नाच न जाने आंगन टेढ़ा

“तुम को कभी कभी पीटने का मन करता है।“

“इसमें बुराई क्या है।  जिसके पास जो औजार है उसी का इसतेमाल तो करेगा। अक्ल होती तो अक्ल की बात करते, नहीं है तो लाठी डंडे से ही बात करो। लाठी- डंडा ले कर आना चाहिए था। खाली हाथ क्यों चले आए।“

“ मैं मज़ाक नहीं कर रहा हूँ। मुझे अपनी बात रखने का मौका दिए बिना ही उठ जाते हो, ‘चलो, अब चलें!’ के अन्दाज में। यह बात करने का कोई तरीका है?

“तो अब कह लो, जो कल न कह पाए।“

“तुम पढ़ते-लिखते हो भी या जो जी में आया बकते चले जाते हो?”

“सोचता हूँ जब पढ़ने वाले आसपास हैं, तो उनको सुन कर जान लूँगा, देखने वाले कम हैं, जितना देख सकूँ देखूँ। तुम बताओ क्या पढ़ना रह गया मुझसे?”

“तुमने कहा, सारे दंगे कांग्रेस ने कराए हैं। उस शोध कार्य का पता है जिसमें बताया गया है कि दंगे इसलिए भड़कते रहे कि पुलिस बल का सांप्रदायीकरण हो गया था।  और जानते हो, यह ऐसी पाये की बात है, जिसके लिए अंग्रेजी में एक मुहावरा है, ‘फ्राम हार्सेज माउथ।“

“मुहावरे कई बार समझ में नहीं आते। तुम कह रहे हो वह सांप्रदायिक हो चुका था, और बता रहा था कि वह कैसे सांप्रदायिक हुआ?”

“नहीं, वह सांप्रदायिक हो चुका होता तो यह बताता क्यों। वह अकेला बच रहा था और दूसरे सभी सांप्रदायिक हो चुके थे।“ 

“क्या उसमें यह भी है कि कब तक सांप्रदायिक नहीं थे और कब और किन कारणों से सांप्रदायिक होने लगे और सांप्रदायीकरण की व्याधि कयों इस कदर फैलती चली गई कि उसके सिवा कोई बचा ही नहीं।“

“वह अचकचाया।“

“फिर तुमने मुहावरा भी गलत चुना। घोडे के मुँह से नहीं, तुम्हें कहना चाहिए था साईस के मुँह से। वह जिसे घोड़ों को साधने और सही खूराक देने, सही हालत में रखने की जिम्मेदारी दी गई थी, वह अपना काम करना तो जानता ही नहीं था, दोष उनको दे रहा था जो उसकी लापरवाही या बेवकूफी से सांप्रदायिक होते चले गए थे। इसके लिए भी अंग्रेजी में और हिन्दी में भी और सच कहो तो दूसरी भाषाओं में भी मुहावरा मिल जाएगा । अंग्रेजी का मुहावरा है अनाड़ी कारीगर अपने औजार को दोष देता है। ए बैड वर्कमैन ब्लेम्स हिज़ टूल्स। इसका हिन्दी रूप हैं नाच न आए आँगन टेढ़ा। और मैंने दूसरी भाषाओं में भी  इसलिए कह दिया कि  इसी बीच तमिल मुहावरा ‘नाट्ट माट्टादु तेवळियाळुक्कु कूलम् कोणम्” याद आ गया अर्थात नाच न जानने वाली देवदासी को आँगन टेढ़ा लगता है। खैर, तुम उस आदमी से कभी मिले हो?”

“मिलने न मिलने से क्या होता है?” 

“मिलते तो पता चलता कि वह नजदीक की चीजों को देख पाता है या नही?”

