सांस्‍कृतिक स्‍तर

"अपने बारे में तो और खराब है. न होती तो सर्जनात्मक लेखन छोड़ कर इधर उधर सर मारता? देखो, साहित्यकारों और लेखकों के जो कोश प्रकाशित हैं उनमें मेरा नाम नही मिलेगा. मेरी रचना के साथ मेरा परिचय दिया जाय तो मुझे बुरा लगता है. चाहता हूँ पाठक मुझे उसी तरह पढ़े जैसे उस रचनाकार को जिसकी रचना पहली बार छप रही हो. मैं अपने पाठक से बराबरी के स्तर पर, बराबरी भी न कहो, घरेलू आत्मीयता के साथ दुराव रहित भाव से मिलना चाहता हूँ."

"यह किसी ग्रंथि के कारण होगा. दूसरे लोग ऐसा नही करते."

"हर एक चीज़ के पीछे ग्रंथि ही नही होती नहीं तो जो झूठ बोलने से बचता है उसे तुम सत्यग्रन्थि से पीड़ित करार दे दोगे. यह सामान्य सी बात है कि लोग अधिक से अधिक पाना चाहते हैं, अधिक से अधिक ऊपर जाना चाहते हैं और अपनी सभी योग्यताओं और साधनों का प्रयोग इसके लिए करना चाहते हैं. ऐसे व्यक्ति यों के सभी काम और सरोकार अपने कैरियर से जुड़े होते हैं. वे इसके लिए सभी तरह के हथकंडे अपनाते हैं. हमारे काव्यशास्त्रों में भी लिखा है काव्य का एक लक्ष्य यश प्राप्ति होता है, दूसरा धन प्राप्ति. इसके बाद थोड़ी जगह लोक कल्याण की भी रहती है. दूसरे समाजों में भी यही माना जाता है. इसलिए दूसरों का ऐसा करना स्वाभाविक ही है. पर..."मैं रुक गया.

"हाँ हाँ, बोलो रुक क्यों गए."

"छोड़ो वह बात."

वह ज़िद करने लगा, "अब तो बतांना ही पडेगा."

"देखो यश और धन की कामना चिंतक और सर्जक को टुच्चा बना देती है. वह याचक बन जाता है. परमुखापेक्षी हो जाता है क्योंकि इनको देने वाले दूसरे होते हैं. वह अपनी महिमा से गिर जाता है. समग्र भाव से लोक हित की चिंता अकेली ऎसी चीज़ है जो उसकी गरिमा को बनाये रहती है.  

हित नही, हित नही, सीधा जुड़ाव. कलाचतुरी नही मार्मिक संचार. उसके बाद लेखक इतना  संतुष्ट अनुभव करता है कि उसे किसी से कुछ नही चाहिए. आप्तकाम, ऐसा लेखक किसी से नहीं डरता. किसी को आहत भी नहीं करता. उसे लोकचित्त की इतनी अच्छी समझ होती है कि जहां वह किसी विकृति पर प्रहार भी करता है तो वे भी जिन में ये प्रवृत्तियाँ हैं उसका सम्मान ही नही करते उसके माध्यम से अपनी व्याधि को जान कर उससे मुक्त होने का प्रयत्न करते है."

"तुम अपनी प्रशंसा कर रहे थे."

मैं हंसाने लगा, " मेरी ऎसी क्या औक़ात. हाँ मैं इस दिशा मेँ प्रयत्न करता हूँ इसलिए दूसरी किसी दिशा में प्रयत्न की ज़रूरत नहीं समझता. समय ही नहीं बचता. जो पहली दोनों आकांक्षाओं, यशसे और अर्थकृते, को प्रधानता देते हैं वे पाने के तरीकों पर जितना समय व्यय करते हैं उतना लिखने और समझने पर नही. हंगामा बरपा करने वाले भी यही होते हैं पर अपने लाभ के लिए समाज को बहुत क्षति पहुंचाते हैं. देखना यह नहीं चाहिए कि ये कब कब बोले और क्यों, बल्कि यह भी कि ये कब कब चुप रहे और क्यों ? केवल यह नहीं कि क्या उजागर किया गया बल्कि कैसे उजागर किया गया? केवल यह नहीं कि किस पर हमला किया, बल्कि यह भी कि ऐसा करके किसे बचा ले गए?  जब मैं कहता हूँ कि इनके बारे में मेरी अच्छी राय नहीं है तो यह एक कारण है पर एकमात्र नही. उठो थक गए होगे."

ऋग्वेद के एक अर्धर्च पर रचा एक शेर. 

पद आया है अवसाना अनग्ना अर्थात ‘वस्त्र भी नही पहने है और नंगी भी नहीं है.’ एक दूसरा पद है ज्योतिर्वासाना अर्थात ‘प्रकाश का वस्त्र पहने हुए’. 

मेरा शेर है

हुस्न ऐसा कि नूर बन गया है पैराहन
न तन ढका है न तो आप बेलिबास ही हैं  

यह कलात्मक सौष्ठव किस सांस्कृतिक स्तर को व्यक्त करता है?

10/14/2015 11:13:17 AM

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