न समझे हैं न समझेंगे

न समझे हैं न समझेंगे कभी हिन्दोस्ताँ वाले
छिपे दुबके रहेंगे अपने अपने आशियानों में।
कुलों में जातियों, फिरकों में मजहब के झमेलों में
फसाना बन कर रहना चाहते हैं वे फसानों में।।

अदायगी की दाद दी तो वह सिर पर सवार हो गया। बोला लो कुछ और सुनाता हूँ।

मैंने रोक दिया। धीरज की परीक्षा मत लो। है तो यह इक़बाल की पैरोडी ही न। 

उसका उत्साह ठंडा पड़ गया। मानना पड़ा कि है तो पैरोडी ही, पर बताया कि उर्दू में पैरोडी को  ऊँचा दर्जा हासिल है। लोग दूसरों के मिसरे ले कर अगला मिसरा ठोंक देते हैं और इसी से अपने को उसकी बराबरी का मान कर आईने के सामने अपनी पीठ थपथपाते  हैं। फिर एकाएक छलांग लगाया, ‘यह बताओ, तुम्हें मुस्लिम लीग से ही घृणा क्यों है?’’

जी में आया एक जोर का मुक्का उसके मुँह पर, सीधे नाक पर, मारूँ और पूछूँ यह खयाल तुझे आया कहाँ से? पर सोचा मेरे मुक्के से इसका कुछ बिगड़े या न बिगड़े, उत्तेजित हो कर वह जो घूँसा जमाएगा, उससे मेरे होश हवास गुम हो जाएँगे। इसलिए समझदारी का आविष्कार करते हुए कहा, ‘‘क्या मैं यह नहीं कह आया हूँ कि जो जिससे घृणा करता है उसे समझ नहीं सकता?’’

उसके पास कोई जवाब नहीं था, चुप रहा, पर उस तरह की चुप्पी जिसका अर्थ होता है, उत्तर नहीं सूझ रहा है परन्तु मैं तुम्हारे विचार से सहमत नहीं हूँ।

‘‘मैं जानता था। सहमत होने या समझने के लिए भी कुछ समझ तो होनी चाहिए’’  

‘‘पहेलियाँ मत बुझाओ।“

क्या तुम्हें पता है कि मुस्लिम लीग अंग्रेजों की चाल से ही नहीं, हमारी मूर्खता और बंगाली स्वार्थपरता से पैदा हुई थी। देखो यह मेरी समझ है। कोई दूसरा इसकी छानबीन करे तो इसमें गलतियाँ निकल सकती हैं।“

“मैं समझूँ तो, कि तुम कहना क्या चाहते हो।“

देखो, अंग्रेजों ने कलकत्ता को अपनी राजधानी बनाया। इसमें ही शिक्षा और अमलातन्त्र तैयार करने के अपने प्रयोग किए। अंग्रेजी राज के नीचे से एक बंगाली राज आरंभ हुआ। बंगाल एक बड़ा राज्य था। इसके भीतर बिहार का भी काफी हिस्सा आता था। असम और ओडिशा  का भी समावेश इसी में था। इनकी शिक्षा की भाषा बंगला कर दी गई थी। अध्यापक, डाक्टर, वकील, सरकारी नौकर सब में बंगालियों का प्रभुत्व था और हालत यह की बंगालियों को लम्बे समय तक मुगालता रहा की वे एक सुपीरियर रेस हैं। उनके आचार व्यवहार में इसकी छाया आज तक बची मिलेगी। बंगाली आधिपत्यवाद के चलते ओड़िया, मैथिल, असमिया और पूर्वी बंगाल की भाषाओं को बांग्ला की बोलियाँ माना जाता था। स्थानीय लोग इससे असन्तुष्ट और कुंठित अनुभव करते थे, परन्तु यह आधिपत्य भाव बंगाल के उदार माने जाने वाले लोगों में भी था। ठीक उस समय जब कांग्रेस स्वायत्तता की माँग की दिशा में बढ़ रही प्रशा सनिक तकाजे की आड़ में साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने में ब्रिटिश कूटनीति को सफलता मिली। यदि कुछ परिपक्वता दिखाई जाती, इस प्र शासनिक विभाजन को प्र शासन की समस्या मान कर इसकी ओर ध्यान न दिया गया होता तो इसने दोफाँक बटवारे का रूप नहीं लिया होता। इसकी सबसे बड़ी विषेशता थी कि कांग्रेस के भीतर हो या बाहर सभी मुसलमान विभाजन के पक्ष में थे, और सभी हिन्दू इसके विरोध में। कहें मनोवैज्ञानिक आधार पर पाकिस्तान की नींव इसी समय पड़ गई थी जिससे वह सूत्र निकला था कि मुसलमान हिन्दुओं के साथ सुख-चैन से नहीं रह सकते। जिन्ना ने इसे अधिक तार्किक बना दिया। मोटे तौर पर तुम कह सकते हो, सभी मुसलमानों के भीतर मुस्लिम लीगी चेतना दबे या खुले रूप में बनी रही है, जब कि हिन्दुओं में इसने इतना स्पष्ट तेवर नहीं लिया फिर भी इससे बचा शायद ही कोई था।“

