tag:blogger.com,1999:blog-32336276725252713142024-03-14T14:01:23.752+05:30Bhagwan Singh Jiभगवान सिंह द्वारा समकालीन मुद्दों पर लिखे गए मानव इतिहास तथा भारतीय संस्कृतिपरक लेखों की शृंखला...
Bhagwan Singh ji, Sanskrit, Indian History, culture, religion, Language conspiracy, Marxism Astrologer Sidharthhttp://www.blogger.com/profile/04635473785714312107noreply@blogger.comBlogger90125tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-71014163773798797712016-02-29T18:22:00.000+05:302016-02-29T18:22:17.615+05:30बैताल फिर उसी डाल पर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गाँधी मेरी नजर में बीसवीं शताब्दी के अकेले ऐसे नेता थे जिनको सत्ता की भूख नहीं, एक नया भारत बनाने की उत्कट कामना थी जो आधुनिक भी हो, स्वावलंबी भी हो और अपनी जमीन पर दृढ़ता से खड़ा भी हो। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अकेले नेता नहीं, दूसरे । ये सपने सबसे पहले स्वामी दयानन्द ने देखे थे। वह क्षेत्र जिसमें गाँधी का प्रभाव सबसे गहन था और वे मसले जिनको गाँधी ने अपने सरोकारों से जोड़ा, और वह जमीन जिसमें गाँधी अपनी फसल उगा सके दयानन्द सरस्वती ने तैयार की थी। उनके सामने भी पूरे समाज का विकास था, आधुनिकता और परंपरा की गहरी समझ, सामाजिक भेदभाव का निवारण, स्त्री शिक्षा का उपक्रम, कुरीतियों, जैसे बाल विवाह, का निषेध और सामाजिक वर्जनाओं, जैसे विधवा विवाह, का विरोध और उच्च जीवनादर्शों का पालन आदि के बहुमुखी और समावेशी कार्यक्रम थे और इनसे जुड़ी थी स्वतन्त्रता की कामना।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुम इस बात से प्रसन्न होते हो कि मैं दयानन्द को गाँधी से बड़ा और उनसे प्रगतिशील मानूँ तो मान लूँगा। स्वामी जी कई मामलों में गाँधी से आगे थे, उदाहरण के लिए वह विधवा विवाह की बात कर सकते थे, गाँधी सनातनी थे और वर्ण विभाजन तक को मानते थे। कुछ दूसरे मामलों में गाँधी अधिक समावेशी थे, जैसे वह अकेले सभी मतों के लोगों को साथ ले कर चलने की बात करते हैं जब कि दयानन्द जी हिन्दू समाज को भी ले कर नहीं चल सकते थे। उनके कुछ सूत्र कबीर से जुड़ सकते हैं। सबकी आलोचना करते हुए, उनके ढोंग और पाखंड का उपहास करते हुए एक नई राह पर चलने का आह्वान और वह नई राह स्वयं बनाने का प्रयत्न और अकेले दम पर एक आंदोलन और संगठन खड़ा कर सकते है । गाँधी से कम चुंबकीय व्यक्तित्व नहीं था उनका। परन्तु तुम मेरी बात पूरी सुना तो करो। मैंने बीसवीं शताब्दी का अकेला नेता कहा था, अकेला नेता नहीं। उन्नीसवीं शताब्दी के अधिकांश नेताओं में ओजस्विता और तेजस्विता थी। बीसवीं शताब्दी में सबका परिपाक अकेले गाँधी में मिलेगा। तुमने कबीर की ठीक ही याद दिलाई, द्विवेदी जी कबीर के व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए उन्हें अनेकों विरोधों की संधि भूमि पर खड़ा दिखाते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आज भी जय गांधी जय जय जय गांधी ही चलेगा। तुम ऊबते भी नहीं हो।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं यह भी याद दिलाना चाह रहा था कि जिस नये मानव का और ऐसे मानवों से ऊर्जस्वित भारत का सपना वह देख रहे थे, उसके नागरिक शिक्षित होंगे, स्वस्थ होंगे, एक दूसरे से प्रेम करने वाले होंगे और स्वतन्त्र होंगे। उनकी रूढ़िवादिता में भी प्रगतिशील तत्व हैं और एक सोच भी है कि एक व्यवस्था को जो हजारों साल से चली आई हो तुम एक झटके में तोड़ तो सकते हो, सर्वव्यापी वैकल्पिक व्यवस्था बना नहीं सकते । इसलिए वह इसके साथ हड़बड़ी में कोई बदलाव न करके पहले उसके सबसे विकृत पक्ष को दूर करना चाहते थे । यदि मेरे कथन में कहीं यह लगे कि वह अखोट थे तो विराटता अखोट नहीं होती, लघुता में ही यह संभव है। तुम हिमालय की ऊँचाई भी चाहो और यह भी चाहो कि उसमें खड्ड खाई न हो यह संभव नहीं, यह पिरामिड में अवश्य संभव है, ओबेलिस्म् या लाट में अवश्य संभव है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं जिस विषय पर आना चाहता था वह यह कि गाँधी अकेले हैं जिनमें उन्नीसवीं सदी की विद्रोही उर्जा और बीसवीं सदी के निहत्थेपन के मेल से असहयोग और सत्याग्रह के हथियार गढ़ने की क्षमता थी। गाँधी के इस हथियार के व्यापक प्रसार से मानसिक रूप में यह फैसला हो गया था कि अब स्वराज्य को रोका नहीं जा सकता। अब अंग्रेजी शासन भी मनोवैज्ञानिक पराजय स्वीकार कर चुका था और यह सौदेबाजी आरंभ कर चुका था कि कितना देना है, कैसे देना है, कितनी तैयारी के बाद देना है, और किनको किनको क्या देना है कि किसी के प्रति अन्याय न होने पाए और इस बहाने वह ऐसी परिस्थितियां पैदा करने की कोशिश में लगे थे जिसमें परिस्थितियां इतनी बेकाबू हो जायँ कि स्वतन्त्रता की मांग करने वाले स्वयं हथियार डाल दें और कहें हुजूर आप ही इसे संभाल सकते हैं आप ही तब तक सँभालिये जब तक हम दोनों सौतेले भाइयों में मिल जुल कर रहने की समझ नहीं पैदा हो जाती और गाँधी जानते थे कि जब तक अंग्रेजी हुकूमत है वह दोनों भाइयों के बीच प्रेम तो दूर समझदारी तक पैदा नहीं होने देगी। यहीं गाँधी एक ऐसे असमंजस के शिकार हो गए थे कि वे भी जल्द से जल्द ब्रितानी दबोच से बाहर लाने के उस अभियान में शामिल हो गए थे और इस आशा में शामिल हो गए थे कि जिन कामों और तैयारियों को वह मानवाकार जंतुओं को मनुष्य बनाने के लिए जरूरी समझते हैं वे स्वतन्त्र भारत में ही पूरी हो सकती हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘’तुम्हारे मन में अंग्रेजों के प्रति इतना जहर भरा हुआ है कि तुम सोच ही नहीं सकते कि उनमें कोई सदाशयता भी थी। मुस्लिम लीग जिसे तुमने सौतेला भाई कहा वह उसके बाद आती है।‘’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’’देखो सैयद अहमद के बाद नीरद चन्द्र चौधरी दूसरे आदमी थे जो अंग्रेजों को दुनिया का सबसे सभ्य समाज और उनके शासन को सबसे सभ्य शासन मानते थे। उस कतार में तुम मुझे तीसरी जगह पर खड़ा मान सकते हो और मैं तुम्हारे आकलन से सहमत भी हो जाऊँगा, क्योंकि अंग्रेजों ने जो कुछ भी किया अपने निजी हित के लिए नहीं, अपने देश के हित के लिए किया। हमारे अपने राजनीतिज्ञों ने, नेहरू से ले कर आज तक के कांग्रेसियों ने, अपने और अपनों के हित को प्रधानता दी और देशोद्धार करने वाले सभी संगठनों ने, देश और समाज को बांटने और लूटने की जिस नीति को अपनाया उसे देखने के बाद वे भी श्रद्धेय बन गए, श्रेष्ठता के कारण नहीं, हमारे अपने ही नेतृत्व से कम जघन्य होने के कारण। जघन्यता को भी देश सेवा बताया जा सकता है, इसकी तो पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, परन्तु हाल में अकारण या कुतर्कपोषित कारणों से जिस तरह के देशविघातक आयोजन होने लगे हैं उसे देखते मेरा अपना भी पतन हो रहा है, कुछ लोग मुझे बौद्धिक से अधिक ज्योतिषी मान सकते हैं क्योंकि मैंने पीछे कभी कहा था कि कांग्रेस और वामपंथी दलों के पास अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए कोई औचित्य बचा नहीं है, इसलिए ये उसी बॉटो और बचे रहो की राजनीति कर सकते हैं और देश का अकूत अहित करते हुए अपने निजी हितों को आगे बढ़ा सकते हैं। मुझमें तो इतनी समझ नहीं न इतनी सावधानी है परन्तु फेसबुक पर मेरे एक मित्र को यह पता था कि अभी हाल के राष्ट्रद्रोही हुड़दंग में अपनी रोटी सेंकने वाले करात और येचुरी और राजा के मार्क्सवाद और उनकी गाड़ियों के मॉडल और उनके अपने बच्चों के लिए चुने हुए देश और उसमें उनके भविष्यसपनों के बीच जो दूरी दिखाई दी उसमें उनका वह चरित्र भी सामने आया कि ये आज के टुच्चे नेता अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए अपनी पार्टियों को, अपने देश को और कहते हुए दुख होता है, पर सच का तकाजा है, अपनी माँ को भी बेच सकते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गाँधी यह जानते थे। अकेले वह थे जो कह रहे थे कि भले सत्ता मुस्लिम लीग को सौंप दी जाय, परन्तु देश का बँटवारा नहीं होना चाहिए। अकेले वह थे जो कह रहे थे कि कांग्रेस कुछ पाने के लिए बना एक संगठन था, अब वह प्राप्त हो गया इसलिए अब इसका नाम बदल दिया जाना चाहिए। पर जिनके पास अपना कुछ न था और जो स्वतन्त्रता को अपनी खानदानी जागीर बनाना चाहते थे उन्होंने वैसा न माना, न होने दिया, न गाँधी को जीने दिया। गाँधी महान नहीं थे, उनमें महिमा के अनेक शिखर थे और कुछ खाइयाँ भी परन्तु आधुनिक भारतीय मनीषा के शिखर वही हैं और आज के जगत में सबसे सार्थक और अनुकरणीय वही हैं और उस आदमी ने कहा था कि लोगों को बता दो गांधी को अंग्रेजी नहीं आती, क्योंकि वही जानता था कि अंग्रेजी शासन ने भारतीयों को अशक्त कर दिया था पर उनकी आत्मा जीवित थी। जो अंग्रेजी नहीं जानते थे उनमें पूरी तरह और जो अंग्रेजी जानते हुए भी अपनी भाषा में सोचते और समझते थे उनमें उससे कुछ कम परन्तु जो अंग्रेजी पर गर्व करते थे उनकी आत्मा तक को अँग्रेजी भाषा ने कुचल दिया था। वे परछाइयों को यथार्थ मान कर तितलियां पकड़ने को भागते बच्चों जैसे बालिश मूर्ख थे। यह बोध किसी अन्य में नहीं था। उन्नीसवीं शताब्दी के दौर में भी नहीं। गाँधी का इतना महिमामंडन किया जा चुका है कि मैं उसमें एक तिनका तक नहीं जोड़ सकता, परन्तु गांधी को समझने की योग्यता तक हमने पैदा नहीं की यह मुझे उनके भाषा विषयक विचारों से ही लगा। अब तुम चाहो तो हिन्दी के भूत, वर्तमान और संभाव्य पर बात कर सकते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुम समझते हो मैं तुम्हारी बकवास सुन रहा था। मैं सोच रहा था हे भगवान, बहरा होना भी एक वरदान है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सुना ही नहीं तो वह वरदान तो बिना किसी के दिए ही तुम्हें मिल गया। उठो, तुमसे बात करना भी पत्थर से सिर टकराना है।</span></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-88402821850474633272016-02-18T15:44:00.001+05:302016-02-18T15:44:06.311+05:30मोहभंग<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">मैं तुम्हें इधर-उधर की थोड़ी झाँकी इसलिए दिखा रहा था कि यह बता सकूँ कि उन्नीसवीं शताब्दी में हमारी समझ बीसवीं शताब्दी की तुलना में अधिक सही थी, आत्माभिमान अधिक था, सांप्रदायिक सद्भाव अधिक था, और विरल अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश नेताओं का दृष्टिकोण क्षेत्रीय न हो कर राष्ट्रीय था। हिन्दी क्षेत्र, यहाँ की बोलियों और संस्कृति के प्रति आत्मीय आदरभाव था। दूसरे भाषा क्षेत्रों के लोग शिक्षा के लिए, धर्म संकट की स्थिति में काशी के पंडितों का अभिमत जानने के लिए, और अपने नये विचारों के प्रसार के लिए, अपने पांडित्य की धाक जमाने के लिए काशी आते थे । राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर के जन्मस्थल होने और काशी, मथुरा, हरिद्वार आदि तीर्थस्थलों के हिन्दी क्षेत्र में स्थित होने के कारण यहाँ के लोगों और बोलियों के लिए एक रागात्मक सम्बन्ध था। भारत बहुलता को वैभव समझता था, व्याधि नहीं। अठारवीं शताब्दी तक पश्चिमी विद्वानों की नजर सतही थी। विविधता को बिलगाव मानती थी और समझती थी कि इनमें एका पैदा ही नहीं हो सकता। उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक वे इसी भ्रम में भारतीय समाज को निरीह और लाचार मान कर धर्म, विश्वास, आर्थिक दोहन आदि सभी क्षेत्रों में उद्दंडता से व्यवहार करते रहे। 1857 की एक छोटी सी चूक और अपने ही देश के विघाती तत्वों के सहयोग और कुछ अन्य संयोगों ने पासा पलट दिया फिर भी वे भीतर से ‘जान बची लाखों पाए’ वाली चेतना से भीतर तक हिल गए थे। इससे पहले हिन्दू मुसलमान को पहले से ही बँटा मान कर वे निश्चिन्त थे कि ये कभी एक हो नहीं सकते। इसके बाद भारतीय समाज को भीतर से तोड़ने की नई युक्तियों का आविष्कार उनकी कूटनीति का प्रमुख मुद्दा बन गया और अन्य बातों के अलावा, उन्होंने यह पाया कि धार्मिक विभेद उतना विभेदक नहीं है जितना भाषा और संस्कृति का प्रश्न और इसके लिए हिन्दी क्षेत्र सबसे उर्वर है। इसमें उन्होंने भाषा और संस्कृति के अलगाव का वह खेल सैयद अहमद के कंधे पर बन्दूक रख कर, और दो लिपियों के प्रचलन और एक ही भाषा में अनुपात भेद से दो स्रोतों से आयत्तं शब्दावली के आधार पर एक ही भाषा को दो भाषाओं में बँटा मान कर और उनके बीच टकराव पैदा कर, एक की रीतियों को दूसरे की रीतियों से टकराव का मुद्दा बना कर विषवेलि बोने की योजना बनाई। इसमें वे सफल रहे।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">परन्तु उन्होंने दूसरी भाषाओं से हिन्दी क्षेत्र का टकराव दिखाते हुए उस पर्यावरण को विषाक्त करने का प्रयत्न किया। इसे बीम्स के कंपैरेटिव ग्रामर आफ आर्यन लैंग्वे्जेज के संगत विषयों के निरूपण को ध्यान से पढ़ने वाला समझ सकता है, पदपाठ करने वाला नहीं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">काल्डवेल ने अपने द्रविड़ भाषाओं के तुलनात्मक व्याकरण के माध्यम से दक्षिण को उत्तर से, और दक्षिण के प्रभावशाली ब्राह्मणों को शेष समाज से और शेष समाज को भी तमिल, मलय, सिंहल आदि आन्तरिक फाँकों में बॉंटने का जाल तैयार किया, वह सरल पाठ में इतना तर्कसंगत था कि उसके कुचक्र को समझते और जानते हुए भी मेरे मन में काल्डवेल की प्रतिभा और अधिकार के प्रति गहरा सम्मान है। बीम्स ने उसकी नकल करते हुए तीन खंडों में अपना काम किया परन्तु वह प्रकटत: इतना घटिया है कि एक भाषाविज्ञानी के रूप में कोई बीम्स का नाम नहीं लेता, फिर भी कुछ दूर तक तो वह इस योजना में सफल हुए ही कि हिन्दी के प्रति अन्य, तथाकथित आर्य भाषाओं में स्पर्धा, और हिन्दी प्रदेश में ही हिन्दु्स्तानी के सही चरित्र की चिन्ता के बहाने हिन्दी उर्दू में विरोध उत्पन्न कर सके।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">उन्नीसवीं शताब्दी के सांस्कृतिक पर्यावरण को देखते हुए यह स्वाभाविक था कि अखिल भारतीय भाषा के रूप में सभी हिन्दी को वरीयता देते। एक मजेदार बात, जिसका मैं पहले जिक्र कर चुका हूँ, यह है, कि हिन्दी का मतलब वही था जो उर्दू का या रेख्ता का। उर्दू का मतलब था छावनियों में अर्थात् जहॉं भी बाहरी लोगों और स्थानीय जनों के बीच संपर्क की संभावना पैदा हो, वहॉं इस संपर्क से पैदा ऐसी जबान जो सबकी समझ में आ सके, अर्थात् बोलचाल की जबान, दोनों की समझ में आने वाली जबान। रेख्ता का अर्थ ज्ञानमंडल के कोश में और महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय द्वारा तैयार कराए गए कोश में जो अर्थ दिया गया है वह गलत है। इसका ठीक वही अर्थ है जो अपभ्रंश का है। रेख्ता का अर्थ है गिरी हुई, पड़ी हुई, बिखरी हुई अर्थात् अपभ्रंश अर्थात् गिरे हुए, दबे हुए या आम जनों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली जबान। और हिन्दी का अर्थ था हिन्दुस्तान के लोग और उनकी बोलचाल की भाषा। इसका प्रयोग सबसे पहले तो उन लोगों ने आरंभ किया जो हिन्दी शब्द से ही डर कर उसे उर्दू कहने लगे और प्रयत्नपूर्वक फारसी बनाने लगे और उससे भी सन्तोष न हुआ तो अरबी भरने लगे। यह उनकी ही बहुधा विभाजित अन्तश्चे तना का प्रमाण है जिसे बीम्सु के भाषाविज्ञान ने पैदा किया था। हिन्दी के लिए तो पहले खड़ी बोली, जो रेख्ता के ठीक विपरीत थी, काम में आती थी। यदि रेख्ता या उर्दू अर्थात् हिन्दी आमफह्म या बाजार की भाषा थी, गिरी हुई, पड़ी हुई, तो यह जो दिल्ली के आसपास की भाषा एक तरह से अभिजात भाषा, तनी हुई भाषा के रूप में अपना दावा पेश कर रही थी और इसलिए रेख्ता या जनभाषा से कमजोर थी। यह दूसरी बात है कि हिन्दी पर अपना दावा छोड़ने और खड़ी बोली द्वारा इसे अपनाए जाने के बाद भी आरंभिक हिन्दी गद्य लेखकों ने लोकोक्तियों और मुहावरों को अपने लेखों में पिरोने का प्रयत्न किया, पर वह असर न पैदा हुआ जिसके कारण गालिब ने होश संभालने के बाद गर्वोक्ति की थी कि</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">‘रेख्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">'कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">पहले वह फारसी पर गर्व किया करते थे, अब आम जनों की मुहावरेदार भाषा पर गर्व कर रहे हैं, जिसके लिए मीर जाने जाते थे: </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">मुझको शायर न कहो, मीर कि साहब मैंने </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">दर्दोग़म कितने किए जमा तो दीवान किया। