अस्पृश्यता – 15

‘कल मैं अपनी बात पूरी नहीं कर पाया क्योंकि तुम कुछ थके से लग रहे थे।’

‘थका नहीं था, यह जो धर्म-वर्म का चक्कर है इसमें एक बार घुस जाओ तो निकलने का रास्ता ही नहीं मिलता है, इसलिए हम लोग इससे बचते हैं। तुम तो लगता है उसी दुनिया के लिए बने हो, वहॉं तुम्हें इतना सुकून मिलता है कि बाहर आना ही नहीं चाहते।’

‘तुम इससे बचते नहीं हो, बच सकते ही नहीं, तुम इसे दुम की ओर से पकड़ कर पीछे खींचना चाहते हो, वह वह पलट कर तुम्हें खा जाता है और तुम्हारा चेहरा मुस्लिम लीग के चेहरे में बदल जाता है, जिसे तुम लाल झंडे से छिपाना चाहते हो। जानते हो मैं क्यों सेक्युलरिज्म का झंडा और से‍मेटिज्म का डंडा उठा कर चलने वालों को भग्नचेत, यानी, शिज़ोफ्रेनिक मानता हूँ? इसलिए कि तुम हाहाकार मचाते हो हिन्दू मूल्यों को बचाने का, साथ देते हो उन मूल्यों को नष्ट करने वालों का। बात करते हो समावेशिता का, बहुलता का और साथ देते हो बहुलता और समावेशिता को नष्ट करने वालों का। बात करते हो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की और वह स्वतन्त्रता तुमने कभी किसी को दी ही नहीं और आज भी स्वतंत्र विचारों को नहीं सुनते, सुनते प्रियं अनिष्टतकरं को हो। तुम्हें किसी ने हाशिए पर नहीं लगाया, स्मृतिभ्रंश और तज्जन्य बुद्धिनाश के शिकार हो गये – स्मृति भ्रंशात् बुद्धिनाश: बुद्धिनाशात प्रणश्यति । कई बार सोचना पड्ता है कि क्या गीता भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी को आगाह करने के लिए त्रिकालदर्शी प्रज्ञा से लिखी गयी थी, और दुख होता है यह सोच कर कि हमारे पितरों ने जो पाठ अपने वंशजो के लिए लिखा था उसको समझने की योग्यता तक तुम अर्जिन न कर सके।

’गजब का स्टैमिना है, बेवकूफी की बातें भी इतने आत्मविश्वास से करते हो कि अनाड़ी आदमी हो तो उसे ही सही मान ले । अरे भई, पढ़ने को बहुत कुछ है दुनिया में, चुनाव करना पड़ता है, कौन सा ज्ञान कब का है और उसे पढ़ कर हम इतिहास के किस मुकाम पर ठहरे रह जाऍंगे। हम नए ज्ञान विज्ञान और आधुनिक सूचनाओं से लैस होने का प्रयत्न करते हैं कि अपने समय के साथ चल सकें, तुम दो हजार, चार हजार पीछे की चीजे़ं पढ़ते हो और वहीं ठिठके रह जाते हो, आगे बढ़ने का नाम ही नहीं लेते। अतीत के अन्धविवर में कितने सुकून से रह लेते हो, यह सोच कर दया आती है। तुम जिसे अनमोल समझ कर गले लटकाए फिरते हो वह गले में बँधा पत्थर है। डूबने वालों के काम आता है। हम तुम्हें बचाने के लिए कहते हैं, ‘हटाओ इसे’, तुम सुनते हो ‘मिटाओ इसे’। हैल्युतशिनेशन के शिकार तो तुम हो।'

दाद दिए बिना न रहा गया, पर याद दिलाना पड़ा, कि जानना जीना नहीं है, निर्मूल हो कर हवा में उड़ते फिरोगे, और इस भ्रम में भी रहोगे कि खासी उूँचाई पर पहुँच गए हो, पर हवा के तनिक से मोड़ या ठहराव के साथ जमीन पर कूड़े की तरह बिखर जाआगे। मूलोच्छिन्न उधिया सकता है, तन कर खड़ा नहीं हो सकता।‘

