तानाशाही का खतरा

तानाशाही के खतरे वाली जो बात तुम कर रहे थे वह तो सचमुच सम्भव लगती है. इस आदमी में तानाशाही प्रवृत्ति कूट कूट कर भरी है. उसका चेहरा नहीं देखते. बोलता है तो लगता बुलडॉग भौक रहा है पंजे मारता हुआ.”

मैंने कुछ खिन्न स्वर में कहा, "तुम्हे तुम्हारी पार्टी ने संस्कार में यही दिया? इससे आगे बढ़ने का मंत्र तक नही सिखाया?"

उसका चेहरा देखने लायक था.

मैं उस पर सवार हो गया. “देखो, तुम किसी व्यक्ति का अपमान नहीं कर रहे हो. अपने देश के प्रधान मन्त्री का अपमान कर रहे हो. उस जनता का अपमान कर रहे हो जिसने उसे सर माथे चढ़ा लिया. और अपना भी अपमान कर रहे हो क्योंकि तुम उस देश के नागरिक हो जिसका प्रधान मन्त्री वैसा है जैसा तुमने बनाना और दिखाना चाहा.” 

“गलती हो गई भाई. माफ़ भी करो.

“गलती नही हुई है यह तुम्हारी आदत का हिस्सा बन गया है वरना यह बात तुम्हे कल ही समझ में आ गई होती, और इस गलती की नौबत न आती. बुरा मत मानना, साम्यवाद की लोरी सुनाते-सुनाते तुम्हे ऐसा घोल पिलाया जाता रहा की तुम आदमी से भेड़िये में तब्दील हो गए. तुम्हे अविजेय बनाने के लिए असरदार नारेबाजी और हंगमेबाज़ी की आदत डाली जाती रही. तुम्हारा सबसे प्रबुद्ध वर्ग तो मज़दूर वर्ग है. सर्वहारा. उसकी भाषा तुम्हारे सुशिक्षित प्रतिबद्ध वर्ग की आदर्श भाषा बन गई. वह  समादृत संबंधों के स्वजनों परिजनों के अंग-उपांग का नाम लेकर प्रजनन प्रक्रिया से जुड़े शब्दों का प्रयोग गाली के रूप में अपने कथन को प्रभावशाली बनाने के लिए करता है, तुमने गालियों का स्तर थोड़ा ऊपर कर दिया. तुमको किसी ने बताया नही कि यह फासिस्टों और नाज़ियों की भाषा है और इसी धज में तुम्हे लम्बी ज़बान और छोटे दिमाग के साथ फासिज़्म से लड़ने को खड़ा कर दिया गया जब कि तुम्हे यह बताया तक नहीं गया कि फासिज़्म है क्या बला, किन परिस्थितियों में पैदा होता है, वह अपने भीतर से ही कितना खोखला होता है. बताया सिर्फ यह गया कि अन्य गालियों की तरह फासिज़्म भी एक गाली है. जिसकी ज़बान बंद करनी हो उसे फासिस्ट कह दो और डंका बजाओ. अब तुम्हे अपने भेड़िये से लम्बी जंग लड़नी होगी दुबारा आदमी बनने के लिए.”

वह अब फूटा तब फूटा की स्थिति में था. मैं आवेश में बोल तो गया पर ग्लानि मुझे भी थी. दोष उसका तो न था. एक ज़माने में मैं यह भाषा भले न बोलता था, पर मुझे यह बुरी क़तई नहीं लगती थी. आधा गांव के कुछ चरित्रों की भाषा आज भी गलत नहीं लगाती. प्रश्न औचित्य का है. कुछ देर तक हम चुप बैठे रहे. जब चुप्पी भारी पड़ने लगी तो बात उसे ही शुरू करनी पड़ी, "मैंने कुछ शख्त बात कह दी, उसका खेद है, लेकिन यह तो मानोगे ही की उसमें तानाशाही प्रवृत्ति है.”

“भले मानस, खेद हुआ और ज़बान संभाली तो कम से कम 'उनमे' तो कहा होता. चलो माफ़ किया. एक दिन में हुआ भी तो कितना सुधार होगा. 

“रही बात तानाशाही प्रवृत्ति की तो यह प्रवृत्ति तो मुझमें भी है. तुम मेरे लिखने-पढने के कमरे को देखो तो बस केआस नज़र आएगा. चीज़े बिखरी हुई हैं. जो अपनी किताबें और कागज़ संभाल नही पाता वह भी सोचता है कि अगर मौका मिले तो मैं दुनिया को इस तरह चलाऊँ. तानाशाह होना सभी चाहते हैं. कम से कम वे जो अपने घर परिवार को किसी आदर्श संस्था के रूप में चलाना चाहते हैं, छोटे मोटे तानाशाह ही बने रहते हैं. तानाशाही इतनी बुरी चीज़ नही है. हाँ दुरुस्त भी नहीं है. तानाशाह तो गांधी जी भी बनना चाहते थे और सच कहो तो जब तक उनकी चली तानाशाह ही बने रहे. नेहरू ने तो अपनी तानाशाही आकांक्षाओं के बारे में एक लेख, माडर्न रिव्यू में एक लेख चाणक्य के नाम से लिखा था. बाद में किसी ने पूछा, क्या अब भी आप में वह प्रवृत्ति है, तो कहा, "मैंने पहले ही इसे भांप लिया था इसलिए बच गया.' बचे वह भी नही पर कोशिश करते रहे. वह प्रवृत्ति उनमे बनी रही, इंद्रा जी में उभर आई पर इस प्रवृत्ति से लड़ने की कोशिश वह भी करती थीं, केवल कभी कभी. संजय में यह ज़बरदस्त थी. मूर्खता की हद तक. मेंनका में भी उतनी ही प्रबल है. जो लोग निर्माण करना चाहते हैं वे जो कुछ जिस तरह बनाना चाहते हैं उसमे बाधा न पड़े, सभी एक लय में, तालमेल से काम करें, उस सपने को साकार करने को जो महत्वाकांक्षी व्यक्ति को तानाशाह बनाती है. फिल्म का डायरेक्टर, टीम का कप्तान, ऑर्केस्ट्रा का संचालक, सेना का नायक सभी तानाशाह ही होते है. तानाशाही प्रवृत्ति का मूल यही है. और तुम को तो ऐसा सोचना भी नहीं चाहिए. तुम लोग तो स्वयं तानाशाही के पक्षधर हो.”

