राष्ट्रभाषा संपर्क प्रभाव भाषा



‘’तुम आधे दिमाग के आदमी हो कोई बात पूरी कर ही नहीं पाते।‘’ 
’’श्रोता की पाचन-शक्ति का ध्यान रखना पड़ता है। एक साथ पूरी बात पचा नहीं पाओगे, इसलिए टुकड़े-टुकड़े करके पेश करना होता है।‘’ 
‘’जुमलेबाजी पर आ गए। आज भी यही सुनना पड़ेगा कि यार बात पूरी तो हुई नहीं। तुम संक्षेप में बताओ तुम कहना क्या चाहते हो। कोई बात उलझी रह गई तो बाद में पूछ लूँगा।‘’ 
’’मैं तीन बातों की ओर ध्यान दिलाना चाहता था। हिन्दी प्रदेश की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि लम्बे अरसे तक इसी को हिन्दुस्तान कहा जाता रहा है। आज भी बंगाली इस क्षेत्र के लोगों को हिन्‍दुस्तानी या पंजाबी कहता है। जिसने इस पर अधिकार कर लिया वह पूरे भारत को जिसमें तुम पाकिस्तान को भी जोड़ सकते हो, जीत लेता रहा है या कहो, उसके लिए ऐसी विजय आसान हो जाती रही है। वैसे तो इसे स्मिथ ने फ्रांसीसियों से अपनी श्रेष्ठता जताने के लिए कहा था, और एक हद तक झूठ भी कहा था, परन्तु उसका कहना था कि अंग्रेजों ने बंगाल में या गांगेय पट्टी पर अधिकार किया और फ्रांसीसी मद्रास में केन्द्रित हुए इसलिए भारत पर स्वाभाविक स्वा‍मित्व अंग्रेजों का ही हो सकता था। उसी ने इस इतिहास की ओर ध्यान दिलाया था, उससे पहले मेरे दिमाग में भी यह बात न थी। पर असलियत यह थी कि गंधार से ले कर मगध तक हिमालय से ले कर उज्जैन तक इसके संपर्क सूत्र फैले थे और ईसा से कई सौ साल पहले यहीं के संस्कृत विद्वान अन्यत्र पहुँचते और समादृत होते थे। कहें, अपनी केन्द्रीय स्थिति का भौगोलिक लाभ इसे मिलना ही था। भारत के दूसरे सभी अहिन्दी प्रदेश इससे सीधे संपर्क में थे जब कि उनके बीच यह संपर्क बहुत हाल का है या सीमित था। वे कुछ क्षेत्रों और उनके लोगों से सीमांत क्षेत्रों के लोगों उनकी भाषाओं और रीतियों से परिचित तक न थे परंतु इस केंद्रीय भाग को जैसी भी सही, सबकी जानकारी थी और इसके माध्यम से उनको एक दूसरे की कुछ जानकारी मिली थी और मिलती रही थी।
इसी के ऊपर पालि और प्राकृत का एक दूसरा रद्दा चढ़ा था जो संस्कृत का स्थानीय ध्वनिसीमा में उच्चरित रूप था और इसलिए प्राकृत का प्रयोग नाटकों के उन पात्रों द्वारा किया जाता था जिनको औपचारिक शिक्षा प्राप्त़ न थी। जैसे महिलाएँ, नौकर-चाकर आदि । इसे जैन मत ने अपनी भाषा बना कर अपने साहित्य के लिए प्रयोग किया। जैन और बौद्ध मत ने अपने संजाल का प्रसार व्यापारिक मार्गों पर और उनके माध्यम से उनके परिवेश में किया। जैन मत का प्रसार तमिल क्षेत्र में भी हुआ और संगम साहित्य का बहुत सारा साहित्य इस जैन मत के अनुमोदन में लिखा गया, जब कि पालि का प्रवेश उससे भी दक्षिण में, श्रीलंका तक में हुआ और मुझे जो विचित्र बात लगती है वह यह कि श्रीलंका को कन्नड क्षेत्र से गए हुए लोगों ने प्रभावित किया। एकारान्त शब्द भारत में केवल कन्नड़ की और इससे बाहर श्रीलंका की विशेषता है। यह कैसे हुआ, क्या महेन्द्र अपने सिंहल की यात्रा में कर्नाटक होते हुए और वहाँ के दलबल के साथ गए थे, या नहीं, इसका मुझे कुछ पता नहीं, परन्तु भाषा के तथ्य‍ यही कहते हैं। 
परंतु मैंने कहा न कि हम कुछ आगे बढ़ आए हैं । इससे पीछे एक बहुत क्रान्तिकारी चरण है। वह है कृषि और कृषिविद्या के माध्यम से उसकी जानकारी और शब्दावली का प्रसार। कोसंबी ने अपने निजी कारणों से यह स्वीकार किया है कि भारत में कृषि का प्रसार आर्यभाषा के प्रसार के समानान्तर हुआ है। यह एक अर्धसत्य है। हम इसकी मीमांसा की ओर नहीं मुड़ेंगे फिर भी यह कहना जरूरी है कि मोटे तौर पर यह सच है क्योंकि जिन देवों और ब्राह्मणों ने कृषि की दिशा में कदम आगे बढ़ाया था उन्हें सफलता या एक जगह टिक कर खेती करने का सुयोग इसी भूभाग में कहीं मिला था। वह स्थान या क्षेत्र जो भी रहा हो, वह इसी प्रदेश में था और कृषिविद्या का प्रसार सबसे पहले जिस क्षेत्र में हुआ उसे तुम आज की भाषा में हिन्दी प्रदेश कह सकते हो।'' 
