इतिहास की गति - 2

“जब तुम कह रहे थे कि किसी परिघटना के असंख्य घटक होते हैं जिनमें से कोई एक न होता तो या तो वह घटित ही नहीं होती या किसी दूसरे रूप में घटित होती तो क्या तुम कुछ लोगों को जिम्मेदारी से बचाने के लिए कह रहे थे?”

“देखो इतिहास को हम पूरी तरह नहीं समझ सकते। मार्क्स जब कहते हैं कि व्यक्ति अपने आप में कुछ नहीं होता वह अपने युग की अभिव्यक्ति होता है या ऐसा ही कुछ तो वह व्यक्ति की भूमिका को नकारते नहीं हैं। यह रेखांकित करते हैं कि वह जो कुछ करता या करने का प्रयत्न करते हुए नहीं कर पाता वह अकेले उसके कारण नहीं होता। इसलिए वह इतिहास की समझ पर जोर देते हैं परन्तु कितने मार्क्सवादी हैं जो इसको समझते या इसका ध्यान रखते हैं। तुम देखो तो अधिकांश तो इतिहास से ही नहीं, उन स्रोतों तक से नफरत करते हैं जिनसे इतिहास को समझा जा सकता है और दूसरे हैं जो उन स्रोतों में ही जहर घोलते हैं कि इतिहास की समझ पैदा ही न होने पाए। तुम्हारे पेशेवर इतिहासकार तो लगातार यही करते आ रहे हैं।“

“तुम अपनी बात कहो, फिर हवाई सफर पर मत निकलो।“

“मैं हवाई सफर नहीं कर रह था न भाग रहा  था। कह मात्र इतना रहा था कि मैं जहां से आरंभ कररूंगा उसके पीछे भी बहुत कुछ अदृश्य रह जाएगा।“ 

“फिर भी।“

“देखो पुरातत्व की एक नियमावली है,  एक आचारसंहिता है और उसके संरक्षण के लिए कुछ कानून कायदे हैं, जैसे यही कि 1947 में में पुरातात्विक स्थल जिस भी हालत में था उससे किसी तरह की छेड़ छाड़ नहीं की जाएगी।“

“यह तो मैं भी जानता हूं।“

“इसके अनुसार ही जो मन्दिर, मस्जिद, पहले से पुरातत्व की संपदा है, उसमें पूजा-नमाज़ आदि नहीं होता उसमें पूजा वगैरह नहीं की जाएगी, उसमें कोई सजावट जोड़ तोड़ नहीं की जाएगी, यहां तक कि मरम्मत करते समय भी इस बात कर ध्यान रखा जाएगा कि यह लक्ष्य किया जा सके कि यहां पहले कुछ टूट गया था।“ 


“यह भी जानता हूं।“

“अब यह बताओ कि किसी देश का राष्ट्रपति ही इसका उल्लंघन करे तो क्या कहोगे?”

“किसकी बात कर रहे हो तुम?”

“फखरुद्दीन अली अहमद की। उन्होंने कहा कि पहले जवानी में मैंने एक बार कुदसिया मस्जिद में नमाज पढ़ा था इसलिए एक बार पढूंगा।“

“यह शुरुआत थी और उसके बाद दिल्ली के ही नहीं दूसरी जगहों पर भी धीरे धीरे दखल बढ़ने लगा और उनमें ढांचागत बदलाव भी किए जाने लगे। पुरातत्व विभाग शिकायत करता तो पुलिस से कोई मदद नहीं मिलती। समस्या को सांप्रदायिक नुक्ते से देखा जाने लगता और वह पीछे हट जाती। यह  प्रवृत्ति जिसे धार्मिक मुखौटे वाला अतिक्रमण कह सकते हो बेरोक टोक बढ़ता रहा है यह तुम जानते हो, उसी का यह दूसरा रूप था लेकिन इसकी जिम्मेदारी पुरातत्व विभाग पर नहीं थी।

