अस्‍प़ृश्‍यता – 12

अब तुम यह बताओ की यह खेल कब तक चलता रहेगा बात पर कायम नहीं सीकि मतु ।रहते। विषय कोई भी हो, कहते अपने मन की ही हो। बात भारतीय मध्यकाल की थी, वहां से यूरोप के मध्य काल पर पहुंच गए और फिर इस ईसाइयत में घुस गए और उस से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा है। कई दिन से लगातार उसी पर बोलते जा रहे हो। भाई हद हो गई इस चक्कर बाजी की, जो कुछ कहना है संक्षेप में कहो। आज के बाद फिर ईसाइयत की खोह में नहीं लौटना चाहता। तुम कहो, मैं सुनता रहूंगा, परंतु आज यह अध्याय खत्म होना चाहिए।

मैंने कहा अच्छी बात है। बीच में बोलना नहीं। पहली बात तो यह है हम दूसरों की बुराइयों को देखते हैं, परंतु उन बुराइयों के द्वारा भी सभ्यता का विकास हुआ है इस पर ध्यान नहीं देते। जब हम ईसाई धर्मविस्तार की बात करते हैं तब यह भी देखना चाहिए, आज तक मानव समाज को समझने के औजार भी इस इन उत्साही धर्मप्रचारकों ने ही सुलभ कराए हैं, भले वह अपना पुराना तरीका, हिंसा और अत्याचार और उत्पीड़न और धोखाधड़ी से धर्मान्तरण कराने की जगह शिक्षा, सद्भाव, विचार सेवाभाव का तरी‍का अपनाने के बाद आरंभ हुआ जिसमें भारत की निर्णायक भूमिका थी। परन्तु हिन्दत्‍व विचारों के स्तर पर समस्त मानवता को समाहित करने के बाद भी व्यवहार से स्तर पर अपनी सीमा में सिकुड़ा हुआ दर्शन था।

’हमेशा से।' उससे बोले बिना न रहा गया।‘

’वैदिक काल के बाद से। खैर, हम जानते ही नहीं थे दुनिया में कितने तरह के समाज हैं, कितनी भाषाएं हैं, सांस्कृतिक भेद कैसे हैं। यह ग्लानि की बात नहीं है कि उस चरण पर हम वह समझ और विवेक नहीं विकसित कर पाए जिससे अपने से भिन्न असंख्य समुदायों के मिजाज को समझ सकें; या जानते भी थे तो ठीक उसी तरह जैसे आज का यूरोप समझता है कि पूरब की सभ्यताओं का सारा माल-मता उस यूरोप से निकल कर वहॉं पहुँचा है जो ग्रीक वैभव काल तक में भी कबीलाई स्तर से उूपर नहीं उठ पाया था और चरवाही से आगे नहीं बढ़ पाया था। हम भी सोचते थे कि दुनिया की सारी जातियाँ भारत से ही निकली हैं, और सभी भाषाऍं संस्‍कृत का ही बिग्रड़ा हुआ रूप हैं।

’मान गए न तुम भी कि हमारा ऐसा सोचना एक छलावा था।‘

’मैं फिर बहक न जाउूँ इसलिए तुम्हें हिमयुग की त्रासदी और उस बीच असंख्य जनों और भाषाभाषियों के भारत में शरण लेने और फिर राहत का दौर आने पर यहॉं से फिर चतुर्दिक फैलने की याद दिलाते हुए कहना चाहता हूँ कि हमारे इस विश्वास में सचाई का एक प्रबल आधार था, यूरोप कीे इस घपलेबाजी में उसकी बिल्कुल हाल की अग्रता है और धौंसबाजी का फरेब है जिसमें आसक्तिवश उसके विद्वान भी फँसे मिलेंगे। मैं तुम्हें ‘को-बड़-छोट’ के चक्कर में नहीं डालना चाहता। इसे पहले स्पष्ट भी कर चुका हूँ । यहॉं मैं केवल यह याद दिलाना चाहता हूँ कि हमसे मिशनरियों ने सीखा, अपने को नए सिरे से अनुकूलित किया और ऐसी सफलता पाई जो इससे पहले न तो उन्हें मिली थी न ही, किसी और को मिली थी। वैदिक समाज को और उसके आर्यव्रत के प्रसार को इसका अपवाद मान सकते हैं, क्योंकि उस दौर में यहॉं की भाषा, संस्कृति, जीवनमूल्य, सौख्य प्रसाधन और विश्वास भारत से चल कर यूरोप के पूर्वी छोर तक पहुँच गए थे और उसने भी संपर्क में आने वाले जनों के जीवन स्तर व चेतना में उत्थान लाते हुए ऐसा किया था और किया भी अपनी सुदूरगामी अपेक्षाओं के कारण ही था। ’मिश्नरियों ने धर्मप्रचार या धर्मसाम्राज्य के विस्तार के ही लिए सही, असंख्य जनों की बोलियॉं सीखीं, उनमें प्रचार करने के लिए पहले उन्हें शिक्षित करना जरूरी समझा, शिक्षित करने के लिए उनकी बोलियों के अनुरूप रोमन लिपि में बदलाव करके नई लिपियॉं तैयार कीं, उनके व्याकरण तैयार किए। हमारी आज की राज्यभाषाओं के ही नहीं जनभाषाओं के व्याकरण, उनमें शिक्षा देने में पहल उनकी थी। कहो, विकास के नियम के अनुसार वे अनुकूलन क्षमता में हमसे अधिक आगे निकल गए। अब सोचो, क्या‍ हमने उनसे कुछ सीखा, अपने को कहीं से बदला, अपने उसी हथियार को जिसको उन्होंने उपयोगी पाया और अपना लिया हमने उनसे भी अधिक पैना करने की दिशा में कोई काम किया। क्या हमने अपने ही उन आयुधों की शक्ति को पहचाना जिसको उन्होंने अपने तोपखाने में सम्मिलित कर लिया, और ध्यान रहे इसमें प्रचारतन्त्र की महिमा भी शामिल है।‘

