अस्पृश्यता – 22

“मैं सोचता हूं ---”

“रुको, बैठो पहले! यह बताओ जश्न कहॉं मनाया जाए ?”

“जश्न? किस जश्न की बात कर रहे हो, भाई.” 

“यही कि तुम भी सोचते हो, मैं तो समझता था तुम्हारा जत्थेदार सोचता है, और पूरा जत्था उसे ही मान लेता है।“ 

“तुम्हारी खुशी के लिए कह देता हूँ वह भी नहीं सोचता। 50 साल से हमने सोचा ही नहीं, सत्ता की जोड़-तोड़ में ही लगे रहे और उससे पहले भी जिसे अपना सोचा हुआ मान लेते थे वह किसी और का सिखाया हुआ था। अब तो तुम्हारी तबीयत हरी हुई।” 

“सोचने का खतरा मोल ही ले किया तो बताओ, क्या सोचते हो तुम?” 

“मैं सोचता हूं आत्महत्यायें तो होती रहती हैं, इस आत्महत्या का महत्व इसकी पृष्ठभूमि के कारण है, उस पर तो तुमने ध्यांन दिया ही नही।” 

“तो तुम सोचते हो हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि वह कैसे ओवेसी के चक्कर में आ गया, या ओवेसी का दिमाग इतना बिगडैल क्यों है, या इस पर बात करनी चाहिए कि उसने गोमांस की खुली दावत दे कर इस विषय में संवेदनशील हिन्दु्ओं को सोच समझ कर आहत क्यों करना चाहा था, या इस विषय पर कि वह कैसे इतना हिंदू विरोधी हो गया था कि भगवा रंग से उसे इतनी घृणा हो गई कि वह भगवा रंग की कोई भी चीज देखता, उसे फाड़ देता था, या इस पर बात पर कि उसने हॉस्टल के अपने कमरे में याकूब मेनन की फांसी को शहादत का दर्जा देते हुए, श्रद्धांजलि सभा का आयोजन क्यों किया था? इनमे से किसी पर बात करनी है, तो तुम्हें अपने जत्थेदार से बात करनी चाहिए कि इनमें से कौन सा कदम सही था और उस समय हमने उस सही कदम का समर्थन क्यों नहीं किया, यदि सही नहीं था तो हमने उसकी आलोचना या निन्दा क्यों नहीं की, चुप क्यों रहे? ये सवाल तुम्हें स्वयं अपने से करने थे और यह तय तुम्हें करना था कि यदि इनमें से सभी किसी सिरफिरे के काम लगते हैं तो उसके गलत कामों पर चुप और उसके मोहभंग में अपनी मौत का राजनीतीकरण न करने की उसकी चेतावनी के बाद भी उसकी आत्महत्या का अधिकतम लाभ उठाने के लिए व्यग्र राजनेताओं और विचारधाराओं और लेखको को भी सिरफिरा कहना पड़ेगा क्या? उनमें ही तो मेरा सारा कुनबा है। तुम हो और मेरे दूसरे मित्र लेखक हैं, पत्रकार, सिद्धान्तकार सभी को सिरफिरा करार दे दूँ तो मेरे होश हवास पर कितनों को विश्वास हो पाएगा? यह बताओ, तुमने उन्माद पढ़ा है?’’

यह तो तुम्हारा ही उपन्यास है । अब अपनी रचनाओं की पब्लिसिटी का यह तरीका निकाला है तुमने। कमाल है। बड़े कल्पनाशील हो यार।’’

तुम ठीक कहते हो, पर पढ़ा है, या नहीं?’’ 

पढ़ा तो नहीं, नाम जरूर सुना है, हम लोग प्रतिक्रियावादियों की रचनाऍं नहीं पढ़ते। हम परिष्कृत विचारों को ही पठनीय मानते है।’’

वह तो जानता हूँ, यह भी जानता हूँ कि रिफायंड आयल आदि के जनक भी तुम हो, पर रिफाइन्ड का मतलब क्या है जानते हो? इसका मतलब है इतनी चालाकी से मिलावट कि कोई मिलावट सिद्ध भी कर दे तो बताया जा सके कि यह उसे शुद्ध बनाने के लिए जरूरी था, जैसे जैन उद्योगपति द्वारा वनस्पति हाइड्रेटेड तेल को शुद्ध करने के लिए उसमें चर्बी मिलाना जरूरी था। शुद्ध वनस्पति की याद है तुम्हें ?”

