यूरोकेन्‍द्री मार्क्‍स चिंतन

“तुमने मार्क्स के चिंतन को यूरोकेन्द्री क्यों कहा, यह समझ में नहीं आया.”

तुम जानते हो एक बार चेगुआरा नेहरू से मिलने आए थे और गांधी की तारीफ़ कर रहे थे. उस समय एक महिला पत्रकार ने उनका इंटरव्यू लिया था, जिसमें उसने पूछा था कि यदि आप को गांधी सही लगते हैं तो आपने हिंसा का रास्ता क्यों अपनाया. उनका उत्तर था, “यूरोप में अहिंसा की वैसी परम्परा नही है. यहाँ आंदोलन से परिवर्तन लाया जा सकता है. पश्चिम में सभी तरह के परिवर्तन हिंसा के बल पर ही हुए है." मुझे उस पत्रकार का नाम तक याद नहीं, न यह याद है कि उसने किस पत्र में इसे प्रकाशित कराया था, इसलिए शब्द भी कुछ इधर उधर हो सकते हैं, परन्तु यूरोप और मध्य-एशिया में ही नहीं, खाड़ी देशों में भी परिवर्तन, हिंसा के माध्यम से ही होते रहे हैं. भारत और चीन में बलप्रयोग के परिणाम आशाजनक नही रहे हैं, जबकि विचारों से धर्मपरिवर्तन तक होता रहा है जिसे बचाने के लिए लोग जान तक दे देते हैं. मार्क्स का परिवर्तन के लिए हिंसा का समर्थन यूरोपीय मानसिकता के अनुरूप था और इसकी कार्यकारिता भी वहीं तक सीमित थी. लेकिन मेरा अध्ययन इस मामले में बहुत काम चलाऊ है. ज़रूरी नहीं तुम भी इसे ठीक मानो. 

दूसरी बात यह कि उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था से, उसी के मज़दूरों को एकजुट करके क्रांति का सपना देखा. पूंजीवादी विकास तो केवल यूरोप में ही हुआ था. शेष संसार के लिए उनके पास कोई योजना ही न थी. वे कृत्क्रांति यूरोप के लिए कच्चा माल भेजने वाले हे रह जाते.”

"अरे भाई साम्यवाद का मतलब.."

"मैंने कहा न मेरा किताबी ज्ञान बहुत कम है, इसलिए किताबों में जो कुछ बताया और दिखाया जाता है उसको भी नहीं समझ पाता. मैं अपनी बात अपनी ज्ञानसीमा और अनुभवसीमा में कह रहा हूँ."

"पर उनकी सबसे बड़ी गलती थी इतहास की गतिकी को न समझ पाना. वह मान बैठे कि पूंजीवाद सामंतवाद के बाद की या उसकी अगली अवस्था है."

"तुम क्या समझते हो? अगली अवस्था नहीं है?"

“वह तो ठीक है परन्तु वह इसे भी नहीं समझ पाए।“

“तुम्हारा दिमाग तो ठीक है न!”

“बाद में तय करेंगे। परन्तु, इसका ध्यान तो उन्हें रखना चाहिए था कि अगर यह इतिहास का एक चरण है और साम्यवाद इससे बाद का चरण है तो इस चरण को अपने चरम तक पहुँचने का अवसर तो देना था. आनन फानन में उसे गिराकर उसकी जगह लेने के लिए तो न तैयार हो जाते। सच कहो तो उत्पीड़ित मानवता के प्रति उनकी गहरी सहानुभूति थी जिसके कारण वह अपना धैर्य खो बैठे और इस अधीरता ने उन्हें इतिहास की गतिकी को समझने में बाधा पहुँचाई." 

“पूंजीवाद औद्योगिक क्रांति की उपज है. बड़े पैमाने पर उत्पादन की संतान है. बडे पैमाने पर उत्पादन अर्थात् फालतू उत्पादन, उसके लिए बाजार चाहिए, जिसे कहते हैं, अपने कब्जे का बाजार, कैप्टिव मार्केट या उपनिवेश। इसके बाद भी इससे बेकारी पैदा होती ही है। एक छोटे से देष को पूर्जीवादी राह पर चलने पर बहुत सारे देशों का कच्चा माल, धन, और वहाँ भी बेकारी का प्रसार अनिवार्य है। यह समाजवादी चरण की अपेक्षाओं के अनुरूप नही है।

उत्पादन का यही तरीका समाजवाद ने भी अपना लिया इसलिए यह सामंती व्यवस्था को तो बदल सकता है, पूँजीवाद का मुकाबला नहीं कर सकता था, मुकाबला करने चलता तो स्वयं पूजीवादी तन्त्र अपनाना होता। कहें     पूंजीवादी व्यवस्था के के तन्त्र को तो उन्होंने बहुत अच्छी तरह समझा परन्तु साम्यवदी व्यवस्था में उन्हें समतामूलक वितरण ही समझ में आया पूँजीवाद के भी जीवट को तो समझा ही नही. जिस समय कोई व्यवस्था अपने उत्कर्ष पर हो उस समय उससे टक्कर लिया ही नहीं जा सकता यह बात मार्क्स को भी मालूम थी, इसलिए साम्यवाद का एक तकियाकलाम रहा है कि पूंजीवाद अपने संकट के दौर से गुज़र रहा है, जब कि उसकी जीवंतता और जिजीविषा ऎसी कि जिस मज़दूर वर्ग के बल पर क्रांति होनी थी, उसे उसने पूँजीवादी लूट में छोटा साझेदार बनाकर पचा लिया. क्रांति कर चुके देश को भीतर से तोड़ दिया.”

