ये उसी बॉटो और बचे रहो की राजनीति कर सकते हैं और देश का अकूत अहित करते हुए अपने निजी हितों को आगे बढ़ा सकते हैं। मुझमें तो इतनी समझ नहीं न इतनी सावधानी है परन्तु फेसबुक पर मेरे एक मित्र को यह पता था कि अभी हाल के राष्ट्रद्रोही हुड़दंग में अपनी रोटी सेंकने वाले करात और येचुरी और राजा के मार्क्सवाद और उनकी गाड़ियों के मॉडल और उनके अपने बच्चों के लिए चुने हुए देश और उसमें उनके भविष्यसपनों के बीच जो दूरी दिखाई दी उसमें उनका वह चरित्र भी सामने आया कि ये आज के टुच्चे नेता अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए अपनी पार्टियों को, अपने देश को और कहते हुए दुख होता है, पर सच का तकाजा है, अपनी माँ को भी बेच सकते हैं।
गाँधी यह जानते थे। अकेले वह थे जो कह रहे थे कि भले सत्ता मुस्लिम लीग को सौंप दी जाय, परन्तु देश का बँटवारा नहीं होना चाहिए। अकेले वह थे जो कह रहे थे कि कांग्रेस कुछ पाने के लिए बना एक संगठन था, अब वह प्राप्त हो गया इसलिए अब इसका नाम बदल दिया जाना चाहिए। पर जिनके पास अपना कुछ न था और जो स्वतन्त्रता को अपनी खानदानी जागीर बनाना चाहते थे उन्होंने वैसा न माना, न होने दिया, न गाँधी को जीने दिया। गाँधी महान नहीं थे, उनमें महिमा के अनेक शिखर थे और कुछ खाइयाँ भी परन्तु आधुनिक भारतीय मनीषा के शिखर वही हैं और आज के जगत में सबसे सार्थक और अनुकरणीय वही हैं और उस आदमी ने कहा था कि लोगों को बता दो गांधी को अंग्रेजी नहीं आती, क्योंकि वही जानता था कि अंग्रेजी शासन ने भारतीयों को अशक्त कर दिया था पर उनकी आत्मा जीवित थी। जो अंग्रेजी नहीं जानते थे उनमें पूरी तरह और जो अंग्रेजी जानते हुए भी अपनी भाषा में सोचते और समझते थे उनमें उससे कुछ कम परन्तु जो अंग्रेजी पर गर्व करते थे उनकी आत्मा तक को अँग्रेजी भाषा ने कुचल दिया था। वे परछाइयों को यथार्थ मान कर तितलियां पकड़ने को भागते बच्चों जैसे बालिश मूर्ख थे। यह बोध किसी अन्य में नहीं था। उन्नीसवीं शताब्दी के दौर में भी नहीं। गाँधी का इतना महिमामंडन किया जा चुका है कि मैं उसमें एक तिनका तक नहीं जोड़ सकता, परन्तु गांधी को समझने की योग्यता तक हमने पैदा नहीं की यह मुझे उनके भाषा विषयक विचारों से ही लगा। अब तुम चाहो तो हिन्दी के भूत, वर्तमान और संभाव्य पर बात कर सकते हैं।
तुम समझते हो मैं तुम्हारी बकवास सुन रहा था। मैं सोच रहा था हे भगवान, बहरा होना भी एक वरदान है।
सुना ही नहीं तो वह वरदान तो बिना किसी के दिए ही तुम्हें मिल गया। उठो, तुमसे बात करना भी पत्थर से सिर टकराना है।

मोहभंग