‘जिस रास्ते पर तुम चल रहे हो, वह अमल में आ जाय तो जानते हो भारत का क्या हाल होगा। वह हिन्दू पाकिस्तान बन जाएगा। भारत का नाम नक्शे पर रहेगा, पर भारत पाकिस्तान की दर्पणछाया बन जाएगा, देखने में उल्टा, परन्तु सर्वांग सदृश। तुम नाम से हिन्दू हो हम आत्मा् से, इसलिए उन मूल्यों के लिए तुम खतरा बन रह हो और उन्हें तुमसे बचाने पर लगे हुए हैं। हम हिन्दुत्व का विरोध नहीं करते, हिन्दू समाज के सैफ्रनाइजेशन का, भगवाकरण का विरोध करते हैं। हम हिन्दुत्व की रक्षा करना चाहते हैं, तुम उसे मिटा रहे हो। समझे?’

‘यह बताओ, तुम्हारी जमात में कोई ऐसा आदमी मिल सकता है जो होश-हवास में हो? जो उन शब्दों का मतलब जानता हो जिनका वह धड़ल्लेे से प्रयोग करता है? सैफ्रन सैफ्रन चिल्लाशते रहते हो, फिर भगवा भगवा चिल्ला‍ने लगते हो, इनका अर्थ जानते हो? सैफ्रन का अर्थ जानते हो?’

‘जानूँगा क्यों नहीं। सैफ्रन, जाफरान, केसर ।

यह जानते हो कि सैफ्रन अरबी ज़ाफरान का बदला हुआ रूप है ?

'यह वह नहीं जानता था, फिर मैंने पूछा, ‘ज़ाफरान अरब की जलवायु में नहीं उग सकता यह भी जानते होगे?'

वह तुरत मान गया। फिर मैंने समझाया‍ कि 'उच्चारण, श्रवण और संचार में इतने टेढ़े मेढ़े रास्ते हैं जिन सबका पता आधुनिक भाषाविज्ञान को भी नहीं है, और यदि उस नियम का पता हो भी जिसमें केसर ज़ाफर बन सकता है तो मुझे अपनी सीमाओं के कारण, उसका ज्ञान नहीं, परन्तु यह पता है कि शब्द वस्तु के साथ जाता है और नयी स्थितियों के अनुसार ढल भी जाता है, और इसलिए यह कश्मीर के उत्पाद अथवा संस्क़ृत में इसके लिए प्रयुक्त, शब्द केसर का प्रसार है और अरब तक सीधे जुड़े भारतीय व्या्पारतन्त्र के प्रताप का इस शब्द के माध्यंम से एक नक्शा तक तैयार किया जा सकती है।

'तुमसे इसके उत्तर की आशा भी नहीं थी, फिर भी जब तुम भगवाकरण कहते हो तो इसका पता होना चाहिए कि इसका अर्थ क्या है, जानते हो?

'वह चक्कर खा गया। समझाना पड़ा, 'भग/भर्ग का अर्थ है अग्नि/सूर्य/प्रकाश। इसका एक अर्थ भाग भी था, पर यह धर्मदृष्टि से सहभागियों का हिस्सा तय करने तक सीमित था। इसके इतिहास में जाना न चाहेंगे क्योंकि तब बात फिर अधूरी रह जाएगी, इसलिए विश्वास करो ये सभी अर्थ थे और इनका पल्लवन भी हुआ, और इससे भक्त और भजन तक पैदा हो गए, परन्तु यहॉं यह समझो कि भगवा का अर्थ था सूर्यवर्ण। इसके लिए जिस रंग को सबसे अनुरूप माना गया था, वह था केसर को उबाल कर उससे पैदा होने वाला रंग और इस‍ तरह केसरिया, शौर्य, गरिमा और गौरव का द्योतक बन गया। अब यह बताओ, गैरिक का अर्थ जानते हो क्या?’