‘हमारे यहॉं प्रचारतन्त्र कहॉं था भाई, हमारे यहाँ तो अखबार तक नहीं थे।'

‘ दुनिया का सबसे प्रबल प्रचारतन्त्र तो हमारे ही पास था। इतने सारे आन्दोलन ब्राह्मणवाद के विरुद्ध हुए, कुछ दिनों तक धूम मचाने के बाद सभी हाशिये पर आ गये क्यों, जानते हो। ब्राह्मणवादी प्रचारतन्त्र के कारण जिसने जन जन तक, उसके जन्म से ले कर मरण तक के पूरे व्यापार को अपने प्रचारतन्त्र में बॉंध रखा था, जब कि दूसरे अपने मठों और आन्दोलनों और अनुयायियों तक सिमटे रह गए ।

‘जो नई चुनौतियों के अनुसार अपने को बदलते नहीं हैं वे खत्म हो जाते हैं, इसलिए हिन्दुोत्व के लिए सबसे बड़ा खतरा इस्लांम या ईसाइयत नहीं है, हिन्दुत्व की अधकचरी समझ और अनुकूलन की अक्षमता है। हम अपनी प्रशंसा सुनना चाहते हैं, जब कि प्रशंसा की भूख और लत पतन का कारण और परिणाम दोनों हुआ करती है। जो आगे बढ़ना चाहते हैं वे अपनी आलोचना और सुझाव आमन्त्रित करते हैं, प्रशंसा नहीं।

‘इस बात पर भी ध्यान दो कि अस्पृश्यता पश्चिमी समाज में रंगभेद के रूप में थी और इसने रूप बदले हैं, अपना चरित्र नहीं। उन्होंने उन पिछड़ी, अशिक्षित और स्वच्छता आदि की दृष्टि से लापरवाह या भिन्न दृष्टि रखने वाले लोगों के साथ खान-पान का संबंध नहीं रखा। उन्हें तो उनके कुऍं या जलपात्र का पानी पीने पर भी पेचिश हो जाता है, जैसे राहुल गॉधी को एक दलित के घर भोजन के प्रदर्शन के बाद हुआ था। वे अब इस बात की सावधानी बरतने लगे कि उनके संपर्क में आने वालों को ऐसा न लगे कि उससे भेदभाव किया जाता है। वे प्रयत्नशील रहे कि वे जिनसे परहेज बरतते हुए अपनापन दिखाते हैं, उनके भीतर यह विश्वास पैदा हो सके और कायम रहे कि वे उनका हित चाहते हैं । शिक्षा के साथ उन्होंने आर्थिक प्रलोभन तथा रोजगार के अवसर दिलाने की कोशिश की और चिकित्सा आदि की सुविधाएं प्रदान करते रहे। दोनों ही क्षेत्रों में अपने इसी अनुभव का विस्तार उन्होंने ऊंचे संपन्न तबके को अधिक विशिष्ट बनाने वाली ब्रितानी तलफ्फुज वाली एलीट अंग्रेजी की शिक्षा के कारोबार पर एकाधिकार करके किया जिसके जाल में अपनी अभिजात हैसियत के हामी, नेहरू और उनके संपर्क के दूसरे लोग फँसते चले गए।‘

’तुम नेहरू के बारे में ऐसा कैसे कह सकते, उन्होंने तो इन्दिरा गॉंधी को शिक्षाके लिए शान्ति निकेतन भेजा था।‘

