उर्दू हिन्दी के संबन्ध




''तो तुम मानते हो हिंदी की स्वीकार्यता में उर्दू भाषा रुकावट बनी।''

मैं मानता हूँ एक ही क्षेत्र में दो भाषाएं आम जबान नहीं हो सकतीं। उर्दू भाषा नहीं है, हिन्दी की एक शैली है जिसमें अरबी-फारसी जानने वाले को अपनी भावना की सटीक अभिव्यक्ति के लिए उनका कोई शब्द या पदबन्ध अधिक उपयुक्त लग सकता है, और संस्कृत जानने वाले को उससे भिन्न शब्द या पदबन्ध अधिक सटीक लग सकते हैं और देशज बोलियों के सौन्दर्य पर मुग्ध किसी व्यक्ति को उनमें अपनी भावना की सही अभिव्यक्ति मिल सकती है और वह उसका प्रयोग कर सकता है। हिन्दी वह महानदी है जो इन सबको समेटते हुए प्रवाहित हो सकती है और ये हिन्दी की उद्दाम शक्ति को प्रकट करते हैं और यह सिद्ध करते हैं कि हिन्दी एक महान भाषा है। इस माने में अंग्रेजी भी हिन्दी से पीछे पड़ेगी जो दूसरी ऐसी भाषा है जिसकी महिमा का एक रहस्य यह है कि उसने अपना अस्सी प्रतिशत बाहर से लिया है। वह भी उतनी उदारता से अन्य भाषाओं के शब्दों और व्यंजनाओं को आत्मसात नहीं करती जितनी उदारता से हिन्दी फिर भी अंग्रेजी दुनिया की किसी दूसरी भाषा से अधिक खुली भाषा रही है। उसके कोशकार उन शब्दों और अभिव्यक्तियों को उसके मानक रूप में शामिल करने में कई दशक लगा दें, कुछ को स्वीकार तक न करें, फिर भी सर्जनात्मक साहित्य में कुछ भी स्वीकार्य है परन्तु लेखक के जोखिम पर । यदि उसको प्रकाशक न मिला तो, या प्रकाशक मिल गया परन्तु वह पाठकों तक नहीं पहुँच पाई तो, वह अपनी रचना के साथ ही रसातल को चला जाएगा। यहीं सही अनुपात और सन्तुलन का प्रश्न आता है।‘’

’’तुमको हिंग्लिश से कोई ख़तरा नहीं महसूस होता ।‘’

''तुमने भवानी भाई की वे पंक्तियॉं पढ़ी हैं : जिस तरह मैं बोलता हूँ उस तरह तू लिख / और उसके बाद भी मुझसे बड़ा तू दिख । इसका अर्थ जानते हो तुम ।''

'' क्या बात करते हो, यदि बोलचाल में किन्हीं शब्दों और पदबन्धों का प्रयोग होता है तो उसे लिखना गलत कैसे हो सकता है। उसे लिखा जाना चाहिए। गरज कि हिंग्लिश से किसी को शिकायत है तो वह दकियानूस है।‘’

''देखो, हिंग्लिश शब्द नया है, उर्दू की तरह अंग्रेजी शब्दबहुल भाषा के लिए एक नया शब्द । और जानते हो इसकी संभावना ग्रियर्सन ने आज से सौ साल से भी पहले लिग्विस्टिक सर्वे आफ इंडिया में ही जता दी थी। उस सर्वे में भयंकर गलतियां हैं फिर भी वह आज भी एक महत्वपूर्ण कृति है। अब कंठस्थ तो किया नहीं कि तुम्हें सुना दूँ, परखने के लिए तुम्हें ही उस रपट को पढ़ना पड़ेगा। परन्तु एक बात तुम्हारे ध्यान में नहीं आई कि कवि ने यह नहीं कहा कि जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख। यदि लिखता तो उसकी अगली पंक्ति होती, ‘और अपनी परिधि में सिकुड़ा हुआ तू दिख।‘’

''तुम कहना क्या चाहते हो, अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग हिन्दी में नहीं होना चाहिए।''