“भई, वह तो गोर्बाचेव की नासमझी के कारण…”

मैंने उसके हस्तक्षेप पर ध्यान ही नहीं दिया या दिया तो गोर्बाचेव के नाम तक, ‘गोर्बाचेव ने तो उसे अधोगति से बचा लिया। वह उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में और उच्चतर जीवन की पूँजीवाद प्रसारित पूर्ति के विफल होने और अपनी पहल खोने के कारण  बहुत पहले ही जमीन पर आ चुका था। तुम जानते हो, मेरा बेटा रूस में पड़ने गया था। मेरे सपनों के देश में। मेरे जोगाड़ से नहीं, स्वयं रूसी कोर्स ज्वाइन करने और अपनी प्रतिभा के बल पर अपनी अध्यापिका की नजर में आने के कारण। उसे वहाँ शिक्षा के लिए चुना गया तो वह नाच रहा था, जब कि वह फार्मेसी में ग्रैजुएट हो चुका था। उसने उसकी परवाह ही न की।  पहले साल के बाद एक अप्रिय सूचना पर वह लौटा तो उसने जो कुछ बताया वह हैरान करने वाला था। वहाँ, अध्यापक तक उपहार पाना पसन्द करते हैं और इसे बुरा नहीं माना जाता। उसके साथ के रूसी लड़के कहते तुम लोग बन क्यों नहीं बनाते। बम बनाने का मतलब था परीक्षा से पहले हाथ पाँव आदि पर दर्ज करके और छिप कर उससे मदद लेना। वे बताते कि पढ़ें या न पढ़ें काम तो उन्हें मिल ही जाएगा। और अमेरिका के प्रति इतना आकर्षण कि घटिया से घटिया जीन मुँह माँगे दामों पर खरीदने को तैयार। नतीजा यह कि पढ़ने गए बहुत सारे बच्चे बिजनेस करने लगे। इस त्रासदी का और मामूली चीजों के लिए लगने वाली क्यू का जिक्र राज थापर ने अपने संस्मरण में भी किया है। मेरे बेटे के छह साल बर्वाद हो गए और वापसी के समय गोर्बाचेव के कारण जो स्थिति पैदा हुई उसमें यह पता करना तक मुश्किल था कि वह है कहाँ, आएगा भी या नहीं। तो गोर्बाचेव किसी का ऐजेंट नहीं था, उसने सड़ रही व्यवस्था को मिटने से बचाया। अमेरिकी एजेंट तो उसके बाद और उस फितरत के बल पर आया, जो गोर्बाचेव को हटाने के लिए अबोले जाहिर कर दिया गया कि अब अमेरिका को तुम्हारी जरूरत नहीं है।“

“अगले को पूँजीवाद की और मोड़ दिया.”

“अगला कौन?” 

“क्या तुम्हे माओ का देश दिखाई नही देता या चाइनार प्रेजिडेंट आमादेर प्रेजिडेंट सुनाई नहीं पड़ता? सच कहें तो समय से पहले पूंजीवाद से हस्तक्षेप ने पूंजीवाद की शक्ति को बढ़ा दिया."

"वह कैसे?"

"औद्योगिक क्रांति और पूंजीवादी लोभ के समक्ष मज़दूर असहाय कीड़ों जैसे हो गये थे. सामंती व्यवस्था में भी वे उतनी अमानवीय स्थिति में न थे जितनी पूंजीवादी व्यवस्था में. उनकी एक ही शक्ति थी. सामंती व्यवस्था में वे एक साथ मिल कर शक्तिपुंज नहीं बन सकते थे जब की पूंजीवादी व्यवस्था में एकत्र भारी संख्या में काम करने के कारण अकेले पूंजीपति को वे झुंका सकते थे. इसी को लक्ष्य कर के मार्क्स ने सोचा कि इतिहास में मनुष्य समता के सपने तो देखता आया था पर उसे सचाई में बदलने के लिए सताए हुए लोगों की जो एकजुटता थी वह संभव नहीं थी. आज वह सम्भव है. इसी को उन्होंने इतिहास का सार सत्य समझ लिया और इसी के बल पर उन्होंने मान लिया कि अब पूंजीवाद की समाप्ति का और उस पुराने सपने को पूरा करने का सही अवसर आ गया है. संगठित जनता सत्ता परिवर्तन कर सकती है इसका विश्वास फ्रांस की क्रांतियों से हो ही चुका था."

"इसमें गलती कहाँ थी भाई."

"गलती यहाँ लगती है कि विचारों से तो लोग पहले भी समता की वकालत करते रहे, पर यह सम्भव नहीं हुआ था. इसलिए परिवर्तन में विचार की भूमिका को नगण्य मान लिया.” घोषित कर दिया कि दार्शनिक विश्व की व्याख्या करते आए हैं, अब समय आ गया है उसे बदलने का, जब कि यह समय अधिक मनोयोग से समस्या पर विचार करने का था।  विचार की हत्या करके खून बहाया जा सकता है, इच्छित परिवर्तन नहीं लाया जा सकता।

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