बैताल फिर उसी डाल पर

गाँधी मेरी नजर में बीसवीं शताब्दी के अकेले ऐसे नेता थे जिनको सत्ता की भूख नहीं, एक नया भारत बनाने की उत्कट कामना थी जो आधुनिक भी हो, स्वावलंबी भी हो और अपनी जमीन पर दृढ़ता से खड़ा भी हो। 
अकेले नेता नहीं, दूसरे । ये सपने सबसे पहले स्वामी दयानन्द‍ ने देखे थे। वह क्षेत्र जिसमें गाँधी का प्रभाव सबसे गहन था और वे मसले जिनको गाँधी ने अपने सरोकारों से जोड़ा, और वह जमीन जिसमें गाँधी अपनी फसल उगा सके दयानन्द सरस्वती ने तैयार की थी। उनके सामने भी पूरे समाज का विकास था, आधुनिकता और परंपरा की गहरी समझ, सामाजिक भेदभाव का निवारण, स्त्री शिक्षा का उपक्रम, कुरीतियों, जैसे बाल विवाह, का निषेध और सामाजिक वर्जनाओं, जैसे विधवा विवाह, का विरोध और उच्च जीवनादर्शों का पालन आदि के बहुमुखी और समावेशी कार्यक्रम थे और इनसे जुड़ी थी स्वतन्त्रता की कामना।
तुम इस बात से प्रसन्न होते हो कि मैं दयानन्द को गाँधी से बड़ा और उनसे प्रगतिशील मानूँ तो मान लूँगा। स्वामी जी कई मामलों में गाँधी से आगे थे, उदाहरण के लिए वह विधवा विवाह की बात कर सकते थे, गाँधी सनातनी थे और वर्ण विभाजन तक को मानते थे। कुछ दूसरे मामलों में गाँधी अधिक समावेशी थे, जैसे वह अकेले सभी मतों के लोगों को साथ ले कर चलने की बात करते हैं जब कि दयानन्द जी हिन्दू समाज को भी ले कर नहीं चल सकते थे। उनके कुछ सूत्र कबीर से जुड़ सकते हैं। सबकी आलोचना करते हुए, उनके ढोंग और पाखंड का उपहास करते हुए एक नई राह पर चलने का आह्वान और वह नई राह स्वयं बनाने का प्रयत्न और अकेले दम पर एक आंदोलन और संगठन खड़ा कर सकते है । गाँधी से कम चुंबकीय व्यक्तित्व नहीं था उनका। परन्तु तुम मेरी बात पूरी सुना तो करो। मैंने बीसवीं शताब्दी का अकेला नेता कहा था, अकेला नेता नहीं। उन्नीसवीं शताब्दी के अधिकांश नेताओं में ओजस्विता और तेजस्विता थी। बीसवीं शताब्दी में सबका परिपाक अकेले गाँधी में मिलेगा। तुमने कबीर की ठीक ही याद दिलाई, द्विवेदी जी कबीर के व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए उन्हें अनेकों विरोधों की संधि भूमि पर खड़ा दिखाते हैं।
आज भी जय गांधी जय जय जय गांधी ही चलेगा। तुम ऊबते भी नहीं हो।
मैं यह भी याद दिलाना चाह रहा था कि जिस नये मानव का और ऐसे मानवों से ऊर्जस्वित भारत का सपना वह देख रहे थे, उसके नागरिक शिक्षित होंगे, स्वस्थ होंगे, एक दूसरे से प्रेम करने वाले होंगे और स्वतन्त्र होंगे। उनकी रूढ़िवादिता में भी प्रगतिशील तत्व हैं और एक सोच भी है कि एक व्यवस्था को जो हजारों साल से चली आई हो तुम एक झटके में तोड़ तो सकते हो, सर्वव्यापी वैकल्पिक व्‍यवस्‍था बना नहीं सकते । इसलिए वह इसके साथ हड़बड़ी में कोई बदलाव न करके पहले उसके सबसे विकृत पक्ष को दूर करना चाहते थे । यदि मेरे कथन में कहीं यह लगे कि वह अखोट थे तो विराटता अखोट नहीं होती, लघुता में ही यह संभव है। तुम हिमालय की ऊँचाई भी चाहो और यह भी चाहो कि उसमें खड्ड खाई न हो यह संभव नहीं, यह पिरामिड में अवश्य संभव है, ओबेलिस्म् या लाट में अवश्य संभव है। 
मैं जिस विषय पर आना चाहता था वह यह कि गाँधी अकेले हैं जिनमें उन्नीसवीं सदी की विद्रोही उर्जा और बीसवीं सदी के निहत्थेपन के मेल से असहयोग और सत्याग्रह के हथियार गढ़ने की क्षमता थी। गाँधी के इस हथियार के व्यापक प्रसार से मानसिक रूप में यह फैसला हो गया था कि अब स्वराज्य को रोका नहीं जा सकता। अब अंग्रेजी शासन भी मनोवैज्ञानिक पराजय स्वीकार कर चुका था और यह सौदेबाजी आरंभ कर चुका था कि कितना देना है, कैसे देना है, कितनी तैयारी के बाद देना है, और किनको किनको क्या देना है कि किसी के प्रति अन्याय न होने पाए और इस बहाने वह ऐसी परिस्थितियां पैदा करने की कोशिश में लगे थे जिसमें परिस्थितियां इतनी बेकाबू हो जायँ कि स्वतन्त्रता की मांग करने वाले स्वयं हथियार डाल दें और कहें हुजूर आप ही इसे संभाल सकते हैं आप ही तब तक सँभालिये जब तक हम दोनों सौतेले भाइयों में मिल जुल कर रहने की समझ नहीं पैदा हो जाती और गाँधी जानते थे कि जब तक अंग्रेजी हुकूमत है वह दोनों भाइयों के बीच प्रेम तो दूर समझदारी तक पैदा नहीं होने देगी। यहीं गाँधी एक ऐसे असमंजस के शिकार हो गए थे कि वे भी जल्द से जल्द ब्रितानी दबोच से बाहर लाने के उस अभियान में शामिल हो गए थे और इस आशा में शामिल हो गए थे कि जिन कामों और तैयारियों को वह मानवाकार जंतुओं को मनुष्य बनाने के लिए जरूरी समझते हैं वे स्वतन्त्र भारत में ही पूरी हो सकती हैं।
‘’तुम्हारे मन में अंग्रेजों के प्रति इतना जहर भरा हुआ है कि तुम सोच ही नहीं सकते कि उनमें कोई सदाशयता भी थी। मुस्लिम लीग जिसे तुमने सौतेला भाई कहा वह उसके बाद आती है।‘’
’’देखो सैयद अहमद के बाद नीरद चन्द्र चौधरी दूसरे आदमी थे जो अंग्रेजों को दुनिया का सबसे सभ्य समाज और उनके शासन को सबसे सभ्य शासन मानते थे। उस कतार में तुम मुझे तीसरी जगह पर खड़ा मान सकते हो और मैं तुम्हारे आकलन से सहमत भी हो जाऊँगा, क्योंकि अंग्रेजों ने जो कुछ भी किया अपने निजी हित के लिए नहीं, अपने देश के हित के लिए किया। हमारे अपने राजनीतिज्ञों ने, नेहरू से ले कर आज तक के कांग्रेसियों ने, अपने और अपनों के हित को प्रधानता दी और देशोद्धार करने वाले सभी संगठनों ने, देश और समाज को बांटने और लूटने की जिस नीति को अपनाया उसे देखने के बाद वे भी श्रद्धेय बन गए, श्रेष्ठता के कारण नहीं, हमारे अपने ही नेतृत्व से कम जघन्य होने के कारण। जघन्यता को भी देश सेवा बताया जा सकता है, इसकी तो पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, परन्तु हाल में अकारण या कुतर्कपोषित कारणों से जिस तरह के देशविघातक आयोजन होने लगे हैं उसे देखते मेरा अपना भी पतन हो रहा है, कुछ लोग मुझे बौद्धिक से अधिक ज्योतिषी मान सकते हैं क्योंकि मैंने पीछे कभी कहा था कि कांग्रेस और वामपंथी दलों के पास अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए कोई औचित्य बचा नहीं है, इसलिए ये उसी बॉटो और बचे रहो की राजनीति कर सकते हैं और देश का अकूत अहित करते हुए अपने निजी हितों को आगे बढ़ा सकते हैं। मुझमें तो इतनी समझ नहीं न इतनी सावधानी है परन्तु फेसबुक पर मेरे एक मित्र को यह पता था कि अभी हाल के राष्ट्रद्रोही हुड़दंग में अपनी रोटी सेंकने वाले करात और येचुरी और राजा के मार्क्सवाद और उनकी गाड़ियों के मॉडल और उनके अपने बच्चों के लिए चुने हुए देश और उसमें उनके भविष्यसपनों के बीच जो दूरी दिखाई दी उसमें उनका वह चरित्र भी सामने आया कि ये आज के टुच्चे नेता अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए अपनी पार्टियों को, अपने देश को और कहते हुए दुख होता है, पर सच का तकाजा है, अपनी माँ को भी बेच सकते हैं।
गाँधी यह जानते थे। अकेले वह थे जो कह रहे थे कि भले सत्ता मुस्लिम लीग को सौंप दी जाय, परन्तु देश का बँटवारा नहीं होना चाहिए। अकेले वह थे जो कह रहे थे कि कांग्रेस कुछ पाने के लिए बना एक संगठन था, अब वह प्राप्त हो गया इसलिए अब इसका नाम बदल दिया जाना चाहिए। पर जिनके पास अपना कुछ न था और जो स्वतन्त्रता को अपनी खानदानी जागीर बनाना चाहते थे उन्होंने वैसा न माना, न होने दिया, न गाँधी को जीने दिया। गाँधी महान नहीं थे, उनमें महिमा के अनेक शिखर थे और कुछ खाइयाँ भी परन्तु आधुनिक भारतीय मनीषा के शिखर वही हैं और आज के जगत में सबसे सार्थक और अनुकरणीय वही हैं और उस आदमी ने कहा था कि लोगों को बता दो गांधी को अंग्रेजी नहीं आती, क्योंकि वही जानता था कि अंग्रेजी शासन ने भारतीयों को अशक्त कर दिया था पर उनकी आत्मा जीवित थी। जो अंग्रेजी नहीं जानते थे उनमें पूरी तरह और जो अंग्रेजी जानते हुए भी अपनी भाषा में सोचते और समझते थे उनमें उससे कुछ कम परन्तु जो अंग्रेजी पर गर्व करते थे उनकी आत्मा तक को अँग्रेजी भाषा ने कुचल दिया था। वे परछाइयों को यथार्थ मान कर तितलियां पकड़ने को भागते बच्चों जैसे बालिश मूर्ख थे। यह बोध किसी अन्य में नहीं था। उन्नीसवीं शताब्दी के दौर में भी नहीं। गाँधी का इतना महिमामंडन किया जा चुका है कि मैं उसमें एक तिनका तक नहीं जोड़ सकता, परन्तु गांधी को समझने की योग्यता तक हमने पैदा नहीं की यह मुझे उनके भाषा विषयक विचारों से ही लगा। अब तुम चाहो तो हिन्दी के भूत, वर्तमान और संभाव्य पर बात कर सकते हैं।
तुम समझते हो मैं तुम्हारी बकवास सुन रहा था। मैं सोच रहा था हे भगवान, बहरा होना भी एक वरदान है।
सुना ही नहीं तो वह वरदान तो बिना किसी के दिए ही तुम्हें मिल गया। उठो, तुमसे बात करना भी पत्थर से सिर टकराना है।