'' क्या मेरे पास या किसी के भी पास इतनी ताकत है कि वह यह निर्देश दे सके कि बोलते समय लोग अमुक शब्दाभंडार का प्रयोग करेंगे और यदि इसका उल्लंघन हुआ तो उनको दंडित किया जाएगा, या सामाजिक रूप में बहिष्कृत किया जाएगा।''

‘’है तो नहीं।‘’ वह इस तरह बोला मानो अपना सिर पीट रहा हो।

मैंने कहा, ''यह मेरी बात नहीं है, न इस विषय में मेरी जानकारी अधिक है पर सुना है एक भाषा के भीतर कई तरह की कूट भाषाऍं और कृत्रिम भाषाऍं और विशिष्ट तथा क्षेत्रीय भाषाएं व्यवहार में आती हैं। उनकी एक सीमित परिधि होती है जिसमें उन्हें समझा जाता है। इसी तरह विचारों की भी परिधि होती है जिसमें मूर्धन्य ज्ञानी भी होते हैं परन्तु हमारी कसौटी पर मूर्ख और उनकी कसौटी पर हम, उनके प्रभावक्षेत्र में मूर्ख सिद्ध होते हैं। इनमें सभी सही होते हैं, गलत कोई नहीं होता, पर मूर्ख भी कई बार समझदारी की बात और काम करता है, और समझदार भी मूर्खता करते हैं और अपनी मूर्खताओं पर गर्व तक करते हैं। यह एक शास्त्रीय विषय है और इसके पचड़े में पड़ गए तो पता नहीं कहाँ जा कर लाश किनारे लगे। इसलिए मैं फिर भवानी भाई की पंक्ति पर आना चाहूँगा। जिस तरह मैं बोलता हूँ उस तरह तू लिख न कि जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख।

''उर्दू और हिन्दी का अन्तर यह नहीं है कि ये दो भाषाएं हैं, बल्कि यह दो भिन्न स्तरों की अभिव्यक्तियां हैं। उर्दू में जिस तरह वे बोलते हैं या बोलते तक नहीं, सोचते हैं उस तरह लिखने की कोशिश की जाती रही और की जाती है। यही दशा संस्कृतगर्भी हिन्दी की थी। हिन्दी उस जबान का नाम है जिसका मानदंड वह व्यक्ति तय करता है जो अधिक से अधिक साक्षर है और निरक्षर तो है ही। भाषा का चरित्र वहीं से निर्धारित होता है। ताकत लगाकर भी, राजशक्ति का प्रयोग करके भी आप उसे प्रभावित नहीं कर सकते, आपका असर खरोंच बन कर रह जाएगा। अत: जो अपनी कोठरी में या कोटर में बात करना चाहते हैं और यह चाहते हैं कि उनको अपनी कोटर के अनमोल बोल के कारण दूसरों से बड़ा समझा जाए उन पर दया की जा सकती है। उर्दू अपनी पहली ही परीक्षा में फेल हो गई। तुम जितनी भी कोशिश हिन्दी को उर्दू बनाने की करो, यदि तुम्हें बहुजन तक पहुँचना है तो वह हिन्दी बन जाएगी, हिन्दी मानी जाएगी। तुम उर्दू सिनेमा बनाओगे, कुछ शब्द जबरदस्ती भरोगे जो आम आदमी की समझ में नहीं आएंगे, वह उनका मानी संदर्भ को देख कर कयास से लगा लेगा क्योंकि वह इसे अपनी भाषा के ही अधिक पढ़े-लिखों की भाषा मानता है। वह हिन्दू मुस्लिम का भेद करके शब्दों को नहीं समझता। उर्दू के प्रति अति संवेदनशीलता ब्रिटिश काल में बढ़ाई गई जिससे हिन्दी भाषियों के साथ इनका संचार तक सीमित रह जाए।



एक और कसौटी बता दूँ । जिस भाषा में गलतियां सहने की आदत होती है वही महान भाषा बन सकती है। खीच तान कर भी यदि आपका आशय समझ में आ गया तो सिर माथे। हिन्दी में यह सराहनीय गुण अंग्रेजी के बाद आएगा, परन्तु है यह इन दोनों के बीच का ही मुकाबला और भारत की अपनी सीमाओं के भीतर यही कसौटी बन सकता है। उर्दू तलफ्फुज या शूद्ध उच्चाररण पर इतना जोर देती रही कि जिस भाषा के नाम पर पाकिस्तान बना उसमें भी वह स्वीकार्य न हो सकी और भाषा को ले कर कई तरह के टकराव पैदा हो गए जिनमें सबसे बड़ा आघात उसके ही पूर्वी भाग के अलग राष्ट्र बनने के रूप में मिला।