मैं तुम्हें इधर-उधर की थोड़ी झाँकी इसलिए दिखा रहा था कि यह बता सकूँ कि उन्नीसवीं शताब्दी में हमारी समझ बीसवीं शताब्दी की तुलना में अधिक सही थी, आत्माभिमान अधिक था, सांप्रदायिक सद्भाव अधिक था, और विरल अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश नेताओं का दृष्टिकोण क्षेत्रीय न हो कर राष्ट्रीय था। हिन्दी क्षेत्र, यहाँ की बोलियों और संस्कृति के प्रति आत्मीय आदरभाव था। दूसरे भाषा क्षेत्रों के लोग शिक्षा के लिए, धर्म संकट की स्थिति में काशी के पंडितों का अभिमत जानने के लिए, और अपने नये विचारों के प्रसार के लिए, अपने पांडित्य की धाक जमाने के लिए काशी आते थे । राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर के जन्मस्थल होने और काशी, मथुरा, हरिद्वार आदि तीर्थस्थलों के हिन्दी क्षेत्र में स्थित होने के कारण यहाँ के लोगों और बोलियों के लिए एक रागात्मक सम्बन्ध था। भारत बहुलता को वैभव समझता था, व्याधि नहीं। अठारवीं शताब्दी तक पश्चिमी विद्वानों की नजर सतही थी। विविधता को बिलगाव मानती थी और समझती थी कि इनमें एका पैदा ही नहीं हो सकता। उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक वे इसी भ्रम में भारतीय समाज को निरीह और लाचार मान कर धर्म, विश्वास, आर्थिक दोहन आदि सभी क्षेत्रों में उद्दंडता से व्यवहार करते रहे। 1857 की एक छोटी सी चूक और अपने ही देश के विघाती तत्वों के सहयोग और कुछ अन्य संयोगों ने पासा पलट दिया फिर भी वे भीतर से ‘जान बची लाखों पाए’ वाली चेतना से भीतर तक हिल गए थे। इससे पहले हिन्दू मुसलमान को पहले से ही बँटा मान कर वे निश्चिन्त थे कि ये कभी एक हो नहीं सकते। इसके बाद भारतीय समाज को भीतर से तोड़ने की नई युक्तियों का आविष्कार उनकी कूटनीति का प्रमुख मुद्दा बन गया और अन्य बातों के अलावा, उन्होंने यह पाया कि धार्मिक विभेद उतना विभेदक नहीं है जितना भाषा और संस्कृति का प्रश्न और इसके लिए हिन्दी क्षेत्र सबसे उर्वर है। इसमें उन्होंने भाषा और संस्कृति के अलगाव का वह खेल सैयद अहमद के कंधे पर बन्दूक रख कर, और दो लिपियों के प्रचलन और एक ही भाषा में अनुपात भेद से दो स्रोतों से आयत्तं शब्दावली के आधार पर एक ही भाषा को दो भाषाओं में बँटा मान कर और उनके बीच टकराव पैदा कर, एक की रीतियों को दूसरे की रीतियों से टकराव का मुद्दा बना कर विषवेलि बोने की योजना बनाई। इसमें वे सफल रहे।
परन्तु उन्होंने दूसरी भाषाओं से हिन्दी क्षेत्र का टकराव दिखाते हुए उस पर्यावरण को विषाक्त करने का प्रयत्न किया। इसे बीम्स के कंपैरेटिव ग्रामर आफ आर्यन लैंग्वे्जेज के संगत विषयों के निरूपण को ध्यान से पढ़ने वाला समझ सकता है, पदपाठ करने वाला नहीं। 
काल्डवेल ने अपने द्रविड़ भाषाओं के तुलनात्मक व्याकरण के माध्यम से दक्षिण को उत्तर से, और दक्षिण के प्रभावशाली ब्राह्मणों को शेष समाज से और शेष समाज को भी तमिल, मलय, सिंहल आदि आन्तरिक फाँकों में बॉंटने का जाल तैयार किया, वह सरल पाठ में इतना तर्कसंगत था कि उसके कुचक्र को समझते और जानते हुए भी मेरे मन में काल्डवेल की प्रतिभा और अधिकार के प्रति गहरा सम्मान है। बीम्स ने उसकी नकल करते हुए तीन खंडों में अपना काम किया परन्तु वह प्रकटत: इतना घटिया है कि एक भाषाविज्ञानी के रूप में कोई बीम्स का नाम नहीं लेता, फिर भी कुछ दूर तक तो वह इस योजना में सफल हुए ही कि हिन्दी के प्रति अन्य, तथाकथित आर्य भाषाओं में स्पर्धा, और हिन्दी प्रदेश में ही हिन्दु्स्तानी के सही चरित्र की चिन्ता‍ के बहाने हिन्दी उर्दू में विरोध उत्पन्न‍ कर सके।