“तुम इसे बहुत इकहरा बना दे रहे हो।“

“हाँ इकहरा तो है, इकहरा इसलिए है कि हम इसके उजागर पक्ष को ले रहे हैं। चेतना के स्तर पर इसकी जड़ें बहुत पीछे तक, तुम कहना चाहो तो मध्यकाल तक, और आगे बढ़ना चाहो तो मुहम्मद साहब तक और उससे भी पीछे ले जाना चाहो तो ईसाइयत के विस्तार काल या उसके जन्म काल तक ले जा सकते हो। हम कोई निर्णय लेते समय कई युगों और युगान्तरों के सूत्रों से प्रभावित होते हैं। वे दिखाई नहीं देते पर उनका दबाब कम निर्णायक नहीं होता।“

“तुम्हारा जवाब नहीं भाई! भइस बिआनी मोहबा गढ़ में पढ़वा गिरा फरुख्खाबाद! लीग को लिए दिए पहुँच गए ईसाइयत के जन्म तक।“

“इसलिए कि मुस्लिम मनोरचना के निर्माण में सामी पृष्ठभूमि का बहुत बड़ा हाथ है परन्तु मुहम्मद साहब ने उस प्रभाव को मेरे अनुमान से ईसाइयों से अपनाया था और कुछ दूर तक उन्हें ही माडल बनाया था। यह जो हिजाब है, यानी बुरका का चलन ईसाई ननों से आया लगता है । जिस कबीले में मुहम्मद साहब का जन्म हुआ था वह तो मातृप्रधान था और जिन बद्दुओं के बीच उनका बचपन बीता था उसमें तो महिलाओं को बहुत स्वतन्त्रता थी। यह ईद, बकरीद, बुतपरस्ती का विरोध सब, नामकरण और माइथालोजी तक। जालीदार टोपी जो हाल में बड़ी लोकप्रिय हुई है पोप के सर पर भी दिखाई दे जायेगी। तो मुस्लिम मनोरचना में अस्मिता के ये जो सूत्र हैं बहुत दूर तक जाते हैं और समय समय पर बखेड़े इनके माध्यम से ही पैदा किए जाते रहे हैं। 

“और बंगाल के जिस बटवारे की बात कर रहा हूँ वह भी सन 1904 में या 1905 में एकाएक नहीं आ गया। इसकी तैयार उन्नीसवीं शताब्दी में ही आरंभ हो गई थी।“

“विश्वास नहीं होता। तुम अक्सर अति पर चले जाते हो।“

“पहले सुनो। जान बीम्स ने जो बहुत अच्छा भाषाषास्त्री था और जिसने कंपैरेटिव ग्रामर आफ आर्यन लैंग्वेजेज लिखा था, उसकी मदद से या उकसावे से फकीर मोहन सेनापति ने ओडिया जागरण का मन्त्र फूँका और उसे एक अलग स्वतन्त्र पहचान दिलवाई। असमिया को अलग पहचान के लिए हेमचन्द्र बरुआ, शायद यही नाम था, वे संघर्ष से जुड़े थे। बंगालियों को यह जो अग्रता मिली थी वह कलकत्ता केन्द्रित थी इसलिए जैसे ओड़िया, असमिया और मैथिल भाषी नौकरियों और अन्य मामलों में उपेक्षित अनुभव करते थे उसी तरह पूर्वी बंगाल के लोग भी अपने को उपेक्षित अनुभव करते थे। पूर्वी बंगाल में मुसलिम आबादी अधिक थी, इसलिए प्रषासनिक सुविधा की आड़ में कहो, या सचमुच इस तकाजे से जब उसे बंगाल से अलग प्रान्त बनाने की घोशणा की गई तो पश्चिम बंगाल के हिन्दुओं ने इसे बंगभंग की संज्ञा दे कर हिंसक आन्दोलन आरंभ कर दिया। यह बंगभंग से अधिक उनके अपने वर्चस्व की लड़ाई थी। अब यहाँ से एक भौगोलिक विभाजन ने साम्प्रदायिक विभाजन का रूप ले लिया। 1905 में बंगाल का विभाजन हुआ था, 1906 में इसे हिन्दू मुस्लिम हितों का प्रश्न बना कर मुस्लिम लीग की स्थापना ढाका में हुई यद्यपि इसमें भाग लेने वाले 3000 प्रतिनिधियों में भारत के अमीर मुसलमानों के प्रतिनिधि ही थे।