“तुम्हें बातों को विचित्र बनाने का रोग है।“

“भई ये लोग जो सर्विसेज की तैयारी करते हैं न, उन्हें बहुत दूर की चीजें देखने की ऐसी आदत पड़ जाती है कि नजदीक की चीजें देख नहीं पाते। वे चर्मचक्षु से नहीं लोभचक्षु से देखने लगते हैं। वह दोहा, बिहारी का है, शायद, ‘दिये लोभ चसमा चखनु लघु पुनि बड़ो दिखाय।’ तो उन्हें थोड़ी भी चीज बहुत बड़ी और बहुगुणित दिखाई देने लगती है।  उसे जब अपने विभाग को, कम से कम अपने अधीनस्थ बल को अपने नियन्त्रण में रखना चाहिए था, निर्देशों- आदेशों का सही पालन करना सिखाना था तब उस जरूरी काम को छोड़ कर वह शोध कार्य करने लग गया। शोध की प्रेरणा और सूझ या तो कहीं से मिली होगी या उसने खुद ही भाँप लिया होगा कि कहाँ से किस तरह क्या हासिल किया जा सकता है। यह बताओ इतने निकम्मे साईस को सिपहसालार का ओहदा मिला या नहीं?”

“सिपहसालार तो वह पहले से था। उसे और क्या चाहिए था?”

“कुछ उससे भी बड़ा। वह जिसे मैंने कहा था, छोटा मोटा उपराज्य!”

वह थोड़ी देर सोचता सा लगा और फिर जोर की धौल मेरी जाँघ पर मारते हुए हँसा, ‘‘अब समझा, अब समझा, हाँ भाई मिला तो, मिला तो, वह वाइस चान्सलर हो गया था।“  

‘‘तुम पता यह भी लगाना कि वह अलीगढ़ पावर सेंटर से तो नहीं जुड़ा। मैंने सुना जुड़ा था। वहाँ से जुड़ने के बाद लोग अपना काम भूल जाते हैं और इतिहासकार बन जाते हैं, इतिहास में हिन्दुओं को शास्त्रीय गालियाँ देने की योग्यता अर्जित कर लेते हैं। कोसंबी जैसा विलक्षण प्रतिभा का आदमी अलीगढ़ पावर सेंटर से जुड़ने के बाद अपनी डगर भूल गया था। 

“मैंने सुना इसने भी रास्ता उधर ही मोड़ लिया था। उस पावर सेंटर का प्रताप ऐसा है कि उसे इतिहास का निर्माता कहा जाता है। उसके कंट्रोलर की महिमा में जो प्रशस्ति ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था और जिसमें साम्प्रदायिक पैंतरेबाजी में माहिर सारे इतिहासकारों के लेख थे उसका शीर्षक कुछ ऐसा ही था। इतिहास निर्माता जैसा। इतिहास में केवल यह तलाश कर के कोई ला दे कि हिन्दू इतिहास, हिन्दू समाज, हिन्दू मूल्य कितने गर्हित है, हिन्दू समाज कितना सांप्रदायिक है, हिन्दी और हिन्दुस्तान सांप्रदायिकता से जुड़े हुए पद है, हिन्दी में लिखते हुए भी हिन्दी लेखकों को हिन्दीवाला कहने की आदत पड़ जाय तो उसे बाँस लगाकर ऊपर चढ़ा दिया जाता है। ऊपर वह चढ़ भी गया, अपना पुलिस का महकमा सँभाल न पाने वाले को उठा कर सर्वाधिकार संपन्न कुलपति बना दिया गया।’’

‘‘तुम विषय से भाग रहे हो और व्यक्तिगत आरोप लगा रहे हो जिसे तुम स्वयं भी अच्छा नहीं मानते।“

‘‘मेरा तो इस ओर ध्यान भी उसी ने दिलाया। उसने अपने ही पत्र के संपादकीय में साहित्य अकादमी के अध्यक्ष को सांप्रदायिक करार दे दिया और बताया कि वह इस पद के योग्य नहीं थे और इसे जोड़ तोड़ से हासिल किया है। तब मुझे सचमुच वह जोड़-तोड़ दिखाई दिया जो इस व्यक्ति ने किया था। अरे भई जोड़ तोड़ की भी अपनी साधना होती है। ये साधक लोग है सिद्धि प्राप्त भी।

”लगातार दस साल तक या कम से कम सौ अंकों तक एक पत्रिका अपने पैसे से निकाल कर वह ऐसे तैसे को भेजता रहा और इस तरह संपर्कसूत्र जोड़ते हुए उन भाषाओं के प्रतिनिधियों तक को पटा लिया जिनको हिन्दी साहित्यकारों से चिढ़ थी। अज्ञेय तक जिसे न पा सके उसे उसने पहली बार पाया। योग्यता इतनी बुरी नहीं। वक्ता अच्छा है, एक विश्वविद्यालय में अध्यक्ष रह चुका है और जैसा मैं पहले कह चुका हूँ संस्थाओं के शीर्ष पदो पर दोयम दर्जे के साहित्यकारों और विद्वानों को या चुके हुए लोगों को ही जाना चाहिए, क्योंकि वहाँ प्रतिभा की नहीं प्रबन्धन की आवश्यकता होती है। 