उन्नीसवीं शताब्दी के सांस्कृतिक पर्यावरण को देखते हुए यह स्वाभाविक था कि अखिल भारतीय भाषा के रूप में सभी हिन्दी को वरीयता देते। एक मजेदार बात, जिसका मैं पहले जिक्र कर चुका हूँ, यह है, कि हिन्दी का मतलब वही था जो उर्दू का या रेख्ता का। उर्दू का मतलब था छावनियों में अर्थात् जहॉं भी बाहरी लोगों और स्थानीय जनों के बीच संपर्क की संभावना पैदा हो, वहॉं इस संपर्क से पैदा ऐसी जबान जो सबकी समझ में आ सके, अर्थात् बोलचाल की जबान, दोनों की समझ में आने वाली जबान। रेख्ता का अर्थ ज्ञानमंडल के कोश में और महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय द्वारा तैयार कराए गए कोश में जो अर्थ दिया गया है वह गलत है। इसका ठीक वही अर्थ है जो अपभ्रंश का है। रेख्ता का अर्थ है गिरी हुई, पड़ी हुई, बिखरी हुई अर्थात् अपभ्रंश अर्थात् गिरे हुए, दबे हुए या आम जनों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली जबान। और हिन्दी का अर्थ था हिन्दुस्तान के लोग और उनकी बोलचाल की भाषा। इसका प्रयोग सबसे पहले तो उन लोगों ने आरंभ किया जो हिन्दी शब्द से ही डर कर उसे उर्दू कहने लगे और प्रयत्नपूर्वक फारसी बनाने लगे और उससे भी सन्तोष न हुआ तो अरबी भरने लगे। यह उनकी ही बहुधा विभाजित अन्तश्चे तना का प्रमाण है जिसे बीम्सु के भाषाविज्ञान ने पैदा किया था। हिन्दी के लिए तो पहले खड़ी बोली, जो रेख्ता के ठीक विपरीत थी, काम में आती थी। यदि रेख्ता या उर्दू अर्थात् हिन्दी आमफह्म या बाजार की भाषा थी, गिरी हुई, पड़ी हुई, तो यह जो दिल्ली के आसपास की भाषा एक तरह से अभिजात भाषा, तनी हुई भाषा के रूप में अपना दावा पेश कर रही थी और इसलिए रेख्ता या जनभाषा से कमजोर थी। यह दूसरी बात है कि हिन्दी पर अपना दावा छोड़ने और खड़ी बोली द्वारा इसे अपनाए जाने के बाद भी आरंभिक हिन्दी गद्य लेखकों ने लोकोक्तियों और मुहावरों को अपने लेखों में पिरोने का प्रयत्न किया, पर वह असर न पैदा हुआ जिसके कारण गालिब ने होश संभालने के बाद गर्वोक्ति की थी कि
‘रेख्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब
'कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था। 
पहले वह फारसी पर गर्व किया करते थे, अब आम जनों की मुहावरेदार भाषा पर गर्व कर रहे हैं, जिसके लिए मीर जाने जाते थे: 
मुझको शायर न कहो, मीर कि साहब मैंने 
दर्दोग़म कितने किए जमा तो दीवान किया। 
या 
मुँह तका ही करे है जिस तिस का।