मोहभंग

मैं तुम्हें इधर-उधर की थोड़ी झाँकी इसलिए दिखा रहा था कि यह बता सकूँ कि उन्नीसवीं शताब्दी में हमारी समझ बीसवीं शताब्दी की तुलना में अधिक सही थी, आत्माभिमान अधिक था, सांप्रदायिक सद्भाव अधिक था, और विरल अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश नेताओं का दृष्टिकोण क्षेत्रीय न हो कर राष्ट्रीय था। हिन्दी क्षेत्र, यहाँ की बोलियों और संस्कृति के प्रति आत्मीय आदरभाव था। दूसरे भाषा क्षेत्रों के लोग शिक्षा के लिए, धर्म संकट की स्थिति में काशी के पंडितों का अभिमत जानने के लिए, और अपने नये विचारों के प्रसार के लिए, अपने पांडित्य की धाक जमाने के लिए काशी आते थे । राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर के जन्मस्थल होने और काशी, मथुरा, हरिद्वार आदि तीर्थस्थलों के हिन्दी क्षेत्र में स्थित होने के कारण यहाँ के लोगों और बोलियों के लिए एक रागात्मक सम्बन्ध था। भारत बहुलता को वैभव समझता था, व्याधि नहीं। अठारवीं शताब्दी तक पश्चिमी विद्वानों की नजर सतही थी। विविधता को बिलगाव मानती थी और समझती थी कि इनमें एका पैदा ही नहीं हो सकता। उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक वे इसी भ्रम में भारतीय समाज को निरीह और लाचार मान कर धर्म, विश्वास, आर्थिक दोहन आदि सभी क्षेत्रों में उद्दंडता से व्यवहार करते रहे। 1857 की एक छोटी सी चूक और अपने ही देश के विघाती तत्वों के सहयोग और कुछ अन्य संयोगों ने पासा पलट दिया फिर भी वे भीतर से ‘जान बची लाखों पाए’ वाली चेतना से भीतर तक हिल गए थे। इससे पहले हिन्दू मुसलमान को पहले से ही बँटा मान कर वे निश्चिन्त थे कि ये कभी एक हो नहीं सकते। इसके बाद भारतीय समाज को भीतर से तोड़ने की नई युक्तियों का आविष्कार उनकी कूटनीति का प्रमुख मुद्दा बन गया और अन्य बातों के अलावा, उन्होंने यह पाया कि धार्मिक विभेद उतना विभेदक नहीं है जितना भाषा और संस्कृति का प्रश्न और इसके लिए हिन्दी क्षेत्र सबसे उर्वर है। इसमें उन्होंने भाषा और संस्कृति के अलगाव का वह खेल सैयद अहमद के कंधे पर बन्दूक रख कर, और दो लिपियों के प्रचलन और एक ही भाषा में अनुपात भेद से दो स्रोतों से आयत्तं शब्दावली के आधार पर एक ही भाषा को दो भाषाओं में बँटा मान कर और उनके बीच टकराव पैदा कर, एक की रीतियों को दूसरे की रीतियों से टकराव का मुद्दा बना कर विषवेलि बोने की योजना बनाई। इसमें वे सफल रहे।
परन्तु उन्होंने दूसरी भाषाओं से हिन्दी क्षेत्र का टकराव दिखाते हुए उस पर्यावरण को विषाक्त करने का प्रयत्न किया। इसे बीम्स के कंपैरेटिव ग्रामर आफ आर्यन लैंग्वे्जेज के संगत विषयों के निरूपण को ध्यान से पढ़ने वाला समझ सकता है, पदपाठ करने वाला नहीं। 
काल्डवेल ने अपने द्रविड़ भाषाओं के तुलनात्मक व्याकरण के माध्यम से दक्षिण को उत्तर से, और दक्षिण के प्रभावशाली ब्राह्मणों को शेष समाज से और शेष समाज को भी तमिल, मलय, सिंहल आदि आन्तरिक फाँकों में बॉंटने का जाल तैयार किया, वह सरल पाठ में इतना तर्कसंगत था कि उसके कुचक्र को समझते और जानते हुए भी मेरे मन में काल्डवेल की प्रतिभा और अधिकार के प्रति गहरा सम्मान है। बीम्स ने उसकी नकल करते हुए तीन खंडों में अपना काम किया परन्तु वह प्रकटत: इतना घटिया है कि एक भाषाविज्ञानी के रूप में कोई बीम्स का नाम नहीं लेता, फिर भी कुछ दूर तक तो वह इस योजना में सफल हुए ही कि हिन्दी के प्रति अन्य, तथाकथित आर्य भाषाओं में स्पर्धा, और हिन्दी प्रदेश में ही हिन्दु्स्तानी के सही चरित्र की चिन्ता‍ के बहाने हिन्दी उर्दू में विरोध उत्पन्न‍ कर सके।
उन्नीसवीं शताब्दी के सांस्कृतिक पर्यावरण को देखते हुए यह स्वाभाविक था कि अखिल भारतीय भाषा के रूप में सभी हिन्दी को वरीयता देते। एक मजेदार बात, जिसका मैं पहले जिक्र कर चुका हूँ, यह है, कि हिन्दी का मतलब वही था जो उर्दू का या रेख्ता का। उर्दू का मतलब था छावनियों में अर्थात् जहॉं भी बाहरी लोगों और स्थानीय जनों के बीच संपर्क की संभावना पैदा हो, वहॉं इस संपर्क से पैदा ऐसी जबान जो सबकी समझ में आ सके, अर्थात् बोलचाल की जबान, दोनों की समझ में आने वाली जबान। रेख्ता का अर्थ ज्ञानमंडल के कोश में और महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय द्वारा तैयार कराए गए कोश में जो अर्थ दिया गया है वह गलत है। इसका ठीक वही अर्थ है जो अपभ्रंश का है। रेख्ता का अर्थ है गिरी हुई, पड़ी हुई, बिखरी हुई अर्थात् अपभ्रंश अर्थात् गिरे हुए, दबे हुए या आम जनों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली जबान। और हिन्दी का अर्थ था हिन्दुस्तान के लोग और उनकी बोलचाल की भाषा। इसका प्रयोग सबसे पहले तो उन लोगों ने आरंभ किया जो हिन्दी शब्द से ही डर कर उसे उर्दू कहने लगे और प्रयत्नपूर्वक फारसी बनाने लगे और उससे भी सन्तोष न हुआ तो अरबी भरने लगे। यह उनकी ही बहुधा विभाजित अन्तश्चे तना का प्रमाण है जिसे बीम्सु के भाषाविज्ञान ने पैदा किया था। हिन्दी के लिए तो पहले खड़ी बोली, जो रेख्ता के ठीक विपरीत थी, काम में आती थी। यदि रेख्ता या उर्दू अर्थात् हिन्दी आमफह्म या बाजार की भाषा थी, गिरी हुई, पड़ी हुई, तो यह जो दिल्ली के आसपास की भाषा एक तरह से अभिजात भाषा, तनी हुई भाषा के रूप में अपना दावा पेश कर रही थी और इसलिए रेख्ता या जनभाषा से कमजोर थी। यह दूसरी बात है कि हिन्दी पर अपना दावा छोड़ने और खड़ी बोली द्वारा इसे अपनाए जाने के बाद भी आरंभिक हिन्दी गद्य लेखकों ने लोकोक्तियों और मुहावरों को अपने लेखों में पिरोने का प्रयत्न किया, पर वह असर न पैदा हुआ जिसके कारण गालिब ने होश संभालने के बाद गर्वोक्ति की थी कि
‘रेख्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब
'कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था। 
पहले वह फारसी पर गर्व किया करते थे, अब आम जनों की मुहावरेदार भाषा पर गर्व कर रहे हैं, जिसके लिए मीर जाने जाते थे: 
मुझको शायर न कहो, मीर कि साहब मैंने 
दर्दोग़म कितने किए जमा तो दीवान किया। 
या 
मुँह तका ही करे है जिस तिस का।
हैरती है यह आइना किसका 
शाम ही से बुझा सा रहता है, 
दिल हुआ है चिराग मुफलिस का ।। 
या 
सिरहाने मीर के आहिस्ता बोलो 
अभी टुक रोते रोते सो गया है ।
''इस जबान से स्पर्धा पर उतर आए थे गालिब। यदि उनकी लोकप्रिय गजलों को देखें तो इस मामले में ग़ालिब मीर से भी अधिक सिद्धहस्त थे । यही ग़ालिब थे जो मोमिन के एक शेर पर अपना दीवान लुटाने को तैयार थे: 
तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता । 
''गौर करो इस शेर में प्रयुक्त शब्दावली और अर्थवैभव पर । इसी का नाम हिन्दी था इसी का नाम हिन्दी है। जिन्होंने इसकी आत्मा‍ में प्रवेश किया था उन्होंने हिन्दी और हिन्दू के साम्य और ब्रितानी कूटनीति द्वारा दोनों के बीच विभेद के चलते इसे छोड़ तो दिया, पर जन भाषा, या आमफहम की भाषा, या बाजार की भाषा अर्थात् उर्दू कहने लगे और जो खड़ी बोली हिन्दी कही जाने लगी उसमें ज़मीन की गन्ध तक नहीं। हिन्दी सचमुच ऊपर से लादी हुई, नकली भाषा, असाहित्यिक पर प्रशासनिक दृष्टि से सबसे जरूरी भाषा लगती है। यह चाहे उर्दू से अलगाव के कारण हो, या आभिजात्य के कारण, यह अपनी जड़ों से जुड़ नहीं पाई, जब कि उर्दू को हिन्दी से अलग करने के लिए उसे फारसी और अरबी से भरने का चलन आरंभ हो गया और इसको सचेत रूप में बढ़ाया गया। 
हम आगे बढ़ते रहे और पीछे खिसकते रहे । 
"हमारी अग्रवर्ती पश्चगति में ब्रिटिश कूटनीति और हमारी अपरिपक्वता दोनों का हाथ है। हमे तोड़ने और उल्टी दिशा में मोड़ने के प्रयत्न उनकी ओर से हो रहे थे, जिसके लिए सैयद अहमद और भारतेन्दु दोनों का उपयोग कर लिया गया। इस मामले में बाबू शिवप्रसाद की समझ अधिक सही थी, परन्तु भारतेन्दु और सैयद अहमद में अन्तर यह है कि भारतेन्दु वंशपरंपरा से और स्वयं अपने आरंभिक सोच में, 'जुग जीवें सदा विकटोरिया रानी' वाली राजभक्ति रखते थे और अपने विवेक से अंग्रेजी राज्य से उनका मोहभंग होता गया और वह उस आर्थिक शोषण को समझ सके जिसे उन्होंने ‘पर धन बिदेस चलि जात यहै अति ख्वारी की पीड़ा से व्यक्त किया था और अमेरिका में हुए स्वतन्त्रता संग्राम के अनुरूप एक भारतीय तैयारी का सपना देखने लगे थे, कहें, विद्रोही होते चले गए थे जब कि सैयद अहमद ब्रितानी जाल में फँसते चले गए थे और जैसा कि हमने कहा, उस राजनीति का एक मुहरा बन कर रह गए थे।
"फिर भी उस दौर में भाषा की तुलना में लिपि का प्रश्न अधिक कॉंटे का था, क्योंकि सैयद अहमद से ले कर दूसरे सभी जानते थे कि एक बार नागरी लिपि को शिक्षा और अदालतों में प्रवेश का अवसर मिला तो अरबी लिपि जो भारतीय नामों, शब्दों के लिये नितान्त अनुपयुक्त थी, किनारे लग जाएगी, इसलिए उन्होंंने इसे सांस्कृतिक अस्मिता के प्रश्न के रूप में बहुत अडि़यलपन से अपनाए रखा। इस मामले में लगभग सभी मुसलमानों को अन्त तक अरबी लिपि का आग्रह बना रहा, जिसमें तत्ववादी और प्रगतिशील सभी आ जाते है। इस मनोविज्ञान को समझना भारतीय यथार्थ को समझने के लिए जरूरी है परन्तु इस पर हम यहॉं इसकी चर्चा नहीं करेंगे।
"जहाँ तक भाषा का प्रश्न था, अदालतों और थाने की भाषा फारसी-बहुत भाषा थी जिसे केवल वकील, मुख्तार समझते थे और जिसे जानबूझ कर मुश्किल बना रखा गया था जिससे कोई व्यक्ति यदि यह जानना चाहे कि लिखा क्या गया है तो उसे किसी वकील, मुख्तार या मुंशी की मदद लेनी पड़े। इसे और भी दुरूह बनाने के लिए शिकश्ता में लिखने का चलन था जिसमें सन्दर्भ के बिना अर्थ समझा ही नहीं जा सकता था – उसी लिखित वाक्य को दादा अजमेर गए और दादा आज मर गए, किसी भी रूप में पढ़ा जा सकता था। यह भी उसे गूढ़ या कूट भाषा बनाने का एक तरीका था। इस खास अर्थ में यह भाषा और लिपि सचेत रूप में जनता से दूर ही नहीं जनविरोधी भी थी। 
"मुझे हैरानी सिर्फ इस बात पर होती है कि आज़ादी से पहले जो लोग हिन्दी की वकालत कर रहे थे उन्हें हिन्दी वालों ने इतना नाराज़ क्यों कर दिया कि वे भी हिन्दी के विरोधी हो गए। सारा कसूर तो हिन्दी वालों का है। 
"पर दुबारा सोचने पर लगता है, यह आधी सच्चाई है। पूरी सचाई तो यह है कि आजादी की लड़ाई भारतीय भाषाओं में नहीं लड़ी गई। भारतीय भाषाओं में तो अधिक से अधिक उनके व्याख्यान होते रहे, लड़ाई जिनसे लड़ी जा रही था उनकी भाषा हिन्दी नहीं थी, अंग्रेजी थी, इसलिए स्वतन्त्रता संग्राम की भी भाषा अंग्रेजी थी।
"तुम जँभाइयां ले रहे हो जिसका मतलब है तुम ऊब रहे हो । गलत कह रहा हूँ?"
"गलत तुम कहो भी तो यह पता न चलेगा कि कहीं कुछ गलत है। इसके लिए अक्ल की जरूरत पड़ती है, पर ऊब रहा हूँ यह तो सच है ही।"

गांधीनामा

तुम्हारी कुछ बातें मुझे भी सही लगती हैं।
सही गलत के चक्कर में मत पड़ा करो, जो सही है वह भी गलत हो सकता है, और जो गलत है वह कुछ लोगों केा गलत लग सकता है, दूसरों को सही क्योंकि उसी से कुछ लोगों को नुकसान हो सकता है और दूसरों का फायदा।
वह हँसने लगा। कुछ बोला नहीं।
’’देखो अभी कल एक सज्जन कह रहे थे, गांधी जन-आन्दोलन खड़ा करने के लिए खिलाफत का भी समर्थन कर सकते थे। मैंने कहा, नहीं, यह तथ्य तो है, पर सच नहीं है। गांधी से पहले मुसलिम चेतना पर सैयद अहमद का प्रभाव था जो मुसलमानों को कांग्रेस से अलग रहने और अंग्रेजी सरकार का विश्वासपात्र बने रहने की नसीहत देते थे, क्योंकि यह उनके लिए फायदेमन्द था और इसलिए सही था। पर गलत इसलिए था कि मुस्लिम हित को सर्वोपरि मानने के कारण वह बौद्धिक रूप में अंग्रेजी कूटनीति के सम्मु‍ख आत्मसमर्पण कर चुके थे, एक असाधारण प्रतिभा, अपनी संकीर्ण सोच के कारण मुहरा बन कर रह गई थी और इससे मुस्लिम समुदाय मुख्य धारा से कट कर दरबाबन्द चेतना का शिकार हो गया था। गांधी की सोच यह थी कि यदि हमें भारतीय समाज को एकजुट करना है तो हमें उसके किसी हिस्से‍ के ऐसे सरोकार का जो अंग्रेजी सत्ता के लिए असुविधाजनक है, समर्थन करना चाहिए। भीड़ जुटाने का वहाँ प्रश्न नहीं था। परन्तु जल्‍द ही इसके नतीजों ने ही समझा दिया कि यह बहुत बड़ी भूल हो गई और उन्हों ने पूरी कांग्रेस पार्टी को हैरानी में डालते हुए अपना आन्दोलन ही स्थगित कर दिया और एक लंबे विराम में बाद उसे नये सिरे से खड़ा किया।
'' गाँधी भारतीय राजनीति में प्रवेश करने से पहले ही एक चमत्कारी पुरुष के रूप में विख्यात हो चुके थे और एक साल के भारत दर्शन के बाद तो वह घूरे पर भी खड़े हो जाएं तो वह तन कर एक टीला बन जाता था और भीड़ स्वत: उनके चुबकीय व्यक्तित्व के कारण एकत्र हो जाती थी और जिधर मुड़ते हवा तक अपना रुख बदल लेती।
आइंस्टाइन और गांधी बीसवीं शताब्दी की दो आश्चर्यजनक विभूतियां हैं, परंतु एक का सरोकार भूत-जगत से था तो दूसरे का प्राणि-जगत से । भूत जगत में हम इच्छानुसार विच्छेेदन, विलगाव, नियन्त्रण कर सकते हैं प्रकृति के रहस्यों को समझ सकते हैं, एक बार विफल होने पर दोबारा अपनी चूक से बच और भूल को सुधार सकते है और इससे श्रम और धन की मामूली सी क्षति को छोड़ कर दूसरी कोई क्षति नहीं होती, परंतु प्राणि-जगत में और खास तौर से मानव जगत में इनमें से कोई सुविधा नहीं होती इसलिए उसमें अपना विवेक और अन्त:प्रज्ञा को छोड़ किसी चीज का सहारा नहीं होता। जाहिर है, उसमें यदि कोई बड़ा प्रयोग किया गया तो उसके परिणाम भयानक हो सकते हैं और इसके अपवाद तो आइंस्टा़इन भी नहीं जिन्होंने यह जान कर कि जर्मनों ने परमाणु बम तैयार कर लिया है, रूजवेल्ट को बम बनाने की सलाह दी थी और उसके सूत्र भी सुझाए थे। रूजवेल्ट बड़े नेता थे, गहन मानवीय संवेदना से युक्त। उनका पोलियो भी उनकी इस संवेदना का ही पुरस्कार था। आइंस्टाइन को क्‍या पता था कि उन्हें नाम से सच्चा मनुष्य या कहो मानववादी पर मिजाज से जल्लाद उत्तराधिकारी मिलेगा जो स्वयं उस भयानक त्रासदी का सूत्रपात करेगा जिसे टालने के लिए उन्होंने यह सुझाव रखा था। उन्होंने प्रतिरक्षा की चिन्ता से कातर हो कर इसमें योगदान दिया था, आक्रामक आयुध के रूप में नहीं।
'छोटे लोग छोटी गलतियाँ करते हैं जिससे सिर्फ उनका नुकसान होता है, पर महान लोग इतनी महान भूलें करते हैं जिनके लिए गाँधी ने हिमालयी भूल या हिमालयन ब्लंडर का पद गढ़ा था। यदि ब्लंडर के आकार को मानदंड बनाया जाय तो आइंस्टाइन मानव इतिहास के सबसे बड़े आश्चर्य हैं, जो उनके चकित करने वाले कामों से भी सिद्ध हो सकता है। परन्तु आइंस्टाइन ही ऐसी प्रतिभा थे जो समझते थे कि भौतिकी के क्षेत्र में काम करने से अधिक महत्वपूर्ण है मानविकी के क्षेत्र में काम करना है, क्योंकि सभी मानव प्रयास मानव जीवन को उन्नत बनाने के लिए ही तो, इसलिए अन्तिम दिनों में वह इस ओर भी मुड़े थे। वही कह सकते थे कि आने वाले समयों में किसी को यह विश्वास न होगा कि गांधी जैसा कोई व्यक्ति इस धरती पर पैदा हुआ था।
यह विचित्र है कि खिलाफत आंदोलन के परिणाम स्वरुप जो बोरा विद्रोह अंग्रेजों के विरुद्ध आरंभ हुआ था उसे ब्रितानी खुफिया तन्त्र ने यह प्रचारित करके कि अब ब्रिटिश राज खत्म हो चुका है, खलीफा का राज्य स्थापित हो चुका है, सच्चे इस्लामी राज्य में मुसलमानों से अलग किसी को जिंदा रहने का अधिकार नहीं है उसकी दिशा पलट दी थी और इसके बाद वही आक्रोश जो पहले अंग्रेजों के प्रति था, हिन्दुओं के विरुद्ध हो गया और अंग्रेजी प्रशासन ने इसे फैलते जाने की पूरी छूट दे दी। इस उपद्रव की कहानियॉं इतनी हृदयविदारक थीं कि जब इसकी खबर गांधी को लगी तो उन्होंने कहा था, उन्हें मारना चाहिए था। यह पढ़ कर मैं स्तम्भित रह गया था। गाँधी की अहिंसा क्या राजनीतिक अवसरवाद है।
यह समझने में कई वर्ष लगे थे कि गॉंधी की अहिंसा, बिना परंपरा का गहन अध्ययन किए ही (या कौन जाने गाँधी क्या् क्या पढ़ और जान चुके थे), उस सोच से जुड़ी थी जिसमें हिंसा को अक्षम्य पाप तो कहा गया है, परन्तु यह विधान भी है कि आततायी का वध करने पर कोई पाप नहीं लगता। आज की भाषा में कहें तो यह अपरिहार्य और न्यायोचित है। न आततायि बधे दोषो हन्तुःभवति कश्चन ।
कहते हैं आइंस्टााइन के सापेक्षता सिद्धांत के बारे में एक व्यक्ति ने कहा था दुनिया में इसके तीन जानकार है। जिससे उसने ऐसा कहा था उस वैज्ञानिक ने कहा था दो को तो मैं जानता हूं, एक मैं दूसरे आइंस्टांइन, पर यह तीसरा कौन है?
हो सकता है फिकरा हो, पर कई बार फिकरे भी यथार्थ की उससे अधिक गहरी व्याख्या कर जाते हैं जिससे दार्शनिक करना चाहते हैं और कर नहीं पाते।
''सापेक्षता के सिद्धांत पर बात करोगे जिसे तुम जानते नहीं या उस विषय पर बात करोगे जिस के बारे में जैसी भी सही, कुछ जानकारी रखते हो।''
अरे भाई मैं सापेक्षता के सिद्धांत की बात नहीं कर रहा हूं । मैं तो यह कह रहा हूं कि महान से महान वैज्ञानिक भी उसके कुछ पहलुओं को नहीं समझ पाए थे। उन्हें ज्ञेय मानते थे पर ज्ञात नहीं। वे मानते थे कि सच्चाई तो कहीं है, परन्तु प्रमाणित नहीं हो रही है उनके अपने सिद्धांतों के अनुसार मैं केवल इस मोटी खबर को जानता हूं कि उसका जितना अंश ज्ञात और मान्य हो सका, उसकी ओर आइंस्टाइन का ध्यान नहीं था। वह बहुत कुछ ऐसा जानते थे जिस तक किसी अन्य की पहुँच असंभव थी। उनका उल्लेख इसलिए कर रहा हूं कि यह बता सकूं कि गांधी के अहिंसा सिद्धांत को भी उसी तरह से हमारे समाज में नहीं समझा, जैसे सापेक्षता के विशेष सिद्धान्त को। उसको समझने वाला शायद दुनिया में कोई दूसरा नहीं था । पर जितना समझ में आता था उसी पर लोग उन्हें सिर पर उठाए फिरते थे। ठीक यही हाल गांधी का था।
अरे भाई मैं चाहता था तुम यह बताओ हिन्दी का भविष्य क्या है और तुम गांधीनामा ले कर बैठ गए। 
उस पर कल बात करेंगे।
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अधूरे के अधूरे का अधूरा