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">या </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">मुँह तका ही करे है जिस तिस का।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">हैरती है यह आइना किसका </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">शाम ही से बुझा सा रहता है, </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">दिल हुआ है चिराग मुफलिस का ।। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">या </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">सिरहाने मीर के आहिस्ता बोलो </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">अभी टुक रोते रोते सो गया है ।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">''इस जबान से स्पर्धा पर उतर आए थे गालिब। यदि उनकी लोकप्रिय गजलों को देखें तो इस मामले में ग़ालिब मीर से भी अधिक सिद्धहस्त थे । यही ग़ालिब थे जो मोमिन के एक शेर पर अपना दीवान लुटाने को तैयार थे: </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">तुम मेरे पास होते हो गोया</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">जब कोई दूसरा नहीं होता । </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">''गौर करो इस शेर में प्रयुक्त शब्दावली और अर्थवैभव पर । इसी का नाम हिन्दी था इसी का नाम हिन्दी है। जिन्होंने इसकी आत्मा में प्रवेश किया था उन्होंने हिन्दी और हिन्दू के साम्य और ब्रितानी कूटनीति द्वारा दोनों के बीच विभेद के चलते इसे छोड़ तो दिया, पर जन भाषा, या आमफहम की भाषा, या बाजार की भाषा अर्थात् उर्दू कहने लगे और जो खड़ी बोली हिन्दी कही जाने लगी उसमें ज़मीन की गन्ध तक नहीं। हिन्दी सचमुच ऊपर से लादी हुई, नकली भाषा, असाहित्यिक पर प्रशासनिक दृष्टि से सबसे जरूरी भाषा लगती है। यह चाहे उर्दू से अलगाव के कारण हो, या आभिजात्य के कारण, यह अपनी जड़ों से जुड़ नहीं पाई, जब कि उर्दू को हिन्दी से अलग करने के लिए उसे फारसी और अरबी से भरने का चलन आरंभ हो गया और इसको सचेत रूप में बढ़ाया गया। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">हम आगे बढ़ते रहे और पीछे खिसकते रहे । </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">"हमारी अग्रवर्ती पश्चगति में ब्रिटिश कूटनीति और हमारी अपरिपक्वता दोनों का हाथ है। हमे तोड़ने और उल्टी दिशा में मोड़ने के प्रयत्न उनकी ओर से हो रहे थे, जिसके लिए सैयद अहमद और भारतेन्दु दोनों का उपयोग कर लिया गया। इस मामले में बाबू शिवप्रसाद की समझ अधिक सही थी, परन्तु भारतेन्दु और सैयद अहमद में अन्तर यह है कि भारतेन्दु वंशपरंपरा से और स्वयं अपने आरंभिक सोच में, 'जुग जीवें सदा विकटोरिया रानी' वाली राजभक्ति रखते थे और अपने विवेक से अंग्रेजी राज्य से उनका मोहभंग होता गया और वह उस आर्थिक शोषण को समझ सके जिसे उन्होंने ‘पर धन बिदेस चलि जात यहै अति ख्वारी की पीड़ा से व्यक्त किया था और अमेरिका में हुए स्वतन्त्रता संग्राम के अनुरूप एक भारतीय तैयारी का सपना देखने लगे थे, कहें, विद्रोही होते चले गए थे जब कि सैयद अहमद ब्रितानी जाल में फँसते चले गए थे और जैसा कि हमने कहा, उस राजनीति का एक मुहरा बन कर रह गए थे।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">"फिर भी उस दौर में भाषा की तुलना में लिपि का प्रश्न अधिक कॉंटे का था, क्योंकि सैयद अहमद से ले कर दूसरे सभी जानते थे कि एक बार नागरी लिपि को शिक्षा और अदालतों में प्रवेश का अवसर मिला तो अरबी लिपि जो भारतीय नामों, शब्दों के लिये नितान्त अनुपयुक्त थी, किनारे लग जाएगी, इसलिए उन्होंंने इसे सांस्कृतिक अस्मिता के प्रश्न के रूप में बहुत अडि़यलपन से अपनाए रखा। इस मामले में लगभग सभी मुसलमानों को अन्त तक अरबी लिपि का आग्रह बना रहा, जिसमें तत्ववादी और प्रगतिशील सभी आ जाते है। इस मनोविज्ञान को समझना भारतीय यथार्थ को समझने के लिए जरूरी है परन्तु इस पर हम यहॉं इसकी चर्चा नहीं करेंगे।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">"जहाँ तक भाषा का प्रश्न था, अदालतों और थाने की भाषा फारसी-बहुत भाषा थी जिसे केवल वकील, मुख्तार समझते थे और जिसे जानबूझ कर मुश्किल बना रखा गया था जिससे कोई व्यक्ति यदि यह जानना चाहे कि लिखा क्या गया है तो उसे किसी वकील, मुख्तार या मुंशी की मदद लेनी पड़े। इसे और भी दुरूह बनाने के लिए शिकश्ता में लिखने का चलन था जिसमें सन्दर्भ के बिना अर्थ समझा ही नहीं जा सकता था – उसी लिखित वाक्य को दादा अजमेर गए और दादा आज मर गए, किसी भी रूप में पढ़ा जा सकता था। यह भी उसे गूढ़ या कूट भाषा बनाने का एक तरीका था। इस खास अर्थ में यह भाषा और लिपि सचेत रूप में जनता से दूर ही नहीं जनविरोधी भी थी। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">"मुझे हैरानी सिर्फ इस बात पर होती है कि आज़ादी से पहले जो लोग हिन्दी की वकालत कर रहे थे उन्हें हिन्दी वालों ने इतना नाराज़ क्यों कर दिया कि वे भी हिन्दी के विरोधी हो गए। सारा कसूर तो हिन्दी वालों का है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">"पर दुबारा सोचने पर लगता है, यह आधी सच्चाई है। पूरी सचाई तो यह है कि आजादी की लड़ाई भारतीय भाषाओं में नहीं लड़ी गई। भारतीय भाषाओं में तो अधिक से अधिक उनके व्याख्यान होते रहे, लड़ाई जिनसे लड़ी जा रही था उनकी भाषा हिन्दी नहीं थी, अंग्रेजी थी, इसलिए स्वतन्त्रता संग्राम की भी भाषा अंग्रेजी थी।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">"तुम जँभाइयां ले रहे हो जिसका मतलब है तुम ऊब रहे हो । गलत कह रहा हूँ?"</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">"गलत तुम कहो भी तो यह पता न चलेगा कि कहीं कुछ गलत है। इसके लिए अक्ल की जरूरत पड़ती है, पर ऊब रहा हूँ यह तो सच है ही।"</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><a href="https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1022023347859071" target="_blank">https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1022023347859071</a></span></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-6323309962221524182016-02-18T15:26:00.001+05:302016-02-18T15:28:47.340+05:30गांधीनामा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुम्हारी कुछ बातें मुझे भी सही लगती हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सही गलत के चक्कर में मत पड़ा करो, जो सही है वह भी गलत हो सकता है, और जो गलत है वह कुछ लोगों केा गलत लग सकता है, दूसरों को सही क्योंकि उसी से कुछ लोगों को नुकसान हो सकता है और दूसरों का फायदा।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वह हँसने लगा। कुछ बोला नहीं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’’देखो अभी कल एक सज्जन कह रहे थे, गांधी जन-आन्दोलन खड़ा करने के लिए खिलाफत का भी समर्थन कर सकते थे। मैंने कहा, नहीं, यह तथ्य तो है, पर सच नहीं है। गांधी से पहले मुसलिम चेतना पर सैयद अहमद का प्रभाव था जो मुसलमानों को कांग्रेस से अलग रहने और अंग्रेजी सरकार का विश्वासपात्र बने रहने की नसीहत देते थे, क्योंकि यह उनके लिए फायदेमन्द था और इसलिए सही था। पर गलत इसलिए था कि मुस्लिम हित को सर्वोपरि मानने के कारण वह बौद्धिक रूप में अंग्रेजी कूटनीति के सम्मुख आत्मसमर्पण कर चुके थे, एक असाधारण प्रतिभा, अपनी संकीर्ण सोच के कारण मुहरा बन कर रह गई थी और इससे मुस्लिम समुदाय मुख्य धारा से कट कर दरबाबन्द चेतना का शिकार हो गया था। गांधी की सोच यह थी कि यदि हमें भारतीय समाज को एकजुट करना है तो हमें उसके किसी हिस्से के ऐसे सरोकार का जो अंग्रेजी सत्ता के लिए असुविधाजनक है, समर्थन करना चाहिए। भीड़ जुटाने का वहाँ प्रश्न नहीं था। परन्तु जल्द ही इसके नतीजों ने ही समझा दिया कि यह बहुत बड़ी भूल हो गई और उन्हों ने पूरी कांग्रेस पार्टी को हैरानी में डालते हुए अपना आन्दोलन ही स्थगित कर दिया और एक लंबे विराम में बाद उसे नये सिरे से खड़ा किया।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">'' गाँधी भारतीय राजनीति में प्रवेश करने से पहले ही एक चमत्कारी पुरुष के रूप में विख्यात हो चुके थे और एक साल के भारत दर्शन के बाद तो वह घूरे पर भी खड़े हो जाएं तो वह तन कर एक टीला बन जाता था और भीड़ स्वत: उनके चुबकीय व्यक्तित्व के कारण एकत्र हो जाती थी और जिधर मुड़ते हवा तक अपना रुख बदल लेती।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आइंस्टाइन और गांधी बीसवीं शताब्दी की दो आश्चर्यजनक विभूतियां हैं, परंतु एक का सरोकार भूत-जगत से था तो दूसरे का प्राणि-जगत से । भूत जगत में हम इच्छानुसार विच्छेेदन, विलगाव, नियन्त्रण कर सकते हैं प्रकृति के रहस्यों को समझ सकते हैं, एक बार विफल होने पर दोबारा अपनी चूक से बच और भूल को सुधार सकते है और इससे श्रम और धन की मामूली सी क्षति को छोड़ कर दूसरी कोई क्षति नहीं होती, परंतु प्राणि-जगत में और खास तौर से मानव जगत में इनमें से कोई सुविधा नहीं होती इसलिए उसमें अपना विवेक और अन्त:प्रज्ञा को छोड़ किसी चीज का सहारा नहीं होता। जाहिर है, उसमें यदि कोई बड़ा प्रयोग किया गया तो उसके परिणाम भयानक हो सकते हैं और इसके अपवाद तो आइंस्टा़इन भी नहीं जिन्होंने यह जान कर कि जर्मनों ने परमाणु बम तैयार कर लिया है, रूजवेल्ट को बम बनाने की सलाह दी थी और उसके सूत्र भी सुझाए थे। रूजवेल्ट बड़े नेता थे, गहन मानवीय संवेदना से युक्त। उनका पोलियो भी उनकी इस संवेदना का ही पुरस्कार था। आइंस्टाइन को क्या पता था कि उन्हें नाम से सच्चा मनुष्य या कहो मानववादी पर मिजाज से जल्लाद उत्तराधिकारी मिलेगा जो स्वयं उस भयानक त्रासदी का सूत्रपात करेगा जिसे टालने के लिए उन्होंने यह सुझाव रखा था। उन्होंने प्रतिरक्षा की चिन्ता से कातर हो कर इसमें योगदान दिया था, आक्रामक आयुध के रूप में नहीं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">'छोटे लोग छोटी गलतियाँ करते हैं जिससे सिर्फ उनका नुकसान होता है, पर महान लोग इतनी महान भूलें करते हैं जिनके लिए गाँधी ने हिमालयी भूल या हिमालयन ब्लंडर का पद गढ़ा था। यदि ब्लंडर के आकार को मानदंड बनाया जाय तो आइंस्टाइन मानव इतिहास के सबसे बड़े आश्चर्य हैं, जो उनके चकित करने वाले कामों से भी सिद्ध हो सकता है। परन्तु आइंस्टाइन ही ऐसी प्रतिभा थे जो समझते थे कि भौतिकी के क्षेत्र में काम करने से अधिक महत्वपूर्ण है मानविकी के क्षेत्र में काम करना है, क्योंकि सभी मानव प्रयास मानव जीवन को उन्नत बनाने के लिए ही तो, इसलिए अन्तिम दिनों में वह इस ओर भी मुड़े थे। वही कह सकते थे कि आने वाले समयों में किसी को यह विश्वास न होगा कि गांधी जैसा कोई व्यक्ति इस धरती पर पैदा हुआ था।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह विचित्र है कि खिलाफत आंदोलन के परिणाम स्वरुप जो बोरा विद्रोह अंग्रेजों के विरुद्ध आरंभ हुआ था उसे ब्रितानी खुफिया तन्त्र ने यह प्रचारित करके कि अब ब्रिटिश राज खत्म हो चुका है, खलीफा का राज्य स्थापित हो चुका है, सच्चे इस्लामी राज्य में मुसलमानों से अलग किसी को जिंदा रहने का अधिकार नहीं है उसकी दिशा पलट दी थी और इसके बाद वही आक्रोश जो पहले अंग्रेजों के प्रति था, हिन्दुओं के विरुद्ध हो गया और अंग्रेजी प्रशासन ने इसे फैलते जाने की पूरी छूट दे दी। इस उपद्रव की कहानियॉं इतनी हृदयविदारक थीं कि जब इसकी खबर गांधी को लगी तो उन्होंने कहा था, उन्हें मारना चाहिए था। यह पढ़ कर मैं स्तम्भित रह गया था। गाँधी की अहिंसा क्या राजनीतिक अवसरवाद है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह समझने में कई वर्ष लगे थे कि गॉंधी की अहिंसा, बिना परंपरा का गहन अध्ययन किए ही (या कौन जाने गाँधी क्या् क्या पढ़ और जान चुके थे), उस सोच से जुड़ी थी जिसमें हिंसा को अक्षम्य पाप तो कहा गया है, परन्तु यह विधान भी है कि आततायी का वध करने पर कोई पाप नहीं लगता। आज की भाषा में कहें तो यह अपरिहार्य और न्यायोचित है। न आततायि बधे दोषो हन्तुःभवति कश्चन ।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहते हैं आइंस्टााइन के सापेक्षता सिद्धांत के बारे में एक व्यक्ति ने कहा था दुनिया में इसके तीन जानकार है। जिससे उसने ऐसा कहा था उस वैज्ञानिक ने कहा था दो को तो मैं जानता हूं, एक मैं दूसरे आइंस्टांइन, पर यह तीसरा कौन है?</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो सकता है फिकरा हो, पर कई बार फिकरे भी यथार्थ की उससे अधिक गहरी व्याख्या कर जाते हैं जिससे दार्शनिक करना चाहते हैं और कर नहीं पाते।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''सापेक्षता के सिद्धांत पर बात करोगे जिसे तुम जानते नहीं या उस विषय पर बात करोगे जिस के बारे में जैसी भी सही, कुछ जानकारी रखते हो।''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अरे भाई मैं सापेक्षता के सिद्धांत की बात नहीं कर रहा हूं । मैं तो यह कह रहा हूं कि महान से महान वैज्ञानिक भी उसके कुछ पहलुओं को नहीं समझ पाए थे। उन्हें ज्ञेय मानते थे पर ज्ञात नहीं। वे मानते थे कि सच्चाई तो कहीं है, परन्तु प्रमाणित नहीं हो रही है उनके अपने सिद्धांतों के अनुसार मैं केवल इस मोटी खबर को जानता हूं कि उसका जितना अंश ज्ञात और मान्य हो सका, उसकी ओर आइंस्टाइन का ध्यान नहीं था। वह बहुत कुछ ऐसा जानते थे जिस तक किसी अन्य की पहुँच असंभव थी। उनका उल्लेख इसलिए कर रहा हूं कि यह बता सकूं कि गांधी के अहिंसा सिद्धांत को भी उसी तरह से हमारे समाज में नहीं समझा, जैसे सापेक्षता के विशेष सिद्धान्त को। उसको समझने वाला शायद दुनिया में कोई दूसरा नहीं था । पर जितना समझ में आता था उसी पर लोग उन्हें सिर पर उठाए फिरते थे। ठीक यही हाल गांधी का था।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अरे भाई मैं चाहता था तुम यह बताओ हिन्दी का भविष्य क्या है और तुम गांधीनामा ले कर बैठ गए। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस पर कल बात करेंगे।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><a href="https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1021362391258500" target="_blank">https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1021362391258500</a></span></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-62468100590299494302016-02-18T15:19:00.003+05:302016-02-18T15:19:49.736+05:30अधूरे के अधूरे का अधूरा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><br /></span></div>
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><div style="text-align: justify;">