हैरती है यह आइना किसका 
शाम ही से बुझा सा रहता है, 
दिल हुआ है चिराग मुफलिस का ।। 
या 
सिरहाने मीर के आहिस्ता बोलो 
अभी टुक रोते रोते सो गया है ।
''इस जबान से स्पर्धा पर उतर आए थे गालिब। यदि उनकी लोकप्रिय गजलों को देखें तो इस मामले में ग़ालिब मीर से भी अधिक सिद्धहस्त थे । यही ग़ालिब थे जो मोमिन के एक शेर पर अपना दीवान लुटाने को तैयार थे: 
तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता । 
''गौर करो इस शेर में प्रयुक्त शब्दावली और अर्थवैभव पर । इसी का नाम हिन्दी था इसी का नाम हिन्दी है। जिन्होंने इसकी आत्मा‍ में प्रवेश किया था उन्होंने हिन्दी और हिन्दू के साम्य और ब्रितानी कूटनीति द्वारा दोनों के बीच विभेद के चलते इसे छोड़ तो दिया, पर जन भाषा, या आमफहम की भाषा, या बाजार की भाषा अर्थात् उर्दू कहने लगे और जो खड़ी बोली हिन्दी कही जाने लगी उसमें ज़मीन की गन्ध तक नहीं। हिन्दी सचमुच ऊपर से लादी हुई, नकली भाषा, असाहित्यिक पर प्रशासनिक दृष्टि से सबसे जरूरी भाषा लगती है। यह चाहे उर्दू से अलगाव के कारण हो, या आभिजात्य के कारण, यह अपनी जड़ों से जुड़ नहीं पाई, जब कि उर्दू को हिन्दी से अलग करने के लिए उसे फारसी और अरबी से भरने का चलन आरंभ हो गया और इसको सचेत रूप में बढ़ाया गया। 
हम आगे बढ़ते रहे और पीछे खिसकते रहे । 
"हमारी अग्रवर्ती पश्चगति में ब्रिटिश कूटनीति और हमारी अपरिपक्वता दोनों का हाथ है। हमे तोड़ने और उल्टी दिशा में मोड़ने के प्रयत्न उनकी ओर से हो रहे थे, जिसके लिए सैयद अहमद और भारतेन्दु दोनों का उपयोग कर लिया गया। इस मामले में बाबू शिवप्रसाद की समझ अधिक सही थी, परन्तु भारतेन्दु और सैयद अहमद में अन्तर यह है कि भारतेन्दु वंशपरंपरा से और स्वयं अपने आरंभिक सोच में, 'जुग जीवें सदा विकटोरिया रानी' वाली राजभक्ति रखते थे और अपने विवेक से अंग्रेजी राज्य से उनका मोहभंग होता गया और वह उस आर्थिक शोषण को समझ सके जिसे उन्होंने ‘पर धन बिदेस चलि जात यहै अति ख्वारी की पीड़ा से व्यक्त किया था और अमेरिका में हुए स्वतन्त्रता संग्राम के अनुरूप एक भारतीय तैयारी का सपना देखने लगे थे, कहें, विद्रोही होते चले गए थे जब कि सैयद अहमद ब्रितानी जाल में फँसते चले गए थे और जैसा कि हमने कहा, उस राजनीति का एक मुहरा बन कर रह गए थे।
"फिर भी उस दौर में भाषा की तुलना में लिपि का प्रश्न अधिक कॉंटे का था, क्योंकि सैयद अहमद से ले कर दूसरे सभी जानते थे कि एक बार नागरी लिपि को शिक्षा और अदालतों में प्रवेश का अवसर मिला तो अरबी लिपि जो भारतीय नामों, शब्दों के लिये नितान्त अनुपयुक्त थी, किनारे लग जाएगी, इसलिए उन्होंंने इसे सांस्कृतिक अस्मिता के प्रश्न के रूप में बहुत अडि़यलपन से अपनाए रखा। इस मामले में लगभग सभी मुसलमानों को अन्त तक अरबी लिपि का आग्रह बना रहा, जिसमें तत्ववादी और प्रगतिशील सभी आ जाते है। इस मनोविज्ञान को समझना भारतीय यथार्थ को समझने के लिए जरूरी है परन्तु इस पर हम यहॉं इसकी चर्चा नहीं करेंगे।
