मोहभंग

मैं तुम्हें इधर-उधर की थोड़ी झाँकी इसलिए दिखा रहा था कि यह बता सकूँ कि उन्नीसवीं शताब्दी में हमारी समझ बीसवीं शताब्दी की तुलना में अधिक सही थी, आत्माभिमान अधिक था, सांप्रदायिक सद्भाव अधिक था, और विरल अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश नेताओं का दृष्टिकोण क्षेत्रीय न हो कर राष्ट्रीय था। हिन्दी क्षेत्र, यहाँ की बोलियों और संस्कृति के प्रति आत्मीय आदरभाव था। दूसरे भाषा क्षेत्रों के लोग शिक्षा के लिए, धर्म संकट की स्थिति में काशी के पंडितों का अभिमत जानने के लिए, और अपने नये विचारों के प्रसार के लिए, अपने पांडित्य की धाक जमाने के लिए काशी आते थे । राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर के जन्मस्थल होने और काशी, मथुरा, हरिद्वार आदि तीर्थस्थलों के हिन्दी क्षेत्र में स्थित होने के कारण यहाँ के लोगों और बोलियों के लिए एक रागात्मक सम्बन्ध था। भारत बहुलता को वैभव समझता था, व्याधि नहीं। अठारवीं शताब्दी तक पश्चिमी विद्वानों की नजर सतही थी। विविधता को बिलगाव मानती थी और समझती थी कि इनमें एका पैदा ही नहीं हो सकता। उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक वे इसी भ्रम में भारतीय समाज को निरीह और लाचार मान कर धर्म, विश्वास, आर्थिक दोहन आदि सभी क्षेत्रों में उद्दंडता से व्यवहार करते रहे। 1857 की एक छोटी सी चूक और अपने ही देश के विघाती तत्वों के सहयोग और कुछ अन्य संयोगों ने पासा पलट दिया फिर भी वे भीतर से ‘जान बची लाखों पाए’ वाली चेतना से भीतर तक हिल गए थे। इससे पहले हिन्दू मुसलमान को पहले से ही बँटा मान कर वे निश्चिन्त थे कि ये कभी एक हो नहीं सकते। इसके बाद भारतीय समाज को भीतर से तोड़ने की नई युक्तियों का आविष्कार उनकी कूटनीति का प्रमुख मुद्दा बन गया और अन्य बातों के अलावा, उन्होंने यह पाया कि धार्मिक विभेद उतना विभेदक नहीं है जितना भाषा और संस्कृति का प्रश्न और इसके लिए हिन्दी क्षेत्र सबसे उर्वर है। इसमें उन्होंने भाषा और संस्कृति के अलगाव का वह खेल सैयद अहमद के कंधे पर बन्दूक रख कर, और दो लिपियों के प्रचलन और एक ही भाषा में अनुपात भेद से दो स्रोतों से आयत्तं शब्दावली के आधार पर एक ही भाषा को दो भाषाओं में बँटा मान कर और उनके बीच टकराव पैदा कर, एक की रीतियों को दूसरे की रीतियों से टकराव का मुद्दा बना कर विषवेलि बोने की योजना बनाई। इसमें वे सफल रहे।
परन्तु उन्होंने दूसरी भाषाओं से हिन्दी क्षेत्र का टकराव दिखाते हुए उस पर्यावरण को विषाक्त करने का प्रयत्न किया। इसे बीम्स के कंपैरेटिव ग्रामर आफ आर्यन लैंग्वे्जेज के संगत विषयों के निरूपण को ध्यान से पढ़ने वाला समझ सकता है, पदपाठ करने वाला नहीं। 
काल्डवेल ने अपने द्रविड़ भाषाओं के तुलनात्मक व्याकरण के माध्यम से दक्षिण को उत्तर से, और दक्षिण के प्रभावशाली ब्राह्मणों को शेष समाज से और शेष समाज को भी तमिल, मलय, सिंहल आदि आन्तरिक फाँकों में बॉंटने का जाल तैयार किया, वह सरल पाठ में इतना तर्कसंगत था कि उसके कुचक्र को समझते और जानते हुए भी मेरे मन में काल्डवेल की प्रतिभा और अधिकार के प्रति गहरा सम्मान है। बीम्स ने उसकी नकल करते हुए तीन खंडों में अपना काम किया परन्तु वह प्रकटत: इतना घटिया है कि एक भाषाविज्ञानी के रूप में कोई बीम्स का नाम नहीं लेता, फिर भी कुछ दूर तक तो वह इस योजना में सफल हुए ही कि हिन्दी के प्रति अन्य, तथाकथित आर्य भाषाओं में स्पर्धा, और हिन्दी प्रदेश में ही हिन्दु्स्तानी के सही चरित्र की चिन्ता‍ के बहाने हिन्दी उर्दू में विरोध उत्पन्न‍ कर सके।