जब मैं कहता हूं कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेता अपने और अपनों के लिए रियायतें माँग रहे थे तो यह एक सामान्य कथन है। यह कुछ लोगों को खटका भी होगा और एक मित्र ने लाल, बाल और पाल का नाम लेते हुए मुझे अपनी स्थिति स्पष्ट करने को भी कहा। मेरा इरादा इन महापुरुषों और इन जैसे महापुरुषों के त्याग और बलिदान और साहस को कम करके आँकना नहीं है। यदि हम कांग्रेस के भीतर के प्रथम विभाजन, जिसे नरम दल और गरम दल का नाम दिया गया, पर ध्यान दें तो मुझे नरम दल के नेता अधिक दूरदर्शी दिखाई देते हैं और यह दूरदर्शिता कांग्रेस का विरोध करने वाले सैयद अहमद में भी इस रूप में देखी जा सकती है कि इन्होंने सत्तावन के संग्राम से जो दुर्भाग्यवश विद्रोह बन कर रह गया, शिक्षा ली थी और जानते थे कि इस बीच सीधे इंगलैंड के तख्त के अधीन प्रशासन के आ जाने के कारण ब्रितानी चौकसी और ताकत बढ़ी है, जब कि भारत की सशस्त्र संग्राम छेड़ने की क्षमता को लगभग कुचल दिया गया है। मेरा अध्ययन इस विषय में मेरे अनेक मित्रों से भी कम है और अनुभव का तो सवाल ही नहीं उठता...’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
’’जब न ज्ञान है न अनुभव तो चुप तो रह सकते हो, बीच में टाँग क्यों अड़ाते हो।‘’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
’’इसलिए कि अनुभव किसी के पास नहीं है, और किताबों से अलग अलग सूचनाएं मिलती हैं, पर वह दृष्टि नहीं जो तथाकथित नरम दलीय नेताओं के पास थी। यह नरम दल का ही बोध था जो गॉधी को हस्तान्तरित हुआ या उलट कर कहें कि यह नरम दल का नेतृत्व ही था जिसने गॉंधी की संघर्ष क्षमता को पहचाना और कांग्रेस का नेतृत्व उन्हें सौंपने का फैसला किया। गरम दल के ये तीनों नेता बहुत पढ़े-लिखे थे, साहसी थे, असाधारण वक्ता थे, परन्तु आवेश के कारण उनकी दृष्टि उतनी स्वच्छ नहीं थी जितनी गाँधी की। सुभाषचन्द्र बोस भी गरम दलीय सोच के ही थे और गॉंधी उनके मिजाज को समझ लेने के बाद उनसे भी कांग्रेस के नेतृत्व को मुक्त रखना चाहते थे। जोशीले लोग आकर्षक लगते हैं, परन्तु वस्तु्स्थिति का आकलन करने में चूक कर जाते हैं और इसलिए उनके कामों के परिणाम उतने श्रेयस्कर नहीं होते जितने उनके उत्सर्ग भाव से आशा बँधती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
'' हमारी शक्ति उस खास चरण पर और उससे आगे भी सत्तावन की तुलना में बहुत कम हो गई थी। उससे पहले तलवार बन्दूक, बर्छा फरसा जैसे हथियार जनता के पास थे। अब एक साख लम्बाई से बड़े चाकू छुरे तक हथियार मान कर प्रतिबन्धित थे। बन्दूक सरकारी जाँच के बाद सरकार के स्वामिभक्तों को दिए जाते थे जो ब्रिटिश सत्ता के पायों-थूनियों का काम करते थे। 1818 के बाद धार्मिक संवेदना की उपेक्षा करते हुए जिस तरह की मनमानी की जाने लगी थी उससे सीख लेते हुए शासन ने संवेदनशीलता दिखाना आरंभ कर दिया था। अत: धार्मिक प्रश्नों पर उस तरह का सामाजिक विक्षोभ जो ज्वालामुखी की तरह फट पड़े, नहीं पैदा किया जा सकता था। उल्टे इसकी आँच हिन्दुओं-मुसलमानों की ओर मोड़ कर और पारस्परिक अविश्वास को बढ़ाने के लिए अपनाये गये तरीकों से उस निकटता को तोड़ा जा चुका था, जो सत्तावन में पैदा हो सकी थी। अत: छिट फुट बम दागने से क्षणिक उत्तेजना तो पैदा की जा सकती थी, बदले की कार्रवाई भी की जा सकती थी, परन्तु सत्ता नहीं खत्म की जा सकती थी। यह ऐतिहासिक विवशता थी जिसका ध्यान रखते हुए ही कोई प्रभावकारी तरीका अपनाया जा सकता था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
''इस मोड़ पर केवल दो चीजें नई थीं और जिनका उपयोग किया जा सकता था। पहला था प्रेस और दूसरा था यह आश्वासन कि भारत का प्रशासन न्याायपूर्वक और भारतीयों के हितों की चिन्ता करते हुए किया जाएगा। गरम दल के नेता पहले का आलोचनात्मक तेवर के साथ पाठ कर रहे थे और नरम दल के नेता उस हितकारी शासन के आश्वासन की व्याख्या करते हुए अपनी मांगें रख रहे थे । परन्तु प्रेस पर सरकारी नियन्त्रण था और सत्ता को चुनौती देने वाली या आलोचना करने वाली सामग्री को जब्त कर लिया जाता था, संपादकों, लेखकों को दंडित किया जाता था, और एक अल्पशिक्षित समाज में केवल शिक्षितों तक अपने विचार पहुँचाये तो जा सकते थे परन्तु उन्हें किसी कारगर कार्यक्रम का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"ऐसा मुझे लगता है, हो सकता है कुछ अन्य तथ्यों की ओर ध्याान जाने पर इसमें सुधार की अपेक्षा हो। विपिन चन्द्र पाल और अरबिन्दो उस बंगभंग के विरुद्ध विप्लवी गतिविधियों में शामिल हुए थे और यह मान कर शामिल हुए थे कि यह हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दरार डालने के लिए किया गया प्रयास है, परन्तु् इस प्रयास को उन्होंने अपने आन्दोलन से सफल हो जाने दिया। यदि सभी मुसलमान, यहॉं तक कि कांग्रेस में शामिल मुसलमान भी इसका समर्थन कर रहे थे तो विभाजन पर चुप रहना अधिक समझदारी रही होती, क्यों कि विरोध से ब्रिटिश कूटनीति सफल हुई। बंगाल नहीं बँटा पर दिल बॅट गए। बंगाल को प्रशासनिक द़ष्टि से अपनी विशालता के कारण बँटना ही था। मैं नही जानता नजरुल इस्लाम की कविता में फारसी शब्दों की वृद्धि का भी यह एक कारण था या नहीं, परन्तु जिसे सुनीति बाबू ने मुसलमानी बांग्ला का नाम दिया उसकी पैदाइश इससे जुड़ी हो सकती है। मैंने इसका विस्तार से अध्यंयन नहीं किया। मुस्लिम लीग की स्थापना का तो इससे सीधा संबन्ध है ही। हम प्रत्येक मामले के विस्ताार में जाऍंगे तो दिशा बदल जाएगी। एक बात का श्रेय अवश्य इन महापुरुषों को जाता है कि इन्हों ने अंग्रेजी में लिखने के साथ हिन्दी, मराठी और बांग्ला में भी लेखन किया और इस दृष्टि से हमारी समस्या के सन्दर्भ में इनका महत्व अवश्य है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कांग्रेस के अन्य नेताओं में आवेश था विजन या क्रान्तदर्शिता नहीं थी जो गांधी के पास थी। गांधी जी के साहित्य का भी मुझे आधिकारिक ज्ञान नहीं है, परन्तु जितना उलट पलट कर देख सका हूँ कहीं यह संकेत नहीं मिलता कि अपने सत्याग्रह को उस ब्राह्मणी शस्त्राागार से लिया था जिसमें प्राण देने की ठान कर अडिग भाव से जिसे गलत मानते हैं उसे मानने से इन्का्र करते रहे और आश्चणर्य यह कि यह क्रान्तिकारिता रूढि़वादी ब्राह्मणों में ही थी नवाचारी ब्राह्मण तो सुविधाओं के हाथ बिक जाते थे। रूढि़वादी ईसाइयों, रूढि़वादी ब्राह्मणों की प्रगतिशील और विद्रोही भूमिका का जिक्र हम पहले भी कर आए हैं उसे दुहराने की जरूरत नहीं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
''यह सब तुम सुना क्यों रहे हो।''</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
'' यह बताने के लिए कि गॉधी में एक रहस्यमय तरीके से परंपरा के जीवन्त तत्वों का नये सिरे से आविष्कार था और आधुनिकता के साथ उसका अद्भुत सामंजस्या था। ऐसा ही सामंजस्यप पूर्व और पश्चिम के तत्वों का था और ऐसा ही सामंजस्य गरम दल और नरम दल के जीवन्त तत्वों का। गांधी हिंसा का रास्ता चुनने के पक्ष में नहीं थे, परन्तु ‘’हिंसा और कायरतापूर्ण पलायन में से मैं हिंसा को ही तरजीह दूँगा।" अहिंसक मरने के डर से हिंसा से पलायन नहीं करता, मरने और पलायन करने में मरने का वरण करता है, यह रूढि़वादी ब्राह्मणों के फीरोज शाह तुगलक और औरंगजेब दोनों के जजिया के विरोध में सविनय निवेदन के साथ अपनी मॉंग रखने, मॉंग न मानी जाने पर राजादेश की अवज्ञा करने, और हाथी से कुचले जाने पर भी मरने के लिए खड़े होने वालों का एक विशाल क्षेत्र में विस्ताार हो जाना।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
'गाँधी का सविनय अवज्ञा और असहयोग नरम दल के वश की बात न थी। बिना हिंसा का सहारा लिए, ‘मैं तुम्हारे गलत कानून और गलत शासन को नहीं मानता, मैं आजाद हूँ और आजाद रहूँगा और आजाद मरूँगा’ छाती तान कर नहीं कह सकता था। ऐसा व्रत लेने वालेों को भी इनके वचाव के साथ ही छुप कर रहना पड़ता और छिप कर प्रतिघात करना पड़ता था, अपनी पहचान जताने के लिए मैं झुकने को तैयार नहीं हूँ।'</div>
<div style="text-align: justify;">
'' गांधी के सत्याग्रहियों को छुपने, बचते हुए जीने और मात्र यह जताने के लिए जीने की जरूरत नहीं थी। उनके पास एक ऐसा हथियार था जिसे ले कर वे सीधे गलत कानून को चुनौती और अपनी आजादी की घोषणा ही नहीं कर सकते थे, अपने विरोधियों को नंगा भी कर सकते थे। उनमें एक अतीन्द्रिय बोध था जिसमें आधुनिकता और परंपरा, हिंसालभ्य और अहिंसालम्य लक्ष्यों का समावेश था। गॉंधी को उनके समय में भी नहीं समझा गया और उनकी गाथा गाने वालों द्वारा भी अधूरे रूप में ही समझा गया। तुम्हें क्या लगता है।''</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
''मुझे लगता है कि यदि मेरे हाथ में हथौड़ा होता और तुम्हें अपना मित्र समझ कर उसका तुम पर प्रयोग न करने की ठान कर बैठा होता तो भी अपने को काबू में न कर पाता और तुम्हारा सिर फटा मिलता । बात कर रहे थे कि हिंदी का आना अब इतिहास की जरूरत है और गॉंधी माहात्म्य में जुट गए। तुम पिछले जन्म मे चारण रहे होगे।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"चलो, पुनर्जन्म में तुम्हें विश्वास तो पैदा हुआ। लेकिन तुम ठीक कहते हो, मुझे न बोलना आता है, न लिखना। मैं अक्सर अपने विषय को ही भूल जाता हूँ, बोलते समय भी और लिखते समय भी। लेकिन इसका एक फायदा भी है यार। जब पता चलता है कि अरे मुझे इस विषय पर बात करनी थी और उसका तो जिक्र ही नहीं आया तो प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब इसे सलीके से कहूँगा। नतीजा वही होता है। फिर भी लाभ यह कि अपनी ही कमी को पूरा करने के लिए दूसरा लेख, दूसरी किताब आती जाती है, बाजार गरम रहता है और बात पूरी होती लगती नहीं। मरते समय कहूँगा, इसे अगले जन्म में समझाऊंगा, पर वैज्ञानिक अगले जन्म का रास्ता रोके खड़े हैं। अधूरा कहा और अधूरा लिखा है, इसे मेरे पाठक ही पूरा करेंगे। फिर भी कल मिलते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1020796771315062" target="_blank">https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1020796771315062</a></div>
</span></div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-219439471190591102016-02-18T14:54:00.001+05:302016-02-18T14:54:38.765+05:30हिंदी की तरफ लौटे थे गालिब<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><br /></span></div>
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
'यह बताओ, तुम्हारे पास जादू की कौन सी छड़ी है जिससे तुम हिन्दी को भारतीय संपर्क भाषा बनने का सपना देखते हो और कौन सी ऐसी भिन्नताएं हैं जिनके कारण तुमको पाकिस्तान में उर्दू की स्वीकृति असंभव लगती है।''</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
''इतने सारे सवाल । मैं तो इनमें पहले का ही जवाब दे सकूँ तेा धन्य समझूँगा। पहली बात यह जादू की छड़ी न तो कभी मेरे पास थी, न ही उसकी कामना करता हूँ। छड़ी का जादू छड़ी के हटते ही टूट जाता है। मेरे पास इतिहास की एक मोटी समझ है जिसमें यह संभव प्रतीत होता है।''</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
''यह समझ सिर्फ तुम्हें है, और किसी को नहीं।''</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
''दूसरों को इतिहास की बारीक समझ है इसलिए वे इसके साथ छेड़छाड़ करते रहते हैं, इसालिए उसे समझ नहीं पाते। वे उससे डरते हैं, उसे अपनी भट्ठी का ईंधन बना कर रखना चाहते है, और लापरवाही में अपना हाथ भी जला लेते हैं। मैं उसे देखता हूँ, उसके रुख को पहचानता हूँ और उससे संवाद तक कर लेता हूँ क्योंकि उसकी संकेत भाषा समझता हूँ।''</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
''तब तो तुम्हारी आरती उतारनी पड़ेगी।''</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
''उसमें तो सीधे आग से पाला पड़ेगा और तुम अपनी दाढ़ी भी जला बैठोगे। इसलिए ऐसा जोखिम मत उठाओ, मैं तुम्हें स्वयं उसके पास ले चलता हूँ।''</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
''देखो, उन्नीसवीं शताब्दी में कोई इस बात का सपना तक नहीं देखता था कि यह देश कभी आजाद हो सकेगा, सिर्फ अंग्रेजों को पता था कि उनके पॉंव जमीन पर नहीं है, वे अधर में लटके हुए है, उन्हें यह आशंका भी थी कि 1857 के दमन का गुस्सा भारतीय मानस में भरा हो सकता है और कभी उग्र रूप ले सकता है। इसलिए वे तभी तक सुरक्षित है जब तक भारतीय आपस में लड़ते रहें। यह नीति उन्होंने टीपू (1799) की पराजय और उसके बाद दूसरे मराठा युद्ध में विजय (1805) और 1815 में तीसरे मराठा युद्ध में मराठा प्रतिरोध को पूरी तरह चूर करने के बाद जब कहीं से प्रभावशाली प्रतिरोध का खतरा नहीं रह गया तब अपनाई। इससे पहले वे यह मान कर चल रहे थे कि उन्होंने बंगाल की जमीन मुसलमान शासकों से छीनी थी सो मुसलमान ही उनके विरोधी हो सकते हैं, हिन्दुओं को मुस्लिम शासन से मुक्ति मिली है इसलिए वे आसानी से हमारे साथ आ सकते हैं, उन्होंने हिन्दू सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन और इसके नकारात्मक पक्षों की उपेक्षा करते हुए केवल धनात्मक पक्षों को उजागर करने की नीति तो अपनाई ही, इस बात की सावधानी भी बरती कि मिशनरियों की गतिविधियों को काबू में रखा जाय, जिससे वे जिन हिन्दुओं का सहयोग और समर्थन चाहते हैं वे बिदक न जायँ। यह याद रखना जरूरी है कि मुसलिम प्रतिरोध बंगाल में 1857 के संग्राम के बाद भी जारी रहा और उसी से चिन्तित हो कर हंटर ने जो खुफिया विभाग के प्रधान रह चुके थे मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध करने या कहें आपसी झगड़े लगा कर अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने का रास्ता अपनाया था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
''तुम किसी बात को इतना फैला देते हो, यदि मुझे तुम्हारी बीमारी को नाम देना हो तो इसे डायलोफीलिया नाम दूँगा और तुम्हें समझाने का प्रयास करूँगा कि तुमको किसी अस्पताल में भर्ती हो जाना चाहिए।''</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
''और यदि मैने पूछ लिया कि कौन सा अस्पताल तो तुम उसका नाम बताओगे जिसमें तुम आते जाते रहते हो। तुम्हें अपने अस्पलताल से भी प्रेम है और अपने आप से भी, और तुम जो अच्छे नंबर लाते रहे हो वह हिस्ट्री मेड ईजी, साइंस मेड ईजी, यूनिवर्स मेड ईजी जैसी किताबें पढ़ कर। तुम्हें झटपटिया ज्ञान है और मैं तुम्हें उस मनोविश्लेषण से गुजारना चाहता हूँ जिसमें अवचेतन की गहराइयों में उतर कर समस्याओं का कारण समझा जाता है, समाधान वहॉं नहीं मिलता। समाधान कारण को जानने के बाद हमें ही तलाशना होता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
"तुम्हें आज इतनी ही खूराक काफी है। पहले इसे पचा लो तो उन गॉंठों पर बात करेंगे जिनसे मुक्ति के बिना हम राष्ट्रकवि की उन सरल पंक्तियों का भी अर्थ नहीं समझ सकते जो निरक्षरों को भी बोधगम्य लगती हैं : </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हम कौन थे क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अब इस तथ्य पर ध्यान दो कि मध्यकाल में शासकों के जो भी अन्याय रहे होंं सामान्य हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच कटुता न थी । इसका प्रधान कारण यह था कि मुसलमानों का नब्बे प्रति शत धर्मान्तरित हिन्दू थे जिन्हें विवशता में ऐसा करना पड़ा था। इसलिए दफ्तरों की भाषा जो भी रही हो आम बोलचाल की ज़बान ऐसी थी जिसमें कुछ अरबी फारसी के शब्द थे जबान हिन्दी थी, हिन्दी ही कही जाती थी ।</div>
<div style="text-align: justify;">
