प्रशस्ति किसे प्यारी नहीं ?

अपनी प्रशस्ति किसे प्यारी नहीं होती. चन्द सर हिलाने वालों के बीच  जो चुप रहते हैं वे भी कुछ कहते हैं. वे कहते हैं मैं सहमत नहीं हूँ या मैं अभिभूत हूँ. कौन निर्णय करेगा आप असहमत हैं या अभिभूत .सहमत नहीं हो तो आपत्ति तो दर्ज़ करो, प्रश्न तो करो. न किया तो चुप्पी का लाभ उसे मिलेगा जो अपनी बात रख चुका है और जिसका जवाब किसी के पास नहीं है. अपने को बचाने के लिए मेरे विचारों पर हमला करो. न किया तो तुम्हारी चुप्पी का अर्थ होगा मेरा समर्थन.इतनी समझ तो हो की विजय लड़कर ही पाई जाती है, पीछे हटकर नहीं.

10/12/2015 9:24:23 PM
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आज वह लड़ने की तैयारी के साथ आया था. "यह बताओ, तुम्हे किसी ने चोट पहुंचाई थी? किसी बात का मलाल है?"

"मैं समझा नही."

"तुमने सारे लेखकों को मात्र इसलिए कि वे एक खतरनाक प्रवृत्ति के विरोध में अपने पुरस्कार लौटा रहे हैं, फासिस्ट, तिकड़मी, जाने क्या क्या कह दिया. तुम्हे कभी कभी झेलना मुश्किल हो जाता है. फासिस्ट का मतलब जानते हो."

"अरे भाई एक ज़माने में यह एक विवादास्पद फलसफा था. नाज़ियों के पतन के बाद एक गाली बन गया - एक ऎसी गाली जिसमे नफ़रत और दहशत फैलाने की क्षमता हो. जिससे सख्त चिढ हो उसे फासिस्ट कह कर छुट्टी कर दी. आपसी विरोध के दिनों में रूस और चीन एक दूसरे को फासिस्ट कहते थे. कम्युनिस्टों को संसदवादी लाल फासिस्ट कहते थे. मैं तार्किक विरोध की जगह इस गाली का इस्तेमाल करने वालों को फासिस्ट कहता हूँ. शब्दों का अर्थ इतिहास में जाकर नहीं समझा जा सकता, उनका जिस तरह इस्तेमाल हो रहा है उससे समझना होगा."

वह कुछ सोच में पड़ गया. “परन्तु फासिस्ट प्रवृत्ति का विरोध करने वाले, बिना कुछ कहे, जो मिला था उसे लौटाने वाले, तो किसी को गाली दे भी नही रहे थे. उलटे तुम उनको गाली दे रहे थे. तुम्हे क्या कहा जाय?"

"ज़रूरी नही कि मेरे सभी विचार दुरुस्त ही हों. परन्तु मैं कुछ कहूँ नहीं सिर्फ तुम्हारी ओर मुंह करके थूक दूँ या थूकूँ भी नहीं सिर्फ थूः कह दूँ तो क्या यह कम घृणित काम होगा? वह भी तब जब गलती किसी और की हो और कार्रवाई किसी दूसरे को करनी हो और वह कर भी रहा हो."

वह फिर पशोपेश में पड़ गया, “पर जिस तरह तुमने उनकी मलामत की वह तो उनके नहीं तुम्हारे किसी फ्रस्ट्रेशन का नतीजा लगता था. कही तुम इस बात पर तो नहीं कुढ़े थे कि तुम्हारे पास तो लौटने को कुछ है ही नही तुम कैसे साबित करोगे कि इन दुर्घटनाओं पर तुम्हे किसी से काम मलाल नही है.”

“अरे तुमने तो सवाल के साथ एक जवाब भी तलाश लिया. यह केवल पुरस्कार प्राप्त लेखकों की चिंता का प्रश्न नही है सभी लेखकों, चिंतकों, पत्रकारों की चिंता का प्रश्न है. उदयप्रकाश ने जब पुरस्कार लौटाते हुए अपना प्रतिरोध प्रकट किया था तो मैंने यही सुझाया था कि पत्र पत्रिकाओं में जो लेखक आये दिन की घटनाओं पर लिखते रहते हैं उसे इसे पूरे आक्रोश के साथ उठाना और क्षोभ प्रकट करना चाहिए. फेस बुक पर दर्ज़ मिटता नहीं है. तलाशो तो मिल जाएगा. कई स्थानों पर सभाओं आदि से यह काम हुआ भी पर यह सम्मान वापसी तो भड़ैती बन कर रह गई जो स्वयं अकादमी को और लेखको को शर्मशार करती है. " सच कहो तो आवेश सबसे अधिक अशोक वाजपेयी पर था. वह अकेले हैं जो नष्ट या पंगु हो चुकी संस्थाओं को लेकर इतने चिंतित रहते है . वह भी इस तमाशे में शामिल हो जाएँ.  एक ने पत्थर उठाया फ़ेंक दिया, फिर दूसरे को यह चिंता की हम पीछे क्यों रहें. फिर एक के बाद एक. संगसार और क्या होता है? तरीका तो वही है? गुस्सा अकादमी पर उतारना क्या विवेक सम्मत है? इसके परिणाम का ध्यान है किसी को?'

“परन्तु..” 

“अब किन्तु परन्तु नहीं. मुझे जल्दी लौटना है. यह परन्तु कल के लिए."

10/13/2015 3:2:16 PM

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