उन्नीसवीं शताब्दी के सांस्कृतिक पर्यावरण को देखते हुए यह स्वाभाविक था कि अखिल भारतीय भाषा के रूप में सभी हिन्दी को वरीयता देते। एक मजेदार बात, जिसका मैं पहले जिक्र कर चुका हूँ, यह है, कि हिन्दी का मतलब वही था जो उर्दू का या रेख्ता का। उर्दू का मतलब था छावनियों में अर्थात् जहॉं भी बाहरी लोगों और स्थानीय जनों के बीच संपर्क की संभावना पैदा हो, वहॉं इस संपर्क से पैदा ऐसी जबान जो सबकी समझ में आ सके, अर्थात् बोलचाल की जबान, दोनों की समझ में आने वाली जबान। रेख्ता का अर्थ ज्ञानमंडल के कोश में और महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय द्वारा तैयार कराए गए कोश में जो अर्थ दिया गया है वह गलत है। इसका ठीक वही अर्थ है जो अपभ्रंश का है। रेख्ता का अर्थ है गिरी हुई, पड़ी हुई, बिखरी हुई अर्थात् अपभ्रंश अर्थात् गिरे हुए, दबे हुए या आम जनों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली जबान। और हिन्दी का अर्थ था हिन्दुस्तान के लोग और उनकी बोलचाल की भाषा। इसका प्रयोग सबसे पहले तो उन लोगों ने आरंभ किया जो हिन्दी शब्द से ही डर कर उसे उर्दू कहने लगे और प्रयत्नपूर्वक फारसी बनाने लगे और उससे भी सन्तोष न हुआ तो अरबी भरने लगे। यह उनकी ही बहुधा विभाजित अन्तश्चे तना का प्रमाण है जिसे बीम्सु के भाषाविज्ञान ने पैदा किया था। हिन्दी के लिए तो पहले खड़ी बोली, जो रेख्ता के ठीक विपरीत थी, काम में आती थी। यदि रेख्ता या उर्दू अर्थात् हिन्दी आमफह्म या बाजार की भाषा थी, गिरी हुई, पड़ी हुई, तो यह जो दिल्ली के आसपास की भाषा एक तरह से अभिजात भाषा, तनी हुई भाषा के रूप में अपना दावा पेश कर रही थी और इसलिए रेख्ता या जनभाषा से कमजोर थी। यह दूसरी बात है कि हिन्दी पर अपना दावा छोड़ने और खड़ी बोली द्वारा इसे अपनाए जाने के बाद भी आरंभिक हिन्दी गद्य लेखकों ने लोकोक्तियों और मुहावरों को अपने लेखों में पिरोने का प्रयत्न किया, पर वह असर न पैदा हुआ जिसके कारण गालिब ने होश संभालने के बाद गर्वोक्ति की थी कि
‘रेख्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब
'कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था। 
पहले वह फारसी पर गर्व किया करते थे, अब आम जनों की मुहावरेदार भाषा पर गर्व कर रहे हैं, जिसके लिए मीर जाने जाते थे: 
मुझको शायर न कहो, मीर कि साहब मैंने 
दर्दोग़म कितने किए जमा तो दीवान किया। 
या 
मुँह तका ही करे है जिस तिस का।
हैरती है यह आइना किसका 
शाम ही से बुझा सा रहता है, 
दिल हुआ है चिराग मुफलिस का ।। 
या 
सिरहाने मीर के आहिस्ता बोलो 
अभी टुक रोते रोते सो गया है ।
''इस जबान से स्पर्धा पर उतर आए थे गालिब। यदि उनकी लोकप्रिय गजलों को देखें तो इस मामले में ग़ालिब मीर से भी अधिक सिद्धहस्त थे । यही ग़ालिब थे जो मोमिन के एक शेर पर अपना दीवान लुटाने को तैयार थे: 
तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता । 
''गौर करो इस शेर में प्रयुक्त शब्दावली और अर्थवैभव पर । इसी का नाम हिन्दी था इसी का नाम हिन्दी है। जिन्होंने इसकी आत्मा‍ में प्रवेश किया था उन्होंने हिन्दी और हिन्दू के साम्य और ब्रितानी कूटनीति द्वारा दोनों के बीच विभेद के चलते इसे छोड़ तो दिया, पर जन भाषा, या आमफहम की भाषा, या बाजार की भाषा अर्थात् उर्दू कहने लगे और जो खड़ी बोली हिन्दी कही जाने लगी उसमें ज़मीन की गन्ध तक नहीं। हिन्दी सचमुच ऊपर से लादी हुई, नकली भाषा, असाहित्यिक पर प्रशासनिक दृष्टि से सबसे जरूरी भाषा लगती है। यह चाहे उर्दू से अलगाव के कारण हो, या आभिजात्य के कारण, यह अपनी जड़ों से जुड़ नहीं पाई, जब कि उर्दू को हिन्दी से अलग करने के लिए उसे फारसी और अरबी से भरने का चलन आरंभ हो गया और इसको सचेत रूप में बढ़ाया गया। 