"जहाँ तक भाषा का प्रश्न था, अदालतों और थाने की भाषा फारसी-बहुत भाषा थी जिसे केवल वकील, मुख्तार समझते थे और जिसे जानबूझ कर मुश्किल बना रखा गया था जिससे कोई व्यक्ति यदि यह जानना चाहे कि लिखा क्या गया है तो उसे किसी वकील, मुख्तार या मुंशी की मदद लेनी पड़े। इसे और भी दुरूह बनाने के लिए शिकश्ता में लिखने का चलन था जिसमें सन्दर्भ के बिना अर्थ समझा ही नहीं जा सकता था – उसी लिखित वाक्य को दादा अजमेर गए और दादा आज मर गए, किसी भी रूप में पढ़ा जा सकता था। यह भी उसे गूढ़ या कूट भाषा बनाने का एक तरीका था। इस खास अर्थ में यह भाषा और लिपि सचेत रूप में जनता से दूर ही नहीं जनविरोधी भी थी। 
"मुझे हैरानी सिर्फ इस बात पर होती है कि आज़ादी से पहले जो लोग हिन्दी की वकालत कर रहे थे उन्हें हिन्दी वालों ने इतना नाराज़ क्यों कर दिया कि वे भी हिन्दी के विरोधी हो गए। सारा कसूर तो हिन्दी वालों का है। 
"पर दुबारा सोचने पर लगता है, यह आधी सच्चाई है। पूरी सचाई तो यह है कि आजादी की लड़ाई भारतीय भाषाओं में नहीं लड़ी गई। भारतीय भाषाओं में तो अधिक से अधिक उनके व्याख्यान होते रहे, लड़ाई जिनसे लड़ी जा रही था उनकी भाषा हिन्दी नहीं थी, अंग्रेजी थी, इसलिए स्वतन्त्रता संग्राम की भी भाषा अंग्रेजी थी।
"तुम जँभाइयां ले रहे हो जिसका मतलब है तुम ऊब रहे हो । गलत कह रहा हूँ?"
"गलत तुम कहो भी तो यह पता न चलेगा कि कहीं कुछ गलत है। इसके लिए अक्ल की जरूरत पड़ती है, पर ऊब रहा हूँ यह तो सच है ही।"

गांधीनामा

तुम्हारी कुछ बातें मुझे भी सही लगती हैं।
सही गलत के चक्कर में मत पड़ा करो, जो सही है वह भी गलत हो सकता है, और जो गलत है वह कुछ लोगों केा गलत लग सकता है, दूसरों को सही क्योंकि उसी से कुछ लोगों को नुकसान हो सकता है और दूसरों का फायदा।
वह हँसने लगा। कुछ बोला नहीं।
’’देखो अभी कल एक सज्जन कह रहे थे, गांधी जन-आन्दोलन खड़ा करने के लिए खिलाफत का भी समर्थन कर सकते थे। मैंने कहा, नहीं, यह तथ्य तो है, पर सच नहीं है। गांधी से पहले मुसलिम चेतना पर सैयद अहमद का प्रभाव था जो मुसलमानों को कांग्रेस से अलग रहने और अंग्रेजी सरकार का विश्वासपात्र बने रहने की नसीहत देते थे, क्योंकि यह उनके लिए फायदेमन्द था और इसलिए सही था। पर गलत इसलिए था कि मुस्लिम हित को सर्वोपरि मानने के कारण वह बौद्धिक रूप में अंग्रेजी कूटनीति के सम्मु‍ख आत्मसमर्पण कर चुके थे, एक असाधारण प्रतिभा, अपनी संकीर्ण सोच के कारण मुहरा बन कर रह गई थी और इससे मुस्लिम समुदाय मुख्य धारा से कट कर दरबाबन्द चेतना का शिकार हो गया था। गांधी की सोच यह थी कि यदि हमें भारतीय समाज को एकजुट करना है तो हमें उसके किसी हिस्से‍ के ऐसे सरोकार का जो अंग्रेजी सत्ता के लिए असुविधाजनक है, समर्थन करना चाहिए। भीड़ जुटाने का वहाँ प्रश्न नहीं था। परन्तु जल्‍द ही इसके नतीजों ने ही समझा दिया कि यह बहुत बड़ी भूल हो गई और उन्हों ने पूरी कांग्रेस पार्टी को हैरानी में डालते हुए अपना आन्दोलन ही स्थगित कर दिया और एक लंबे विराम में बाद उसे नये सिरे से खड़ा किया।