जब मैं कहता हूं कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेता अपने और अपनों के लिए रियायतें माँग रहे थे तो यह एक सामान्य कथन है। यह कुछ लोगों को खटका भी होगा और एक मित्र ने लाल, बाल और पाल का नाम लेते हुए मुझे अपनी स्थिति स्पष्ट करने को भी कहा। मेरा इरादा इन महापुरुषों और इन जैसे महापुरुषों के त्याग और बलिदान और साहस को कम करके आँकना नहीं है। यदि हम कांग्रेस के भीतर के प्रथम विभाजन, जिसे नरम दल और गरम दल का नाम दिया गया, पर ध्यान दें तो मुझे नरम दल के नेता अधिक दूरदर्शी दिखाई देते हैं और यह दूरदर्शिता कांग्रेस का विरोध करने वाले सैयद अहमद में भी इस रूप में देखी जा सकती है कि इन्होंने सत्तावन के संग्राम से जो दुर्भाग्यवश विद्रोह बन कर रह गया, शिक्षा ली थी और जानते थे कि इस बीच सीधे इंगलैंड के तख्त के अधीन प्रशासन के आ जाने के कारण ब्रितानी चौकसी और ताकत बढ़ी है, जब कि भारत की सशस्त्र संग्राम छेड़ने की क्षमता को लगभग कुचल दिया गया है। मेरा अध्ययन इस विषय में मेरे अनेक मित्रों से भी कम है और अनुभव का तो सवाल ही नहीं उठता...’’

’’जब न ज्ञान है न अनुभव तो चुप तो रह सकते हो, बीच में टाँग क्यों अड़ाते हो।‘’

’’इसलिए कि अनुभव किसी के पास नहीं है, और किताबों से अलग अलग सूचनाएं मिलती हैं, पर वह दृष्टि नहीं जो तथा‍कथित नरम दलीय नेताओं के पास थी। यह नरम दल का ही बोध था जो गॉधी को हस्तान्तरित हुआ या उलट कर कहें कि यह नरम दल का नेतृत्व ही था जिसने गॉंधी की संघर्ष क्षमता को पहचाना और कांग्रेस का नेतृत्व उन्हें सौंपने का फैसला किया। गरम दल के ये तीनों नेता बहुत पढ़े-लिखे थे, साहसी थे, असाधारण वक्ता थे, परन्तु आवेश के कारण उनकी दृष्टि उतनी स्वच्छ नहीं थी जितनी गाँधी की। सुभाषचन्द्र बोस भी गरम दलीय सोच के ही थे और गॉंधी उनके मिजाज को समझ लेने के बाद उनसे भी कांग्रेस के नेतृत्व को मुक्त रखना चाहते थे। जोशीले लोग आकर्षक लगते हैं, परन्तु वस्तु्स्थिति का आकलन करने में चूक कर जाते हैं और इसलिए उनके कामों के परिणाम उतने श्रेयस्कर नहीं होते जितने उनके उत्सर्ग भाव से आशा बँधती है।

'' हमारी शक्ति उस खास चरण पर और उससे आगे भी सत्तावन की तुलना में बहुत कम हो गई थी। उससे पहले तलवार बन्दूक, बर्छा फरसा जैसे हथियार जनता के पास थे। अब एक साख लम्बाई से बड़े चाकू छुरे तक हथियार मान कर प्रतिबन्धित थे। बन्दूक सरकारी जाँच के बाद सरकार के स्वामिभक्तों को दिए जाते थे जो ब्रिटिश सत्ता के पायों-थूनियों का काम करते थे। 1818 के बाद धार्मिक संवेदना की उपेक्षा करते हुए जिस तरह की मनमानी की जाने लगी थी उससे सीख लेते हुए शासन ने संवेदनशीलता दिखाना आरंभ कर दिया था। अत: धार्मिक प्रश्नों पर उस तरह का सामाजिक विक्षोभ जो ज्वालामुखी की तरह फट पड़े, नहीं पैदा किया जा सकता था। उल्टे इसकी आँच हिन्दुओं-मुसलमानों की ओर मोड़ कर और पारस्परिक अविश्वा‍स को बढ़ाने के लिए अपनाये गये तरीकों से उस निकटता को तोड़ा जा चुका था, जो सत्तावन में पैदा हो सकी थी। अत: छिट फुट बम दागने से क्षणिक उत्तेजना तो पैदा की जा सकती थी, बदले की कार्रवाई भी की जा सकती थी, परन्तु सत्ता नहीं खत्म की जा सकती थी। यह ऐतिहासिक विवशता थी जिसका ध्यान रखते हुए ही कोई प्रभावकारी तरीका अपनाया जा सकता था।

''इस मोड़ पर केवल दो चीजें नई थीं और जिनका उपयोग किया जा सकता था। पहला था प्रेस और दूसरा था यह आश्वासन कि भारत का प्रशासन न्याायपूर्वक और भारतीयों के हितों की चिन्ता करते हुए किया जाएगा। गरम दल के नेता पहले का आलोचनात्मक तेवर के साथ पाठ कर रहे थे और नरम दल के नेता उस हितकारी शासन के आश्वासन की व्याख्या करते हुए अपनी मांगें रख रहे थे । परन्तु प्रेस पर सरकारी नियन्त्रण था और सत्ता‍ को चुनौती देने वाली या आलोचना करने वाली सामग्री को जब्त कर लिया जाता था, संपादकों, लेखकों को दंडित किया जाता था, और एक अल्पशिक्षित समाज में केवल शिक्षितों तक अपने विचार पहुँचाये तो जा सकते थे परन्तु उन्हें किसी कारगर कार्यक्रम का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता था।

"ऐसा मुझे लगता है, हो सकता है कुछ अन्य तथ्यों की ओर ध्याान जाने पर इसमें सुधार की अपेक्षा हो। विपिन चन्द्र पाल और अरबिन्दो उस बंगभंग के विरुद्ध विप्लवी गतिविधियों में शामिल हुए थे और यह मान कर शामिल हुए थे कि यह हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दरार डालने के लिए किया गया प्रयास है, परन्तु् इस प्रयास को उन्होंने अपने आन्दोलन से सफल हो जाने दिया। यदि सभी मुसलमान, यहॉं तक कि कांग्रेस में शामिल मुसलमान भी इसका समर्थन कर रहे थे तो विभाजन पर चुप रहना अधिक समझदारी रही होती, क्यों कि विरोध से ब्रिटिश कूटनीति सफल हुई। बंगाल नहीं बँटा पर दिल बॅट गए। बंगाल को प्रशासनिक द़ष्टि से अपनी विशालता के कारण बँटना ही था। मैं नही जानता नजरुल इस्लाम की कविता में फारसी शब्दों की वृद्धि का भी यह एक कारण था या नहीं, परन्तु जिसे सुनीति बाबू ने मुसलमानी बांग्ला का नाम दिया उसकी पैदाइश इससे जुड़ी हो सकती है। मैंने इसका विस्तार से अध्यंयन नहीं किया। मुस्लिम लीग की स्थापना का तो इससे सीधा संबन्ध है ही। हम प्रत्येक मामले के विस्ताार में जाऍंगे तो दिशा बदल जाएगी। एक बात का श्रेय अवश्य इन महापुरुषों को जाता है कि इन्हों ने अंग्रेजी में लिखने के साथ हिन्दी, मराठी और बांग्ला में भी लेखन किया और इस दृष्टि से हमारी समस्या के सन्दर्भ में इनका महत्व अवश्य है।

कांग्रेस के अन्य‍ नेताओं में आवेश था विजन या क्रान्‍‍तदर्शिता नहीं थी जो गांधी के पास थी। गांधी जी के साहित्य का भी मुझे आधिकारिक ज्ञान नहीं है, परन्तु जितना उलट पलट कर देख सका हूँ कहीं यह संकेत नहीं मिलता कि अपने सत्याग्रह को उस ब्राह्मणी शस्त्राागार से लिया था जिसमें प्राण देने की ठान कर अडिग भाव से जिसे गलत मानते हैं उसे मानने से इन्का्र करते रहे और आश्चणर्य यह कि यह क्रान्तिकारिता रूढि़वादी ब्राह्मणों में ही थी नवाचारी ब्राह्मण तो सुविधाओं के हाथ बिक जाते थे। रूढि़वादी ईसाइयों, रूढि़वादी ब्राह्मणों की प्रगतिशील और विद्रोही भूमिका का जिक्र हम पहले भी कर आए हैं उसे दुहराने की जरूरत नहीं।

''यह सब तुम सुना क्यों रहे हो।''

'' यह बताने के लिए कि गॉधी में एक रहस्यमय तरीके से परंपरा के जीवन्त तत्वों का नये सिरे से आविष्कार था और आधुनिकता के साथ उसका अद्भुत सामंजस्या था। ऐसा ही सामंजस्यप पूर्व और पश्चिम के तत्वों का था और ऐसा ही सामंजस्य गरम दल और नरम दल के जीवन्त तत्वों का। गांधी हिंसा का रास्ता चुनने के पक्ष में नहीं थे, परन्तु ‘’हिंसा और कायरतापूर्ण पलायन में से मैं हिंसा को ही तरजीह दूँगा।" अहिंसक मरने के डर से हिंसा से पलायन नहीं करता, मरने और पलायन करने में मरने का वरण करता है, यह रूढि़वादी ब्राह्मणों के फीरोज शाह तुगलक और औरंगजेब दोनों के जजिया के विरोध में सविनय निवेदन के साथ अपनी मॉंग रखने, मॉंग न मानी जाने पर राजादेश की अवज्ञा करने, और हाथी से कुचले जाने पर भी मरने के लिए खड़े होने वालों का एक विशाल क्षेत्र में विस्ताार हो जाना।

'गाँधी का सविनय अवज्ञा और असहयोग नरम दल के वश की बात न थी। बिना हिंसा का सहारा लिए, ‘मैं तुम्हारे गलत कानून और गलत शासन को नहीं मानता, मैं आजाद हूँ और आजाद रहूँगा और आजाद मरूँगा’ छाती तान कर नहीं कह सकता था। ऐसा व्रत लेने वालेों को भी इनके वचाव के साथ ही छुप कर रहना पड़ता और छिप कर प्रतिघात करना पड़ता था, अपनी पहचान जताने के लिए मैं झुकने को तैयार नहीं हूँ।'
'' गांधी के सत्याग्रहियों को छुपने, बचते हुए जीने और मात्र यह जताने के लिए जीने की जरूरत नहीं थी। उनके पास एक ऐसा हथियार था जिसे ले कर वे सीधे गलत कानून को चुनौती और अपनी आजादी की घोषणा ही नहीं कर सकते थे, अपने विरोधियों को नंगा भी कर सकते थे। उनमें एक अतीन्द्रिय बोध था जिसमें आधुनिकता और परंपरा, हिंसालभ्य और अहिंसालम्य लक्ष्यों का समावेश था। गॉंधी को उनके समय में भी नहीं समझा गया और उनकी गाथा गाने वालों द्वारा भी अधूरे रूप में ही समझा गया। तुम्हें क्या लगता है।''

''मुझे लगता है कि यदि मेरे हाथ में हथौड़ा होता और तुम्हें अपना मित्र समझ कर उसका तुम पर प्रयोग न करने की ठान कर बैठा होता तो भी अपने को काबू में न कर पाता और तुम्हारा सिर फटा मिलता । बात कर रहे थे कि हिंदी का आना अब इतिहास की जरूरत है और गॉंधी माहात्म्य में जुट गए। तुम पिछले जन्म मे चारण रहे होगे।

"चलो, पुनर्जन्म में तुम्हें विश्वास तो पैदा हुआ। लेकिन तुम ठीक कहते हो, मुझे न बोलना आता है, न लिखना। मैं अक्सर अपने विषय को ही भूल जाता हूँ, बोलते समय भी और लिखते समय भी। लेकिन इसका एक फायदा भी है यार। जब पता चलता है कि अरे मुझे इस विषय पर बात करनी थी और उसका तो जिक्र ही नहीं आया तो प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब इसे सलीके से कहूँगा। नतीजा वही होता है। फिर भी लाभ यह कि अपनी ही कमी को पूरा करने के लिए दूसरा लेख, दूसरी किताब आती जाती है, बाजार गरम रहता है और बात पूरी होती लगती नहीं। मरते समय कहूँगा, इसे अगले जन्म में समझाऊंगा, पर वैज्ञानिक अगले जन्म का रास्ता रोके खड़े हैं। अधूरा कहा और अधूरा लिखा है, इसे मेरे पाठक ही पूरा करेंगे। फिर भी कल मिलते हैं।

हिंदी की तरफ लौटे थे गालिब



'यह बताओ, तुम्हारे पास जादू की कौन सी छड़ी है जिससे तुम हिन्दी को भारतीय संपर्क भाषा बनने का सपना देखते हो और कौन सी ऐसी भिन्नताएं हैं जिनके कारण तुमको पाकिस्तान में उर्दू की स्वीकृति असंभव लगती है।''

''इतने सारे सवाल । मैं तो इनमें पहले का ही जवाब दे सकूँ तेा धन्य समझूँगा। पहली बात यह जादू की छड़ी न तो कभी मेरे पास थी, न ही उसकी कामना करता हूँ। छड़ी का जादू छड़ी के हटते ही टूट जाता है। मेरे पास इतिहास की एक मोटी समझ है जिसमें यह संभव प्रतीत होता है।''

''यह समझ सिर्फ तुम्हें है, और किसी को नहीं।''

''दूसरों को इतिहास की बारीक समझ है इसलिए वे इसके साथ छेड़छाड़ करते रहते हैं, इसालिए उसे समझ नहीं पाते। वे उससे डरते हैं, उसे अपनी भट्ठी का ईंधन बना कर रखना चाहते है, और लापरवाही में अपना हाथ भी जला लेते हैं। मैं उसे देखता हूँ, उसके रुख को पहचानता हूँ और उससे संवाद तक कर लेता हूँ क्योंकि उसकी संकेत भाषा समझता हूँ।''

''तब तो तुम्हारी आरती उतारनी पड़ेगी।''

''उसमें तो सीधे आग से पाला पड़ेगा और तुम अपनी दाढ़ी भी जला बैठोगे। इसलिए ऐसा जोखिम मत उठाओ, मैं तुम्हें स्वयं उसके पास ले चलता हूँ।''