“परन्तु इस आत्मप्रक्षेपण में ही तुम्हारे शोधकर्ता का अपना रहस्य और अपना जोड़तोड़ भी उजागर हो गया। तभी तो कहता हूँ हम जो लिखते या बोलते हैं उसे लोग अपने ढंग से पढ़ते और सुनते हैं और अपने को परदे से ढकने की को शिश में भी लोग अपने को नंगा कर देते हैं।”

‘‘तुम जिसके पीछे पड़ जाते हो...’’

‘‘पीछे मैं नहीं पड़ा। मोर्चे पर तुमने सिपाही को खड़ा कर दिया । इसे तो यह भी पता नहीं कि वह जो नतीजा निकाल रहा था उसका मतलब क्या है?

‘‘मतलब भी तुम्हीं बता दो।’’

‘‘जिस नतीजे पर पहुँच कर भी वह उसका सारा दोष अपनों पर मढ़ देता है, वे सीधे एक नरसंहार के अपराधी हैं जिसके लिए अर्धसैन्य बल को उकसाया गया था। वे यदि स्वतः ऐसा कर बैठे तो उनके विरुद्ध शीघ्र और कठोर कार्रवाई सरकार को करनी थी, उसने उन्हें संरक्षण दिया। उन्हें बचाने का काम किया। अर्थात् पुलिस बल को कांग्रेसी दौर में योजनाबद्ध रूप में सांप्रदायिकत बनाया जाता रहा जिससे सांप्रदायिक समस्या बनी रहे और इसका चुनावी लाभ उठाया जा सके। असहिष्णुता कांग्रेस पैदा करती है और आज भी कर रही है।’’

‘‘बात तो हैरान करने वाली है पर, यार, नतीजा तो यही निकलता है।’’

‘‘देखो, पुलिस बल को अपनी ट्रेनिंग के दौरान कोई ऐसा पाठ नहीं पढ़ाया जाता जिससे उसे सांप्रदायिक बनाया जा सके। यदि पुलिस बल का सांप्रदायीकरण हो गया है तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं। उस समाज का सांप्रदायीकरण हो चुका है, जिसमें से पुलिस बल के लोग आते हैं, और अलीगढ़ पावर सेंटर के लिए इतना ही काफी है। 

“परन्तु यह सही होता तो उस समय से ही सत्ता दक्षिणपन्थी हाथों में होती जो नहीं थी। वह कांग्रेस को ही वोट दे रही थी। अतः हिन्दु समाज का सांप्रदायीकरण नहीं हुआ था न हुआ है। 

“अब दूसरा विकल्प बच जाता है, कि पुलिस बल को सत्ताधारी राजनीति योजनाबद्ध रूप में  सांप्रदायिक बना रही थी। उससे कहा तुर्कमान गेट तोड़ दो तो तोड़ने वालों के साथ खड़ी हो गई, मेरठ मलियाना या हाशिमपुरा कांड करा दो तो कराने को तैयार हो गई। वह तो हुक्म का इतना ताबेदार है कि सत्ता में बैठा आदमी कहे भैंस खोजने पर जुट जाओ तो भैंस खोजने चल देती है। पकड़े हुए अपराधी को छोड़ने को कहो तो छोड़ कर हाथ साबुन से धोने लगती है कि कहीं अपराधी की गन्ध उसके हाथ न लगी रह गई हो। 

“वास्तविक अपराधी का बचाव करने के कारण तुम्हारे शोधार्थी की भी मुरादें पूरी हुईं और अलीगढ़ पावर सेंटर की भी पूरी हुईं, नहीं तो आइ एस की तर्ज पर पहला जघन्य अपराध तो कांग्रेस के प्रशासन में हुआ था और उस समय अलीगढ़ केन्द्र में खामोशी थी और आज वही किसी का ठीकरा किसी के सिर फोड़ता हुआ चीत्कार कर रहा है।

11/17/2015 1:10:54 PM

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