'' गाँधी भारतीय राजनीति में प्रवेश करने से पहले ही एक चमत्कारी पुरुष के रूप में विख्यात हो चुके थे और एक साल के भारत दर्शन के बाद तो वह घूरे पर भी खड़े हो जाएं तो वह तन कर एक टीला बन जाता था और भीड़ स्वत: उनके चुबकीय व्यक्तित्व के कारण एकत्र हो जाती थी और जिधर मुड़ते हवा तक अपना रुख बदल लेती।
आइंस्टाइन और गांधी बीसवीं शताब्दी की दो आश्चर्यजनक विभूतियां हैं, परंतु एक का सरोकार भूत-जगत से था तो दूसरे का प्राणि-जगत से । भूत जगत में हम इच्छानुसार विच्छेेदन, विलगाव, नियन्त्रण कर सकते हैं प्रकृति के रहस्यों को समझ सकते हैं, एक बार विफल होने पर दोबारा अपनी चूक से बच और भूल को सुधार सकते है और इससे श्रम और धन की मामूली सी क्षति को छोड़ कर दूसरी कोई क्षति नहीं होती, परंतु प्राणि-जगत में और खास तौर से मानव जगत में इनमें से कोई सुविधा नहीं होती इसलिए उसमें अपना विवेक और अन्त:प्रज्ञा को छोड़ किसी चीज का सहारा नहीं होता। जाहिर है, उसमें यदि कोई बड़ा प्रयोग किया गया तो उसके परिणाम भयानक हो सकते हैं और इसके अपवाद तो आइंस्टा़इन भी नहीं जिन्होंने यह जान कर कि जर्मनों ने परमाणु बम तैयार कर लिया है, रूजवेल्ट को बम बनाने की सलाह दी थी और उसके सूत्र भी सुझाए थे। रूजवेल्ट बड़े नेता थे, गहन मानवीय संवेदना से युक्त। उनका पोलियो भी उनकी इस संवेदना का ही पुरस्कार था। आइंस्टाइन को क्‍या पता था कि उन्हें नाम से सच्चा मनुष्य या कहो मानववादी पर मिजाज से जल्लाद उत्तराधिकारी मिलेगा जो स्वयं उस भयानक त्रासदी का सूत्रपात करेगा जिसे टालने के लिए उन्होंने यह सुझाव रखा था। उन्होंने प्रतिरक्षा की चिन्ता से कातर हो कर इसमें योगदान दिया था, आक्रामक आयुध के रूप में नहीं।
'छोटे लोग छोटी गलतियाँ करते हैं जिससे सिर्फ उनका नुकसान होता है, पर महान लोग इतनी महान भूलें करते हैं जिनके लिए गाँधी ने हिमालयी भूल या हिमालयन ब्लंडर का पद गढ़ा था। यदि ब्लंडर के आकार को मानदंड बनाया जाय तो आइंस्टाइन मानव इतिहास के सबसे बड़े आश्चर्य हैं, जो उनके चकित करने वाले कामों से भी सिद्ध हो सकता है। परन्तु आइंस्टाइन ही ऐसी प्रतिभा थे जो समझते थे कि भौतिकी के क्षेत्र में काम करने से अधिक महत्वपूर्ण है मानविकी के क्षेत्र में काम करना है, क्योंकि सभी मानव प्रयास मानव जीवन को उन्नत बनाने के लिए ही तो, इसलिए अन्तिम दिनों में वह इस ओर भी मुड़े थे। वही कह सकते थे कि आने वाले समयों में किसी को यह विश्वास न होगा कि गांधी जैसा कोई व्यक्ति इस धरती पर पैदा हुआ था।