''देखो, उन्नीसवीं शताब्दी में कोई इस बात का सपना तक नहीं देखता था कि यह देश कभी आजाद हो सकेगा, सिर्फ अंग्रेजों को पता था कि उनके पॉंव जमीन पर नहीं है, वे अधर में लटके हुए है, उन्‍हें यह आशंका भी थी कि 1857 के दमन का गुस्‍सा भारतीय मानस में भरा हो सकता है और कभी उग्र रूप ले सकता है। इसलिए वे तभी तक सुरक्षित है जब तक भारतीय आपस में लड़ते रहें। यह नीति उन्होंने टीपू (1799) की पराजय और उसके बाद दूसरे मराठा युद्ध में विजय (1805) और 1815 में तीसरे मराठा युद्ध में मराठा प्रतिरोध को पूरी तरह चूर करने के बाद जब कहीं से प्रभावशाली प्रतिरोध का खतरा नहीं रह गया तब अपनाई। इससे पहले वे यह मान कर चल रहे थे कि उन्होंने बंगाल की जमीन मुसलमान शासकों से छीनी थी सो मुसलमान ही उनके विरोधी हो सकते हैं, हिन्दुओं को मुस्लिम शासन से मुक्ति मिली है इसलिए वे आसानी से हमारे साथ आ सकते हैं, उन्होंने हिन्दू सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन और इसके नकारात्मक पक्षों की उपेक्षा करते हुए केवल धनात्मक पक्षों को उजागर करने की नीति तो अपनाई ही, इस बात की सावधानी भी बरती कि मिशनरियों की गतिविधियों को काबू में रखा जाय, जिससे वे जिन हिन्दुओं का सहयोग और समर्थन चाहते हैं वे बिदक न जायँ। यह याद रखना जरूरी है कि मुसलिम प्रतिरोध बंगाल में 1857 के संग्राम के बाद भी जारी रहा और उसी से चिन्तित हो कर हंटर ने जो खुफिया विभाग के प्रधान रह चुके थे मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध करने या कहें आपसी झगड़े लगा कर अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने का रास्ता अपनाया था।

''तुम किसी बात को इतना फैला देते हो, यदि मुझे तुम्हारी बीमारी को नाम देना हो तो इसे डायलोफीलिया नाम दूँगा और तुम्हें समझाने का प्रयास करूँगा कि तुमको किसी अस्पताल में भर्ती हो जाना चाहिए।''

''और यदि मैने पूछ लिया कि कौन सा अस्पताल तो तुम उसका नाम बताओगे जिसमें तुम आते जाते रहते हो। तुम्हें अपने अस्पलताल से भी प्रेम है और अपने आप से भी, और तुम जो अच्छे नंबर लाते रहे हो वह हिस्ट्री मेड ईजी, साइंस मेड ईजी, यूनिवर्स मेड ईजी जैसी किताबें पढ़ कर। तुम्हें झटपटिया ज्ञान है और मैं तुम्हें उस मनोविश्लेषण से गुजारना चाहता हूँ जिसमें अवचेतन की गहराइयों में उतर कर समस्याओं का कारण समझा जाता है, समाधान वहॉं नहीं मिलता। समाधान कारण को जानने के बाद हमें ही तलाशना होता है। 
"तुम्हें आज इतनी ही खूराक काफी है। पहले इसे पचा लो तो उन गॉंठों पर बात करेंगे जिनसे मुक्ति के बिना हम राष्ट्रकवि की उन सरल पंक्तियों का भी अर्थ नहीं समझ सकते जो निरक्षरों को भी बोधगम्य लगती हैं : 

हम कौन थे क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी।

अब इस तथ्य पर ध्यान दो कि मध्यकाल में शासकों के जो भी अन्याय रहे होंं सामान्य हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच कटुता न थी । इसका प्रधान कारण यह था कि मुसलमानों का नब्बे प्रति शत धर्मान्तरित हिन्दू थे जिन्हें विवशता में ऐसा करना पड़ा था। इसलिए दफ्तरों की भाषा जो भी रही हो आम बोलचाल की ज़बान ऐसी थी जिसमें कुछ अरबी फारसी के शब्द थे जबान हिन्दी थी, हिन्दी ही कही जाती थी ।
सभी मुसलमान अपने क्षेत्र की बोली जानते और बोलते थे। विदेशी मूल पर गर्व करने वाले आपस मे तुर्की या फारसी बोलते थे । कविता करते समय उनकी जबान में कुछ ऐसे शब्द भी आ जाते थे जो आम बोलचाल में नहीं आए थे । पर इसे एक दोष माना जाता था । मीर का यह कथन कि 'क्या जानूँ लोग कहते हैं किसको सरूरे कल्ब । आया नहीं है लफ्ज ये हिन्दी जबाँ के बीच।' इस सचाई को बयान करने के लिए काफी है । हाली के बारे में एक बार शमशेर बहादुर सिंह ने बताया था कि वह शब्द विचार के मामले में कहते थे कि हमारे घर में । इसके लिए यह बोला जाता है, अर्थात महिलाओं की बोली को वह भाषा की कसौटी मानते थे। जौक ने गालिब की भाषा का मजाक उड़ाते हुए कहा था मजा कहने का जब है एक कहे और दूसरा समझे, मगर इनका कहा ये आप समझें या खुदा समझे । गरज नाम भले उर्दू भी चलन में आ गया था पर उसका मतलब भी हिन्दी या आम बोलचाल की भाषा ही था, इसलिए भाषा को लेकर हिन्दू मुसलमान का फर्क न था । गालिब भी अपनी चूक सुधारने की ओर मुड़े थे । उनके वे ही शेर लोकप्रिय हैं जो आम जबान और मुहावरों में हैं। यह अलगाव 1870 के बाद प्रयत्न पूर्वक पैदा किया गया और इसी तरह गोकुशी को सह दे कर, कराने की कोशिशें शुरू हुंईं कि जिससे उनके कसाईखानों की ओर ध्यान न जाय। इसे प्रचारित जान बूझ कर किया जाता था। इसको खुले आम कराने के प्रयत्न के बाद भी ऐसा विरल मामलों में ही होता था ।
'तुम फिर बहक रहे हो।'
'तुम ठीक कहते हो । यह समझो कि औरंगजेब ने भी अपनी मौत को निकट जान कर जो 
दर्द और अफसोस भरा, लगभग आत्मग्लानि भरा पत्र दक्षिण भारत से अपने पुत्र को लिखा था उसे मुस्लिम शासकों के व्यवहार में एक मोड़ माना जा सकता है जिसमे भारतीय जमीन और जन से जुड़ने की तड़प साफ देखी जा सकती है यही कारण है 1857 में । हिन्दू मुसलमान दोनों में इतना एका पैदा हो सका।
"यह पँवारा तुम क्यों दुहरा रहे हो?"
"यह याद दिलाने के लिए कि उन्नीसवीं सदी में भारतीय समाज अधिक एकजुट था, कि 1857 का संग्राम हमारे जातीय आक्रोश की अभिव्यक्ति था, उसका लक्ष्य ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने का था, जबकि सैयद अहमद का अभियान और कांग्रेस का लक्ष्य अपने और अपनों के लिए रियायतें माँगने का था। इसमें नजर किसको क्या मिला इस पर थी और जब इसने डोमिनियन स्टेटस या स्वतन्त्रता की माँग करना शुरू किया तब भी इसमें ऐसों का बोलबाला था जो अपने लिए कुछ चाहते थे और लगे हाथ कुछ देश को भी मिल जाय तो उस पर उन्हें आपत्ति न थी।

आत्मघात



‘’यह बात तो किसी से छिपी नहीं है कि देश का बँटवारा उर्दू भाषा को लेकर हुआ था और तुम यह दिखाना चाहते हो कि सब कुछ ठीक ठाक था, मसला लिपि का था।‘’
‘’देखो, भाषा तो बहाना थी। बँटवारा इस दहशत के कारण हुआ था कि भारत स्वतन्त्र होगा तो लोकतंत्र की स्थापना होगी। शासन बहुमत के हाथों में होगा जिसका मतलब है राज्य हिंदुओं का होगा और वह बदले की भावना से काम करेंगे। यह उनकी सोच नहीं थी, मन्त्र फूँक कर, हतचेत करके, इसे उनकी जहन में उतार दिया गया था। उन्होंने हिन्दू‍ इतिहास को ध्यान से पढ़ने तक का प्रयत्न नहीं किया, अन्यथा वे समझते कि जिन मूल्यों ने ही भारत को मुस्लिमबहुल देश होने से बचाया, ईसाइयत का प्रतिरोध किया उन्हीं ने उन उत्पीड़क कर्मों से उसे बचना सिखाया, जिनके कारण एक प्रभावशाली मुस्लिम नेता ने पाकिस्तान बनाने के समर्थन में यह तर्क किया था कि जिन्हें वे अपना नायक मानते हैं उन्हें हिन्दू खलनायक मानते है, और जिन्हें हिन्दू अपना नायक मानते हैं, उन्हें वे खलनायक मानते हैं, इसलिए दोनों समुदाय साथ नहीं रह सकते। 
" वे अपने ही मध्यकाल की यादों से डरे हुए थे और अपने ही मूल्य मानों के कारण डरे हुए थे, क्योंकि वे सोचते थे कि वे जैसा आचरण करते आए हैं वैसा ही दूसरा भी करेगा। यह उनकी सीमा नहीं थी, एकेश्वरवादी सोच की सीमा थी, जिसमें भिन्न मान्यताओं, विचारों, दृष्टियों के लिए तो स्थान होता ही नहीं, आत्मनिरीक्षण तक के दरवाजे बन्द कर दिए जाते हैं और भावना विवेक पर इस तरह हावी हो जाती है कि देखने और जॉंचने की इच्छा‍ तक मर जाती है। अन्यथा मुस्लिम नेताओं ने देखा होता कि मध्यकाल के मुस्लिम शासकों, प्रशासकों और सिपहसालारों के कारनामों के अनुभव के बावजूद किसी हिन्दू राजा या रानी ने मुसलमानों के साथ दुराव तक का व्यवहार नहीं रखा, अत्याचार की तो बात ही दूर है, यद्यपि कई बार इस सद्विश्वास के कारण उन्हें क्षति भी उठानी पड़ी, किसी ने अपने अधिकार क्षेत्र में भी उनके साथ प्रतिशोध या अविश्वास तक का प्रमाण नहीं दिया। जिस मूल्य व्यवस्था ने धर्मान्तरण से बचाया उसी ने इतर धर्मियों का उत्पीड़न करने से भी रोका।‘’
’’यह बताओ, तुम्हें कभी किसी पागल कुत्ते ने काटा था। याद करो, हो सकता है बचपन में काटा हो और सूइयॉं लगी हों, कहने के लिए तुम ठीक हो गए हो, पर जहर तो जहर है यार, उसका हल्का असर कब तक बना रहे कौन जानता है।‘’
’’मैं तुम पर हँसना चाहता हूँ पर हँस इसलिए नहीं पाता कि तुम्हें दु:ख होगा।‘’
’’मैं तुम पर हँसते हुए यह सोच कर रोता रहता हूँ कि तुम घूम फिर कर उसी हिन्दू-मुस्लिम सवाल पर क्यों लौट आते हो। तुम इतने प्यारे दोस्त हो, विचार नहीं‍ मिलते तो क्या, मैं बड़ी पीड़ा के साथ पागल कुत्ते के काटने का मुहावरा तलाश पाया था। उपमा का क्या बुरा मानना।‘’
"परन्तु कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके लिए उपमा तक तलाशने चले तो उपमा दहशत में पीछे हट जाती है। उनमें ही तुम हो । मैं भाषा पर बात कर रहा था और तुम विभाजन पर पहुँच गए और उसका विवेचन किया तो मुझे ही उस बीमारी से ग्रस्त बता दिया जिसका प्रमाण तुम स्वयं दे रहे थे।
‘’सच कहो तो जिस भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव था वह हिन्दी‍ नहीं, हिंदुस्तानी थी, जिसमें अरबी फारसी शब्दों के प्रयोग की पूरी छूट थी। उसकी कसौटी थी बोधगम्यता, परन्तु उसको ले कर बहुत चर्चा नहीं हुई थी क्योंकि भाषा केन्द्रीय समस्या थी नहीं, वह मात्र ओट थी। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने जो हिंदी-तमिल, हिन्दी-कन्नड आदि कोश तैयार कराए थे उनमें फारसी अरबी के शब्दों संख्या बहुत अधिक थी और उन छोटे कोशों में जिन्हें शब्दसंग्रह कहना अधिक उचित होगा, ऐसे फारसी और अरबी के शब्द भरे हुए थे जिनका शायद ही कोई प्रयोग करता हो । ज्ञानमंडल के हिन्दी शब्दकोश में फारसी और अरबी शब्दों को बहुत उदारता और विवेक से स्थान दिया गया है। मुस्लिम अभिजात वर्ग का आग्रह अरबी लिपि में लिखित भाषा पर था और इसके पीछे अपनी धौंस जमाने की आकांक्षा अधिक प्रबल थी, अपनी भाषा से प्रेम कम । इसमें प्रगतिशील और दकियानूस का फर्क नहीं था।
"बीमारी भी पुरानी थी। यह विवाद 19वीं शताब्दी में ही पैदा हो गया था और इसमें जान बीम्स की बहुत सक्रिय भूमिका थी, जो परोक्ष रूप से मुसलमानों को इस बात के लिए उकसा रहे थे कि वे अपनी भाषा को अधिक अरबी फारसी मंडित करें, इसे मुसलमानों की भाषा मानें और हिन्दू इसके जवाब में अधिक संस्कृतनिष्ठ भाषा अपनाएँ, जब कि फैलन बोलचाल की शब्दावली की वकालत कर रहे थे। यह नूरा कुश्ती थी। इसकी चर्चा यहॉं उचित न होगी। उनकी यह चाल सफल रही और हिन्दी‍ और उर्दू के पक्षधर उनकी इच्छा पूरी करने लगे थे। हंटर के सामने अपने बयान में सैय्यद अहमद का यह कथन कि ‘उर्दू शरीफों की जबान है और हिंदी गँवारों की जबान‘ और इससे तिलमिला कर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का यह फिकरा कि उर्दू नाचने वाली लड़कियों और तवायफों की जबान है। धनी हिन्दु्ओं की बिगड़ी औलादें और ढीले ढाले चरित्र के नौजवान जब रंडियो, रखैलों और भड़ुओं के बीच होते हैं तो उर्दू बोलते हैं।‘ उस जाल में दोनों समुदायों के नेताओं के फॅसने के प्रमाण हैं। भारतेन्दु स्वंयं भी उर्दू में शायरी करते थे और सन्तुलित चित्त से ऐसी बात नहीं कह सकते थे, पर जवाब तो देना ही था। शब्दों के मामूली फर्क से सैयद अहमद बीम्स के जुमले को ही दुहरा रहे थे तो इसकी प्रतिक्रिया में भारतेन्दु उस पाले में पॉंव रख रहे थे जिसमें बीम्स ने हिन्दी को दरिद्र भाषा सिद्ध करते हुए यह सुझाया था कि हिन्दी में तकनीकी शब्दावली का अभाव ही नहीं है, वैसी शब्दावली बन ही नहीं सकती। हिन्दीं को संस्कृतनिष्ठ बनाने की बीमारी के पीछे यही कारण था अन्यथा हिन्दी के संस्कृतज्ञ भी बोलचाल में संस्कृत के तदभव पदों का ही प्रयोग करते थे। भारतेन्दु स्वयं आजीवन इस बीमारी से बचे रहे।
‘’दुखद यह है इन दोनों फिकरों का खुमार जनमानस पर लम्बे समय तक बना रहा इसके कारण हिंदी उर्दू दोनों की प्रतिष्ठा को अघात पहुंचा । इसका सबसे खतरनाक परिणाम मुस्लिम समुदाय का दबे सुर से अंग्रेजी का पक्षधर हो जाना था। यदि अरबी लिपि में लिखित उर्दू राष्ट्र भाषा न बनी तो उस हिन्दुस्तानी से अच्छा है अंग्रेजी ही जारी रहे। परन्तु इसका सबसे बड़ा नुकसान स्वयं अरबी लिपि में उर्दू के हिमायतियों को ही उठाना पड़ा। देश बँट गया पर न उर्दू पाकिस्तान के कामकाज की भाषा बनी न हिन्दी भारत के कामकाज की और इसका कारण भाषाप्रेम का पाखंड रच कर अपना स्वार्थ साधन था।
हम कहें इस खींच-तान का यह असर तो हुआ ही कि अपनी भाषा के प्रति हिन्दी-प्रदेश में हिन्दी़ या उर्दू के प्रति वह गहरा लगाव नहीं पैदा हो सका जो दूसरे प्रदेशों में देखने में आता है। हिन्दी भाषी क्षेत्र भग्नमनस्कता का शिकार बना रहा और आज भी है। जो भी हो भाषा और संस्कृति की आड़ में देश का विभाजन हो जाने के बाद भी न हिन्दी भारत की सरकारी काम काज की भाषा बनी न पाकिस्तान की राष्ट्राभाषा घोषित होने के बाद भी उर्दू।
‘’भारत की बात अलग है, पाकिस्तान के बारे में तुम ऐसा नहीं कह सकते।‘’
‘’मेरी जानकारी ही कितनी है कि कुछ कहूँ, मैं तो डान में प्रकाशित एक लेख की ओर तुम्हारा ध्यान ले जाना चाहता हूँ जिसके बाद मुझे कुछ कहने की जरूरत ही न होगी। इसके लेखक ने इसे शेयर करने की अनुमति दे रखी है इसलिए इसे शेयर करना ही समझ सकते हो:
The status of Urdu is a major issue which does not seem to be getting its due share of attention; in fact it seems to be getting no attention at all, either by the government or by the citizens. Current policies and trends have seen a pathetic downfall in the status of our national language.
The language policy according to the Constitution of Pakistan is
1. The national language of Pakistan is Urdu, and arrangements shall be made for it being used for official and other purposes within 15 years from the commencing day.
2. The English language may be used for official purposes until arrangements are made for its replacement by Urdu (Article 251 of the Constitution of the Islamic Republic of Pakistan, 1973)
It has been 62 years but unfortunately our government has failed to take appropriate measures to replace English with Urdu.
The status of Urdu is a major issue which does not seem to be getting its due share of attention; in fact it seems to be getting no attention at all, either by the government or by the citizens. Current policies and trends have seen a pathetic downfall in the status of our national language.
The language policy according to the Constitution of Pakistan is
1. The national language of Pakistan is Urdu, and arrangements shall be made for it being used for official and other purposes within 15 years from the commencing day.
2. The English language may be used for official purposes until arrangements are made for its replacement by Urdu (Article 251 of the Constitution of the Islamic Republic of Pakistan, 1973)
It has been 62 years but unfortunately our government has failed to take appropriate measures to replace English with Urdu.
We have seen nations progressing because of taking pride in their national language and their identity but we on the other hand are content with hiding our real identity and feel 'embarrassed' in relegating the status of our national language. We consider those backward who prefer to talk in Urdu while speaking in English has become a symbol of status.
Another problem relevant to the language issue is the flaw in our educational system. It was the government's responsibility to take proper steps to raise the status of Urdu among citizens which could very well have been achieved through the educational system.
But there is no unanimous educational system in Pakistan. In majority of the systems, English is made compulsory and students are encouraged to talk in English which not only suppresses their love for their national language but also makes the students studying under Urdu-based systems victims of inferiority complex.
Furthermore, citizens are forced to learn English for better job opportunities. Is this supposed to be the policy of a country with Urdu as the national language?
Another point which I would like to add here is that the current trend of writing Urdu in Roman script in SMSs and emails has led to further deterioration in the language's quality. Mobile phones with Arabic are available in our country, then why not those with Urdu?
It's high time the government took essential steps like revising the education policy and promoting Urdu writing, debates and poetry competitions on the national level.
The people, especially the youth of Pakistan, should participate in this by bringing about a change in their thoughts and reunite for this cause.
FARIHA SAGHIR 
Karachi