वह सकपकाया।

एक बार उन्माद को पढ़ो तो पता चलेगा तुमको और तुम्हारे जैसे बहुत से लोगों को जो इस गुमान में रहते हैं कि वे कोई असाधारण काम कर रहे हैं, दुनिया को बदलने का काम कर रहे है, एक पवित्र ध्येय से जुड़े हैं, और इनसे भिन्न विचारों, विश्वासों और जीवनशैलियों को इस हद तक नापसन्द करते हैं कि उनसे घृणा करने लगते हैं, उन्हें मनोचिकित्सक भी सही रास्ते पर नहीं ला सकता। ऐसे लोग पूरी दुनिया को एक विशाल पागलखाने में बदल देते हैं और अपनी विक्षिप्तता से बेखबर आत्मतुष्ट रहते हैं, क्योंकि वे उस बहाव में आ जाते है जिनमें वे अपने जैसे बहुत सारे लोगों का साथ है, उसमें आगे और उससे भी आगे, दूसरे सभी से आगे पहुँचने की भूख और उससे जुड़ी प्रशंसा सम्मोहन का काम करती है। इसकी कोई सीमा नहीं है, गिरावट की भी और विचलन की भी। परन्तु किसी मामूली सी घटना या परिघटना के कारण जहॉं वे स्वयं आहत होते हैं, अपनी ऑंखों से देखने और अपने दिमाग से सोचने लगते हैं तो पुराने विचार और व्यवहार से मोहभंग होता है और वे एक दम टूट जाते हैं। जो कुछ करते चले गए उसे नकारने के बाद कुछ नहीं बचता, सब कुछ रीता और व्यर्थ प्रतीत होता है और वे बहुत खतरनाक फैसले कर बैठते हैं। यह किसी की हत्या भी हो सकती है, जिस पर कल तक जान देते थे उसको बर्वाद कर देने का इरादा और कारनामा भी हो सकता है, और कुछ न कर पाने की स्थिति में आत्महत्‍या में भी परिणत हो सकता है। दुनिया के सबसे भोले, प्यारे और पवित्र लोग भी इन जज्बाती लोगों में ही पाए जाते हैं और सबसे गर्हित, कमीने लोग भी इनके बीच ही पाए जाते है। परन्तु दोनों के द्वारा किए गए अनर्थ और विनाश के कारण इतिहास युगों पीछे चला जाता है।’’ 

काश वे अपने इन निर्णय के क्षणों में कोई अतिवादी कदम न उठा कर अपने को संयत करते तो वे ही उन दोषों और विकृतियों को भी सुधार सकते थे जो उनसे और उन जैसे दूसरों से हुई और हो रही है। मुझे इस बात पर कोई आक्रोश नहीं कि उसने तब तक क्या-क्या किया था, क्योंकि मैं जानता हूँ प्रशंसा की भूख और इस भूख को तुष्ट करने वालों के बहकावे में आने पर मैं भी वही कर सकता था। वह काम तो तुम सभी कर रहे हो। मुझे इस बात का दुख है कि जब उसका मोहभंग हुआ तो उसने वह कदम उस मुकाम पर उठा लिया जहां वह हमारे लिए सबसे उपयोगी हो सकता था।’’ 

देखो, इतिहास किसी के चाहने से नहीं बदलता। हम चाह कर भी अपने को नहीं बदल पाते। यदि यह संभव होता तो हम अपनी अप्रिय स्मृतियों से तो मुक्ति पा ही लेते जिसके दंश से बचना चाहते हैं। वह स्वयं उन स्मृतियों से तो बाहर आ जाता जिनसे वह मुक्त नहीं हो सका था और अपनी समस्त पीड़ा को घृणा में बदल कर आत्मदंश का शिकार हो रहा था और इतना बदहवास हो चुका था कि उसका और उसकी मेधा का उपयोग कोई उसे भुलावे में रख कर कर ले जाये तो उसकी उसे फिक्र तक नहीं थी। मैं आत्मविज्ञापन के लिए अपनी कृति का नाम नहीं ले रहा था, बल्कि यह समझाने के लिए कि ये मेरे अवसरवादी विचार नहीं अपितु दृढ़ विचार हैं और आज जो प्रतिक्रियाएं दे रहा हूँ वे एक दार्शनिक निष्पंत्ति हैं। आज की विडंबनओं का कुछ पूर्वाभास या बोध, जिसे आज कुछ कहूं जो तुमको लगेगा मौके के अनुसार बात बना रहा हूं, इसलिए मुझे अपने उस पूर्वानुमान की याद आई थी। चलो मैं तुमको उसकी कुछ पंक्तियां पढ़कर सुनाता हूं तब तुम्हें लगेगा यह मेरा अस्थाई और सुचिंतित विचार है न कि अवसर देखकर बदला हुआ पैंतरा:

ऐसा नहीं है कि समाज में मानसिक रोगियों की संख्या इतनी कम है कि इनके लिए आपको गली-गली मारे मारे फिरना पड़े। हमने समाज को जैसा बनाया है उसमें एक सामान्य आदमी के पीछे चार मनोरुग्ण मिल जाएंगे। जो सामान्य मिलेगा वह सामान्यता के बोध और बोझ को झेलते-झेलते ही अकड़ जाएगा। आप गौर करें तो महिलाओं में तो 100 में दस कामचलाऊ रूप में सामान्य , तीस सह्य रूप में सामान्य, 23 झक्‍की, 25 सनकी और दो तिहाई विक्षिप्त होती हैं। अंतिम श्रेणी मे आने वाली म‍हिलाएं पुरुष होतीं, और इनके साथ इज्जत का सवाल न खड़ा होता तो इन्हें पागलखाने भेज दिया जाता। इसके बाद जो 10 बचती हैं वह इनकी देखभाल में लगी रहती हैं, इसलिए उनको सामान्य कहना सामान्यता के साथ कुछ रियायत लेने जैसा है।.... पागलपन की हालत तो उससे भी बुरी है।... जो सचमुच पागल होते हैं वे मानने को तैयार ही नहीं होते कि वे पागल हैं। वे अपने को पागल समझने वालों की नीयत पर शक करने लगते हैं । यह दूसरी बात है कि पागलखाने इतने छोटे हैं और पागलों की संख्या इतनी अधिक कि यदि पागल खाने को चंगे लोगों के रहने के लिए और उससे बाहर की दुनिया को पागलों के लिए रखा जाए तो व्यवस्था अचूक होगी।

मैं कल तुम को बताना चाहूँगा कि हम केवल जाति और धर्म की सीमाओं में ही जकड़े नहीं हैं। कितनी अनन्त विवशताओं के बीच जो करना चाहते हैं उसके लिए प्रयत्न करते हैं फिर भी कर नहीं पाते।

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