यह विचित्र है कि खिलाफत आंदोलन के परिणाम स्वरुप जो बोरा विद्रोह अंग्रेजों के विरुद्ध आरंभ हुआ था उसे ब्रितानी खुफिया तन्त्र ने यह प्रचारित करके कि अब ब्रिटिश राज खत्म हो चुका है, खलीफा का राज्य स्थापित हो चुका है, सच्चे इस्लामी राज्य में मुसलमानों से अलग किसी को जिंदा रहने का अधिकार नहीं है उसकी दिशा पलट दी थी और इसके बाद वही आक्रोश जो पहले अंग्रेजों के प्रति था, हिन्दुओं के विरुद्ध हो गया और अंग्रेजी प्रशासन ने इसे फैलते जाने की पूरी छूट दे दी। इस उपद्रव की कहानियॉं इतनी हृदयविदारक थीं कि जब इसकी खबर गांधी को लगी तो उन्होंने कहा था, उन्हें मारना चाहिए था। यह पढ़ कर मैं स्तम्भित रह गया था। गाँधी की अहिंसा क्या राजनीतिक अवसरवाद है।
यह समझने में कई वर्ष लगे थे कि गॉंधी की अहिंसा, बिना परंपरा का गहन अध्ययन किए ही (या कौन जाने गाँधी क्या् क्या पढ़ और जान चुके थे), उस सोच से जुड़ी थी जिसमें हिंसा को अक्षम्य पाप तो कहा गया है, परन्तु यह विधान भी है कि आततायी का वध करने पर कोई पाप नहीं लगता। आज की भाषा में कहें तो यह अपरिहार्य और न्यायोचित है। न आततायि बधे दोषो हन्तुःभवति कश्चन ।
कहते हैं आइंस्टााइन के सापेक्षता सिद्धांत के बारे में एक व्यक्ति ने कहा था दुनिया में इसके तीन जानकार है। जिससे उसने ऐसा कहा था उस वैज्ञानिक ने कहा था दो को तो मैं जानता हूं, एक मैं दूसरे आइंस्टांइन, पर यह तीसरा कौन है?
हो सकता है फिकरा हो, पर कई बार फिकरे भी यथार्थ की उससे अधिक गहरी व्याख्या कर जाते हैं जिससे दार्शनिक करना चाहते हैं और कर नहीं पाते।
''सापेक्षता के सिद्धांत पर बात करोगे जिसे तुम जानते नहीं या उस विषय पर बात करोगे जिस के बारे में जैसी भी सही, कुछ जानकारी रखते हो।''
अरे भाई मैं सापेक्षता के सिद्धांत की बात नहीं कर रहा हूं । मैं तो यह कह रहा हूं कि महान से महान वैज्ञानिक भी उसके कुछ पहलुओं को नहीं समझ पाए थे। उन्हें ज्ञेय मानते थे पर ज्ञात नहीं। वे मानते थे कि सच्चाई तो कहीं है, परन्तु प्रमाणित नहीं हो रही है उनके अपने सिद्धांतों के अनुसार मैं केवल इस मोटी खबर को जानता हूं कि उसका जितना अंश ज्ञात और मान्य हो सका, उसकी ओर आइंस्टाइन का ध्यान नहीं था। वह बहुत कुछ ऐसा जानते थे जिस तक किसी अन्य की पहुँच असंभव थी। उनका उल्लेख इसलिए कर रहा हूं कि यह बता सकूं कि गांधी के अहिंसा सिद्धांत को भी उसी तरह से हमारे समाज में नहीं समझा, जैसे सापेक्षता के विशेष सिद्धान्त को। उसको समझने वाला शायद दुनिया में कोई दूसरा नहीं था । पर जितना समझ में आता था उसी पर लोग उन्हें सिर पर उठाए फिरते थे। ठीक यही हाल गांधी का था।
अरे भाई मैं चाहता था तुम यह बताओ हिन्दी का भविष्य क्या है और तुम गांधीनामा ले कर बैठ गए। 
उस पर कल बात करेंगे।
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