‘’परन्तुू देखो, इतिहास ने भले सच साबित किया हो, समाज में अपने रागबन्ध में बँधे हुए लोग हमारी बात को मान लेंगे, यह सोचना तक नासमझी होगी।‘’

‘’परन्तु हिन्दी एक महान भाषा है यह तुम्हें नहीं कहना चाहिए था, तुम हिन्दी के लेखक हो। अपने मुँह से अपनी तारीफ ही नहीं, अपने से अनन्य किसी भी चीज की, चाहे वह भाषा हो या देश, या धर्म, हमें इनके प्रति निष्ठा समर्पित भाव से दिखानी चाहिए, महान कह कर पल्ला नहीं झाड़ लेना चाहिए।‘’

’’यह सलाह तो मैं देने वाला था, तुम्हारे पल्ले कैसे पड़ गई? पड़ गई तो मैं खुश हूँ कि अत तुम मेरे करीब आते जा रहे हो।”

‘’तुम्हारे करीब मैं? बैठना तो पड़ता है पर होना मुश्किल है।‘’

’’जानता था, यह तुम्हारी किस्मत में नहीं, फिर भी यह जान लो कि हिन्दी और उर्दू में बुनियादी फर्क नहीं है। भाषा का चरित्र उसके व्याकरण से तय होता है, उसके वक्ताओं की आनुपातिक संख्या से तय होता है, उसकी परंपरा से तय होता है और सबसे अधिक उसके निरक्षर या नाममात्र को साक्षर लोगों की जबान से तय होता है और इसलिए एक पृथक भाषा के रूप में अपने सभी प्रयोगों में उर्दू विफल रही, परन्तु एक पृथक शैली के रूप में इतनी सफल रही कि हिन्दी बोलने वाला भी बात बात पर या तो उर्दू का कोई शेर जड़ देता है या संस्कृत या हिन्दी की सूक्तियां बोल जाता है। हिन्दी के उन्हीं कवियों की भाषा में प्रवाह मिलता है जिन्हों ने उर्दू की शायरी से कुछ सीखा हो और इसका कारण अरबी फारसी के शब्द नहीं हैं, अपितु यह कि उर्दू कवियों में आरंभ में सूफियों का बोलबाला रहा और सूफियों ने सबसे पहले हमारी बोलियों को पहचाना, उनके माध्यम से जन जन तक पहुँचने का प्रयत्न किया, उनके मुहावरे और उनकी भाषा की रवानगी पर उर्दू की नींव रखी गई इसलिए उर्दू का ज्ञान हमें समृद्ध करता है, रंक नहीं बनाता।

"झगड़ा दर अस्ल भाषा का नहीं लिपि का था। लिपि भाषा नहीं होती यह हम जानते हैं, पर लिपि के साथ भी हमारा भावनात्मक लगाव होता है और मुस्लिम समुदाय का पान इस्लामिक आकांक्षाओं के कारण अधिक गहरा था । लिपि न कि भाषा उन्हें दूसरे मुस्लिम देशों से जोड़ती थी। कुुछ लोगों को यह बिल्कु्ल तुच्छ समस्या लगेगी, अवैज्ञानिक तो है ही। सामी भाषाओं के लिए विकसित लिपि तथाकथित आर्य भाषाओं के उपयुक्त नहीं है। बर्नार्ड शा ने तो अंग्रेजी की वर्तनी के सुधार का मार्ग नागरी में देखा था और अपनी संचित संपदा की वसीयत उस आदमी के नाम करने को कहा था जो अंग्रेजी की वर्तनी सुधार दे। पर भावना के क्षेत्र में तार्किकता सिर धुन कर रह जाती है अन्यथा हमने पूरे देश को जोड़ने के लिए अपनी लिपियों को जो सभी ब्राह्मी से निकली है, एक कर लिया होता और आपसी दूरियां कम हो गई होतीं। न हुआ, न होने वाला है"

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