’'मैं अधिक नहीं जानता, परंतु इतना जानता हूं कि हिन्दीे अभी कल पैदा हुई है और तुम उसे युगों पहले ले जा कर एक दिव्य अधिकार दिलाना चाहते हो। '' 
''मैंने सोचा था तुम मेरी बात समझ जाओगे। मुझे उसका नाम नहीं लेना पड़ेगा। अब लगता है कि तुमको बुनियादी बातों की भी जानकारी नहीं है। हिन्दी एक भाषा नहीं है, एक सांस्क़ृतिक क्षेत्र की वाणी है जो कई हजार साल से आपस में कई तरीकों से आलाप करती रही है। इसमें एक ही भाषा की स्वीकार्यता होती है। 
और यह क्षेत्र तीन स्तरों से निर्मित हुआ है। एक, आहार संचय और आखेट का चरण जिसे पुराणों की भाषा में सतयुग कहा जाता है और शेष सभ्यता के उत्थान के साथ अर्थतन्त्र के समानान्तर, परन्तु अपनी वक्र रेखाओं के साथ, जिसमें नियम तलाशने चलोगे तो वे कुछ दूर तक साथ देंगे परन्तु आगे काम न आऍंगे।
अब तुम हिंदी क्षेत्र को इस रूप में समझ सकते हो कि यह किसी एक भाषा का क्षेत्र नहीं है, कृषि विद्या के साथ पारस्परिक संपर्क में आई बोलियों का क्षेत्र है; सांस्कृतिक अन्तरक्रिया का क्षेत्र है, जिसमें कोई भी एक भाषा, उसका उद्गम क्षेत्र कोई भी क्यों न हो, उसका मानक चरित्र सारस्वत क्षेत्र में आ कर ही निर्धारित होता है और इसके बाद यह अखिल भारतीय स्वीकार्यता पा जाती रही है। वह वैदिक हो, संस्कृत हो, पाली या अपभ्रंश हो या आधुनिक बोलियॉ हों। यह सुयोग ही है कि आधुनिक हिन्दी उसी सारस्वत क्षेत्र की उपज है जिसमें कुऱु पांचाल आते रहे हैं और यह उस क्षेत्र के लोगों द्वारा आगे बढ़ कर अपना ली गई जिनकी अपनी भाषाएं और ऐसी बोलियॉं थीं, जिनका साहित्य इस पूरे क्षेत्र में स्वीकार्य था। यह अविरोध या सहर्ष स्वीकार ही उस भाषाई क्षेत्र की सीमा रेखा निर्धारित करता है जिसे आप हिन्दी क्षेत्र कह सकते हैं जो भारतीय भू भाग में सभ्ययता और संस्कृति के विकास में अग्रणी रहा है और आज पश्चिमी कूटनीतिक सफलता का प्रमाण ही माना जाएगा, कि यह सांस्क़ृतिक और भाषा-संस्कार का क्षेत्र कलह और विरोध का क्षेत्र बना दिया गया। ,
यह स्थिति बहुत हाल की है, साझा विरासत बहुत पुरानी है। यहां की भाषा अखिल भारतीय संपर्कसूत्र का काम दस पाँच हजार साल से करती आई है। हिन्दी की हिन्दी प्रदेश में स्वीकार्यता और बाहर इस पर आश्चर्य भी स्वाभाविक है। हिन्दी इसी तर्क से इस देश को जोड़ने वाली भाषा है, समस्त भारतीय अहिन्दी भू भाग में कुछ लोगों द्वारा समझी जाने वाली भाषा है। यह संविधान की कृपा से या किसी आन्दोलन से पैदा हुई भाषा नहीं है, अपितु नैसर्गिक राष्ट्रभाषा है और आज भी राष्ट्रीय उपयोग की भाषा है वह राजकाज की भाषा बने या न बने। भारत की किसी भाषा से इसका विरोध नहीं, बाहर तक की भाषाओं से भी नहीं। फिर भी यदि इसे ले कर गलतफहमी पैदा हुई तो इसे हम व्रितानी कूटनीतिक सफलता का प्रमाण मान सकते हैं ।
तुम ठीक कह रहे थे, विषय ही कुछ ऐसा है कि इसे न चुटकी बजाते समझा जा सकता है न हल किया जा सकता है। 
परन्तु् गौर करो, अभी तो हमने इसके छिल्के पर बात की है। इसकी मर्मकथा और आज की समस्या तो बची ही रह गई है। इतना धैर्य है कि उन पर भी बात की जा सके।''
उसने हाथ खड़े कर दिए।
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