“जिन दिनों भारतीय पुरातत्व के महानिदेशक पद पर मुनीश जोशी थे उन दिनों यह प्रवृत्ति रोकने के एक कोशिश उन्होंने ने की थी पर कोई नतीजा नहीं निकला। यह बात सबको मालूम थी कि जिसे बाबरी मस्जिद के नाम से उछाला गया उसका नाम मस्जिदे जन्मस्थान था। वह राम मन्दिर तोड़ कर ही बनाई गई थी भले यह सुल्तानी दबदबे का सिक्का जमाने के लिए किया गया हो या मजहबी जुनून में या दोनों इरादों से। उसकी पुरानी तस्वीर पर नज़र डालो तो भी पता चल जाएगा कि यह एक भव्य ढांचे को तोड़ कर उसके मलमे के (Ramkot Hill ("Rama's fort").) ऊपर बनाई गई थी। 

तुलसी दास जब ‘मसीत को सोइबो’ की बात करते हैं तो वह यही मसीत है। इसके बाद दहशत का माहौल जारी रहा और लोगों ने घरों के अन्दर पूजापाठ के कोने या अपने अपने मन्दिर बना कर पूजा पाठ शुरू किए जिसका अन्देशा होने पर भी कुछ सिरफिरे घरों में घुस कर उन्हें तोड़ देते थे जिसमा दुखड़ा तुलसी दास रोते दिखाई देते हैं। यह स्थिति अकबर के समय तक बनी हुई थी क्योंकि अकबर स्वयं उदार हो सकते थे उनके अधीनस्थ अधिकारी और सिपहसालार उनके समय में भी अपनी ही करते थे।“

“तुमने उनका वह दोहा पढ़ा है न ‘गोंड़ गंवार नृपाल कलि जवन महामहिपाल’’ कि सिलबट्टे तक को यह कह कर तोड़ देते थे कि इसकी भी पूना की जाती होगी। अयोध्या में रामभक्ति ऐसी कि घर-घर में मन्दिर थे पर कोई सार्वजनिक मन्दिर नहीं। तुलसी तो कलिकाल को दोष देकर सब्र कर लेते थे पर यह बात आम जानकारी में थी कि यह रामजन्मभूमि पर बनी मस्जिद है।

खीझे हुए मुनीश जोशी ने स्वराज्यप्रकाश गुप्त को जो संघ से जुड़े थे और  शाखा में भी जाते थे, कहा कि वह राममन्दिर के सवाल को क्यों नहीं उठाते।  

“अब फिर क्या था। स्वराज्य प्रकाश गुप्त की पहल थी जिसमें साधुओं संन्तों का वह जमघट और प्रदर्शन लालकिले के सामने हुआ था और इसी के साथ हुआ था विश्वहिन्दू परिषद और का गठन। इसके साथ ही भाजपा पर लद गया था मन्रि का कार्यक्रम, साधुओं का जमघट और राजनीतीकरण और विश्व हिन्दूपरिषद का अभियान

पेशेवर इतिहासकारों ने सर्वविदित और सर्वमानय को सन्दिग्ध बनाने के लिए अपना पूरा जोर लगा दिया। वे ठोस प्रमाण की मांग करने लगे। राम की ऐतिहासिकता का सवाल उठाते रहे। गरज की राम ऐतिहासिक हों तो ही उनका मन्दिर बन सकता है अन्यथा नहीं। ये इतने चालाक लोग हैं कि इन्हें हर मसले को उलझाना आता है और अच्छे अच्छों को मूर्ख बनाना आता है, पर किसी परिघटना को समझते केवल इसक कोण से हैं कि इससे उनको क्या मिलेगा।  सवाल पेशे का ठहरा। वे लोगों को मूर्ख बनाते रहे। इसके बाद जरूररत हुई ठोस प्रमाणों की तो

मुनीश ने ब्रजबासी लाल को जो रामकथा से जुड़े स्थलों की खुदाई कर चुके थे इसके सटे पड़ोस में खुदाई का कार्यभार दिया और वहां पुरातात्विक प्रमाण भी निकल आए।  

ये उनको भी झुठलाने का प्रयत्न करते रहे। खैर अब तो मामला कोर्ट कचहरी का बन चुका है और उससे हमें मोई लेना देना नहीं।