वह नहीं जानता था। बताना पड़ा, 'गैरिक का अर्थ है गेरू का वर्ण। जानते हो हरित वर्ण या हल्दी के रंग का इससे क्या संबंध है?'

वह यह भी नहीं जानता था, बताना पड़ा कि दसियों हजार साल पहले से एक बहुत बड़े भूभाग में कृमि -निरोधक के रूप में हल्दी और गेरू के रंग का प्रयोग होता आया है। इसलिए हरित वर्ण या हल्दी का रंग और केसर वर्ण दोनों में निकटता है इसलिए केसरिया वास्तव में हल्दिया या हल्दी के रंग में रंगा हुआ, हो कर रह जाता था।

'अब समझो, एक का संबन्ध शौर्य से है और दूसरे का रोगाणु निवारण से। दोनों के अर्थभ्रम और वर्णभ्रम से गेरू के रंग का या गैरिक ( इनके साथ रामरज मिट्टी के रंग को दीवार आदि की रँगाई आदि के सन्दर्भ में याद किया जा सकता है।) गेरू कृमिनाशक के रूप में प्रयोग में आता था। वस्‍त्र को क़ृमि निवारक बनाने के लिए गेरू या हल्दी में रंगा जाता था । गेरू में रंगा गैरिक या हल्दी में रंगा हरित इसके कारण एक दूसरे के पर्याय बन गए। रोगनिवारण का विस्तार अमरता में हुआ और इनका अर्थ सूर्यवर्ण और अमरता का एक रूप हुआ सूर्यलोक या स्वर्गमें प्रवेश का अवसर। यह के‍सरिेया बाने में प्रतिफलित हुआ। जब तुम सैफ्रनाइजेशन का उपहास करते हो तो क्या जानते हो तुम उन असंख्य बलिदानों का उपहास कर रहे हो। तुम जैसा सोचते हो उससे तो तुम भगत सिंह को भी मूर्ख कह सकते हो, कि अपनी जान बचा सकता था फिर भी जान बूझ कर म़त्य का वरण किया, और मौका मिलते ही भगत सिंह जिन्दााबाद के नारे भी लगा सकते हो। अब नए सिरे से सोचो, पाओगे सैफ्रन का अर्थ है गौरव । शौर्य का वर्ण, त्याग का वर्ण, महिमा का वर्ण, सूर्यवर्ण, शूरो का वर्ण, अमरता का वर्ण, सुवर्ण या सुनहला रंग और जब तुम इसका उपहास करते हो तो इन सबका उपहास करते हो।'

‘जानते हो एक समय था जब यह रंग भारत से ले कर यूरोप तक गौरव, महिमा, त्याग, वलिदान और शौर्य का रंग माना जाता था। तुम जानते हो अवेस्ता का रचनाकार कौन है?'

’जरथुस्त्रं कहते हें शायद ।‘

‘जरथुस्त्र नहीं,जोरास्‍टर अर्थात् जरदवस्त्र, या सुनहले या गैरिक या केसर वर्ण का वस्त्र पहनने वाला। तुमको पता है, रोम के लोग राजा के वस्त्र या लबादे को क्या, कहते थे? स्वर्णिम वस्त्र या केसरिया वस्त्र, purple robe । यार तुम होश में आओ, होश में सोचना समझना और जो कुछ बकते हो उसके परिणामों को समझना शुरू कर दो तो तुमसे अच्छा कौन है? दिल जिगर लो जान लो। हम भी चाहते हैं तुम्‍हें तुम्हारी तूफाने बत्तमीजी और दौरे बदहवासी से तुम्हे बाहर लाना।

12.1-16 : 23 PM

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