वे स्वतन्त्रता आन्दोलन के दिखाने वाले दॉंत थे जिनके ‘दि’ को सत्‍ता मिलने के बाद हटा लिया गया था। मैं कुछ नहीं कहता, लोग कहते हैं, कि उन्होंने अपने धेवतों को और उनके करीबी बच्चन जी ने हिन्दी के कवि होते हुए अपने पुत्रों को दून स्कूल में ही भेजा था, क्योंकि उन दिनों जब हम सपने देख रहे थे कि अंग्रेज गए, अंग्रेजी जाएगी, नेहरू जानते थे कि हिन्दी नहीं आने दी जाएगी, अंग्रेजी रहेगी, और किसी रहस्यमय तरीके से यह बात हिन्दी के उस कवि को भी मालूम हो गई थी जो लोगों की जबान पर चढ़ जाने वाली कविताओं के सपने देखता था। ठीक उस अवसर पर जब हिन्दी को संविधान के प्रावधान के अनुसार राष्ट्रभाषा घो‍षित होना था, सरकारी कामकाज में आना था, तमिल क्षेत्रवादी आन्देालन का इतना विस्फोटक बन जाना कि किसी व्यक्ति को हिन्दी विरोध में आत्म दाह करना पड़े, जिसका बहाना ले कर नेहरू ने संविधान की प्रतिज्ञा को अमल में आने से रोक दिया, किसी ऐसी साजिश से जुड़ा है जिसका हम अनुमान कर सकते हैं, परन्तु किसी को अपराधी सिद्ध नहीं कर सकते ।‘

’क्षमा करो, मैं अपनी बात पर कायम न रह सका, बीच में छेड़ बैठा, अब अपने विषय पर तो आओ।‘

’तुम जानते हो, ‘यद्यदाचरते श्रेष्ठ: लोकस्‍तदनुवर्तते’ न्‍याय से धीरे धीरे उन्नति के रास्ते ज्ञान से नहीं, अंग्रेजी के ब्रिटिश उच्चारण से और उसे बोलने की फर्रांट से तय होने लगे और उन्होंने सार्वजनिक शिक्षा या पब्लिक स्कूल का दरजा पा लिया और पब्लिक स्कूल धर्मादे-खाते-की-शिक्षा बन गए। कहो, उन्होंने अपनी सूझ से शासकवर्ग पर अधिकार कर लिया और उसके माध्यम से अपनी गलत बातों और गलत दावों को भी सही सिद्ध करते रहे, जिनमें से एक था, हिन्दी को राष्ट्रतभाषा की जगह राजभाषा बनाना, राष्ट्र भाषा की परिभाषा बदल कर राज्यों की भाषाओं को राष्ट्रभाषाओं का दर्जा देना, और इस तर्क से अंग्रेजी जो पहले विदेशी भाषा मानी जाती थी, उसको नगालैंड की भाषा बता कर, अंग्रेजी को भी भारत की राष्ट्रभाषाओं में से एक और इस तरह जो देश मुसलिम लीग की नासमझी से द्विराष्ट्र बना था, अब नेहरू के आभिजात्यं ने उस बचे हुए राष्ट्र को इतनी राष्ट्रीयताओं का और उनसे उपजी असाध्य समस्या‍ओं का देश बना दिया । मैं कहता हूँ कि कितनी छोटी घटनाऍं या आकांक्षाऍं कितने बड़े अनर्थ कर जाती हैं, इसका सही अनुमान हो तो इसे प्रोत्सानहन देने वाला शायद इसका आरंभ करने से बच जाए। परन्तु इतिहास का निर्णय इसी कारण तो मानना होता है।

'यार तुम विषय पर तो आओ। तुम इतिहास को इतिहास नहीं रहने देते, किसी न किसी बहाने उसमें वर्तमान को घुसाने की फिक्र में रहते हो।'

‘और फिर उन्होंने हमारी सर्वसुलभ चिकित्सा में प्रवेश किया और इसे जन स्‍वास्‍थ्‍य प्रणाली के स्थान पर अल्प जन सुलभ चिकित्सा प्रणाली बना दिया। उनकी आकांक्षाऍं अलग हैं, उनका दलित और वंचित जनो के प्रति प्रेम अलग है। एक नाटक है, दूसरा असलियत। बताओगे कौन चेहरा उनका है और कौन सा उन्होंने मार्क्सावाद से प्रेरित हो कर अपना लिया।

'लगता है आज का दिन भी बर्वाद हुआ।' वह उठ कर खड़ा हो गया। मैं रोकना चाहता तो भी रोक पाता क्या ।

6-जनवरी-2016

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