हम आगे बढ़ते रहे और पीछे खिसकते रहे । 
"हमारी अग्रवर्ती पश्चगति में ब्रिटिश कूटनीति और हमारी अपरिपक्वता दोनों का हाथ है। हमे तोड़ने और उल्टी दिशा में मोड़ने के प्रयत्न उनकी ओर से हो रहे थे, जिसके लिए सैयद अहमद और भारतेन्दु दोनों का उपयोग कर लिया गया। इस मामले में बाबू शिवप्रसाद की समझ अधिक सही थी, परन्तु भारतेन्दु और सैयद अहमद में अन्तर यह है कि भारतेन्दु वंशपरंपरा से और स्वयं अपने आरंभिक सोच में, 'जुग जीवें सदा विकटोरिया रानी' वाली राजभक्ति रखते थे और अपने विवेक से अंग्रेजी राज्य से उनका मोहभंग होता गया और वह उस आर्थिक शोषण को समझ सके जिसे उन्होंने ‘पर धन बिदेस चलि जात यहै अति ख्वारी की पीड़ा से व्यक्त किया था और अमेरिका में हुए स्वतन्त्रता संग्राम के अनुरूप एक भारतीय तैयारी का सपना देखने लगे थे, कहें, विद्रोही होते चले गए थे जब कि सैयद अहमद ब्रितानी जाल में फँसते चले गए थे और जैसा कि हमने कहा, उस राजनीति का एक मुहरा बन कर रह गए थे।
"फिर भी उस दौर में भाषा की तुलना में लिपि का प्रश्न अधिक कॉंटे का था, क्योंकि सैयद अहमद से ले कर दूसरे सभी जानते थे कि एक बार नागरी लिपि को शिक्षा और अदालतों में प्रवेश का अवसर मिला तो अरबी लिपि जो भारतीय नामों, शब्दों के लिये नितान्त अनुपयुक्त थी, किनारे लग जाएगी, इसलिए उन्होंंने इसे सांस्कृतिक अस्मिता के प्रश्न के रूप में बहुत अडि़यलपन से अपनाए रखा। इस मामले में लगभग सभी मुसलमानों को अन्त तक अरबी लिपि का आग्रह बना रहा, जिसमें तत्ववादी और प्रगतिशील सभी आ जाते है। इस मनोविज्ञान को समझना भारतीय यथार्थ को समझने के लिए जरूरी है परन्तु इस पर हम यहॉं इसकी चर्चा नहीं करेंगे।
"जहाँ तक भाषा का प्रश्न था, अदालतों और थाने की भाषा फारसी-बहुत भाषा थी जिसे केवल वकील, मुख्तार समझते थे और जिसे जानबूझ कर मुश्किल बना रखा गया था जिससे कोई व्यक्ति यदि यह जानना चाहे कि लिखा क्या गया है तो उसे किसी वकील, मुख्तार या मुंशी की मदद लेनी पड़े। इसे और भी दुरूह बनाने के लिए शिकश्ता में लिखने का चलन था जिसमें सन्दर्भ के बिना अर्थ समझा ही नहीं जा सकता था – उसी लिखित वाक्य को दादा अजमेर गए और दादा आज मर गए, किसी भी रूप में पढ़ा जा सकता था। यह भी उसे गूढ़ या कूट भाषा बनाने का एक तरीका था। इस खास अर्थ में यह भाषा और लिपि सचेत रूप में जनता से दूर ही नहीं जनविरोधी भी थी। 
"मुझे हैरानी सिर्फ इस बात पर होती है कि आज़ादी से पहले जो लोग हिन्दी की वकालत कर रहे थे उन्हें हिन्दी वालों ने इतना नाराज़ क्यों कर दिया कि वे भी हिन्दी के विरोधी हो गए। सारा कसूर तो हिन्दी वालों का है। 
"पर दुबारा सोचने पर लगता है, यह आधी सच्चाई है। पूरी सचाई तो यह है कि आजादी की लड़ाई भारतीय भाषाओं में नहीं लड़ी गई। भारतीय भाषाओं में तो अधिक से अधिक उनके व्याख्यान होते रहे, लड़ाई जिनसे लड़ी जा रही था उनकी भाषा हिन्दी नहीं थी, अंग्रेजी थी, इसलिए स्वतन्त्रता संग्राम की भी भाषा अंग्रेजी थी।
"तुम जँभाइयां ले रहे हो जिसका मतलब है तुम ऊब रहे हो । गलत कह रहा हूँ?"
"गलत तुम कहो भी तो यह पता न चलेगा कि कहीं कुछ गलत है। इसके लिए अक्ल की जरूरत पड़ती है, पर ऊब रहा हूँ यह तो सच है ही।"

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