सभी मुसलमान अपने क्षेत्र की बोली जानते और बोलते थे। विदेशी मूल पर गर्व करने वाले आपस मे तुर्की या फारसी बोलते थे । कविता करते समय उनकी जबान में कुछ ऐसे शब्द भी आ जाते थे जो आम बोलचाल में नहीं आए थे । पर इसे एक दोष माना जाता था । मीर का यह कथन कि 'क्या जानूँ लोग कहते हैं किसको सरूरे कल्ब । आया नहीं है लफ्ज ये हिन्दी जबाँ के बीच।' इस सचाई को बयान करने के लिए काफी है । हाली के बारे में एक बार शमशेर बहादुर सिंह ने बताया था कि वह शब्द विचार के मामले में कहते थे कि हमारे घर में । इसके लिए यह बोला जाता है, अर्थात महिलाओं की बोली को वह भाषा की कसौटी मानते थे। जौक ने गालिब की भाषा का मजाक उड़ाते हुए कहा था मजा कहने का जब है एक कहे और दूसरा समझे, मगर इनका कहा ये आप समझें या खुदा समझे । गरज नाम भले उर्दू भी चलन में आ गया था पर उसका मतलब भी हिन्दी या आम बोलचाल की भाषा ही था, इसलिए भाषा को लेकर हिन्दू मुसलमान का फर्क न था । गालिब भी अपनी चूक सुधारने की ओर मुड़े थे । उनके वे ही शेर लोकप्रिय हैं जो आम जबान और मुहावरों में हैं। यह अलगाव 1870 के बाद प्रयत्न पूर्वक पैदा किया गया और इसी तरह गोकुशी को सह दे कर, कराने की कोशिशें शुरू हुंईं कि जिससे उनके कसाईखानों की ओर ध्यान न जाय। इसे प्रचारित जान बूझ कर किया जाता था। इसको खुले आम कराने के प्रयत्न के बाद भी ऐसा विरल मामलों में ही होता था ।</div>
<div style="text-align: justify;">
'तुम फिर बहक रहे हो।'</div>
<div style="text-align: justify;">
'तुम ठीक कहते हो । यह समझो कि औरंगजेब ने भी अपनी मौत को निकट जान कर जो </div>
<div style="text-align: justify;">
दर्द और अफसोस भरा, लगभग आत्मग्लानि भरा पत्र दक्षिण भारत से अपने पुत्र को लिखा था उसे मुस्लिम शासकों के व्यवहार में एक मोड़ माना जा सकता है जिसमे भारतीय जमीन और जन से जुड़ने की तड़प साफ देखी जा सकती है यही कारण है 1857 में । हिन्दू मुसलमान दोनों में इतना एका पैदा हो सका।</div>
<div style="text-align: justify;">
"यह पँवारा तुम क्यों दुहरा रहे हो?"</div>
<div style="text-align: justify;">
"यह याद दिलाने के लिए कि उन्नीसवीं सदी में भारतीय समाज अधिक एकजुट था, कि 1857 का संग्राम हमारे जातीय आक्रोश की अभिव्यक्ति था, उसका लक्ष्य ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने का था, जबकि सैयद अहमद का अभियान और कांग्रेस का लक्ष्य अपने और अपनों के लिए रियायतें माँगने का था। इसमें नजर किसको क्या मिला इस पर थी और जब इसने डोमिनियन स्टेटस या स्वतन्त्रता की माँग करना शुरू किया तब भी इसमें ऐसों का बोलबाला था जो अपने लिए कुछ चाहते थे और लगे हाथ कुछ देश को भी मिल जाय तो उस पर उन्हें आपत्ति न थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1019965684731504" target="_blank">https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1019965684731504</a></div>
</span></div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-12074026044172084462016-02-18T14:32:00.001+05:302016-02-18T14:32:55.833+05:30आत्मघात<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘’यह बात तो किसी से छिपी नहीं है कि देश का बँटवारा उर्दू भाषा को लेकर हुआ था और तुम यह दिखाना चाहते हो कि सब कुछ ठीक ठाक था, मसला लिपि का था।‘’</span></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
<div style="text-align: justify;">
‘’देखो, भाषा तो बहाना थी। बँटवारा इस दहशत के कारण हुआ था कि भारत स्वतन्त्र होगा तो लोकतंत्र की स्थापना होगी। शासन बहुमत के हाथों में होगा जिसका मतलब है राज्य हिंदुओं का होगा और वह बदले की भावना से काम करेंगे। यह उनकी सोच नहीं थी, मन्त्र फूँक कर, हतचेत करके, इसे उनकी जहन में उतार दिया गया था। उन्होंने हिन्दू इतिहास को ध्यान से पढ़ने तक का प्रयत्न नहीं किया, अन्यथा वे समझते कि जिन मूल्यों ने ही भारत को मुस्लिमबहुल देश होने से बचाया, ईसाइयत का प्रतिरोध किया उन्हीं ने उन उत्पीड़क कर्मों से उसे बचना सिखाया, जिनके कारण एक प्रभावशाली मुस्लिम नेता ने पाकिस्तान बनाने के समर्थन में यह तर्क किया था कि जिन्हें वे अपना नायक मानते हैं उन्हें हिन्दू खलनायक मानते है, और जिन्हें हिन्दू अपना नायक मानते हैं, उन्हें वे खलनायक मानते हैं, इसलिए दोनों समुदाय साथ नहीं रह सकते। </div>
<div style="text-align: justify;">
" वे अपने ही मध्यकाल की यादों से डरे हुए थे और अपने ही मूल्य मानों के कारण डरे हुए थे, क्योंकि वे सोचते थे कि वे जैसा आचरण करते आए हैं वैसा ही दूसरा भी करेगा। यह उनकी सीमा नहीं थी, एकेश्वरवादी सोच की सीमा थी, जिसमें भिन्न मान्यताओं, विचारों, दृष्टियों के लिए तो स्थान होता ही नहीं, आत्मनिरीक्षण तक के दरवाजे बन्द कर दिए जाते हैं और भावना विवेक पर इस तरह हावी हो जाती है कि देखने और जॉंचने की इच्छा तक मर जाती है। अन्यथा मुस्लिम नेताओं ने देखा होता कि मध्यकाल के मुस्लिम शासकों, प्रशासकों और सिपहसालारों के कारनामों के अनुभव के बावजूद किसी हिन्दू राजा या रानी ने मुसलमानों के साथ दुराव तक का व्यवहार नहीं रखा, अत्याचार की तो बात ही दूर है, यद्यपि कई बार इस सद्विश्वास के कारण उन्हें क्षति भी उठानी पड़ी, किसी ने अपने अधिकार क्षेत्र में भी उनके साथ प्रतिशोध या अविश्वास तक का प्रमाण नहीं दिया। जिस मूल्य व्यवस्था ने धर्मान्तरण से बचाया उसी ने इतर धर्मियों का उत्पीड़न करने से भी रोका।‘’</div>
<div style="text-align: justify;">
’’यह बताओ, तुम्हें कभी किसी पागल कुत्ते ने काटा था। याद करो, हो सकता है बचपन में काटा हो और सूइयॉं लगी हों, कहने के लिए तुम ठीक हो गए हो, पर जहर तो जहर है यार, उसका हल्का असर कब तक बना रहे कौन जानता है।‘’</div>
<div style="text-align: justify;">
’’मैं तुम पर हँसना चाहता हूँ पर हँस इसलिए नहीं पाता कि तुम्हें दु:ख होगा।‘’</div>
<div style="text-align: justify;">
’’मैं तुम पर हँसते हुए यह सोच कर रोता रहता हूँ कि तुम घूम फिर कर उसी हिन्दू-मुस्लिम सवाल पर क्यों लौट आते हो। तुम इतने प्यारे दोस्त हो, विचार नहीं मिलते तो क्या, मैं बड़ी पीड़ा के साथ पागल कुत्ते के काटने का मुहावरा तलाश पाया था। उपमा का क्या बुरा मानना।‘’</div>
<div style="text-align: justify;">
"परन्तु कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके लिए उपमा तक तलाशने चले तो उपमा दहशत में पीछे हट जाती है। उनमें ही तुम हो । मैं भाषा पर बात कर रहा था और तुम विभाजन पर पहुँच गए और उसका विवेचन किया तो मुझे ही उस बीमारी से ग्रस्त बता दिया जिसका प्रमाण तुम स्वयं दे रहे थे।</div>
<div style="text-align: justify;">
‘’सच कहो तो जिस भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव था वह हिन्दी नहीं, हिंदुस्तानी थी, जिसमें अरबी फारसी शब्दों के प्रयोग की पूरी छूट थी। उसकी कसौटी थी बोधगम्यता, परन्तु उसको ले कर बहुत चर्चा नहीं हुई थी क्योंकि भाषा केन्द्रीय समस्या थी नहीं, वह मात्र ओट थी। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने जो हिंदी-तमिल, हिन्दी-कन्नड आदि कोश तैयार कराए थे उनमें फारसी अरबी के शब्दों संख्या बहुत अधिक थी और उन छोटे कोशों में जिन्हें शब्दसंग्रह कहना अधिक उचित होगा, ऐसे फारसी और अरबी के शब्द भरे हुए थे जिनका शायद ही कोई प्रयोग करता हो । ज्ञानमंडल के हिन्दी शब्दकोश में फारसी और अरबी शब्दों को बहुत उदारता और विवेक से स्थान दिया गया है। मुस्लिम अभिजात वर्ग का आग्रह अरबी लिपि में लिखित भाषा पर था और इसके पीछे अपनी धौंस जमाने की आकांक्षा अधिक प्रबल थी, अपनी भाषा से प्रेम कम । इसमें प्रगतिशील और दकियानूस का फर्क नहीं था।</div>
<div style="text-align: justify;">
"बीमारी भी पुरानी थी। यह विवाद 19वीं शताब्दी में ही पैदा हो गया था और इसमें जान बीम्स की बहुत सक्रिय भूमिका थी, जो परोक्ष रूप से मुसलमानों को इस बात के लिए उकसा रहे थे कि वे अपनी भाषा को अधिक अरबी फारसी मंडित करें, इसे मुसलमानों की भाषा मानें और हिन्दू इसके जवाब में अधिक संस्कृतनिष्ठ भाषा अपनाएँ, जब कि फैलन बोलचाल की शब्दावली की वकालत कर रहे थे। यह नूरा कुश्ती थी। इसकी चर्चा यहॉं उचित न होगी। उनकी यह चाल सफल रही और हिन्दी और उर्दू के पक्षधर उनकी इच्छा पूरी करने लगे थे। हंटर के सामने अपने बयान में सैय्यद अहमद का यह कथन कि ‘उर्दू शरीफों की जबान है और हिंदी गँवारों की जबान‘ और इससे तिलमिला कर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का यह फिकरा कि उर्दू नाचने वाली लड़कियों और तवायफों की जबान है। धनी हिन्दु्ओं की बिगड़ी औलादें और ढीले ढाले चरित्र के नौजवान जब रंडियो, रखैलों और भड़ुओं के बीच होते हैं तो उर्दू बोलते हैं।‘ उस जाल में दोनों समुदायों के नेताओं के फॅसने के प्रमाण हैं। भारतेन्दु स्वंयं भी उर्दू में शायरी करते थे और सन्तुलित चित्त से ऐसी बात नहीं कह सकते थे, पर जवाब तो देना ही था। शब्दों के मामूली फर्क से सैयद अहमद बीम्स के जुमले को ही दुहरा रहे थे तो इसकी प्रतिक्रिया में भारतेन्दु उस पाले में पॉंव रख रहे थे जिसमें बीम्स ने हिन्दी को दरिद्र भाषा सिद्ध करते हुए यह सुझाया था कि हिन्दी में तकनीकी शब्दावली का अभाव ही नहीं है, वैसी शब्दावली बन ही नहीं सकती। हिन्दीं को संस्कृतनिष्ठ बनाने की बीमारी के पीछे यही कारण था अन्यथा हिन्दी के संस्कृतज्ञ भी बोलचाल में संस्कृत के तदभव पदों का ही प्रयोग करते थे। भारतेन्दु स्वयं आजीवन इस बीमारी से बचे रहे।</div>
<div style="text-align: justify;">
‘’दुखद यह है इन दोनों फिकरों का खुमार जनमानस पर लम्बे समय तक बना रहा इसके कारण हिंदी उर्दू दोनों की प्रतिष्ठा को अघात पहुंचा । इसका सबसे खतरनाक परिणाम मुस्लिम समुदाय का दबे सुर से अंग्रेजी का पक्षधर हो जाना था। यदि अरबी लिपि में लिखित उर्दू राष्ट्र भाषा न बनी तो उस हिन्दुस्तानी से अच्छा है अंग्रेजी ही जारी रहे। परन्तु इसका सबसे बड़ा नुकसान स्वयं अरबी लिपि में उर्दू के हिमायतियों को ही उठाना पड़ा। देश बँट गया पर न उर्दू पाकिस्तान के कामकाज की भाषा बनी न हिन्दी भारत के कामकाज की और इसका कारण भाषाप्रेम का पाखंड रच कर अपना स्वार्थ साधन था।</div>
<div style="text-align: justify;">
हम कहें इस खींच-तान का यह असर तो हुआ ही कि अपनी भाषा के प्रति हिन्दी-प्रदेश में हिन्दी़ या उर्दू के प्रति वह गहरा लगाव नहीं पैदा हो सका जो दूसरे प्रदेशों में देखने में आता है। हिन्दी भाषी क्षेत्र भग्नमनस्कता का शिकार बना रहा और आज भी है। जो भी हो भाषा और संस्कृति की आड़ में देश का विभाजन हो जाने के बाद भी न हिन्दी भारत की सरकारी काम काज की भाषा बनी न पाकिस्तान की राष्ट्राभाषा घोषित होने के बाद भी उर्दू।</div>
<div style="text-align: justify;">
‘’भारत की बात अलग है, पाकिस्तान के बारे में तुम ऐसा नहीं कह सकते।‘’</div>
<div style="text-align: justify;">
‘’मेरी जानकारी ही कितनी है कि कुछ कहूँ, मैं तो डान में प्रकाशित एक लेख की ओर तुम्हारा ध्यान ले जाना चाहता हूँ जिसके बाद मुझे कुछ कहने की जरूरत ही न होगी। इसके लेखक ने इसे शेयर करने की अनुमति दे रखी है इसलिए इसे शेयर करना ही समझ सकते हो:</div>
<div style="text-align: justify;">
The status of Urdu is a major issue which does not seem to be getting its due share of attention; in fact it seems to be getting no attention at all, either by the government or by the citizens. Current policies and trends have seen a pathetic downfall in the status of our national language.</div>
<div style="text-align: justify;">
The language policy according to the Constitution of Pakistan is</div>
<div style="text-align: justify;">
1. The national language of Pakistan is Urdu, and arrangements shall be made for it being used for official and other purposes within 15 years from the commencing day.</div>
<div style="text-align: justify;">
2. The English language may be used for official purposes until arrangements are made for its replacement by Urdu (Article 251 of the Constitution of the Islamic Republic of Pakistan, 1973)</div>
<div style="text-align: justify;">
It has been 62 years but unfortunately our government has failed to take appropriate measures to replace English with Urdu.</div>
<div style="text-align: justify;">
The status of Urdu is a major issue which does not seem to be getting its due share of attention; in fact it seems to be getting no attention at all, either by the government or by the citizens. Current policies and trends have seen a pathetic downfall in the status of our national language.</div>
<div style="text-align: justify;">
The language policy according to the Constitution of Pakistan is</div>
<div style="text-align: justify;">
1. The national language of Pakistan is Urdu, and arrangements shall be made for it being used for official and other purposes within 15 years from the commencing day.</div>
<div style="text-align: justify;">
2. The English language may be used for official purposes until arrangements are made for its replacement by Urdu (Article 251 of the Constitution of the Islamic Republic of Pakistan, 1973)</div>
<div style="text-align: justify;">
It has been 62 years but unfortunately our government has failed to take appropriate measures to replace English with Urdu.</div>
<div style="text-align: justify;">
We have seen nations progressing because of taking pride in their national language and their identity but we on the other hand are content with hiding our real identity and feel 'embarrassed' in relegating the status of our national language. We consider those backward who prefer to talk in Urdu while speaking in English has become a symbol of status.</div>
<div style="text-align: justify;">
Another problem relevant to the language issue is the flaw in our educational system. It was the government's responsibility to take proper steps to raise the status of Urdu among citizens which could very well have been achieved through the educational system.</div>
<div style="text-align: justify;">
But there is no unanimous educational system in Pakistan. In majority of the systems, English is made compulsory and students are encouraged to talk in English which not only suppresses their love for their national language but also makes the students studying under Urdu-based systems victims of inferiority complex.</div>
<div style="text-align: justify;">
Furthermore, citizens are forced to learn English for better job opportunities. Is this supposed to be the policy of a country with Urdu as the national language?</div>
<div style="text-align: justify;">
Another point which I would like to add here is that the current trend of writing Urdu in Roman script in SMSs and emails has led to further deterioration in the language's quality. Mobile phones with Arabic are available in our country, then why not those with Urdu?</div>
<div style="text-align: justify;">
It's high time the government took essential steps like revising the education policy and promoting Urdu writing, debates and poetry competitions on the national level.</div>
<div style="text-align: justify;">
The people, especially the youth of Pakistan, should participate in this by bringing about a change in their thoughts and reunite for this cause.</div>