उर्दू हिन्दी के संबन्ध




''तो तुम मानते हो हिंदी की स्वीकार्यता में उर्दू भाषा रुकावट बनी।''

मैं मानता हूँ एक ही क्षेत्र में दो भाषाएं आम जबान नहीं हो सकतीं। उर्दू भाषा नहीं है, हिन्दी की एक शैली है जिसमें अरबी-फारसी जानने वाले को अपनी भावना की सटीक अभिव्यक्ति के लिए उनका कोई शब्द या पदबन्ध अधिक उपयुक्त लग सकता है, और संस्कृत जानने वाले को उससे भिन्न शब्द या पदबन्ध अधिक सटीक लग सकते हैं और देशज बोलियों के सौन्दर्य पर मुग्ध किसी व्यक्ति को उनमें अपनी भावना की सही अभिव्यक्ति मिल सकती है और वह उसका प्रयोग कर सकता है। हिन्दी वह महानदी है जो इन सबको समेटते हुए प्रवाहित हो सकती है और ये हिन्दी की उद्दाम शक्ति को प्रकट करते हैं और यह सिद्ध करते हैं कि हिन्दी एक महान भाषा है। इस माने में अंग्रेजी भी हिन्दी से पीछे पड़ेगी जो दूसरी ऐसी भाषा है जिसकी महिमा का एक रहस्य यह है कि उसने अपना अस्सी प्रतिशत बाहर से लिया है। वह भी उतनी उदारता से अन्य भाषाओं के शब्दों और व्यंजनाओं को आत्मसात नहीं करती जितनी उदारता से हिन्दी फिर भी अंग्रेजी दुनिया की किसी दूसरी भाषा से अधिक खुली भाषा रही है। उसके कोशकार उन शब्दों और अभिव्यक्तियों को उसके मानक रूप में शामिल करने में कई दशक लगा दें, कुछ को स्वीकार तक न करें, फिर भी सर्जनात्मक साहित्य में कुछ भी स्वीकार्य है परन्तु लेखक के जोखिम पर । यदि उसको प्रकाशक न मिला तो, या प्रकाशक मिल गया परन्तु वह पाठकों तक नहीं पहुँच पाई तो, वह अपनी रचना के साथ ही रसातल को चला जाएगा। यहीं सही अनुपात और सन्तुलन का प्रश्न आता है।‘’

’’तुमको हिंग्लिश से कोई ख़तरा नहीं महसूस होता ।‘’

''तुमने भवानी भाई की वे पंक्तियॉं पढ़ी हैं : जिस तरह मैं बोलता हूँ उस तरह तू लिख / और उसके बाद भी मुझसे बड़ा तू दिख । इसका अर्थ जानते हो तुम ।''

'' क्या बात करते हो, यदि बोलचाल में किन्हीं शब्दों और पदबन्धों का प्रयोग होता है तो उसे लिखना गलत कैसे हो सकता है। उसे लिखा जाना चाहिए। गरज कि हिंग्लिश से किसी को शिकायत है तो वह दकियानूस है।‘’

''देखो, हिंग्लिश शब्द नया है, उर्दू की तरह अंग्रेजी शब्दबहुल भाषा के लिए एक नया शब्द । और जानते हो इसकी संभावना ग्रियर्सन ने आज से सौ साल से भी पहले लिग्विस्टिक सर्वे आफ इंडिया में ही जता दी थी। उस सर्वे में भयंकर गलतियां हैं फिर भी वह आज भी एक महत्वपूर्ण कृति है। अब कंठस्थ तो किया नहीं कि तुम्हें सुना दूँ, परखने के लिए तुम्हें ही उस रपट को पढ़ना पड़ेगा। परन्तु एक बात तुम्हारे ध्यान में नहीं आई कि कवि ने यह नहीं कहा कि जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख। यदि लिखता तो उसकी अगली पंक्ति होती, ‘और अपनी परिधि में सिकुड़ा हुआ तू दिख।‘’

''तुम कहना क्या चाहते हो, अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग हिन्दी में नहीं होना चाहिए।''

'' क्या मेरे पास या किसी के भी पास इतनी ताकत है कि वह यह निर्देश दे सके कि बोलते समय लोग अमुक शब्दाभंडार का प्रयोग करेंगे और यदि इसका उल्लंघन हुआ तो उनको दंडित किया जाएगा, या सामाजिक रूप में बहिष्कृत किया जाएगा।''

‘’है तो नहीं।‘’ वह इस तरह बोला मानो अपना सिर पीट रहा हो।

मैंने कहा, ''यह मेरी बात नहीं है, न इस विषय में मेरी जानकारी अधिक है पर सुना है एक भाषा के भीतर कई तरह की कूट भाषाऍं और कृत्रिम भाषाऍं और विशिष्ट तथा क्षेत्रीय भाषाएं व्यवहार में आती हैं। उनकी एक सीमित परिधि होती है जिसमें उन्हें समझा जाता है। इसी तरह विचारों की भी परिधि होती है जिसमें मूर्धन्य ज्ञानी भी होते हैं परन्तु हमारी कसौटी पर मूर्ख और उनकी कसौटी पर हम, उनके प्रभावक्षेत्र में मूर्ख सिद्ध होते हैं। इनमें सभी सही होते हैं, गलत कोई नहीं होता, पर मूर्ख भी कई बार समझदारी की बात और काम करता है, और समझदार भी मूर्खता करते हैं और अपनी मूर्खताओं पर गर्व तक करते हैं। यह एक शास्त्रीय विषय है और इसके पचड़े में पड़ गए तो पता नहीं कहाँ जा कर लाश किनारे लगे। इसलिए मैं फिर भवानी भाई की पंक्ति पर आना चाहूँगा। जिस तरह मैं बोलता हूँ उस तरह तू लिख न कि जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख।

''उर्दू और हिन्दी का अन्तर यह नहीं है कि ये दो भाषाएं हैं, बल्कि यह दो भिन्न स्तरों की अभिव्यक्तियां हैं। उर्दू में जिस तरह वे बोलते हैं या बोलते तक नहीं, सोचते हैं उस तरह लिखने की कोशिश की जाती रही और की जाती है। यही दशा संस्कृतगर्भी हिन्दी की थी। हिन्दी उस जबान का नाम है जिसका मानदंड वह व्यक्ति तय करता है जो अधिक से अधिक साक्षर है और निरक्षर तो है ही। भाषा का चरित्र वहीं से निर्धारित होता है। ताकत लगाकर भी, राजशक्ति का प्रयोग करके भी आप उसे प्रभावित नहीं कर सकते, आपका असर खरोंच बन कर रह जाएगा। अत: जो अपनी कोठरी में या कोटर में बात करना चाहते हैं और यह चाहते हैं कि उनको अपनी कोटर के अनमोल बोल के कारण दूसरों से बड़ा समझा जाए उन पर दया की जा सकती है। उर्दू अपनी पहली ही परीक्षा में फेल हो गई। तुम जितनी भी कोशिश हिन्दी को उर्दू बनाने की करो, यदि तुम्हें बहुजन तक पहुँचना है तो वह हिन्दी बन जाएगी, हिन्दी मानी जाएगी। तुम उर्दू सिनेमा बनाओगे, कुछ शब्द जबरदस्ती भरोगे जो आम आदमी की समझ में नहीं आएंगे, वह उनका मानी संदर्भ को देख कर कयास से लगा लेगा क्योंकि वह इसे अपनी भाषा के ही अधिक पढ़े-लिखों की भाषा मानता है। वह हिन्दू मुस्लिम का भेद करके शब्दों को नहीं समझता। उर्दू के प्रति अति संवेदनशीलता ब्रिटिश काल में बढ़ाई गई जिससे हिन्दी भाषियों के साथ इनका संचार तक सीमित रह जाए।



एक और कसौटी बता दूँ । जिस भाषा में गलतियां सहने की आदत होती है वही महान भाषा बन सकती है। खीच तान कर भी यदि आपका आशय समझ में आ गया तो सिर माथे। हिन्दी में यह सराहनीय गुण अंग्रेजी के बाद आएगा, परन्तु है यह इन दोनों के बीच का ही मुकाबला और भारत की अपनी सीमाओं के भीतर यही कसौटी बन सकता है। उर्दू तलफ्फुज या शूद्ध उच्चाररण पर इतना जोर देती रही कि जिस भाषा के नाम पर पाकिस्तान बना उसमें भी वह स्वीकार्य न हो सकी और भाषा को ले कर कई तरह के टकराव पैदा हो गए जिनमें सबसे बड़ा आघात उसके ही पूर्वी भाग के अलग राष्ट्र बनने के रूप में मिला।

‘’परन्तुू देखो, इतिहास ने भले सच साबित किया हो, समाज में अपने रागबन्ध में बँधे हुए लोग हमारी बात को मान लेंगे, यह सोचना तक नासमझी होगी।‘’

‘’परन्तु हिन्दी एक महान भाषा है यह तुम्हें नहीं कहना चाहिए था, तुम हिन्दी के लेखक हो। अपने मुँह से अपनी तारीफ ही नहीं, अपने से अनन्य किसी भी चीज की, चाहे वह भाषा हो या देश, या धर्म, हमें इनके प्रति निष्ठा समर्पित भाव से दिखानी चाहिए, महान कह कर पल्ला नहीं झाड़ लेना चाहिए।‘’

’’यह सलाह तो मैं देने वाला था, तुम्हारे पल्ले कैसे पड़ गई? पड़ गई तो मैं खुश हूँ कि अत तुम मेरे करीब आते जा रहे हो।”

‘’तुम्हारे करीब मैं? बैठना तो पड़ता है पर होना मुश्किल है।‘’

’’जानता था, यह तुम्हारी किस्मत में नहीं, फिर भी यह जान लो कि हिन्दी और उर्दू में बुनियादी फर्क नहीं है। भाषा का चरित्र उसके व्याकरण से तय होता है, उसके वक्ताओं की आनुपातिक संख्या से तय होता है, उसकी परंपरा से तय होता है और सबसे अधिक उसके निरक्षर या नाममात्र को साक्षर लोगों की जबान से तय होता है और इसलिए एक पृथक भाषा के रूप में अपने सभी प्रयोगों में उर्दू विफल रही, परन्तु एक पृथक शैली के रूप में इतनी सफल रही कि हिन्दी बोलने वाला भी बात बात पर या तो उर्दू का कोई शेर जड़ देता है या संस्कृत या हिन्दी की सूक्तियां बोल जाता है। हिन्दी के उन्हीं कवियों की भाषा में प्रवाह मिलता है जिन्हों ने उर्दू की शायरी से कुछ सीखा हो और इसका कारण अरबी फारसी के शब्द नहीं हैं, अपितु यह कि उर्दू कवियों में आरंभ में सूफियों का बोलबाला रहा और सूफियों ने सबसे पहले हमारी बोलियों को पहचाना, उनके माध्यम से जन जन तक पहुँचने का प्रयत्न किया, उनके मुहावरे और उनकी भाषा की रवानगी पर उर्दू की नींव रखी गई इसलिए उर्दू का ज्ञान हमें समृद्ध करता है, रंक नहीं बनाता।

"झगड़ा दर अस्ल भाषा का नहीं लिपि का था। लिपि भाषा नहीं होती यह हम जानते हैं, पर लिपि के साथ भी हमारा भावनात्मक लगाव होता है और मुस्लिम समुदाय का पान इस्लामिक आकांक्षाओं के कारण अधिक गहरा था । लिपि न कि भाषा उन्हें दूसरे मुस्लिम देशों से जोड़ती थी। कुुछ लोगों को यह बिल्कु्ल तुच्छ समस्या लगेगी, अवैज्ञानिक तो है ही। सामी भाषाओं के लिए विकसित लिपि तथाकथित आर्य भाषाओं के उपयुक्त नहीं है। बर्नार्ड शा ने तो अंग्रेजी की वर्तनी के सुधार का मार्ग नागरी में देखा था और अपनी संचित संपदा की वसीयत उस आदमी के नाम करने को कहा था जो अंग्रेजी की वर्तनी सुधार दे। पर भावना के क्षेत्र में तार्किकता सिर धुन कर रह जाती है अन्यथा हमने पूरे देश को जोड़ने के लिए अपनी लिपियों को जो सभी ब्राह्मी से निकली है, एक कर लिया होता और आपसी दूरियां कम हो गई होतीं। न हुआ, न होने वाला है"