मैं केवल यह कहना चाहता हूं कि अप्रिय से अप्रिय सत्य को झुठलाने या छिपाने से इतिहास विषाक्त होता है और इतनी समझ जिनमें नहीं है वे चाकरी-पेशा भले करते हों, इतिहासकार नहीं हैं। 

“स्वराज्य प्रकाश गुप्त की हैसियत क्या थी? विद्वान थे वह। बहुत अच्छे पुरातत्वविद थे। परन्तु अपनी चाकरी से अलग थे मात्र संघ के स्वयंसेवक।  अकेले उनका निर्णय। भाजपा से उनको नफरत के हद तक चिढ़ थी क्योंकि उनका मानना था कि ये लोग राजनीतिक लाभ के लिए कोई समझौता कर सकते हैं। उनके हस्तक्षेप के कारण सन्तसमाज का राजनीतीकरण और विश्व हिन्दू परिषद दोनों का भाजपा के उपर लद जाना कितनी छोटी सी घटना और कितना बड़ा मोड़.

“तुम जानते हो भाजपा की मन्दिर की लड़ाई अकादमिक स्तर पर स्वराज्यप्रकाश गुप्त लड़ते रहे। कम से कम प्रधानता उनकी ही थी। 

“अरे भाई वह तो तुम्हारे भी दोस्त थे, रोका क्यों नहीं।“

“मैं तो उनकी शाखा का मजाक उड़ाता था और निकर कल्ट का भी। पर जब तुम्हें कुछ सिखा नहीं पाता तो उन्हें कैसे सिखा पाता।

“यह सब सबाल्टर्न मामला है। कहने में कुछ इधर उधर भी हो जैसा याद रह गया है बता दिया। सकता है। दरयाफ्त करते ठीक कर लेना। अब तुम स्वयं देखो, यदि इनमें से कोई भी कड़ी गुम होती तो घटनाक्रम क्या दिशा लेता। इसलिए इतिहास में  किसी को अपराधी सिद्ध कर ना आसान है उसे और अकेले उसे जिम्मेदार मानना गलत है। जब तुम इस तरह व्याख्या करना सीख जाते हो तो जो विषाक्त था उसका विष समाप्त हो जाता है और वह अपराधी स्ख्यं एक निमित्त बन कर रह जाता है। 

तोल्स्तोय युद्ध और शान्ति के उपसंहार में यही तो करते हैं जिसमें नैपोलियन महानायक से एक तुच्छ खिलौने में बदल जाता है। मात्र एक निमित्त।

“और ठीक यही बात जो तोल्सतोय कहते हैं गीताकार कहता है जिसमें वह काल प्रवाह में कर्ता को मात्र एक निमित्त मानता और बनने की सलाह देता है। कालोस्मि लोकान्द्वायकृत प्रवृद्ध: लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः। भारत में इतिहास भी था और एक गहरा इतिहासबोध भी था, मानोगे?”

“तुम तो निरे भाग्यवादी हो भाई। भाग्यवाद ने इस देश का बेड़ा कितना डुबोया है इसका पता है?”

“मैं नहीं जानता भाग्यवाद की तुम्हारी व्याख्या क्या है, पर मेरी समझ से जो मानता है उसके बस का कुछ नहीं, जो भाग्य में लिखा होगा वही होगा और इस सोच के कारण जिसकी कर्मठता घट जाती है वह भाग्यवादी है। जो मानता है भले हमारे वश में सब कुछ न हो परन्तु हमारे किए ही जो होना है उसके बिना तो उतना भी नहीं बदलेगा जो मैं बदल सकता हूं या बदलने का प्रयत्न करता हूं और इसलिए अधिक तत्परता से, अविचलित भाव से काम करता है, वह कर्मयोगी है। और जो सोचता है मैं जो चाहूं कर सकता हूं, वह जितना भी विद्वान या शक्ति-साधन-सम्पन्न हो, वह उसी अनुपात में प्रचंड मूर्ख है और सत्यानाश की जड़ भी। मैं अपने को दूसरी श्रेणी में गिनता हूं और तुम चाहो भी तो अपने को तीसरी श्रेणी में आने से बचा नहीं सकते।“

11/14/2015 3:42:02 PM

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