<div style="text-align: justify;">
FARIHA SAGHIR </div>
<div style="text-align: justify;">
Karachi</div>
<div style="text-align: justify;">
JUL 16, 2009 DAWN<br />
<a href="https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1018693681525371" target="_blank">https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1018693681525371</a></div>
</span></div>
Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-79801248668709401682016-02-18T14:19:00.002+05:302016-02-18T14:21:53.830+05:30उर्दू हिन्दी के संबन्ध<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
<div style="text-align: justify;">
''तो तुम मानते हो हिंदी की स्वीकार्यता में उर्दू भाषा रुकावट बनी।''</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं मानता हूँ एक ही क्षेत्र में दो भाषाएं आम जबान नहीं हो सकतीं। उर्दू भाषा नहीं है, हिन्दी की एक शैली है जिसमें अरबी-फारसी जानने वाले को अपनी भावना की सटीक अभिव्यक्ति के लिए उनका कोई शब्द या पदबन्ध अधिक उपयुक्त लग सकता है, और संस्कृत जानने वाले को उससे भिन्न शब्द या पदबन्ध अधिक सटीक लग सकते हैं और देशज बोलियों के सौन्दर्य पर मुग्ध किसी व्यक्ति को उनमें अपनी भावना की सही अभिव्यक्ति मिल सकती है और वह उसका प्रयोग कर सकता है। हिन्दी वह महानदी है जो इन सबको समेटते हुए प्रवाहित हो सकती है और ये हिन्दी की उद्दाम शक्ति को प्रकट करते हैं और यह सिद्ध करते हैं कि हिन्दी एक महान भाषा है। इस माने में अंग्रेजी भी हिन्दी से पीछे पड़ेगी जो दूसरी ऐसी भाषा है जिसकी महिमा का एक रहस्य यह है कि उसने अपना अस्सी प्रतिशत बाहर से लिया है। वह भी उतनी उदारता से अन्य भाषाओं के शब्दों और व्यंजनाओं को आत्मसात नहीं करती जितनी उदारता से हिन्दी फिर भी अंग्रेजी दुनिया की किसी दूसरी भाषा से अधिक खुली भाषा रही है। उसके कोशकार उन शब्दों और अभिव्यक्तियों को उसके मानक रूप में शामिल करने में कई दशक लगा दें, कुछ को स्वीकार तक न करें, फिर भी सर्जनात्मक साहित्य में कुछ भी स्वीकार्य है परन्तु लेखक के जोखिम पर । यदि उसको प्रकाशक न मिला तो, या प्रकाशक मिल गया परन्तु वह पाठकों तक नहीं पहुँच पाई तो, वह अपनी रचना के साथ ही रसातल को चला जाएगा। यहीं सही अनुपात और सन्तुलन का प्रश्न आता है।‘’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
’’तुमको हिंग्लिश से कोई ख़तरा नहीं महसूस होता ।‘’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
''तुमने भवानी भाई की वे पंक्तियॉं पढ़ी हैं : जिस तरह मैं बोलता हूँ उस तरह तू लिख / और उसके बाद भी मुझसे बड़ा तू दिख । इसका अर्थ जानते हो तुम ।''</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
'' क्या बात करते हो, यदि बोलचाल में किन्हीं शब्दों और पदबन्धों का प्रयोग होता है तो उसे लिखना गलत कैसे हो सकता है। उसे लिखा जाना चाहिए। गरज कि हिंग्लिश से किसी को शिकायत है तो वह दकियानूस है।‘’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
''देखो, हिंग्लिश शब्द नया है, उर्दू की तरह अंग्रेजी शब्दबहुल भाषा के लिए एक नया शब्द । और जानते हो इसकी संभावना ग्रियर्सन ने आज से सौ साल से भी पहले लिग्विस्टिक सर्वे आफ इंडिया में ही जता दी थी। उस सर्वे में भयंकर गलतियां हैं फिर भी वह आज भी एक महत्वपूर्ण कृति है। अब कंठस्थ तो किया नहीं कि तुम्हें सुना दूँ, परखने के लिए तुम्हें ही उस रपट को पढ़ना पड़ेगा। परन्तु एक बात तुम्हारे ध्यान में नहीं आई कि कवि ने यह नहीं कहा कि जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख। यदि लिखता तो उसकी अगली पंक्ति होती, ‘और अपनी परिधि में सिकुड़ा हुआ तू दिख।‘’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
''तुम कहना क्या चाहते हो, अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग हिन्दी में नहीं होना चाहिए।''</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
'' क्या मेरे पास या किसी के भी पास इतनी ताकत है कि वह यह निर्देश दे सके कि बोलते समय लोग अमुक शब्दाभंडार का प्रयोग करेंगे और यदि इसका उल्लंघन हुआ तो उनको दंडित किया जाएगा, या सामाजिक रूप में बहिष्कृत किया जाएगा।''</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘’है तो नहीं।‘’ वह इस तरह बोला मानो अपना सिर पीट रहा हो।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने कहा, ''यह मेरी बात नहीं है, न इस विषय में मेरी जानकारी अधिक है पर सुना है एक भाषा के भीतर कई तरह की कूट भाषाऍं और कृत्रिम भाषाऍं और विशिष्ट तथा क्षेत्रीय भाषाएं व्यवहार में आती हैं। उनकी एक सीमित परिधि होती है जिसमें उन्हें समझा जाता है। इसी तरह विचारों की भी परिधि होती है जिसमें मूर्धन्य ज्ञानी भी होते हैं परन्तु हमारी कसौटी पर मूर्ख और उनकी कसौटी पर हम, उनके प्रभावक्षेत्र में मूर्ख सिद्ध होते हैं। इनमें सभी सही होते हैं, गलत कोई नहीं होता, पर मूर्ख भी कई बार समझदारी की बात और काम करता है, और समझदार भी मूर्खता करते हैं और अपनी मूर्खताओं पर गर्व तक करते हैं। यह एक शास्त्रीय विषय है और इसके पचड़े में पड़ गए तो पता नहीं कहाँ जा कर लाश किनारे लगे। इसलिए मैं फिर भवानी भाई की पंक्ति पर आना चाहूँगा। जिस तरह मैं बोलता हूँ उस तरह तू लिख न कि जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
''उर्दू और हिन्दी का अन्तर यह नहीं है कि ये दो भाषाएं हैं, बल्कि यह दो भिन्न स्तरों की अभिव्यक्तियां हैं। उर्दू में जिस तरह वे बोलते हैं या बोलते तक नहीं, सोचते हैं उस तरह लिखने की कोशिश की जाती रही और की जाती है। यही दशा संस्कृतगर्भी हिन्दी की थी। हिन्दी उस जबान का नाम है जिसका मानदंड वह व्यक्ति तय करता है जो अधिक से अधिक साक्षर है और निरक्षर तो है ही। भाषा का चरित्र वहीं से निर्धारित होता है। ताकत लगाकर भी, राजशक्ति का प्रयोग करके भी आप उसे प्रभावित नहीं कर सकते, आपका असर खरोंच बन कर रह जाएगा। अत: जो अपनी कोठरी में या कोटर में बात करना चाहते हैं और यह चाहते हैं कि उनको अपनी कोटर के अनमोल बोल के कारण दूसरों से बड़ा समझा जाए उन पर दया की जा सकती है। उर्दू अपनी पहली ही परीक्षा में फेल हो गई। तुम जितनी भी कोशिश हिन्दी को उर्दू बनाने की करो, यदि तुम्हें बहुजन तक पहुँचना है तो वह हिन्दी बन जाएगी, हिन्दी मानी जाएगी। तुम उर्दू सिनेमा बनाओगे, कुछ शब्द जबरदस्ती भरोगे जो आम आदमी की समझ में नहीं आएंगे, वह उनका मानी संदर्भ को देख कर कयास से लगा लेगा क्योंकि वह इसे अपनी भाषा के ही अधिक पढ़े-लिखों की भाषा मानता है। वह हिन्दू मुस्लिम का भेद करके शब्दों को नहीं समझता। उर्दू के प्रति अति संवेदनशीलता ब्रिटिश काल में बढ़ाई गई जिससे हिन्दी भाषियों के साथ इनका संचार तक सीमित रह जाए।</div>
</span><br />
<div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक और कसौटी बता दूँ । जिस भाषा में गलतियां सहने की आदत होती है वही महान भाषा बन सकती है। खीच तान कर भी यदि आपका आशय समझ में आ गया तो सिर माथे। हिन्दी में यह सराहनीय गुण अंग्रेजी के बाद आएगा, परन्तु है यह इन दोनों के बीच का ही मुकाबला और भारत की अपनी सीमाओं के भीतर यही कसौटी बन सकता है। उर्दू तलफ्फुज या शूद्ध उच्चाररण पर इतना जोर देती रही कि जिस भाषा के नाम पर पाकिस्तान बना उसमें भी वह स्वीकार्य न हो सकी और भाषा को ले कर कई तरह के टकराव पैदा हो गए जिनमें सबसे बड़ा आघात उसके ही पूर्वी भाग के अलग राष्ट्र बनने के रूप में मिला।</span></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘’परन्तुू देखो, इतिहास ने भले सच साबित किया हो, समाज में अपने रागबन्ध में बँधे हुए लोग हमारी बात को मान लेंगे, यह सोचना तक नासमझी होगी।‘’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘’परन्तु हिन्दी एक महान भाषा है यह तुम्हें नहीं कहना चाहिए था, तुम हिन्दी के लेखक हो। अपने मुँह से अपनी तारीफ ही नहीं, अपने से अनन्य किसी भी चीज की, चाहे वह भाषा हो या देश, या धर्म, हमें इनके प्रति निष्ठा समर्पित भाव से दिखानी चाहिए, महान कह कर पल्ला नहीं झाड़ लेना चाहिए।‘’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
’’यह सलाह तो मैं देने वाला था, तुम्हारे पल्ले कैसे पड़ गई? पड़ गई तो मैं खुश हूँ कि अत तुम मेरे करीब आते जा रहे हो।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘’तुम्हारे करीब मैं? बैठना तो पड़ता है पर होना मुश्किल है।‘’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
’’जानता था, यह तुम्हारी किस्मत में नहीं, फिर भी यह जान लो कि हिन्दी और उर्दू में बुनियादी फर्क नहीं है। भाषा का चरित्र उसके व्याकरण से तय होता है, उसके वक्ताओं की आनुपातिक संख्या से तय होता है, उसकी परंपरा से तय होता है और सबसे अधिक उसके निरक्षर या नाममात्र को साक्षर लोगों की जबान से तय होता है और इसलिए एक पृथक भाषा के रूप में अपने सभी प्रयोगों में उर्दू विफल रही, परन्तु एक पृथक शैली के रूप में इतनी सफल रही कि हिन्दी बोलने वाला भी बात बात पर या तो उर्दू का कोई शेर जड़ देता है या संस्कृत या हिन्दी की सूक्तियां बोल जाता है। हिन्दी के उन्हीं कवियों की भाषा में प्रवाह मिलता है जिन्हों ने उर्दू की शायरी से कुछ सीखा हो और इसका कारण अरबी फारसी के शब्द नहीं हैं, अपितु यह कि उर्दू कवियों में आरंभ में सूफियों का बोलबाला रहा और सूफियों ने सबसे पहले हमारी बोलियों को पहचाना, उनके माध्यम से जन जन तक पहुँचने का प्रयत्न किया, उनके मुहावरे और उनकी भाषा की रवानगी पर उर्दू की नींव रखी गई इसलिए उर्दू का ज्ञान हमें समृद्ध करता है, रंक नहीं बनाता।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"झगड़ा दर अस्ल भाषा का नहीं लिपि का था। लिपि भाषा नहीं होती यह हम जानते हैं, पर लिपि के साथ भी हमारा भावनात्मक लगाव होता है और मुस्लिम समुदाय का पान इस्लामिक आकांक्षाओं के कारण अधिक गहरा था । लिपि न कि भाषा उन्हें दूसरे मुस्लिम देशों से जोड़ती थी। कुुछ लोगों को यह बिल्कु्ल तुच्छ समस्या लगेगी, अवैज्ञानिक तो है ही। सामी भाषाओं के लिए विकसित लिपि तथाकथित आर्य भाषाओं के उपयुक्त नहीं है। बर्नार्ड शा ने तो अंग्रेजी की वर्तनी के सुधार का मार्ग नागरी में देखा था और अपनी संचित संपदा की वसीयत उस आदमी के नाम करने को कहा था जो अंग्रेजी की वर्तनी सुधार दे। पर भावना के क्षेत्र में तार्किकता सिर धुन कर रह जाती है अन्यथा हमने पूरे देश को जोड़ने के लिए अपनी लिपियों को जो सभी ब्राह्मी से निकली है, एक कर लिया होता और आपसी दूरियां कम हो गई होतीं। न हुआ, न होने वाला है"</div>
</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><a href="https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1017564494971623" target="_blank">https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1017564494971623</a></span></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-75857659330874006772016-02-18T14:08:00.001+05:302016-02-18T14:08:55.004+05:30हमने अपने को परिन्दों की जबां से जाना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><br /></span></div>
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><div style="text-align: justify;">
’हाँ अब बताओ ऊपरी छिल्के के नीचे की वह सच्चाई।‘’</div>
<div style="text-align: justify;">
’’सबसे पहले मैं इस प्रचलित भ्रम को दूर कर दूं कि हिंदी के प्रसार में हिन्दी सिनेमा का, हिन्दी क्षेत्र के अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूरों की भूमिका प्रधान थी."</div>
<div style="text-align: justify;">
"यह तो सर्वमान्य तथ्य है यार, इसे कैसे नकार सकते हो? '' </div>
<div style="text-align: justify;">
"नकार नहीं रहा हूँ, उस अतिमूल्यन का प्रतिवाद कर रहा हूँ जो सामान्य ज्ञान का हिस्सा बन गया है। उनकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता, परंतु साथ ही इनके ऋणात्मक पहलू पर भी ध्यान देना होगा, भावुकता के कारण जिसकी अनदेखी की जाती रही है और इतिहास की उस वक्र रेखीय चाल को समझने में भूल की जाती रही। तुमने एक बार मेरा मजाक उड़ाते हुए कहा था न 'चलई जोंक जिमि वक्र गति', इतिहास की भी चाल ऐसी ही है यार ! हम समझते है आगे बढ़ रहा है, बढ़ता भी है पर साथ ही बल खाकर नीचे भी चला जाता है।'' </div>
<div style="text-align: justify;">
‘’पहली बात तो यह कि इस प्रसार का हिन्दी को लाभ नहीं हुआ, उल्टे नुकसान हुआ। दूसरी बात यह कि हिन्दी सिनेमा जैसी कोई चीज तब थी ही नहीं। इसे उर्दू सिनेमा बनाया गया और उसी को हिन्दी सिनेमा कहा गया और उर्दू के लेखकों को इसका मलाल रहा कि हम उर्दू सिनेमा बना रहे हैं और लोग इसे हिन्दी सिनेमा कह रहे हैं।‘’ </div>
<div style="text-align: justify;">
''तुम्हे उलटबाँसियॉं इतनी पसन्द हैं कि कोई बात सीधी कह ही नहीं पाते। उर्दू सिनेमा बनाया गया और हिन्दी सिनेमा कहा गया। कोई तुक है इसमे।'' </div>
<div style="text-align: justify;">
‘’समझ नहीं पाओगे, परन्तु तथ्य के रूप में इसे दर्ज कर लो कि जिन्हें तुम प्रगतिशील लेखन कहते हो और उर्दू के जिन कवियों को तुम प्रगतिशील मानते हो वे अपनी सांप्रदायिक चिन्ता से इतने ग्रस्त थे कि जब उनको लगा कि स्वतन्त्रता को रोका नहीं जा सकता, स्वतन्त्र भारत की भाषा हिन्दी ही होगी, उर्दू का भविष्य क्या होगा, इस चिन्ता से कातर, किसी रहस्यमय तरीके से उर्दू की उत्कृष्ट प्रतिभाओं ने निश्चय किया कि हम नए और सबसे प्रतापी संचार माध्यम सिनेमा का उपयोग करके उर्दू को बचाएंगे। इसे जन जन तक पहुँचाएंगे। उनकी सर्वोत्कृष्ट न भी कहें तो उत्कृष्ट् प्रतिभाओं ने अपना जीवन समर्पित कर दिया। उर्दू को भारतीय जनभाषा बनाने के लिए उन्होंने यह आखिरी प्रयत्न किया।‘’ </div>
<div style="text-align: justify;">
‘’यह राज की बात सिर्फ तुम्हें मालूम है या किसी और को। यह बताओ तुम किस चक्की के आटे की रोटी खाते हो। इतने उम्दा खयाल तो आरएसएस की चक्की के आटे से ही पैदा होते है।‘’ </div>
<div style="text-align: justify;">
''मैं यह नहीं कहूँगा कि तुम जैसे नासमझ बिना पिसे और पकाए, भूसा से ले कर अनाज तक खा जाने वालों में ही पैदा होते हैं, क्योंकि मैं दोस्ती की कद्र करता हूँ। तुम्हारे सन्तोष के लिए बता दूँ कि मैं भी तुम्हारी ही तरह नादान था। भला हो कर्रतुल ऐन हैदर का जिन्हों ने यह दर्द जाहिर किया था और उससे मुझे अपनी युवावस्था में देखी वे फिल्में याद आईं जिनमें कास्ट पहले उर्दू में आता था, फिर अंगेजी में और अन्त में हिन्दी में, गो अन्तिम के बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं हूँ कि वह आता भी था या नहीं। </div>
<div style="text-align: justify;">
‘’तुम लाइलाज हो।‘’ </div>
<div style="text-align: justify;">
‘’अपने बारे में जानता हूँ। उसका कारण भी जानता हूँ, परन्तु यह भी जानता हूँ कि हम दोनों को एक ही वार्ड में भरती नहीं किया जाएगा। तुमको पूरी बात तो सुननी चाहिए इतना बड़ा खतरा उठाने से पहले।‘’ </div>
<div style="text-align: justify;">
‘’बोलो क्या कहना है।‘’ </div>
<div style="text-align: justify;">