“अरे भई वह तानाशाही किसी व्यक्ति की नहीं होती.”

मैं हंसने लगा तो वह सकपका गया. 

"पहले इस कटु सत्य को समझो कि मोदी एक विषेष ऐतिहासिक परिस्थिति की उपज है। इतिहास पुरुष है। उसे भारतीय जन समाज ने 2013 में तानाशाह के रूप में...”

"2013 में नहीं, 2014 में और तानाशाह के रूप में नहीं, भावी प्रधानमन्त्री के रूप में। तानाशाह वह खुद बनना चाहता है। जब तुम इतनी मामूली बातें भी नहीं समझ पाते तो ...

मैंने उसे वाक्य पूरा करने ही नहीं दिया, "2014 में निर्वाचन हुआ और जनता पार्टी जीती। जनता ने तो 2013 में ही उपलब्ध तानाशाहों में से किसी एक को चुनना आरंभ कर दिया था - अडवानी को इतने नम्बर, राहुल को इतने, सोनिया को इतने, नीतीश को इतने और मोदी को इ-त-ने। एक बार नहीं, बार बार मोदी को इ-त-ने नम्बर मिलते रहे। जब किसी एक व्यक्ति को केन्द्र में रख कर पूरा चुनाव हो तो जीत या हार किसी दल की नहीं होती, तानाशाह की होती है। 

“जनता का विश्वास कांग्रेस के कारनामों के कारण लोकतन्त्र से उठ गया था। वह तानाशाह चुन रही थी और मोदी को चुन लिया था। कर्मकांड 2014 में पूरा हुआ। कांग्रेस 2013 में मान चुकी थी कि वह हार गई और जल्दी जल्दी जो जर जमीन हथियाया जा सकता था उसे हथियाने पर जुट गई थी फिर भी एक आखिरी बाज़ी उसने लगाई, सबको भोजन का अधिकार. समाज ने समझा 'सब कुछ खा जाने का अधिकार.’ उसने कांग्रेस को यह बता दिया कि देश-हित तुम्हारी प्राथमिकता नही. उसने उसे हराया नहीं धक्के देकर बाहर कर दिया, यह देश का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है परन्तु इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है,"

अकेली ऎसी पार्टी जिसका देशव्यापी जनाधार था, जो ही विकल्प बन सकती थी, उसने अपना नैतिक औचित्य खो दिया. वह हारी नही. लोकतंत्र में हार-जीत होती रहती है. कांग्रेस का सफाया हो गया फिर भी प्रबल शक्ति बन कर सत्ता में आई क्योंकि जिस विकल्प ने उसे सत्ता से बाहर किया था वह धँस गया. कोई दूसरा विकल्प ही न था. इस बार कांग्रेस हारी नही है, अपनी भ्रष्टता के कारण अपना नैतिक अधिकार खोकर धंस गई है और अब नेहरू परिवार से बाहर आकर भी अपने मलबे संभाल नही सकती. दुखद स्थिति है, पर है. क्या किया जा सकता है.

इसमें आशा की किरण एक ही है कि लोगों ने भले तानाशाह चुना हो, इस व्यक्ति को लोकतंत्र में इतना अडिग विश्वास है कि यह अपना विकल्प स्वयं पैदा करेगा. पर वह विकल्प या विपक्ष विकास की नीतियों से संचालित होगा, जाति और धर्म से नही.

“और जानते हो यह भी मोदी के कारण नही होगा, इतिहास के कारण होगा. पूंजीवादी विकास के कारण होगा. तानाशाही पूंजीवाद को रास नही आती. तानाशाही मध्यकालीन मनोवृत्ति है. मोदी को इसकी समझ है दूसरों को नही. वह बार बार इसकी याद दिलाते हैं कि यह लोकतंत्र की महिमा है की एक चाय बेचने वाला देश का प्रधानमंत्री बन गया. यह भारत में उभरते पूंजीवादी दबाव की भी महिमा है या नहीं?

“जनता ने भले तानाशाह चुना हो वह तानाशाह लोकतान्त्रिक बने रहने कि लिए संघर्ष कर रहा है, दुश्मनो और सगों दोनों से एक साथ लड़ता हुआ.”

11/2/2015 7:21:49 AM

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