हमने अपने को परिन्दों की जबां से जाना


’हाँ अब बताओ ऊपरी छिल्के के नीचे की वह सच्चाई।‘’
’’सबसे पहले मैं इस प्रचलित भ्रम को दूर कर दूं कि हिंदी के प्रसार में हिन्दी सिनेमा का, हिन्दी क्षेत्र के अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूरों की भूमिका प्रधान थी."
"यह तो सर्वमान्य तथ्य है यार, इसे कैसे नकार सकते हो? '' 
"नकार नहीं रहा हूँ, उस अतिमूल्यन का प्रतिवाद कर रहा हूँ जो सामान्य ज्ञान का हिस्सा बन गया है। उनकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता, परंतु साथ ही इनके ऋणात्मक पहलू पर भी ध्यान देना होगा, भावुकता के कारण जिसकी अनदेखी की जाती रही है और इतिहास की उस वक्र रेखीय चाल को समझने में भूल की जाती रही। तुमने एक बार मेरा मजाक उड़ाते हुए कहा था न 'चलई जोंक जिमि वक्र गति', इतिहास की भी चाल ऐसी ही है यार ! हम समझते है आगे बढ़ रहा है, बढ़ता भी है पर साथ ही बल खाकर नीचे भी चला जाता है।'' 
‘’पहली बात तो यह कि इस प्रसार का हिन्दी को लाभ नहीं हुआ, उल्टे नुकसान हुआ। दूसरी बात यह कि हिन्दी सिनेमा जैसी कोई चीज तब थी ही नहीं। इसे उर्दू सिनेमा बनाया गया और उसी को हिन्दी सिनेमा कहा गया और उर्दू के लेखकों को इसका मलाल रहा कि हम उर्दू सिनेमा बना रहे हैं और लोग इसे हिन्दी सिनेमा कह रहे हैं।‘’ 
''तुम्हे उलटबाँसियॉं इतनी पसन्द हैं कि कोई बात सीधी कह ही नहीं पाते। उर्दू सिनेमा बनाया गया और हिन्दी सिनेमा कहा गया। कोई तुक है इसमे।'' 
‘’समझ नहीं पाओगे, परन्तु तथ्य के रूप में इसे दर्ज कर लो कि जिन्हें तुम प्रगतिशील लेखन कहते हो और उर्दू के जिन कवियों को तुम प्रगतिशील मानते हो वे अपनी सांप्रदायिक चिन्ता से इतने ग्रस्त थे कि जब उनको लगा कि स्वतन्त्रता को रोका नहीं जा सकता, स्वतन्त्र भारत की भाषा हिन्दी ही होगी, उर्दू का भविष्य क्या होगा, इस चिन्ता से कातर, किसी रहस्यमय तरीके से उर्दू की उत्कृष्ट प्रतिभाओं ने निश्चय किया कि हम नए और सबसे प्रतापी संचार माध्यम सिनेमा का उपयोग करके उर्दू को बचाएंगे। इसे जन जन तक पहुँचाएंगे। उनकी सर्वोत्कृष्ट न भी कहें तो उत्कृष्ट् प्रतिभाओं ने अपना जीवन समर्पित कर दिया। उर्दू को भारतीय जनभाषा बनाने के लिए उन्होंने यह आखिरी प्रयत्न किया।‘’ 
‘’यह राज की बात सिर्फ तुम्हें मालूम है या किसी और को। यह बताओ तुम किस चक्की के आटे की रोटी खाते हो। इतने उम्दा खयाल तो आरएसएस की चक्की के आटे से ही पैदा होते है।‘’ 
''मैं यह नहीं कहूँगा कि तुम जैसे नासमझ बिना पिसे और पकाए, भूसा से ले कर अनाज तक खा जाने वालों में ही पैदा होते हैं, क्योंकि मैं दोस्ती की कद्र करता हूँ। तुम्हारे सन्तोष के लिए बता दूँ कि मैं भी तुम्हारी ही तरह नादान था। भला हो कर्रतुल ऐन हैदर का जिन्हों ने यह दर्द जाहिर किया था और उससे मुझे अपनी युवावस्था में देखी वे फिल्में याद आईं जिनमें कास्ट पहले उर्दू में आता था, फिर अंगेजी में और अन्त में हिन्दी में, गो अन्तिम के बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं हूँ कि वह आता भी था या नहीं। 
‘’तुम लाइलाज हो।‘’ 
‘’अपने बारे में जानता हूँ। उसका कारण भी जानता हूँ, परन्तु यह भी जानता हूँ कि हम दोनों को एक ही वार्ड में भरती नहीं किया जाएगा। तुमको पूरी बात तो सुननी चाहिए इतना बड़ा खतरा उठाने से पहले।‘’ 
‘’बोलो क्या कहना है।‘’ 
‘’हिन्दी राष्ट्रभाषा बनेगी तो हम उर्दू को जनभाषा बनाऍगे यह था उनका संकल्प। इसलिए हिन्दी/उर्दू सिनेमा ने अपनी भाषा का इस्लामीकरण किया और अन्तर्वस्तु का ‘जन-वादी-करण’ करते हुए, मजदूरों के निकट पहुँचने के प्रयत्न में मनोरंजन के सबसे प्रभावशाली माध्यम से कुरुचि का विस्तार किया। पहली बात यह कि मजदूर और सिनेमा में, मजदूर पहले और सिनेमा बाद में। मजदूरों के कारण हिन्दी के विषय में अहिन्दीे भाषाओं में यह संदेश गया कि हिन्दीे बोलने वालो की संख्या जो भी हो, यह मजदूरों और गँवारो की भाषा है और उस मजदूर वर्ग तक पहुँचने के प्रयत्नं मे सिनेमा का भदेसीकरण किया गया जिससे अन्य भाषा क्षेत्रों में यह सन्देश गया कि हिन्दीभाषी समाज अपरिष्कृत रुचि और प्रतिभा का समाज है और इसके नेतृत्व में भारत का अकल्याण ही हो सकता है। यह सचाई नहीं थी, पर इसे सचाई का रूप निहित स्वार्थो के कारण दिया गया। इसका उपयोग एक कारगर औजार के रूप में किया गया।‘’’ 
’’तुम असह्य हो यार । दिमाग मत खराब करो।''
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राष्ट्रभाषा संपर्क प्रभाव भाषा



‘’तुम आधे दिमाग के आदमी हो कोई बात पूरी कर ही नहीं पाते।‘’ 
’’श्रोता की पाचन-शक्ति का ध्यान रखना पड़ता है। एक साथ पूरी बात पचा नहीं पाओगे, इसलिए टुकड़े-टुकड़े करके पेश करना होता है।‘’ 
‘’जुमलेबाजी पर आ गए। आज भी यही सुनना पड़ेगा कि यार बात पूरी तो हुई नहीं। तुम संक्षेप में बताओ तुम कहना क्या चाहते हो। कोई बात उलझी रह गई तो बाद में पूछ लूँगा।‘’ 
’’मैं तीन बातों की ओर ध्यान दिलाना चाहता था। हिन्दी प्रदेश की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि लम्बे अरसे तक इसी को हिन्दुस्तान कहा जाता रहा है। आज भी बंगाली इस क्षेत्र के लोगों को हिन्‍दुस्तानी या पंजाबी कहता है। जिसने इस पर अधिकार कर लिया वह पूरे भारत को जिसमें तुम पाकिस्तान को भी जोड़ सकते हो, जीत लेता रहा है या कहो, उसके लिए ऐसी विजय आसान हो जाती रही है। वैसे तो इसे स्मिथ ने फ्रांसीसियों से अपनी श्रेष्ठता जताने के लिए कहा था, और एक हद तक झूठ भी कहा था, परन्तु उसका कहना था कि अंग्रेजों ने बंगाल में या गांगेय पट्टी पर अधिकार किया और फ्रांसीसी मद्रास में केन्द्रित हुए इसलिए भारत पर स्वाभाविक स्वा‍मित्व अंग्रेजों का ही हो सकता था। उसी ने इस इतिहास की ओर ध्यान दिलाया था, उससे पहले मेरे दिमाग में भी यह बात न थी। पर असलियत यह थी कि गंधार से ले कर मगध तक हिमालय से ले कर उज्जैन तक इसके संपर्क सूत्र फैले थे और ईसा से कई सौ साल पहले यहीं के संस्कृत विद्वान अन्यत्र पहुँचते और समादृत होते थे। कहें, अपनी केन्द्रीय स्थिति का भौगोलिक लाभ इसे मिलना ही था। भारत के दूसरे सभी अहिन्दी प्रदेश इससे सीधे संपर्क में थे जब कि उनके बीच यह संपर्क बहुत हाल का है या सीमित था। वे कुछ क्षेत्रों और उनके लोगों से सीमांत क्षेत्रों के लोगों उनकी भाषाओं और रीतियों से परिचित तक न थे परंतु इस केंद्रीय भाग को जैसी भी सही, सबकी जानकारी थी और इसके माध्यम से उनको एक दूसरे की कुछ जानकारी मिली थी और मिलती रही थी।
इसी के ऊपर पालि और प्राकृत का एक दूसरा रद्दा चढ़ा था जो संस्कृत का स्थानीय ध्वनिसीमा में उच्चरित रूप था और इसलिए प्राकृत का प्रयोग नाटकों के उन पात्रों द्वारा किया जाता था जिनको औपचारिक शिक्षा प्राप्त़ न थी। जैसे महिलाएँ, नौकर-चाकर आदि । इसे जैन मत ने अपनी भाषा बना कर अपने साहित्य के लिए प्रयोग किया। जैन और बौद्ध मत ने अपने संजाल का प्रसार व्यापारिक मार्गों पर और उनके माध्यम से उनके परिवेश में किया। जैन मत का प्रसार तमिल क्षेत्र में भी हुआ और संगम साहित्य का बहुत सारा साहित्य इस जैन मत के अनुमोदन में लिखा गया, जब कि पालि का प्रवेश उससे भी दक्षिण में, श्रीलंका तक में हुआ और मुझे जो विचित्र बात लगती है वह यह कि श्रीलंका को कन्नड क्षेत्र से गए हुए लोगों ने प्रभावित किया। एकारान्त शब्द भारत में केवल कन्नड़ की और इससे बाहर श्रीलंका की विशेषता है। यह कैसे हुआ, क्या महेन्द्र अपने सिंहल की यात्रा में कर्नाटक होते हुए और वहाँ के दलबल के साथ गए थे, या नहीं, इसका मुझे कुछ पता नहीं, परन्तु भाषा के तथ्य‍ यही कहते हैं। 
परंतु मैंने कहा न कि हम कुछ आगे बढ़ आए हैं । इससे पीछे एक बहुत क्रान्तिकारी चरण है। वह है कृषि और कृषिविद्या के माध्यम से उसकी जानकारी और शब्दावली का प्रसार। कोसंबी ने अपने निजी कारणों से यह स्वीकार किया है कि भारत में कृषि का प्रसार आर्यभाषा के प्रसार के समानान्तर हुआ है। यह एक अर्धसत्य है। हम इसकी मीमांसा की ओर नहीं मुड़ेंगे फिर भी यह कहना जरूरी है कि मोटे तौर पर यह सच है क्योंकि जिन देवों और ब्राह्मणों ने कृषि की दिशा में कदम आगे बढ़ाया था उन्हें सफलता या एक जगह टिक कर खेती करने का सुयोग इसी भूभाग में कहीं मिला था। वह स्थान या क्षेत्र जो भी रहा हो, वह इसी प्रदेश में था और कृषिविद्या का प्रसार सबसे पहले जिस क्षेत्र में हुआ उसे तुम आज की भाषा में हिन्दी प्रदेश कह सकते हो।'' 
’'मैं अधिक नहीं जानता, परंतु इतना जानता हूं कि हिन्दीे अभी कल पैदा हुई है और तुम उसे युगों पहले ले जा कर एक दिव्य अधिकार दिलाना चाहते हो। '' 
''मैंने सोचा था तुम मेरी बात समझ जाओगे। मुझे उसका नाम नहीं लेना पड़ेगा। अब लगता है कि तुमको बुनियादी बातों की भी जानकारी नहीं है। हिन्दी एक भाषा नहीं है, एक सांस्क़ृतिक क्षेत्र की वाणी है जो कई हजार साल से आपस में कई तरीकों से आलाप करती रही है। इसमें एक ही भाषा की स्वीकार्यता होती है। 
और यह क्षेत्र तीन स्तरों से निर्मित हुआ है। एक, आहार संचय और आखेट का चरण जिसे पुराणों की भाषा में सतयुग कहा जाता है और शेष सभ्यता के उत्थान के साथ अर्थतन्त्र के समानान्तर, परन्तु अपनी वक्र रेखाओं के साथ, जिसमें नियम तलाशने चलोगे तो वे कुछ दूर तक साथ देंगे परन्तु आगे काम न आऍंगे।
अब तुम हिंदी क्षेत्र को इस रूप में समझ सकते हो कि यह किसी एक भाषा का क्षेत्र नहीं है, कृषि विद्या के साथ पारस्परिक संपर्क में आई बोलियों का क्षेत्र है; सांस्कृतिक अन्तरक्रिया का क्षेत्र है, जिसमें कोई भी एक भाषा, उसका उद्गम क्षेत्र कोई भी क्यों न हो, उसका मानक चरित्र सारस्वत क्षेत्र में आ कर ही निर्धारित होता है और इसके बाद यह अखिल भारतीय स्वीकार्यता पा जाती रही है। वह वैदिक हो, संस्कृत हो, पाली या अपभ्रंश हो या आधुनिक बोलियॉ हों। यह सुयोग ही है कि आधुनिक हिन्दी उसी सारस्वत क्षेत्र की उपज है जिसमें कुऱु पांचाल आते रहे हैं और यह उस क्षेत्र के लोगों द्वारा आगे बढ़ कर अपना ली गई जिनकी अपनी भाषाएं और ऐसी बोलियॉं थीं, जिनका साहित्य इस पूरे क्षेत्र में स्वीकार्य था। यह अविरोध या सहर्ष स्वीकार ही उस भाषाई क्षेत्र की सीमा रेखा निर्धारित करता है जिसे आप हिन्दी क्षेत्र कह सकते हैं जो भारतीय भू भाग में सभ्ययता और संस्कृति के विकास में अग्रणी रहा है और आज पश्चिमी कूटनीतिक सफलता का प्रमाण ही माना जाएगा, कि यह सांस्क़ृतिक और भाषा-संस्कार का क्षेत्र कलह और विरोध का क्षेत्र बना दिया गया। ,
यह स्थिति बहुत हाल की है, साझा विरासत बहुत पुरानी है। यहां की भाषा अखिल भारतीय संपर्कसूत्र का काम दस पाँच हजार साल से करती आई है। हिन्दी की हिन्दी प्रदेश में स्वीकार्यता और बाहर इस पर आश्चर्य भी स्वाभाविक है। हिन्दी इसी तर्क से इस देश को जोड़ने वाली भाषा है, समस्त भारतीय अहिन्दी भू भाग में कुछ लोगों द्वारा समझी जाने वाली भाषा है। यह संविधान की कृपा से या किसी आन्दोलन से पैदा हुई भाषा नहीं है, अपितु नैसर्गिक राष्ट्रभाषा है और आज भी राष्ट्रीय उपयोग की भाषा है वह राजकाज की भाषा बने या न बने। भारत की किसी भाषा से इसका विरोध नहीं, बाहर तक की भाषाओं से भी नहीं। फिर भी यदि इसे ले कर गलतफहमी पैदा हुई तो इसे हम व्रितानी कूटनीतिक सफलता का प्रमाण मान सकते हैं ।
तुम ठीक कह रहे थे, विषय ही कुछ ऐसा है कि इसे न चुटकी बजाते समझा जा सकता है न हल किया जा सकता है। 
परन्तु् गौर करो, अभी तो हमने इसके छिल्के पर बात की है। इसकी मर्मकथा और आज की समस्या तो बची ही रह गई है। इतना धैर्य है कि उन पर भी बात की जा सके।''
उसने हाथ खड़े कर दिए।
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अधूरा ही सही