‘’हिन्दी राष्ट्रभाषा बनेगी तो हम उर्दू को जनभाषा बनाऍगे यह था उनका संकल्प। इसलिए हिन्दी/उर्दू सिनेमा ने अपनी भाषा का इस्लामीकरण किया और अन्तर्वस्तु का ‘जन-वादी-करण’ करते हुए, मजदूरों के निकट पहुँचने के प्रयत्न में मनोरंजन के सबसे प्रभावशाली माध्यम से कुरुचि का विस्तार किया। पहली बात यह कि मजदूर और सिनेमा में, मजदूर पहले और सिनेमा बाद में। मजदूरों के कारण हिन्दी के विषय में अहिन्दीे भाषाओं में यह संदेश गया कि हिन्दीे बोलने वालो की संख्या जो भी हो, यह मजदूरों और गँवारो की भाषा है और उस मजदूर वर्ग तक पहुँचने के प्रयत्नं मे सिनेमा का भदेसीकरण किया गया जिससे अन्य भाषा क्षेत्रों में यह सन्देश गया कि हिन्दीभाषी समाज अपरिष्कृत रुचि और प्रतिभा का समाज है और इसके नेतृत्व में भारत का अकल्याण ही हो सकता है। यह सचाई नहीं थी, पर इसे सचाई का रूप निहित स्वार्थो के कारण दिया गया। इसका उपयोग एक कारगर औजार के रूप में किया गया।‘’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
’’तुम असह्य हो यार । दिमाग मत खराब करो।''<br /><a href="https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1017006691694070" target="_blank">https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1017006691694070</a></div>
</span></div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-77054915905567916012016-02-18T13:56:00.004+05:302016-02-18T14:02:21.365+05:30राष्ट्रभाषा संपर्क प्रभाव भाषा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘’तुम आधे दिमाग के आदमी हो कोई बात पूरी कर ही नहीं पाते।‘’ </span></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
<div style="text-align: justify;">
’’श्रोता की पाचन-शक्ति का ध्यान रखना पड़ता है। एक साथ पूरी बात पचा नहीं पाओगे, इसलिए टुकड़े-टुकड़े करके पेश करना होता है।‘’ </div>
<div style="text-align: justify;">
‘’जुमलेबाजी पर आ गए। आज भी यही सुनना पड़ेगा कि यार बात पूरी तो हुई नहीं। तुम संक्षेप में बताओ तुम कहना क्या चाहते हो। कोई बात उलझी रह गई तो बाद में पूछ लूँगा।‘’ </div>
<div style="text-align: justify;">
’’मैं तीन बातों की ओर ध्यान दिलाना चाहता था। हिन्दी प्रदेश की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि लम्बे अरसे तक इसी को हिन्दुस्तान कहा जाता रहा है। आज भी बंगाली इस क्षेत्र के लोगों को हिन्दुस्तानी या पंजाबी कहता है। जिसने इस पर अधिकार कर लिया वह पूरे भारत को जिसमें तुम पाकिस्तान को भी जोड़ सकते हो, जीत लेता रहा है या कहो, उसके लिए ऐसी विजय आसान हो जाती रही है। वैसे तो इसे स्मिथ ने फ्रांसीसियों से अपनी श्रेष्ठता जताने के लिए कहा था, और एक हद तक झूठ भी कहा था, परन्तु उसका कहना था कि अंग्रेजों ने बंगाल में या गांगेय पट्टी पर अधिकार किया और फ्रांसीसी मद्रास में केन्द्रित हुए इसलिए भारत पर स्वाभाविक स्वामित्व अंग्रेजों का ही हो सकता था। उसी ने इस इतिहास की ओर ध्यान दिलाया था, उससे पहले मेरे दिमाग में भी यह बात न थी। पर असलियत यह थी कि गंधार से ले कर मगध तक हिमालय से ले कर उज्जैन तक इसके संपर्क सूत्र फैले थे और ईसा से कई सौ साल पहले यहीं के संस्कृत विद्वान अन्यत्र पहुँचते और समादृत होते थे। कहें, अपनी केन्द्रीय स्थिति का भौगोलिक लाभ इसे मिलना ही था। भारत के दूसरे सभी अहिन्दी प्रदेश इससे सीधे संपर्क में थे जब कि उनके बीच यह संपर्क बहुत हाल का है या सीमित था। वे कुछ क्षेत्रों और उनके लोगों से सीमांत क्षेत्रों के लोगों उनकी भाषाओं और रीतियों से परिचित तक न थे परंतु इस केंद्रीय भाग को जैसी भी सही, सबकी जानकारी थी और इसके माध्यम से उनको एक दूसरे की कुछ जानकारी मिली थी और मिलती रही थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
इसी के ऊपर पालि और प्राकृत का एक दूसरा रद्दा चढ़ा था जो संस्कृत का स्थानीय ध्वनिसीमा में उच्चरित रूप था और इसलिए प्राकृत का प्रयोग नाटकों के उन पात्रों द्वारा किया जाता था जिनको औपचारिक शिक्षा प्राप्त़ न थी। जैसे महिलाएँ, नौकर-चाकर आदि । इसे जैन मत ने अपनी भाषा बना कर अपने साहित्य के लिए प्रयोग किया। जैन और बौद्ध मत ने अपने संजाल का प्रसार व्यापारिक मार्गों पर और उनके माध्यम से उनके परिवेश में किया। जैन मत का प्रसार तमिल क्षेत्र में भी हुआ और संगम साहित्य का बहुत सारा साहित्य इस जैन मत के अनुमोदन में लिखा गया, जब कि पालि का प्रवेश उससे भी दक्षिण में, श्रीलंका तक में हुआ और मुझे जो विचित्र बात लगती है वह यह कि श्रीलंका को कन्नड क्षेत्र से गए हुए लोगों ने प्रभावित किया। एकारान्त शब्द भारत में केवल कन्नड़ की और इससे बाहर श्रीलंका की विशेषता है। यह कैसे हुआ, क्या महेन्द्र अपने सिंहल की यात्रा में कर्नाटक होते हुए और वहाँ के दलबल के साथ गए थे, या नहीं, इसका मुझे कुछ पता नहीं, परन्तु भाषा के तथ्य यही कहते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
परंतु मैंने कहा न कि हम कुछ आगे बढ़ आए हैं । इससे पीछे एक बहुत क्रान्तिकारी चरण है। वह है कृषि और कृषिविद्या के माध्यम से उसकी जानकारी और शब्दावली का प्रसार। कोसंबी ने अपने निजी कारणों से यह स्वीकार किया है कि भारत में कृषि का प्रसार आर्यभाषा के प्रसार के समानान्तर हुआ है। यह एक अर्धसत्य है। हम इसकी मीमांसा की ओर नहीं मुड़ेंगे फिर भी यह कहना जरूरी है कि मोटे तौर पर यह सच है क्योंकि जिन देवों और ब्राह्मणों ने कृषि की दिशा में कदम आगे बढ़ाया था उन्हें सफलता या एक जगह टिक कर खेती करने का सुयोग इसी भूभाग में कहीं मिला था। वह स्थान या क्षेत्र जो भी रहा हो, वह इसी प्रदेश में था और कृषिविद्या का प्रसार सबसे पहले जिस क्षेत्र में हुआ उसे तुम आज की भाषा में हिन्दी प्रदेश कह सकते हो।'' </div>
<div style="text-align: justify;">
’'मैं अधिक नहीं जानता, परंतु इतना जानता हूं कि हिन्दीे अभी कल पैदा हुई है और तुम उसे युगों पहले ले जा कर एक दिव्य अधिकार दिलाना चाहते हो। '' </div>
<div style="text-align: justify;">
''मैंने सोचा था तुम मेरी बात समझ जाओगे। मुझे उसका नाम नहीं लेना पड़ेगा। अब लगता है कि तुमको बुनियादी बातों की भी जानकारी नहीं है। हिन्दी एक भाषा नहीं है, एक सांस्क़ृतिक क्षेत्र की वाणी है जो कई हजार साल से आपस में कई तरीकों से आलाप करती रही है। इसमें एक ही भाषा की स्वीकार्यता होती है। </div>
<div style="text-align: justify;">
और यह क्षेत्र तीन स्तरों से निर्मित हुआ है। एक, आहार संचय और आखेट का चरण जिसे पुराणों की भाषा में सतयुग कहा जाता है और शेष सभ्यता के उत्थान के साथ अर्थतन्त्र के समानान्तर, परन्तु अपनी वक्र रेखाओं के साथ, जिसमें नियम तलाशने चलोगे तो वे कुछ दूर तक साथ देंगे परन्तु आगे काम न आऍंगे।</div>
<div style="text-align: justify;">
अब तुम हिंदी क्षेत्र को इस रूप में समझ सकते हो कि यह किसी एक भाषा का क्षेत्र नहीं है, कृषि विद्या के साथ पारस्परिक संपर्क में आई बोलियों का क्षेत्र है; सांस्कृतिक अन्तरक्रिया का क्षेत्र है, जिसमें कोई भी एक भाषा, उसका उद्गम क्षेत्र कोई भी क्यों न हो, उसका मानक चरित्र सारस्वत क्षेत्र में आ कर ही निर्धारित होता है और इसके बाद यह अखिल भारतीय स्वीकार्यता पा जाती रही है। वह वैदिक हो, संस्कृत हो, पाली या अपभ्रंश हो या आधुनिक बोलियॉ हों। यह सुयोग ही है कि आधुनिक हिन्दी उसी सारस्वत क्षेत्र की उपज है जिसमें कुऱु पांचाल आते रहे हैं और यह उस क्षेत्र के लोगों द्वारा आगे बढ़ कर अपना ली गई जिनकी अपनी भाषाएं और ऐसी बोलियॉं थीं, जिनका साहित्य इस पूरे क्षेत्र में स्वीकार्य था। यह अविरोध या सहर्ष स्वीकार ही उस भाषाई क्षेत्र की सीमा रेखा निर्धारित करता है जिसे आप हिन्दी क्षेत्र कह सकते हैं जो भारतीय भू भाग में सभ्ययता और संस्कृति के विकास में अग्रणी रहा है और आज पश्चिमी कूटनीतिक सफलता का प्रमाण ही माना जाएगा, कि यह सांस्क़ृतिक और भाषा-संस्कार का क्षेत्र कलह और विरोध का क्षेत्र बना दिया गया। ,</div>
<div style="text-align: justify;">
यह स्थिति बहुत हाल की है, साझा विरासत बहुत पुरानी है। यहां की भाषा अखिल भारतीय संपर्कसूत्र का काम दस पाँच हजार साल से करती आई है। हिन्दी की हिन्दी प्रदेश में स्वीकार्यता और बाहर इस पर आश्चर्य भी स्वाभाविक है। हिन्दी इसी तर्क से इस देश को जोड़ने वाली भाषा है, समस्त भारतीय अहिन्दी भू भाग में कुछ लोगों द्वारा समझी जाने वाली भाषा है। यह संविधान की कृपा से या किसी आन्दोलन से पैदा हुई भाषा नहीं है, अपितु नैसर्गिक राष्ट्रभाषा है और आज भी राष्ट्रीय उपयोग की भाषा है वह राजकाज की भाषा बने या न बने। भारत की किसी भाषा से इसका विरोध नहीं, बाहर तक की भाषाओं से भी नहीं। फिर भी यदि इसे ले कर गलतफहमी पैदा हुई तो इसे हम व्रितानी कूटनीतिक सफलता का प्रमाण मान सकते हैं ।</div>
<div style="text-align: justify;">
तुम ठीक कह रहे थे, विषय ही कुछ ऐसा है कि इसे न चुटकी बजाते समझा जा सकता है न हल किया जा सकता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
परन्तु् गौर करो, अभी तो हमने इसके छिल्के पर बात की है। इसकी मर्मकथा और आज की समस्या तो बची ही रह गई है। इतना धैर्य है कि उन पर भी बात की जा सके।''</div>
<div style="text-align: justify;">
उसने हाथ खड़े कर दिए।<br />
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</span></div>
Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-83345464622821722952016-02-13T13:50:00.003+05:302016-02-18T13:36:20.689+05:30अधूरा ही सही<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘’तुमने भगवान को देखा था कभी या कि नहीं?‘’</span></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’’क्योें ऐसा क्या हो गया?’’ </span></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
<div style="text-align: justify;">
’’सुना उस शख्स को गुजरे हुए जमाना हुआ।‘’</div>
<div style="text-align: justify;">
‘’शेर तो अच्छा है।‘’ </div>
<div style="text-align: justify;">
’’सिर्फ शेर ही दिखाई दिया तुम्हें, वह वेदना नहीं जो अनकही रह गई है। तुमने घनानन्द को पढ़ा है। हिन्दी पढ़ाते हो तो पढ़ा ही होगा। उसकी वह पंक्ति याद है, ‘लोग है लागि कबित्त बनावत मोहें तो मेरे कबित्त बनावत।‘ मैंने कुछ कहा तो तुमने कहा अच्छा शेर है, यह न समझ पाए कि व्यथा इतनी गहरी है कि आह भी शेर बन जाती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
‘’आज कैसी निराशा भरी बातें कर रहे हो यार। हुआ क्या है?‘’</div>
<div style="text-align: justify;">
‘’कल तुम कह रहे थे मैं तैश में आ गया था। यह जो भीतर की व्यथा है उसे बहुत प्रयत्न से हँसी मज़ाक से ढके रहता हूँ पर कभी कभी सँभाल नहीं पाता। प्रयत्न करके भी। पर कलम उठाता हूँ तो मैं लिखता नहीं हूँ उसे अपनी भाषा और भंगिमा स्वयं तलाशना होता है।‘’ </div>
<div style="text-align: justify;">
देखो, मेरे फिकरे का मलाल है तो मैं अपनी गलती स्वीकार करता हूँ। तुम्हारा दिमागी हालत का पता लगा कर बात करनी थी। जाे भी हो, तुम्हारा आक्रोश सात्विक है, पर तुम लोग आदर्शवादी ठहरे, यह नहीं समझ पाते कि आदमी आदर्श नहीं खाता, रोटी खाता है। रोटी जिधर से भी मिलेगी, आदमी उसी ओर दौड़ पड़ेगा।‘’ </div>
<div style="text-align: justify;">
‘’लावारिस कुत्ते की तरह । यही कहना चाहते हो? मार्क्सवाद को तुम लोग निरी रोटी पर क्यों उतार देते हो कि शर्म तक की गुंजाईश नही रहती। देखो आदमी रोटी खाता नहीं, रोटी की ओर दौड़ता नहीं, वह रोटी पैदा करके खाता है। अपने काम को पूरी ईमानदारी और पूरे श्रम से किए बिना तुम अपनी रोटी पैदा नहीं कर सकते। जो लोग ऐसा नहीं करते वे अपनी कमाई की रोटी नहीं खाते, किसी का फेंका या चुराया हुआ टुकड़ा खाते हैं। शारीरिक श्रम हो या बौद्धिक, मैं इन दोनों में यहाँ फर्क नहीं करता। तुम्हारा कर्म क्षेत्र ही वह खेत खलिहान और रसोई घर है जहां से तुम्हें अपनी रोटी उगानी और पकानी है। हमने वह नहीं किया। चोरी करते रहे, भीख माँगते रहे, शारीरिक श्रम के क्षेत्र में भी और बौद्धिक श्रम के क्षेत्र में भी काम किया ही नहीं, नैतिकता की तो चिन्ता ही नहीं रही, वही तो दोनों क्षेत्रों में सक्रिय रखती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
‘’ज्ञान के क्षेत्र में भी हमारी स्थिति यही है। हमने अपनी समस्याओं का सामना ही नहीं किया, उन्हें समझा तक नहीं। भागते रहे, प्रतीक्षा करते रहे कि कोई देव दूत पश्चिम से आएगा और उनका अध्ययन करके हमें उनका समाधान देगा, और हम उसे निगल जाएंगे और इस बात की अकड़ दिखाते फिरेंगे कि इसे सबसे पहले मैंने निगला था।‘’ </div>
<div style="text-align: justify;">
’’लगता है आज फिर बोर करोगे। देखो, तुम अपने नाम के साथ जो सिंह लगाते हो न, उसे हटा दो, उसके स्थान पर बोरवर्कर रख लो। सुनने वाले को लगेगा बोरीवेली की तरह बोरवर्क नाम का भी कोई स्थान है जहां से तुम्हारा उद्भव हुआ है। यह बताओ तमिल वाला भूत उतर गया, नैतिकता का यह नया जिन्नात सवार हुआ है?‘’ </div>
<div style="text-align: justify;">
’’मैं उसी पर बात कर रहा हूँ। देखो, हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव और आन्दोलन अहिन्दी भाषियों ने किया था। यहां तब सब कुछ ठीक था। दो बातें सर्वमान्य थी। यह कि स्वतन्त्र भारत की भाषा अंग्रेजी नहीं रह सकती, अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी को भी विदा करना होगा, और भारत की राष्ट्रभाषा की भूमिका का निर्वाह हिन्दी ही कर सकती है अत: हिन्दी प्रचार से जुड़ी संस्थाओं का नाम हिन्दी प्रचार सभा या समिति न रख कर राष्ट्रभाषा प्रचार सभा या समिति रखा गया था जो उनके साथ आज भी अजागलस्तन की तरह लटका रह गया है जब कि मेरे एक मित्र ने मुझे याद दिलाया कि भारतीय संविधान में हिन्दी के लिए राजकाज की भाषा या राजभाषा का प्रयोग हुआ है, अब भी मौका है, अपनी भूल सुधार लो, और इसीलिए मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के द्वारा सम्मानित होने का अवसर मिला तो वह पीड़ा उभर आई। तुम जानते हो, मेरी सहानुभूति हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने वालों के साथ नहीं है, इसका विरोध करने वालों के साथ हो सकती थी, पर है नहीं ।‘’ </div>
<div style="text-align: justify;">
‘’क्या कह रहे हो तुम, पता है? तुम पहेलियां गढ़ने का एक साफ्टवेयर तैयार करो। फेसबुक वाले खरीद लेंगे और तुम मालामाल हो जाओगे। यार, कभी तो ऐसी बातें किया करो जो मेरी खोपड़ी में भी धँसें।‘’</div>
<div style="text-align: justify;">
’’ठीक कहा तुमने, तुम्हारी ही नहीं, पूरे देश की खोपड़ी इतनी मोटी हो गई है कि मेरी कमजोर आवाज़ उसे भेद नहीं पाती। उदाहरण दूँ तो, हिन्दी वाले आज भी हिन्दी का कारोबार करते हैं, हिन्दी से प्यार नहीं करते।‘’ वह हँसने लगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="https://draft.blogger.com/goog_791237088"><br /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1016043418457064">https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1016043418457064</a></div>
