अधूरा ही सही



‘’तुमने भगवान को देखा था कभी या कि नहीं?‘’
’’क्योें ऐसा क्या हो गया?’’ 
’’सुना उस शख्स को गुजरे हुए जमाना हुआ।‘’
‘’शेर तो अच्छा है।‘’ 
’’सिर्फ शेर ही दिखाई दिया तुम्हें, वह वेदना नहीं जो अनकही रह गई है। तुमने घनानन्द को पढ़ा है। हिन्दी पढ़ाते हो तो पढ़ा ही होगा। उसकी वह पंक्ति याद है, ‘लोग है लागि कबित्त बनावत मोहें तो मेरे कबित्त बनावत।‘ मैंने कुछ कहा तो तुमने कहा अच्छा शेर है, यह न समझ पाए कि व्यथा इतनी गहरी है कि आह भी शेर बन जाती है।
‘’आज कैसी निराशा भरी बातें कर रहे हो यार। हुआ क्या है?‘’
‘’कल तुम कह रहे थे मैं तैश में आ गया था। यह जो भीतर की व्यथा है उसे बहुत प्रयत्न से हँसी मज़ाक से ढके रहता हूँ पर कभी कभी सँभाल नहीं पाता। प्रयत्न करके भी। पर कलम उठाता हूँ तो मैं लिखता नहीं हूँ उसे अपनी भाषा और भंगिमा स्वयं तलाशना होता है।‘’ 
देखो, मेरे फिकरे का मलाल है तो मैं अपनी गलती स्वीकार करता हूँ। तुम्हारा दिमागी हालत का पता लगा कर बात करनी थी। जाे भी हो, तुम्हारा आक्रोश सात्विक है, पर तुम लोग आदर्शवादी ठहरे, यह नहीं समझ पाते कि आदमी आदर्श नहीं खाता, रोटी खाता है। रोटी जिधर से भी मिलेगी, आदमी उसी ओर दौड़ पड़ेगा।‘’ 
‘’लावारिस कुत्ते की तरह । यही कहना चाहते हो? मार्क्सवाद को तुम लोग निरी रोटी पर क्यों उतार देते हो कि शर्म तक की गुंजाईश नही रहती। देखो आदमी रोटी खाता नहीं, रोटी की ओर दौड़ता नहीं, वह रोटी पैदा करके खाता है। अपने काम को पूरी ईमानदारी और पूरे श्रम से किए बिना तुम अपनी रोटी पैदा नहीं कर सकते। जो लोग ऐसा नहीं करते वे अपनी कमाई की रोटी नहीं खाते, किसी का फेंका या चुराया हुआ टुकड़ा खाते हैं। शारीरिक श्रम हो या बौद्धिक, मैं इन दोनों में यहाँ फर्क नहीं करता। तुम्हारा कर्म क्षेत्र ही वह खेत खलिहान और रसोई घर है जहां से तुम्हें अपनी रोटी उगानी और पकानी है। हमने वह नहीं किया। चोरी करते रहे, भीख माँगते रहे, शारीरिक श्रम के क्षेत्र में भी और बौद्धिक श्रम के क्षेत्र में भी काम किया ही नहीं, नैतिकता की तो चिन्ता ही नहीं रही, वही तो दोनों क्षेत्रों में सक्रिय रखती है।
‘’ज्ञान के क्षेत्र में भी हमारी स्थिति यही है। हमने अपनी समस्याओं का सामना ही नहीं किया, उन्हें समझा तक नहीं। भागते रहे, प्रतीक्षा करते रहे कि कोई देव दूत पश्चिम से आएगा और उनका अध्ययन करके हमें उनका समाधान देगा, और हम उसे निगल जाएंगे और इस बात की अकड़ दिखाते फिरेंगे कि इसे सबसे पहले मैंने निगला था।‘’ 
’’लगता है आज फिर बोर करोगे। देखो, तुम अपने नाम के साथ जो सिंह लगाते हो न, उसे हटा दो, उसके स्थान पर बोरवर्कर रख लो। सुनने वाले को लगेगा बोरीवेली की तरह बोरवर्क नाम का भी कोई स्थान है जहां से तुम्हारा उद्भव हुआ है। यह बताओ तमिल वाला भूत उतर गया, नैतिकता का यह नया जिन्नात सवार हुआ है?‘’ 
’’मैं उसी पर बात कर रहा हूँ। देखो, हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव और आन्दोलन अहिन्दी भाषियों ने किया था। यहां तब सब कुछ ठीक था। दो बातें सर्वमान्य थी। यह कि स्वतन्त्र भारत की भाषा अंग्रेजी नहीं रह सकती, अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी को भी विदा करना होगा, और भारत की राष्ट्रभाषा की भूमिका का निर्वाह हिन्दी ही कर सकती है अत: हिन्दी प्रचार से जुड़ी संस्थाओं का नाम हिन्दी प्रचार सभा या समिति न रख कर राष्ट्रभाषा प्रचार सभा या समिति रखा गया था जो उनके साथ आज भी अजागलस्तन की तरह लटका रह गया है जब कि मेरे एक मित्र ने मुझे याद दिलाया कि भारतीय संविधान में हिन्दी के लिए राजकाज की भाषा या राजभाषा का प्रयोग हुआ है, अब भी मौका है, अपनी भूल सुधार लो, और इसीलिए मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के द्वारा सम्मानित होने का अवसर मिला तो वह पीड़ा उभर आई। तुम जानते हो, मेरी सहानुभूति हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने वालों के साथ नहीं है, इसका विरोध करने वालों के साथ हो सकती थी, पर है नहीं ।‘’ 
‘’क्या कह रहे हो तुम, पता है? तुम पहेलियां गढ़ने का एक साफ्टवेयर तैयार करो। फेसबुक वाले खरीद लेंगे और तुम मालामाल हो जाओगे। यार, कभी तो ऐसी बातें किया करो जो मेरी खोपड़ी में भी धँसें।‘’
’’ठीक कहा तुमने, तुम्हारी ही नहीं, पूरे देश की खोपड़ी इतनी मोटी हो गई है कि मेरी कमजोर आवाज़ उसे भेद नहीं पाती। उदाहरण दूँ तो, हिन्दी वाले आज भी हिन्दी का कारोबार करते हैं, हिन्दी से प्यार नहीं करते।‘’ वह हँसने लगा।

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