मुस्लिम लीग की सबसे बड़ी दुर्बलता सर सैयद की उस आकांक्षा से पैदा हुई जो उन्होंने इंग्लैंड दर्शन के बाद, इंग्लैंड की हर दृष्टि से अग्रता देख कर उनके निकट आने की आकांक्षा में वैसे ही विश्वविद्यालय का सपना देखा और शिक्षा में मुस्लिम पिछड़ेपन को दूर करने के लिए शिक्षा का भार अंग्रेज प्रिंसिपल को दे दिया। जब कि मालवीय जी ने इस तरह की भूल नहीं की। संस्कृत कालेजो की बात अलग थी। वे सरकारी पहल पर खोले गए थे और सरकार ही उनके प्रिंसिपल की नियुक्ति करती थी। इसके माध्यम से वह संस्कृत विद्वानों में अपनी पसन्द का प्राचीन भारतीय इतिहास उतारती रही और इसलिए इन कालेजों के माध्यम से निकले संस्कृत विद्वान आर्य आक्रमणवादी बनते चले गए। शिक्षित मुस्लिम समाज की मनोरचना के निर्माण का काम उन्हें सौंप देना जो उस समाज का अपने लिए उपयोग करना चाहते थे, एक भारी भूल थी।

परन्तु भुलाया नहीं जाना चाहिए कि आरंभ में मुस्लिम लीग मुस्लिम हितों की चिन्ता करने के लिए बनी थी। स्वतन्त्रता आन्दोलन तेज होने के साथ इस संभावना से इसने दहशत का रूप लेना शुरू किया और फिर हिन्दू-द्रोह ही नहीं हिन्दू जान-माल और सम्मान को मिटाने की डरावनी मुहिम बनती चली गई। अलगाव को तीखा करने के हथकंडे अपनाने लगी जो कलकत्ता के दंगे में या सुहरावर्दी के डाइरेक्ट ऐक्शन में देखने में आया। यह जानते हुए कि दंगा इतना बड़ा रूप लेगा तो पहले हिन्दू भले अधिक मारे जाएँ अन्ततः मुसलमानों को ही भुगतना होगा। उस दंगे में हिन्दुओं से अधिक मुसलमान मारे गए थे। पर नफरत की नहीं तो दहशत की दीवार खड़ी करने के उद्देश्य में तो सफल हो ही गए। हैरानी की बात यह कि जिन्ना पाकिस्तान की माँग मनवाने के लिए डाइरेक्ट ऐक्शन की खुली धमकी दे रहे थे और नोआखाली आदि में जो हुआ उसने मुस्लिम लीग का चेहरा अधिक हिन्दूद्वेषी बना दिया । 

दुख की बात यह है कि इसी मुसलिम लीग की आत्मा का प्रवेश वामपन्थी आन्दोलन में हिन्दू समाज को विकृतियों का घर, इसके इतिहास को मलिताओं से ग्रस्त और हिन्दू सांस्कृतिक प्रतीकों को जहालत का प्रमाण बताते हुए,  इन्हें दूर करने के नाम पर अभियान चलाए जाते रहे। जितना ही अधिक तेज आन्दोलन उतना ही अधिक गर्हित होता हुआ हिन्दू समाज। इसी के अनुरूप इतिहास लिखवाये जाते रहे, फिल्मों में इसे जगह जगह घुसाया जाता रहा, साहित्य में इसे प्रोत्साहन दिया जाता रहा और तर्कवाद के नाम पर बहुत कुछ ऐसा किया जाता रहा है जो न किया जाता तो पूरे देश का भला था। मुस्लिम हितों की चिन्ता करने वाली लीग को मैं उचित मानता हूँ और उसकी परिणति को देश और मुसलिमों सहित पूरे समाज के लिए अनिष्टकारी मानता हूँ।“

11/20/2015 12:56:29 PM

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