</span></div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-6274073181990263542016-02-13T13:50:00.002+05:302016-02-18T13:37:39.091+05:30हम जैसे हैं वैसे क्यों हैं ?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’’तुम जानते हो आदमी के पेट में भी एक छोटा दिमाग होता है और वह अपने फैसले स्वयं कर लिया करता है, केवल अपने फैसले नहीं करता, बड़े दिमाग को नियन्त्रित और निर्देशित भी करता है?‘’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘’यह खयाल कैसे सूझ गया तुमको ?’’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’’इसलिए कि हममें से अधिकांश लोग पेट वाले दिमाग से सोचते हैं, बहुत कम लोग हैं बड़े दिमाग से सोचते हैं। सत्ता हस्तांतरण के बाद हमारे समाज में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती चली गई । यदि ऐसा न होता तो हमने सत्ता पाने के बाद उदरंभर बनने की जगह स्वतंत्र बनने की कोशिश ज़रूर की होती। सत्ता- हस्तान्तरण को ही स्वाधीनता मान कर रास-रंग में व्यस्त न हो गए होते। स्वतन्त्र कहे जाने वाले भारत में उदरंभरता का विस्तार न हुआ होता, हमारी जबान लम्बी और रीढ़ कमजोर न होती गई होती। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">'जानते हो उदर वाले दिमाग से सोचने वाले पेट के बल रेंगते हैं, तनकर खड़े नहीं होते इसलिए वे चलते नहीं हैं किसी के पाँव पकड़ कर घिसटते हैं और हम पश्चिम के पाँव पकड़ कर घिसटते हुए आगे बढ़ रहे हैं और प्रसन्न हैं कि जहॉं थे वहाँ से इतना आगे बढ़ चुके हैं, यह नहीं समझ पाते कि जिस सतह पर थे उससे कितने गिर चुके हैं।‘’ </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’’तुम यह मानोगे कि तुम ऐसी बातें लोगों को चौंकाने के लिए करते हो?’’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘’ तुम मेरे साथ दोस्ती के कारण कुछ रियायत कर रहे हो। मैं चौकाने के लिए कुछ नहीं करता। अपने भरसक थप्पड़ लगाता हूं और उस चुल्लू भर पानी की तलाश करता हूँ जिसमें कभी लोग डूब मरा करते थे। क्योंकि थप्पड़ खा कर भी तुम कहते हो मजा आ गया, कितनी चमत्कारी बात कही है और तान कर सो जाते हो अगले थप्पड़ के इन्तजार में जब फिर मजा आएगा।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">'' आश्चर्य होता है कितना श्रम उन्होंने हमें अपना बौद्धिक गुलाम या अपना परजीवी बनाने के लिए किया। उसकी शतांश कोशिश भी हमने अपनी मानसिक स्वाधीनता के लिए की होती, उनकी दबोच से बाहर निकलने के लिए की होती तो ...’’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''तुम हवा में बातें कर रहे हो। पता नहीं चलता तुम किसके किस गुण या दोष की ओर इशारा कर रहे हो।''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘’मैं बात तो कर ही नहीं रहा था यार। मैं तो रो रहा था। रोने के कई रूप हैं, कई बार आदमी हँसते हुए भी रोता है और बोलते हुए भी रोता है, और कई बार चीत्कार करते हुए भी अट्टहास करता है। तुमने देखा दलित चीत्कार के रूप में प्रकट होता दलित अट्टहास।''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''आ गए न सामयिक राजनीति पर।''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">'' मौसम की मार से कोई बचा है। पर मौसम की मार खाने वाले भी लगातार मौसम पर बात नहीं करते। मैं रो भी रहा था और उन महान सांस्क़ृतिक आक्रमणकारियों की राष्ट्रनिष्ठा को अश्रुजल से तृप्तं भी कर रहा था। मेरे मन में उनके प्रति उससे गहरा सम्मान है जो तुम्हारे मन में होगा जो उपनिवेशवादी मूल्यों से क्रान्ति का सपना देखते देखते उूब गए तो सोचा धर्मक्षेत्र में ही क्रान्ति कर ली जाए और इन धर्मों के बुनियादी तत्वों तक को नहीं समझा। जो हो रहा है अच्छा ही होगा, समय आगे बढ़ता है तो समाज भी आगे बढ़ता है के इकहरेपन के कारण न अपने समय को समझ पाए न समाज को न अपने कार्यभार को ... ''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’’तुम तैश में आ गए हो।‘’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’’जानता हूँ इसलिए यह भी नहीं समझा पाऊँगा कि तैश में आया क्यों हूँ। बात कल करेंगे।''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><a href="https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1015488778512528">https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1015488778512528</a></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-1558851448476075742016-02-13T13:50:00.001+05:302016-02-18T13:39:35.590+05:30पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारी बातें कुछ गरिष्ठ हो जाती हैं? ’’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''जानता हूं लॉलीपॉप चूसने वाले बच्चों को रोटी से घबराहट होती है। हम साहित्य के नाम पर केवल कविता कहानी चुटकुले और हल्के फुल्के व्यंग्य के आदी हैं, भावुकता को खुराक देने वाले साहित्य के आदी हैं जिससे आनंद तो आता है परंतु विचार-विमुखता भी पैदा होती है, एक बौद्धिक रिक्तता भी जिसमें समाज के कर्णधार माने जाने वाले लोग हुड़दंग में शामिल हो कर नाम कमाने लगते हैं। देश को तोड़ने वाले इतने आयोजनों के बीच उस देश को समझने की कोशिश भी गरिष्ठ लगने लगती है। मैं तुम्हा्रे बौद्धिक आलस्य की दवा करना चाहता हूँ। तुम्हारी रुचि बदलना चाहता हूँ। मालिश का शौक छुड़ा कर व्यायाम की आदत डालना चाहता हूँ।‘’ </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’’मेरा मतलब यह नहीं था, भार्इ। मैं सिर्फ यह कह रहा था कि क्या इन्हीं विचारों काे कुछ और सरल बना कर नहीं रखा जा सकता जिससे अधिक से अधिक लोग इसे समझ सकें?''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''कहा तो जा सकता है, एक ही बात को कई तरह से दोहराया भी जा सकता है, परंतु उसके बाद भी जरूरी नहीं कि जो न समझना चाहता हो उसकी रुचि ऐसे विषय में पैदा हो जाए। कुछ कहते समय सरलता से अधिक जरूरी है सटीकता। यदि बात सटीक ढंग से न कहीं गई तो सरल भाषा में कहने पर भी समझ में नहीं आएगी। आनन्दमार्गी साहित्य की लत से हमें बौद्धिक रूप में इतना खोखला कर दिया गया है कि उस खोखलेपन को भरने के लिए हमें हंगामों का सहारा लेना पड़ता है और उनमें शरीक होते समय लोग सोचते तक नहीं कि इसका अनुपात क्या होना चाहिए, किसी समस्या का समाधान क्या होना चाहिए, यह तक तय नहीं कर पाते कि अपने ही समाज और देश को लगातार उद्विग्नता की स्थिति में रख कर वे उसे किस दिशा में ले जा रहे हैं? "</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''तुम क्या किसी से कम हो। कोई बहाना मिल जाय उसी हंगामे में तुम भी शामिल हो जाते हो, हाँ दूसरी ओर से। तुम उसी बात को कुछ और साफ करो जिसे कल उठाया था। मुझे उससे कोई परेशानी नहीं थी। सच कहो तो मुझे बहुत मजा आ रहा है यह सोचकर कि कैसे हमारे तार एक दूसरे से जुड़े हैं। सच कहो तो इन तारों को न हम लक्ष्य कर पाते हैं न हमारे समाजशास्त्री और ऩ नृतत्ववेत्ता, फिर भी ये सूत्र कुछ इस तरह काम करते रहते हैं कि तोड़ने की इतनी सारी कोशिशों के बाद भी इसका अपनत्व बना रहता है।'' </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''अभी तो तुमने इस तार के भीतर की पहलों को देखा ही नहीं। देखो, ये सभी स्थानवाची अव्यय तीन घटकों से बने हैं, ई/इ/य जो निकटता को प्रकट करता है और आगे अंक, कड, इड, इल, खान, हान या हॉ, ठान, त्थ आदि जिन सभी का अर्थ स्थान है और सबके साथ ए की विभक्ति लगी है जो में या पर का सूचक है। यह ए संस्क़ृत में भी गृहे, बने आदि में मिलेगा। तमिल का अंग और सं; का अंक एक ही हैं। इला और इल एक दूसरे से जुड़े हुए हैं अभी इन तारों के कुछ और पहल हैं जिनको देख कर तुम चकित रह जाओगे।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">'' देखो यह जो तमिल का इंगे है इ-अंक-ए मिले हुए हैं। अंक का मतलब हुआ स्थान, इविड में इ के साथ इड जुड़ा हुआ है डसका अर्थ है जगह । बांग्ला खाने में खान का अर्थ है स्थान एक और प्रयोग भोजपुरी में होता है यह भी स्थान का ही सूचक है और इसी तरह पंजाबी का त्थे वही है भोजपुरी अौर हिंदी का हां तरह की गहरी समानता भाराोपीय बोलियों में भी नहीं मिलेगी। वहाँ सीधे स्वीकार है और उस स्वीकार में अटपटापन है। वाक्य विन्यास भी एक जैसा है कर्ता- कर्म- क्रिया। इनके विशेषण इनसे पहले। यह नियमितता भारोपीय बोलियों में नहीं पाई जाती। अंग्रेजी आदि में क्रिया कर्ता के ठीक बाद आती है और कर्म उसके बाद। बड़ी मशक्कत से काल्डवेल ने तमिल आदि की वाक्य रचना को अलगाने के लिए यह फर्क निकाला कि हिन्दी आदि में सहायक वाक्य मुख्य वाक्य से पहले आएगा, ‘मैंने सुना है कल फिर बरसात होगी’ तमिल आदि में उलट जाता है, जिसमें कल फिर बरसात होगी, ऐसा मैने सुना है जैसा वाक्य बनेगा परन्तु उत्तर की बोलियों में, भाषाओं में और संस्कृत तक में यह प्राय: देखने को मिल जाएगा।'' </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">'''बोर कर दिया। तुम उस कशीदाकारी की बात करने वाले थे जिसमें एक शब्द दूसरे सिरे पर पहुँच कर नई रंगत लेता है फिर उसके साथ लौटता है और एक नई रंगत लेकर वापस लौटता है। ऐसा झटके में कह गए थे?"</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''पीने के अर्थ में तमिल में कुडि का प्रयोग होता हैा इससे भ्रम पैदा होता है कि यह दक्षिणी बोलियों का शब्द है। परन्तु संस्कृत कु/कुं का अर्थ ह पानी। कुमुद/कुमुदिनी का अर्थ है पानी में मगन रहने वाला/वाली, कमल, कमलिनी। कूप, कुँआ, कुंभ –जलपात्र, कुंभी, कुप्पी- द्रव रखने की थैली, कुड, कूँड़ा त; कुडम्, कुडिक्कारन – पियक्कड़। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">त. पो – जाना, सं; पवि – क्षेप्यास्त्र, पवन – चलने वाला, अर्थात् वायु, (वायु: वाति), </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">त. में ऑख के लिए कण् का प्रयोग होता है संस्क़ृत सहित उत्तर की भाषाओं में अक्षि- ऑख, चक्षु – बां. चोख आदि । अब इस भिन्नता के कारण पहली नजर में दोनों में भिन्नता दिखाई देगी। पर त. में कण् का एक और अर्थ है गोलाकार गड्ढा जो अक्ष का भी अर्थ है। संकल्पना के स्तर पर इस समानता से आगे बढ़ने पर हम सं. और हिन्दी आदि में कनीनिका या ऑंख की पुतली (इस पुतली के साथ हो सकता है आपको अंग्रेजी का प्यूपिल भी याद आ जाये), काणा या काना, कण्व – द्रष्टा (सायण ने कण्व का अर्थ काना लिया है, फिर भी आँख से संबन्ध तो बना ही हुआ है), प्रस्कण्व – चिचक्षण। परन्तु इससे पीछे भाषा के विकास का एक स्तर है जिसमें भारतीय भाषाओं में जिन वस्तुओं में अपनी कोई ध्वनि नहीं होती उन सबके लिए शब्द जल के पर्यायों से लिए गए है जिसकी प्रत्येक ध्वनि को एक उच्चार्य शब्द के रूप में ढाल कर इसके सूक्ष्म भेदों के लिए अलग शब्द बनाए गए और फिर उनमें से ही किसी या किन्हीं का प्रयोग नीरव भावों, पदार्थों, क्रियाओ आदि के लिए किया गया, यद्यपि क्रिया का अर्थ ही है ध्वनि का उत्पादन। इसे यहॉं नहीं समझा जा सकता। इस पर मैं बहुत बाद में चर्चा करूँगा । परन्तु यहॉं उस नियम को लागू करें तो कन् का अर्थ है जल, कंज का अर्थ है जलज, कनखल, कानपूर कन्नौज, कनइल, कनराय आदि का अर्थ है जलतटीय स्थल, कनक आ अर्थ है चमकने वाला और कनीनिका का अर्थ है देखने वाली। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इनमें धागे की वह कशीदाकारी समझ में नहीं आती, यद्यपि है. इसलिए एक अन्य उदाहरण को लो। तमिल में दूध के लिए पाल् का प्रयोग होता है, तेलुगु में यह पालु हो जाता है, हिन्दीे का पालन अर्थात् दूध पिला कर पोषण करना इसी से निकला है और इस तरह पालित शिशु के लिए बाल या बालक का विकास इसी से हुआ है, परन्तु। हिन्दी का पाला जो तुहिन या फ्रास्ट के आशय में प्रयोग में आता है क्या इस पाल् से निकला है। नहीं। इसके पीछे जाने पर हमें प्ल, प्लव, प्लावन आदि जल से जुड़े शब्द मिलते हैं। अब हमें पता चलता है कि पानी के लिए जिस शब्द का प्रयोग हुआ, उसी का अर्थविस्तार दूध, अमृत, आदि के लिए भी हुआ और ठंड तथा बर्फ आदि के लिए भी। पा, पी, पानी, पय, वीयूष, अम, अम्बु , अमृत। पहली नजर में जो द्रविड़ मूल का शब्द दिखाई दे रहा था अब उसकी जड़ें आर्यभाषा में दिखाई दे रही हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि इन शब्दों का स्रोत तथाकथित आर्य भाषाऍं हैं, बल्कि यह कि यह साझेदारी इतनी जटिल है कि हम अपनी भाषा संपदा को आर्य या द्रविड़ न कह कर भारती कहें, कम से कम उस भाषा को भारती कहें जिसका प्रसार भारत से ले कर यूरोप के छोर तक सीधे और उससे आगे का प्रसार उन क्षेत्रों के कारक तत्वों के कारण हुआ था तभी हम समझ पाऍंगे कि यूरोप तक पहुँची संपदा में द्रविड़ के तत्वे जिन्हें काल्ड्वेल ने लक्ष्यू किया था क्यों हैं और जैसा कि हाफमैन आदि ने बाद में लक्ष्य किया, मुंडारी के तत्व यूरोप तक कैसे पहुँचे है। यहॉं इनकी चर्चा जरूरी नहीं। तुम थक भी रहे होगे, फिर भी काल्डवेल की एक टिप्पेणी के साथ अपनी बात समाप्त् करना ठीक रहेगा: </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">The distinctive marks of the neuter gender, in the Dravidian languages, even agree with those of our languages to so great an extent that it does not appear probable that these two circles of languages should have developed the neuter gender quite independently of each other. The Dravidian languages have not yet been proven to belong to our own sex-denoting family of languages; and although it is not impossible that they may be shown ultimately to be a member of the family, yet it may also be that at the time of the formation of the Aryan languages a Dravinian influence was exerted upon them, to which this, among other similarities is due.72</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गौर करो। काल्डवेल भी जानता था या उसे इसका आभास था कि जिसे वह द्रविड़भाषा परिवार कह कर संस्क़ृत से अलग कर रहा था उसकी गहरी पड़ताल में उतरने पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि इन दोनों में बुनियादी अलगाव नहीं है, फिर भी हमने उस दिशा में प्रयास तक न किया। इस देश को तोड़ने वाले तक समझदारी बरत रहे थे कि आगे चलकर उनकी बात गलत सिद्ध हो तो भी उनकी अकादमिक साख को बट्टा न लगे, परन्तु हमने अपना काम नहीं किया। हम राजनीति करते रहे और आज भी कर रहे हैं, जैसे हमारा अपना कोई घर ही न हो।दूसरे के घर में हम या तो भार बन कर रहेंगे या उसकी चाकरी करते हुए। राजनीति की भागीदारी ने साहित्ययकार को इन्हीं दो में से कुछ न कुछ बनाया है। मालिक बन कर केवल अपने घर में रहा जा सकता है जिसे हमने या हमारे पुरखों ने बनाया है और हमें सौंप गए हैं। उसकी मर्यादा की रक्षा तक हम नहीं कर पा रहे।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><a href="https://draft.blogger.com/goog_791237093"><br /></a></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><a href="https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1014985545229518">https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1014985545229518</a></span></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-86817035199195596792016-02-13T13:50:00.000+05:302016-02-18T13:42:46.644+05:30व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसने मिलते ही सवाल दागा, ‘’तुम मानते हो उत्तर और दक्षिण की भाषाओं में कोई अंतर नहीं है?’’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘’मैं ऐसा कैसे मान सकता हूं? मैं तो यह तक नहीं कह सकता कि मेरे सिर और पाँवों में अंतर नहीं है, जबकि दोनों मेरे ही हैं और इनमें से किसी के न होने या दुर्बल होने पर मैं अपंग हो सकता हूँ। भिन्नता आवयिकता की अनिवार्य अपेक्षा है। सर्वाधिक समर्थ जीव सर्वाधिक भिन्नताओं के संयोजन से पैदा होता है। भिन्नता और अलगाव दोनों अलग चीजें हैं। जड़ पदार्थों में आंतरिक भिन्नता कम होती है और उनको दूसरे पदार्थों से उनके अलगाव से पहचाना जाता है। जैव सत्ताओं में आंतरिक भिन्नता बढ़ती जाती है और अपनी पराकाष्ठा पर भिन्नताओं का विकास और लगाव अधिकतम होता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''अपनी जरूरत से हमें अधीन करने वालों ने भिन्नताओं को रेखांकित और यदा कदा महिमामंडित भी किया, पर लगाव के सूत्रों को देख और समझ कर भी उनकी उपेक्षा करते रहे। उनके लिए मेरे मन में गहरा सम्माान है। उन्होने हमारे ही हथियार को ले कर हमारे विरुद्ध इतनी चतुराई से प्रयोग किया कि रक्त कम बहा, घाव कैंसर की तरह फैल कर भारतीय समाज को ऐसी रुग्णताओं से भर गया कि मरीज अपने मर्ज को ही अपनी दवा समझने लगे।''