‘’तुमने भगवान को देखा था कभी या कि नहीं?‘’
’’क्योें ऐसा क्या हो गया?’’ 
’’सुना उस शख्स को गुजरे हुए जमाना हुआ।‘’
‘’शेर तो अच्छा है।‘’ 
’’सिर्फ शेर ही दिखाई दिया तुम्हें, वह वेदना नहीं जो अनकही रह गई है। तुमने घनानन्द को पढ़ा है। हिन्दी पढ़ाते हो तो पढ़ा ही होगा। उसकी वह पंक्ति याद है, ‘लोग है लागि कबित्त बनावत मोहें तो मेरे कबित्त बनावत।‘ मैंने कुछ कहा तो तुमने कहा अच्छा शेर है, यह न समझ पाए कि व्यथा इतनी गहरी है कि आह भी शेर बन जाती है।
‘’आज कैसी निराशा भरी बातें कर रहे हो यार। हुआ क्या है?‘’
‘’कल तुम कह रहे थे मैं तैश में आ गया था। यह जो भीतर की व्यथा है उसे बहुत प्रयत्न से हँसी मज़ाक से ढके रहता हूँ पर कभी कभी सँभाल नहीं पाता। प्रयत्न करके भी। पर कलम उठाता हूँ तो मैं लिखता नहीं हूँ उसे अपनी भाषा और भंगिमा स्वयं तलाशना होता है।‘’ 
देखो, मेरे फिकरे का मलाल है तो मैं अपनी गलती स्वीकार करता हूँ। तुम्हारा दिमागी हालत का पता लगा कर बात करनी थी। जाे भी हो, तुम्हारा आक्रोश सात्विक है, पर तुम लोग आदर्शवादी ठहरे, यह नहीं समझ पाते कि आदमी आदर्श नहीं खाता, रोटी खाता है। रोटी जिधर से भी मिलेगी, आदमी उसी ओर दौड़ पड़ेगा।‘’ 
‘’लावारिस कुत्ते की तरह । यही कहना चाहते हो? मार्क्सवाद को तुम लोग निरी रोटी पर क्यों उतार देते हो कि शर्म तक की गुंजाईश नही रहती। देखो आदमी रोटी खाता नहीं, रोटी की ओर दौड़ता नहीं, वह रोटी पैदा करके खाता है। अपने काम को पूरी ईमानदारी और पूरे श्रम से किए बिना तुम अपनी रोटी पैदा नहीं कर सकते। जो लोग ऐसा नहीं करते वे अपनी कमाई की रोटी नहीं खाते, किसी का फेंका या चुराया हुआ टुकड़ा खाते हैं। शारीरिक श्रम हो या बौद्धिक, मैं इन दोनों में यहाँ फर्क नहीं करता। तुम्हारा कर्म क्षेत्र ही वह खेत खलिहान और रसोई घर है जहां से तुम्हें अपनी रोटी उगानी और पकानी है। हमने वह नहीं किया। चोरी करते रहे, भीख माँगते रहे, शारीरिक श्रम के क्षेत्र में भी और बौद्धिक श्रम के क्षेत्र में भी काम किया ही नहीं, नैतिकता की तो चिन्ता ही नहीं रही, वही तो दोनों क्षेत्रों में सक्रिय रखती है।
‘’ज्ञान के क्षेत्र में भी हमारी स्थिति यही है। हमने अपनी समस्याओं का सामना ही नहीं किया, उन्हें समझा तक नहीं। भागते रहे, प्रतीक्षा करते रहे कि कोई देव दूत पश्चिम से आएगा और उनका अध्ययन करके हमें उनका समाधान देगा, और हम उसे निगल जाएंगे और इस बात की अकड़ दिखाते फिरेंगे कि इसे सबसे पहले मैंने निगला था।‘’ 
’’लगता है आज फिर बोर करोगे। देखो, तुम अपने नाम के साथ जो सिंह लगाते हो न, उसे हटा दो, उसके स्थान पर बोरवर्कर रख लो। सुनने वाले को लगेगा बोरीवेली की तरह बोरवर्क नाम का भी कोई स्थान है जहां से तुम्हारा उद्भव हुआ है। यह बताओ तमिल वाला भूत उतर गया, नैतिकता का यह नया जिन्नात सवार हुआ है?‘’ 
’’मैं उसी पर बात कर रहा हूँ। देखो, हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव और आन्दोलन अहिन्दी भाषियों ने किया था। यहां तब सब कुछ ठीक था। दो बातें सर्वमान्य थी। यह कि स्वतन्त्र भारत की भाषा अंग्रेजी नहीं रह सकती, अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी को भी विदा करना होगा, और भारत की राष्ट्रभाषा की भूमिका का निर्वाह हिन्दी ही कर सकती है अत: हिन्दी प्रचार से जुड़ी संस्थाओं का नाम हिन्दी प्रचार सभा या समिति न रख कर राष्ट्रभाषा प्रचार सभा या समिति रखा गया था जो उनके साथ आज भी अजागलस्तन की तरह लटका रह गया है जब कि मेरे एक मित्र ने मुझे याद दिलाया कि भारतीय संविधान में हिन्दी के लिए राजकाज की भाषा या राजभाषा का प्रयोग हुआ है, अब भी मौका है, अपनी भूल सुधार लो, और इसीलिए मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के द्वारा सम्मानित होने का अवसर मिला तो वह पीड़ा उभर आई। तुम जानते हो, मेरी सहानुभूति हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने वालों के साथ नहीं है, इसका विरोध करने वालों के साथ हो सकती थी, पर है नहीं ।‘’ 
‘’क्या कह रहे हो तुम, पता है? तुम पहेलियां गढ़ने का एक साफ्टवेयर तैयार करो। फेसबुक वाले खरीद लेंगे और तुम मालामाल हो जाओगे। यार, कभी तो ऐसी बातें किया करो जो मेरी खोपड़ी में भी धँसें।‘’
’’ठीक कहा तुमने, तुम्हारी ही नहीं, पूरे देश की खोपड़ी इतनी मोटी हो गई है कि मेरी कमजोर आवाज़ उसे भेद नहीं पाती। उदाहरण दूँ तो, हिन्दी वाले आज भी हिन्दी का कारोबार करते हैं, हिन्दी से प्यार नहीं करते।‘’ वह हँसने लगा।

हम जैसे हैं वैसे क्यों हैं ?


’’तुम जानते हो आदमी के पेट में भी एक छोटा दिमाग होता है और वह अपने फैसले स्वयं कर लिया करता है, केवल अपने फैसले नहीं करता, बड़े दिमाग को नियन्त्रित और निर्देशित भी करता है?‘’
‘’यह खयाल कैसे सूझ गया तुमको ?’’
’’इसलिए कि हममें से अधिकांश लोग पेट वाले दिमाग से सोचते हैं, बहुत कम लोग हैं बड़े दिमाग से सोचते हैं। सत्ता हस्तांतरण के बाद हमारे समाज में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती चली गई । यदि ऐसा न होता तो हमने सत्ता पाने के बाद उदरंभर बनने की जगह स्वतंत्र बनने की कोशिश ज़रूर की होती। सत्ता- हस्ता‍न्तरण को ही स्वाधीनता मान कर रास-रंग में व्यस्त न हो गए होते। स्वतन्त्र कहे जाने वाले भारत में उदरंभरता का विस्तार न हुआ होता, हमारी जबान लम्बी और रीढ़ कमजोर न होती गई होती। 
'जानते हो उदर वाले दिमाग से सोचने वाले पेट के बल रेंगते हैं, तनकर खड़े नहीं होते इसलिए वे चलते नहीं हैं किसी के पाँव पकड़ कर घिसटते हैं और हम पश्चिम के पाँव पकड़ कर घिसटते हुए आगे बढ़ रहे हैं और प्रसन्न हैं कि जहॉं थे वहाँ से इतना आगे बढ़ चुके हैं, यह नहीं समझ पाते कि जिस सतह पर थे उससे कितने गिर चुके हैं।‘’ 
’’तुम यह मानोगे कि तुम ऐसी बातें लोगों को चौंकाने के लिए करते हो?’’
‘’ तुम मेरे साथ दोस्ती के कारण कुछ रियायत कर रहे हो। मैं चौकाने के लिए कुछ नहीं करता। अपने भरसक थप्पड़ लगाता हूं और उस चुल्लू भर पानी की तलाश करता हूँ जिसमें कभी लोग डूब मरा करते थे। क्योंकि थप्पड़ खा कर भी तुम कहते हो मजा आ गया, कितनी चमत्कारी बात कही है और तान कर सो जाते हो अगले थप्पड़ के इन्तजार में जब फिर मजा आएगा।
'' आश्चर्य होता है कितना श्रम उन्होंने हमें अपना बौद्धिक गुलाम या अपना परजीवी बनाने के लिए किया। उसकी शतांश कोशिश भी हमने अपनी मानसिक स्वाधीनता के लिए की होती, उनकी दबोच से बाहर निकलने के लिए की होती तो ...’’
''तुम हवा में बातें कर रहे हो। पता नहीं चलता तुम किसके किस गुण या दोष की ओर इशारा कर रहे हो।''
‘’मैं बात तो कर ही नहीं रहा था यार। मैं तो रो रहा था। रोने के कई रूप हैं, कई बार आदमी हँसते हुए भी रोता है और बोलते हुए भी रोता है, और कई बार चीत्का‍र करते हुए भी अट्टहास करता है। तुमने देखा दलि‍त चीत्कार के रूप में प्रकट होता दलित अट्टहास।''
''आ गए न सामयिक राजनीति पर।''
'' मौसम की मार से कोई बचा है। पर मौसम की मार खाने वाले भी लगातार मौसम पर बात नहीं करते। मैं रो भी रहा था और उन महान सांस्क़ृतिक आक्रमणकारियों की राष्ट्रनिष्ठा को अश्रुजल से तृप्तं भी कर रहा था। मेरे मन में उनके प्रति उससे गहरा सम्मान है जो तुम्हारे मन में होगा जो उपनिवेशवादी मूल्यों से क्रान्ति का सपना देखते देखते उूब गए तो सोचा धर्मक्षेत्र में ही क्रान्ति कर ली जाए और इन धर्मों के बुनियादी तत्वों तक को नहीं समझा। जो हो रहा है अच्छा ही होगा, समय आगे बढ़ता है तो समाज भी आगे बढ़ता है के इकहरेपन के कारण न अपने समय को समझ पाए न समाज को न अपने कार्यभार को ... ''
’’तुम तैश में आ गए हो।‘’
’’जानता हूँ इसलिए यह भी नहीं समझा पाऊँगा कि तैश में आया क्यों हूँ। बात कल करेंगे।''


पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा


''क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारी बातें कुछ गरिष्ठ हो जाती हैं? ’’
''जानता हूं लॉलीपॉप चूसने वाले बच्चों को रोटी से घबराहट होती है। हम साहित्य के नाम पर केवल कविता कहानी चुटकुले और हल्के फुल्के व्यंग्य के आदी हैं, भावुकता को खुराक देने वाले साहित्य के आदी हैं जिससे आनंद तो आता है परंतु विचार-विमुखता भी पैदा होती है, एक बौद्धिक रिक्तता भी जिसमें समाज के कर्णधार माने जाने वाले लोग हुड़दंग में शामिल हो कर नाम कमाने लगते हैं। देश को तोड़ने वाले इतने आयोजनों के बीच उस देश को समझने की कोशि‍श भी गरिष्ठ लगने लगती है। मैं तुम्हा्रे बौद्धिक आलस्य की दवा करना चाहता हूँ। तुम्हारी रुचि बदलना चाहता हूँ। मालिश का शौक छुड़ा कर व्यायाम की आदत डालना चाहता हूँ।‘’ 
’’मेरा मतलब यह नहीं था, भार्इ। मैं सिर्फ यह कह रहा था कि क्या इन्हीं विचारों काे कुछ और सरल बना कर नहीं रखा जा सकता जिससे अधिक से अधिक लोग इसे समझ सकें?''
''कहा तो जा सकता है, एक ही बात को कई तरह से दोहराया भी जा सकता है, परंतु उसके बाद भी जरूरी नहीं कि जो न समझना चाहता हो उसकी रुचि ऐसे विषय में पैदा हो जाए। कुछ कहते समय सरलता से अधिक जरूरी है सटीकता। यदि बात सटीक ढंग से न कहीं गई तो सरल भाषा में कहने पर भी समझ में नहीं आएगी। आनन्दमार्गी साहित्य की लत से हमें बौद्धिक रूप में इतना खोखला कर दिया गया है कि उस खोखलेपन को भरने के लिए हमें हंगामों का सहारा लेना पड़ता है और उनमें शरीक होते समय लोग सोचते तक नहीं कि इसका अनुपात क्या होना चाहिए, किसी समस्या का समाधान क्या होना चाहिए, यह तक तय नहीं कर पाते कि अपने ही समाज और देश को लगातार उद्विग्नता की स्थिति में रख कर वे उसे किस दिशा में ले जा रहे हैं? "
''तुम क्या किसी से कम हो। कोई बहाना मिल जाय उसी हंगामे में तुम भी शामिल हो जाते हो, हाँ दूसरी ओर से। तुम उसी बात को कुछ और साफ करो जिसे कल उठाया था। मुझे उससे कोई परेशानी नहीं थी। सच कहो तो मुझे बहुत मजा आ रहा है यह सोचकर कि कैसे हमारे तार एक दूसरे से जुड़े हैं। सच कहो तो इन तारों को न हम लक्ष्य कर पाते हैं न हमारे समाजशास्त्री और ऩ नृतत्ववेत्ता, फिर भी ये सूत्र कुछ इस तरह काम करते रहते हैं कि तोड़ने की इतनी सारी कोशि‍शों के बाद भी इसका अपनत्व बना रहता है।'' 
''अभी तो तुमने इस तार के भीतर की पहलों को देखा ही नहीं। देखो, ये सभी स्थानवाची अव्यय तीन घटकों से बने हैं, ई/इ/य जो निकटता को प्रकट करता है और आगे अंक, कड, इड, इल, खान, हान या हॉ, ठान, त्थ आदि जिन सभी का अर्थ स्थान है और सबके साथ ए की विभक्ति लगी है जो में या पर का सूचक है। यह ए संस्क़ृत में भी गृहे, बने आदि में मिलेगा। तमिल का अंग और सं; का अंक एक ही हैं। इला और इल एक दूसरे से जुड़े हुए हैं अभी इन तारों के कुछ और पहल हैं जिनको देख कर तुम चकित रह जाओगे।
'' देखो यह जो तमिल का इंगे है इ-अंक-ए मिले हुए हैं। अंक का मतलब हुआ स्थान, इविड में इ के साथ इड जुड़ा हुआ है डसका अर्थ है जगह । बांग्ला खाने में खान का अर्थ है स्थान एक और प्रयोग भोजपुरी में होता है यह भी स्थान का ही सूचक है और इसी तरह पंजाबी का त्‍थे वही है भोजपुरी अौर हिंदी का हां तरह की गहरी समानता भाराोपीय बोलियों में भी नहीं मिलेगी। वहाँ सीधे स्वीकार है और उस स्वीकार में अटपटापन है। वाक्य विन्यास भी एक जैसा है कर्ता- कर्म- क्रिया। इनके विशेषण इनसे पहले। यह नियमितता भारोपीय बोलियों में नहीं पाई जाती। अंग्रेजी आदि में क्रिया कर्ता के ठीक बाद आती है और कर्म उसके बाद। बड़ी मशक्कत से काल्डवेल ने तमिल आदि की वाक्य रचना को अलगाने के लिए यह फर्क निकाला कि हिन्दी आदि में सहायक वाक्य मुख्य वाक्य से पहले आएगा, ‘मैंने सुना है कल फिर बरसात होगी’ तमिल आदि में उलट जाता है, जिसमें कल फिर बरसात होगी, ऐसा मैने सुना है जैसा वाक्य बनेगा परन्तु उत्तर की बोलियों में, भाषाओं में और संस्कृत तक में यह प्राय: देखने को मिल जाएगा।'' 
'''बोर कर दिया। तुम उस कशीदाकारी की बात करने वाले थे जिसमें एक शब्द दूसरे सिरे पर पहुँच कर नई रंगत लेता है फिर उसके साथ लौटता है और एक नई रंगत लेकर वापस लौटता है। ऐसा झटके में कह गए थे?"
''पीने के अर्थ में तमिल में कुडि का प्रयोग होता हैा इससे भ्रम पैदा होता है कि यह दक्षिणी बोलियों का शब्द है। परन्तु संस्‍कृत कु/कुं का अर्थ ह पानी। कुमुद/कुमुदिनी का अर्थ है पानी में मगन रहने वाला/वाली, कमल, कमलिनी। कूप, कुँआ, कुंभ –जलपात्र, कुंभी, कुप्पी- द्रव रखने की थैली, कुड, कूँड़ा त; कुडम्, कुडिक्कारन – पियक्‍कड़। 
त. पो – जाना, सं; पवि – क्षेप्यास्त्र, पवन – चलने वाला, अर्थात् वायु, (वायु: वाति), 
त. में ऑख के लिए कण् का प्रयोग होता है संस्क़ृत सहित उत्तर की भाषाओं में अक्षि- ऑख, चक्षु – बां. चोख आदि । अब इस भिन्नता के कारण पहली नजर में दोनों में भिन्नता दिखाई देगी। पर त. में कण् का एक और अर्थ है गोलाकार गड्ढा जो अक्ष का भी अर्थ है। संकल्पना के स्तर पर इस समानता से आगे बढ़ने पर हम सं. और हिन्दी आदि में कनीनिका या ऑंख की पुतली (इस पुतली के साथ हो सकता है आपको अंग्रेजी का प्यूपिल भी याद आ जाये), काणा या काना, कण्व – द्रष्टा (सायण ने कण्व का अर्थ काना लिया है, फिर भी आँख से संबन्ध तो बना ही हुआ है), प्रस्कण्व – चिचक्षण। परन्तु इससे पीछे भाषा के विकास का एक स्तर है जिसमें भारतीय भाषाओं में जिन वस्तुओं में अपनी कोई ध्वनि नहीं होती उन सबके लिए शब्द जल के पर्यायों से लिए गए है जिसकी प्रत्येक ध्वनि को एक उच्चार्य शब्द के रूप में ढाल कर इसके सूक्ष्म भेदों के लिए अलग शब्द बनाए गए और फिर उनमें से ही किसी या किन्हीं का प्रयोग नीरव भावों, पदार्थों, क्रियाओ आदि के लिए किया गया, यद्यपि क्रिया का अर्थ ही है ध्वनि का उत्पादन। इसे यहॉं नहीं समझा जा सकता। इस पर मैं बहुत बाद में चर्चा करूँगा । परन्तु यहॉं उस नियम को लागू करें तो कन् का अर्थ है जल, कंज का अर्थ है जलज, कनखल, कानपूर कन्नौज, कनइल, कनराय आदि का अर्थ है जलतटीय स्थल, कनक आ अर्थ है चमकने वाला और कनीनिका का अर्थ है देखने वाली। 
इनमें धागे की वह कशीदाकारी समझ में नहीं आती, यद्यपि है. इसलिए एक अन्य उदाहरण को लो। तमिल में दूध के लिए पाल् का प्रयोग होता है, तेलुगु में यह पालु हो जाता है, हिन्दीे का पालन अर्थात् दूध पिला कर पोषण करना इसी से निकला है और इस तरह पालित शिशु के लिए बाल या बालक का विकास इसी से हुआ है, परन्तु। हिन्दी का पाला जो तुहिन या फ्रास्ट के आशय में प्रयोग में आता है क्या इस पाल् से निकला है। नहीं। इसके पीछे जाने पर हमें प्ल, प्लव, प्ला‍वन आदि जल से जुड़े शब्द मिलते हैं। अब हमें पता चलता है कि पानी के लिए जिस शब्द का प्रयोग हुआ, उसी का अर्थविस्तार दूध, अमृत, आदि के लिए भी हुआ और ठंड तथा बर्फ आदि के लिए भी। पा, पी, पानी, पय, वीयूष, अम, अम्बु , अमृत। पहली नजर में जो द्रविड़ मूल का शब्द दिखाई दे रहा था अब उसकी जड़ें आर्यभाषा में दिखाई दे रही हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि इन शब्दों का स्रोत तथाकथित आर्य भाषाऍं हैं, बल्कि यह कि यह साझेदारी इतनी जटिल है कि हम अपनी भाषा संपदा को आर्य या द्रविड़ न कह कर भारती कहें, कम से कम उस भाषा को भारती कहें जिसका प्रसार भारत से ले कर यूरोप के छोर तक सीधे और उससे आगे का प्रसार उन क्षेत्रों के कारक तत्वों के कारण हुआ था तभी हम समझ पाऍंगे कि यूरोप तक पहुँची संपदा में द्रविड़ के तत्वे जिन्हें काल्ड्वेल ने लक्ष्यू किया था क्यों हैं और जैसा कि हाफमैन आदि ने बाद में लक्ष्य किया, मुंडारी के तत्व यूरोप तक कैसे पहुँचे है। यहॉं इनकी चर्चा जरूरी नहीं। तुम थक भी रहे होगे, फिर भी काल्डवेल की एक टिप्पेणी के साथ अपनी बात समाप्त् करना ठीक रहेगा: 
The distinctive marks of the neuter gender, in the Dravidian languages, even agree with those of our languages to so great an extent that it does not appear probable that these two circles of languages should have developed the neuter gender quite independently of each other. The Dravidian languages have not yet been proven to belong to our own sex-denoting family of languages; and although it is not impossible that they may be shown ultimately to be a member of the family, yet it may also be that at the time of the formation of the Aryan languages a Dravinian influence was exerted upon them, to which this, among other similarities is due.72
गौर करो। काल्डवेल भी जानता था या उसे इसका आभास था कि जिसे वह द्रविड़भाषा परिवार कह कर संस्क़ृत से अलग कर रहा था उसकी गहरी पड़ताल में उतरने पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि इन दोनों में बुनियादी अलगाव नहीं है, फिर भी हमने उस दिशा में प्रयास तक न किया। इस देश को तोड़ने वाले तक समझदारी बरत रहे थे कि आगे चलकर उनकी बात गलत सिद्ध हो तो भी उनकी अकादमिक साख को बट्टा न लगे, परन्तु हमने अपना काम नहीं किया। हम राजनीति करते रहे और आज भी कर रहे हैं, जैसे हमारा अपना कोई घर ही न हो।दूसरे के घर में हम या तो भार बन कर रहेंगे या उसकी चाकरी करते हुए। राजनीति की भागीदारी ने साहित्ययकार को इन्हीं दो में से कुछ न कुछ बनाया है। मालिक बन कर केवल अपने घर में रहा जा सकता है जिसे हमने या हमारे पुरखों ने बनाया है और हमें सौंप गए हैं। उसकी मर्यादा की रक्षा तक हम नहीं कर पा रहे।

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे


उसने मिलते ही सवाल दागा, ‘’तुम मानते हो उत्तर और दक्षिण की भाषाओं में कोई अंतर नहीं है?’’

‘’मैं ऐसा कैसे मान सकता हूं? मैं तो यह तक नहीं कह सकता कि मेरे सिर और पाँवों में अंतर नहीं है, जबकि दोनों मेरे ही हैं और इनमें से किसी के न होने या दुर्बल होने पर मैं अपंग हो सकता हूँ। भिन्नता आवयिकता की अनिवार्य अपेक्षा है। सर्वाधिक समर्थ जीव सर्वाधिक भिन्नताओं के संयोजन से पैदा होता है। भिन्नता और अलगाव दोनों अलग चीजें हैं। जड़ पदार्थों में आंतरिक भिन्नता कम होती है और उनको दूसरे पदार्थों से उनके अलगाव से पहचाना जाता है। जैव सत्ताओं में आं‍तरिक भिन्नता बढ़ती जाती है और अपनी पराकाष्ठा पर भिन्नताओं का विकास और लगाव अधिकतम होता है।

''अपनी जरूरत से हमें अधीन करने वालों ने भिन्नताओं को रेखांकित और यदा कदा महिमामंडित भी किया, पर लगाव के सूत्रों को देख और समझ कर भी उनकी उपेक्षा करते रहे। उनके लिए मेरे मन में गहरा सम्माान है। उन्होने हमारे ही हथियार को ले कर हमारे विरुद्ध इतनी चतुराई से प्रयोग किया कि रक्त कम बहा, घाव कैंसर की तरह फैल कर भारतीय समाज को ऐसी रुग्णताओं से भर गया कि मरीज अपने मर्ज को ही अपनी दवा समझने लगे।''

'' मैं जानता था तुम बहाव में आ जाओगे, विषय ही कुछ ऐसा है। मैंने इस विषय में अधिक पढ़ा नहीं है, इसलिए साफ साफ बताओ, तुम कहना क्या चाहते हो।''

''देखो, जैसा कि हमारे पुराणों में कहा गया और बाद की कृतियों में यहाँ वहाँ दुहराया गया है, हम सभी सतयुग की सन्तान हैं। उस अवस्था‍ की जब मनुष्य पूर्णत: प्रकृति पर निर्भर था और वन्य पशुओं जैसा ही जीवन जीता था। उसी से कोई अधिक आगे निकल गया और कोई उसके निकट रह गया और आज भी अपने भिन्न मूल्यों के कारण वहीं बना रहना चाहता है। नृतत्व के इतिहास का नमूना बनने के लिए तो यह ठीक है, परन्तु अपना जीवन जीने के लिए यातना और अपमान को जीवन मानने जैसा ही है।

परन्तु यह विषय भी ऐसा है कि इसकी सुरंग में दाखिल हो गए तो बाहर का रास्ता जाने कब मिले। फिर भी यह समझना जरूरी है कि दक्षिण भारत में खेती का प्रसार बहुत बाद में हुआ । उत्तर भारत और दक्षिण भारत का एक अन्तर तो इस कारण है, दूसरा अन्तर उससे भी पुराना है जिसमें उत्तर और दक्षिण के अटन क्षेत्र अलग थे। यह किताबी ज्ञान के आधार पर कह रहा हूँ कि पुरापाषाण काल में ही उत्तर में सोन कारखाना या पत्थार के औजारों की एक विशेष शैली सोहन या सोन नदी जो उस सोन से अलग है जो शोणभद्र नद कहा जाता है, के क्षेत्र में पाया जाता था और दूसरा जिसे मद्रास इंडस्ट्री कहा जाता है। इन जिसकी कुछ भिन्नताएँ थीं । दोनों के अटनक्षेत्र मध्यप्रदेश में आकर मिलते थे इसलिए दोनों के बीच आदान प्रदान था, दूसरी ओर उत्तरी अटनक्षेत्र का प्रसार भूमध्य सागर तक था और इसलिए कहा जा सकता है कि मध्येशिया और तुर्की तक एक संबंध सूत्र आहार संचय के प्राथमिक चरणों से ही बना हुआ था जिसके कारण अनेक सांस्क़तिक लक्षण बहुत पहले से, भाषा भारती के प्रसार से हजारों साल पहले से बना हुआ था और यही कारण है कि क़ृषि का विकास भारत से ले कर तुर्की तक लगभग समान प्रतीत होने वाले कालखंड में हुआ। भारतीय नवपाषाण कालीन स्थलों का पता बाद में चला इसलिए पहले यह धारणा बन गई थी कि खेती का आविष्कार उर्वर चन्द्र रेखा के क्षेत्र में हुआ, परन्तु भारतीय स्थलों का पता चलने के बाद जैरिज ने यह दावा किया कि किसानी का आरंभ भारत से हुआ, उनके शब्दों में द फर्स्ट फार्मर वाज इंडियन या ऐसा ही कुछ। परन्तु इस बात पर ध्यान दो कि उत्तर भारत के साम्राज्यवादियों – मौर्य और गुप्त राजाओं – के साम्राज्य का विस्तार यदि कन्याकुमारी तक हो सका होता तो जिसे द्रविड़भाषी क्षेत्र माना जाता है वह पूरा आर्यभाषी माना जाता, जैसे हम बंगाल, असम, ओडिशा, महाराष्ट्र आदि में मामले में पाते हैं।

इसलिए अब अन्तर द्विस्तरीय हो गया। एक आर्थिक, दूसरा प्रशासनिक। आर्थिक दृष्टि से कहें तो सभ्य, विलम्बित सभ्य और आटविक, और प्रशासनिक दृष्टि से कहें तो उत्तरी राज्य निर्मितियों और महाराज्य निर्मितियों की प्रक्रिया और दक्षिण में इसका आरंभिक विस्तार जिसमें उत्तर की मथुरा के नाम पर दक्षिण की मदुरा नगरी को महत्व मिला और उत्तरी प्रेरणा के प्रसार के साथ दक्षिण के राजाओं का अपने को पांडुवंशी घोषित करते हुए गर्व अनुभव करना और सभ्यता के अन्य घटकों, जिसमें संस्कृत की शब्दावली, मूल्य व्यवस्था , भाषाविमर्श आदि का दक्षिण में प्रवेश और उनके अपने व्याकरण तोल्कप्पियन को अगत्तियन या अगस्त्य के किसी शिष्य द्वारा रचा मानते हुए गर्व अनुभव करना। कहें उत्तर और दक्षिण का पुराना संबंध अनुराग और सम्मान का था परन्तु कबीलाई स्वाभिमान के चलते अपनी निजता की रक्षा के संघर्ष का भी था। महत्वपूर्ण बात यह कि इन बातों का काल्डिवेल को ज्ञान था। वह बहुत बड़ा विद्वान था, सिर्फ ईमानदार न था और उसे एक ओर घालमेल करना था दूसरी ओर अपनी व्याख्या को विश्वसनीय बनाने के लिए सर्वविदित तथ्यों को स्वीकार भी करना था इसलिए उसने यह भी स्वीकार किया कि न तो दक्षिण भारत में उत्तर से भगाये जाने की स्मृति है न किसी संघर्ष की। सबसे बड़ी बात यह कि दक्षिण में संस्कृत का प्रभाव आर्यों के आक्रमण के कारण नहीं पड़ा अपितु दक्षिण भारत के राजाओं द्वारा उत्तर भारत से विद्वानों को आमंत्रित करने और आदर देने और उन मूल्यों को स्वीकार करने के कारण हुआ। इस पहलू को कोई भाषाविज्ञानी क्यों रेखांकित नहीं करता यह मेरे लिए आश्चर्य का विषय रहा है।

''उन्हीं विद्वानों पर निर्भर करने के कारण तुम किसी चीज को समझ नहीं सकते। सूचनाओं के भंडार के साथ तुम अधिकाधिक मूर्ख होते चले जाते हो। अभी तक तुमको उपनिवेशवादी इतिहास पढ़ाया गया है जिसके अनुसार यहाँ के जन और भाषाऍ सब बाहर से आई हैं। यह आगन्तुकों को आमन्त्रित करता हुआ खाली पड़ा था। कारवॉं आते गए हिन्दोंस्तॉं बसता गया, जब कि सचाई यह है कि एशिया और यूरोप में प्रबुद्ध मनुष्य के प्रसार की कहानी में ही सबसे पहले वह तटीय क्षेत्र को पकड़े हुए भारत पहुंचता है और यहां से उसका प्रसार होता है। परंतु ऐसा भी नहीं है कि यहां बाहर से कोई आया न हो और यहां से बाहर की ओर किसी का गमन न हुआ हो। सब कुछ हुआ है और यह इतना धुंधला भी नहीं है इसको पहचाना न जा सके। उसके आवागमन के पैरों के निशान किसी न किसी कोने में सुरक्षित हैं। ये भाषा में मिल जाएंगे, रीतियों और विश्वासों में मिल जाऍगे। अपना इतिहास तो सभी ने न तो बचा कर रखा न इतिहास के महत्व को इस रूप में समझा कि इसे बचाया जाना चाहिए। इसलिए हमारी भदेश रीतियां-नीतियां और भाषाएं हमारे समाज को समझने में इतिहास के पोथों और उन्नत भाषाओं की तुलना में अधिक सहायक हैं।

''कोल नाम सुना है। दक्षिण भारत की एक भाषा है कोलमी। यह द्रविड़ कुल में गिनी जाती है। कहें उत्तार का कोल समुदाय दक्षिण के भाषाई परिवेश में पहुँचा तो पहचान बनी रही, परन्‍तु भाषा बदल गई जीवनशैल वही रही। कोलम बीच से ले कर कोलंबो तब इसके पाँवों के निशान हैं, पर पहचान बदल गई। उत्तर भारत में को‍ल्डहवा मध्यपाषाणयुगीन स्थल है जिसका समय 6000 ईसा पूर्व माना गया हैा''

’’तुम लोग हर चीज की तारीख पीछे खींचते चले जाते हो। बहुत से लोग इसे इतना पुराना नहीं मानते।‘’

’’मैं जानता हूं। बहुत से लोग इस देश की सांस्कृतिक प्राचीनता और समृद्धि दोनों से घबरा जाते हैं। खींच कर आगे लाना चाहते हैं और कुछ लोग इतना प्यार करते हैं कि हर चीज को सृष्टि के आदि में पहुंचाने की कोशिश करते हैं। जो आगे खींच कर लाना चाहते हैं उसे ही मान लो तो भी बहुत प्राचीन काल से एक समुदाय उत्तर भारत से दक्षिण में कोलम बीच और कोलंबो तक पहुंचा दिखाई देता है। यूँ समझो कि उत्तर से ले कर दक्षिण तक की भाषाओं की बुनियाद एक जैसी है तो यह भाषाओं के बीच लेन देन के कारण नहीं है, उन्हीं लोगों के एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैले होने और एक ही अवस्था से ऊपर उठने के कारण है।''

''छोड़ो इस बखेड़े को, तुम हर चीज को पता नहीं कहां पहुंचा देते हो। सीधे उस बात पर आओ। भाषाओं का जो ताना बाना जिसे तुम एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैला मान रहे थे उसको समझाओ।''

''यह इतना विस्तृत विषय है कि एक या 2 घंटे में इस पर चर्चा नहीं हो सकती। कोई पहलू ऐसा नहीं है जिसमें इधर का तार उधर और उधर का तार इधर न आ रहा हो। पहले इस बात को समझो कि तमिल संस्कृत से पुरानी है। पर तमिल उत्तर भारत की बोलियों के अधिक निकट है, जिसका अर्थ हुआ, हमारी बोलियाँ संस्कृत से अधिक पुरानी हैं और उनमें से किसी के अधिक प्रभावशाली होने के कारण उस भाषा का विकास हुआ जिसे बाद में संस्कृत का नाम दिया गया।

‘’अब हम तमिल के कुछ पहलुओं पर बात कर सकते हैं जो हमारी बोलियों के स्तर का है। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक निकटस्थ के लिए ‘ई’ का प्रयोग चलता है। तमिल आदि में इंगे, इक्कडे, इविडे, पंजाबी इत्थे , भोज. इहॉं, हिन्दी यहॉ, बांग्ला एइखाने। इस नियम से संस्कृत में यहां के लिए इत्र होना चाहिए और दूरस्थ के लिए अत्र या मान लो तत्र। संस्क़ृत का वह पुराना रूप कुडुख में सुरक्षित है जो द्रविड़ में गिनी जाती है, जिसमंं यहाँ और वहाँ के लिए इतरं अतरं चलता है। संस्कृत में भी 'यहाँ से' के लिए इत: प्रयोग में बना रहा। संस्क़त में जो गलतियॉं या विचलनें इतिहासक्रम में हुईं उनका ही निर्यात यूरोप तक हुआ। संस्क़त में इदं अर्थात् यह और तत अर्थात् वह हुआ तो यह अंग्रेजी के इट और दैट में देखा जा सकता है, परंतु इतरं अतरं का अदर अंग्रेजी तक में दिखाई देगा।''

लगता तो है कुछ पर साफ समझ में नहीं आता।
इस पर कल बात करेंगे।

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