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">'' मैं जानता था तुम बहाव में आ जाओगे, विषय ही कुछ ऐसा है। मैंने इस विषय में अधिक पढ़ा नहीं है, इसलिए साफ साफ बताओ, तुम कहना क्या चाहते हो।''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''देखो, जैसा कि हमारे पुराणों में कहा गया और बाद की कृतियों में यहाँ वहाँ दुहराया गया है, हम सभी सतयुग की सन्तान हैं। उस अवस्था की जब मनुष्य पूर्णत: प्रकृति पर निर्भर था और वन्य पशुओं जैसा ही जीवन जीता था। उसी से कोई अधिक आगे निकल गया और कोई उसके निकट रह गया और आज भी अपने भिन्न मूल्यों के कारण वहीं बना रहना चाहता है। नृतत्व के इतिहास का नमूना बनने के लिए तो यह ठीक है, परन्तु अपना जीवन जीने के लिए यातना और अपमान को जीवन मानने जैसा ही है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परन्तु यह विषय भी ऐसा है कि इसकी सुरंग में दाखिल हो गए तो बाहर का रास्ता जाने कब मिले। फिर भी यह समझना जरूरी है कि दक्षिण भारत में खेती का प्रसार बहुत बाद में हुआ । उत्तर भारत और दक्षिण भारत का एक अन्तर तो इस कारण है, दूसरा अन्तर उससे भी पुराना है जिसमें उत्तर और दक्षिण के अटन क्षेत्र अलग थे। यह किताबी ज्ञान के आधार पर कह रहा हूँ कि पुरापाषाण काल में ही उत्तर में सोन कारखाना या पत्थार के औजारों की एक विशेष शैली सोहन या सोन नदी जो उस सोन से अलग है जो शोणभद्र नद कहा जाता है, के क्षेत्र में पाया जाता था और दूसरा जिसे मद्रास इंडस्ट्री कहा जाता है। इन जिसकी कुछ भिन्नताएँ थीं । दोनों के अटनक्षेत्र मध्यप्रदेश में आकर मिलते थे इसलिए दोनों के बीच आदान प्रदान था, दूसरी ओर उत्तरी अटनक्षेत्र का प्रसार भूमध्य सागर तक था और इसलिए कहा जा सकता है कि मध्येशिया और तुर्की तक एक संबंध सूत्र आहार संचय के प्राथमिक चरणों से ही बना हुआ था जिसके कारण अनेक सांस्क़तिक लक्षण बहुत पहले से, भाषा भारती के प्रसार से हजारों साल पहले से बना हुआ था और यही कारण है कि क़ृषि का विकास भारत से ले कर तुर्की तक लगभग समान प्रतीत होने वाले कालखंड में हुआ। भारतीय नवपाषाण कालीन स्थलों का पता बाद में चला इसलिए पहले यह धारणा बन गई थी कि खेती का आविष्कार उर्वर चन्द्र रेखा के क्षेत्र में हुआ, परन्तु भारतीय स्थलों का पता चलने के बाद जैरिज ने यह दावा किया कि किसानी का आरंभ भारत से हुआ, उनके शब्दों में द फर्स्ट फार्मर वाज इंडियन या ऐसा ही कुछ। परन्तु इस बात पर ध्यान दो कि उत्तर भारत के साम्राज्यवादियों – मौर्य और गुप्त राजाओं – के साम्राज्य का विस्तार यदि कन्याकुमारी तक हो सका होता तो जिसे द्रविड़भाषी क्षेत्र माना जाता है वह पूरा आर्यभाषी माना जाता, जैसे हम बंगाल, असम, ओडिशा, महाराष्ट्र आदि में मामले में पाते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसलिए अब अन्तर द्विस्तरीय हो गया। एक आर्थिक, दूसरा प्रशासनिक। आर्थिक दृष्टि से कहें तो सभ्य, विलम्बित सभ्य और आटविक, और प्रशासनिक दृष्टि से कहें तो उत्तरी राज्य निर्मितियों और महाराज्य निर्मितियों की प्रक्रिया और दक्षिण में इसका आरंभिक विस्तार जिसमें उत्तर की मथुरा के नाम पर दक्षिण की मदुरा नगरी को महत्व मिला और उत्तरी प्रेरणा के प्रसार के साथ दक्षिण के राजाओं का अपने को पांडुवंशी घोषित करते हुए गर्व अनुभव करना और सभ्यता के अन्य घटकों, जिसमें संस्कृत की शब्दावली, मूल्य व्यवस्था , भाषाविमर्श आदि का दक्षिण में प्रवेश और उनके अपने व्याकरण तोल्कप्पियन को अगत्तियन या अगस्त्य के किसी शिष्य द्वारा रचा मानते हुए गर्व अनुभव करना। कहें उत्तर और दक्षिण का पुराना संबंध अनुराग और सम्मान का था परन्तु कबीलाई स्वाभिमान के चलते अपनी निजता की रक्षा के संघर्ष का भी था। महत्वपूर्ण बात यह कि इन बातों का काल्डिवेल को ज्ञान था। वह बहुत बड़ा विद्वान था, सिर्फ ईमानदार न था और उसे एक ओर घालमेल करना था दूसरी ओर अपनी व्याख्या को विश्वसनीय बनाने के लिए सर्वविदित तथ्यों को स्वीकार भी करना था इसलिए उसने यह भी स्वीकार किया कि न तो दक्षिण भारत में उत्तर से भगाये जाने की स्मृति है न किसी संघर्ष की। सबसे बड़ी बात यह कि दक्षिण में संस्कृत का प्रभाव आर्यों के आक्रमण के कारण नहीं पड़ा अपितु दक्षिण भारत के राजाओं द्वारा उत्तर भारत से विद्वानों को आमंत्रित करने और आदर देने और उन मूल्यों को स्वीकार करने के कारण हुआ। इस पहलू को कोई भाषाविज्ञानी क्यों रेखांकित नहीं करता यह मेरे लिए आश्चर्य का विषय रहा है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''उन्हीं विद्वानों पर निर्भर करने के कारण तुम किसी चीज को समझ नहीं सकते। सूचनाओं के भंडार के साथ तुम अधिकाधिक मूर्ख होते चले जाते हो। अभी तक तुमको उपनिवेशवादी इतिहास पढ़ाया गया है जिसके अनुसार यहाँ के जन और भाषाऍ सब बाहर से आई हैं। यह आगन्तुकों को आमन्त्रित करता हुआ खाली पड़ा था। कारवॉं आते गए हिन्दोंस्तॉं बसता गया, जब कि सचाई यह है कि एशिया और यूरोप में प्रबुद्ध मनुष्य के प्रसार की कहानी में ही सबसे पहले वह तटीय क्षेत्र को पकड़े हुए भारत पहुंचता है और यहां से उसका प्रसार होता है। परंतु ऐसा भी नहीं है कि यहां बाहर से कोई आया न हो और यहां से बाहर की ओर किसी का गमन न हुआ हो। सब कुछ हुआ है और यह इतना धुंधला भी नहीं है इसको पहचाना न जा सके। उसके आवागमन के पैरों के निशान किसी न किसी कोने में सुरक्षित हैं। ये भाषा में मिल जाएंगे, रीतियों और विश्वासों में मिल जाऍगे। अपना इतिहास तो सभी ने न तो बचा कर रखा न इतिहास के महत्व को इस रूप में समझा कि इसे बचाया जाना चाहिए। इसलिए हमारी भदेश रीतियां-नीतियां और भाषाएं हमारे समाज को समझने में इतिहास के पोथों और उन्नत भाषाओं की तुलना में अधिक सहायक हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''कोल नाम सुना है। दक्षिण भारत की एक भाषा है कोलमी। यह द्रविड़ कुल में गिनी जाती है। कहें उत्तार का कोल समुदाय दक्षिण के भाषाई परिवेश में पहुँचा तो पहचान बनी रही, परन्तु भाषा बदल गई जीवनशैल वही रही। कोलम बीच से ले कर कोलंबो तब इसके पाँवों के निशान हैं, पर पहचान बदल गई। उत्तर भारत में कोल्डहवा मध्यपाषाणयुगीन स्थल है जिसका समय 6000 ईसा पूर्व माना गया हैा''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’’तुम लोग हर चीज की तारीख पीछे खींचते चले जाते हो। बहुत से लोग इसे इतना पुराना नहीं मानते।‘’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’’मैं जानता हूं। बहुत से लोग इस देश की सांस्कृतिक प्राचीनता और समृद्धि दोनों से घबरा जाते हैं। खींच कर आगे लाना चाहते हैं और कुछ लोग इतना प्यार करते हैं कि हर चीज को सृष्टि के आदि में पहुंचाने की कोशिश करते हैं। जो आगे खींच कर लाना चाहते हैं उसे ही मान लो तो भी बहुत प्राचीन काल से एक समुदाय उत्तर भारत से दक्षिण में कोलम बीच और कोलंबो तक पहुंचा दिखाई देता है। यूँ समझो कि उत्तर से ले कर दक्षिण तक की भाषाओं की बुनियाद एक जैसी है तो यह भाषाओं के बीच लेन देन के कारण नहीं है, उन्हीं लोगों के एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैले होने और एक ही अवस्था से ऊपर उठने के कारण है।''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''छोड़ो इस बखेड़े को, तुम हर चीज को पता नहीं कहां पहुंचा देते हो। सीधे उस बात पर आओ। भाषाओं का जो ताना बाना जिसे तुम एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैला मान रहे थे उसको समझाओ।''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''यह इतना विस्तृत विषय है कि एक या 2 घंटे में इस पर चर्चा नहीं हो सकती। कोई पहलू ऐसा नहीं है जिसमें इधर का तार उधर और उधर का तार इधर न आ रहा हो। पहले इस बात को समझो कि तमिल संस्कृत से पुरानी है। पर तमिल उत्तर भारत की बोलियों के अधिक निकट है, जिसका अर्थ हुआ, हमारी बोलियाँ संस्कृत से अधिक पुरानी हैं और उनमें से किसी के अधिक प्रभावशाली होने के कारण उस भाषा का विकास हुआ जिसे बाद में संस्कृत का नाम दिया गया।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘’अब हम तमिल के कुछ पहलुओं पर बात कर सकते हैं जो हमारी बोलियों के स्तर का है। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक निकटस्थ के लिए ‘ई’ का प्रयोग चलता है। तमिल आदि में इंगे, इक्कडे, इविडे, पंजाबी इत्थे , भोज. इहॉं, हिन्दी यहॉ, बांग्ला एइखाने। इस नियम से संस्कृत में यहां के लिए इत्र होना चाहिए और दूरस्थ के लिए अत्र या मान लो तत्र। संस्क़ृत का वह पुराना रूप कुडुख में सुरक्षित है जो द्रविड़ में गिनी जाती है, जिसमंं यहाँ और वहाँ के लिए इतरं अतरं चलता है। संस्कृत में भी 'यहाँ से' के लिए इत: प्रयोग में बना रहा। संस्क़त में जो गलतियॉं या विचलनें इतिहासक्रम में हुईं उनका ही निर्यात यूरोप तक हुआ। संस्क़त में इदं अर्थात् यह और तत अर्थात् वह हुआ तो यह अंग्रेजी के इट और दैट में देखा जा सकता है, परंतु इतरं अतरं का अदर अंग्रेजी तक में दिखाई देगा।''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लगता तो है कुछ पर साफ समझ में नहीं आता।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस पर कल बात करेंगे।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><a href="https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1014397855288287">https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1014397855288287</a></span></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-39186987103017990792016-02-05T03:04:00.000+05:302016-02-18T13:40:15.539+05:30मकड़ी का जाल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं आज की चर्चा अपने एक मित्र के पत्र से करना चाहूँगा। पत्र निम्न प्रकार है: “--- 1975 में मैंने बीएचयू में तमिऴ सीखी। पहले दिन हमारे लेक्चरर डॉ एन अरुण भारती ने कहा कि हिंदी और तमिऴ में कोई अंतर नहीं है। और मैंने तमिऴ को ऐसे सीखा जैसे मैं हिंदी को नए रूप में पढ़ रहा हूँ। फिर पूरी ज़िंदगी भारतीय भाषाओं के बीच एका तलाशता रहा। नौकरी के आख़िरी तीन साल मैंने मंगळुरु में बिताए। मंगळुरु में दो मंदिर, मंगळादेवी तथा कद्री-मंजुनाथ, बाबा गोरखनाथ ने स्थापित कराए हैं। मेरे मन में प्रश्न उठा कि गोरखनाथ मंगळुरु आने के रास्ते किन भाषाओं में बात किए होंगे, मुँह पर टेप तो लगाए नहीं होंगे। क्या वह भाषा अंग्रेज़ी थी। यहीं पर भाषाओं को बाँटने वाली अवधारणा ध्वस्त हो जाती है। कुंभ-काशी क्या अंग्रेज़ों ने शुरू कराया। मंगळुरु की तैनाती के दौरान मैंने कन्नड़ सीखा और उत्तर-दक्षिण की भाषाओं के विभाजन रेखा को कृत्रिम पाया। कई शब्द हैं दो तुऴु, कन्नड़ और हिंदी में कॉमन हैं। जैसे काला को तुऴु और पूरबी हिंदी में करिया बोलते हैं। ध्यान रहे कि तुऴु और पूरबी हिंदी आदि भाषाएँ हैं। हिंदी का तो अभी जन्म ही हुआ है। मैं जानना चाहता हूँ कि भारत की भाषाओं में कब अलगाव के बीज बोए गए। इसका राजनैतिक अध्ययन भारत के जोड़ने के लिए तुरंत ज़रूरी है।‘’ (बिकास कुमार श्रीवास्तव !) </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आगे कुछ कहने से पहले मैं यह बता दूं कि मैं जब भारत की अनेक भाषाओं के उदाहरण देते हुए अपनी बात कहता हूं तो यह भ्रम पैदा नहीं होना चाहिए कि इन में से किसी की मेरी बहुत अच्छी जानकारी है। कोशिश की सारी भारतीय भाषाओं को सीख लूं परंतु अभी सबकी लिपियां लिखना, व्याकरण समझना पूरा भी नहीं हुआ था, कि उनसे उभरने वाले प्रश्नों के दबाव में भाषा शिक्षा आधी अधूरी छोड़ कर भाषा विज्ञान और वैदिक अध्ययन की और मुड़ गया। फिर इस दिशा में आगे बढ़ पाता कि बीच में इतिहास और पुरातत्व से इनकी गुत्थियों को समझने का दबाव पैदा हुआ और जो संभव था किया। मेरे पास ज्ञान कम भटकाव अधिक है। शब्दभंडार दक्षिण की भाषाओं का कार्यसाधक तक नहीं कहा जा सकता। लिपि सीखने का एक लाभ है कि शब्दकोशों का उपयोग कर लेता हूँ। परन्तु मैं दक्षिण भारत की भाषाओं के विशेषत: तमिल, तेलुगू और कन्नड के महत्व को समझता हूँ और उनके स्वरमाधुर्य से भी परिचित हूँ और चाहता हूँ कुछ लोग ऐसे हों जो इनमें बोलने और लिखने की क्षमता ही अर्जित न करें अपितु उनके अधिकारी विद्वान बनें। मैं वास्तव में अभी अस्पृश्यता और सांप्रदायिकता के ही कुछ पहलुओं पर बात करना चाहता था, पर विषयान्तर हो गया तो पहले उस टेपेस्ट्री या तारवर्की की बात कर लें, उस लगाव को समझ लें, फिर अलगाव की ओर ध्यान देंगे।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे यहाँ भाषाओं के विषय में ऐतिहासिकता की ओर ध्यान अधिक नहीं रहा, भौगोलिकता पर ध्यान अधिक था। कहते हैं, चार कोस पर भाषा बदल जाती है, परन्तु कई बार एक ही गांव में प्रत्येक परिवार की भाषा में एक सूक्ष्म अन्तर वहाँ पैदा होता है जहां पड़ोसी भिन्न भाषाई क्षेत्र की कोई स्त्री परिवार में प्रवेश करती है और स्थानीय बोली को सीखने के क्रम में कुछ समय तक अधगूँगी और फिर मिश्र बोली बोलते हुए पति के परिवेश की भाषा को सीखती बोलती है, और अपनी भंगी, मुहावरे आदि इस पारिवारिक परिवेश में बो देती है। मेरी विमाता मेरे गाँव से चालीस किलोमीटर पूर्व के एक गॉव की थी जिससे हमारे गाँव की रिश्तेदारियाँ थी वहाँ सम्मान सूचक आप के लिए रउऑं चलता है, हमारे यहाँ रउरे, (पर इसका प्रयोग अति नम्रता क द्योतक होता है इसलिए सामान्यत: नहीं किया जाता) वहाँ न के लिए नू चलता है। यहाँ माँ को अपने पुराने प्रयोग से हटना पड़ा, परन्तु उसके शब्दभंडार के कुछ विशिष्ट शब्द थे। जैसे निपट मूर्ख के लिए भकभेल्लर, गमखोर के लिए भर्त्सनापूर्ण गबड़घूइस। इसे हम समझते थे पर इसका प्रयोग स्वयं नहीं करते थे। छोटे भाई की पत्नी उससे कुछ दक्षिण के लगभग उतने ही दूर के क्षेत्र से आई थी, वह अभिधा में बात करना पसन्द नहीं करती। प्रत्येक अभिव्यक्ति के लिए उसके पास एक मुहावरा है। मेरे शहर गोरखपुर में अवध के नवाब ने इमाम की नियुक्ति की थी और उनके साथ कुछ मुसलमान अवध से ही भेजे थे, और मेरे अपने गॉव में अयोध्या से केवटों को आमन्त्रित करके और सुविधा दे कर बसाया गया था जिनके वंशधर आज सात आठ गाँवों में बिखरे हुए हैं, पर कुछ अपनी अवधी भूल चुके हैं और कुछ आज भी अवधी पुट के साथ भोजपुरी बालते हैं। यही हाल गोरखपुर शहर के अवध से आए मुस्लिम परिवारों की है। स्त्रियों की भाषा में कुछ शब्दों और मुहावरों का प्रयोग होता है जिन्हें पुरुष समझते हैं पर बोलते नहीं। बोलें तो स्त्रैण माने जाएंगे। यह मुंडारी में परिगणित किसी बोली का प्रभाव है जिसमें आज भी कुछ बोलियों में स्त्रियों और पुरुषों की भाषा में अन्तर इतना भेदक है कि यदि स्त्री स्त्री से बात करेगी तो भाषा अलग होगी, स्त्री पुरुष से बात करेगी तो भाषा अलग होगी और पुरुषों की बोली अलग होगी, परन्तु पुरुष भी जब महिलाओं से बात करेंगे तो उनमें शालीनता आ जाएगी। इसे अपने आस पास के लोगों में आप भी लक्ष्य कर सकते हैं कि पढ़े लिखे पुरुष तक जिन अशोभन शब्दों और मुहावरों का आपसी बातचीत में प्रयोग करते हैं उनका प्रयोग वे न तो किसी स्त्री से बात करते हुए कर सकते हैं न ही यह जान लेने पर कर सकते हैं कि श्रव्य दायरे में कोई स्त्री भी है। भाषा के तथ्य और व्यवहार के बीच दूरी, भौगोलिक दूरी, इनके संगम स्थलों की विचित्रता के बीच चल रहे इन तारों और कशीदों पर ध्यान दें तो भाषा एक ऐसा उद्यान जैसा प्रतीत होगी जिसमें प्रत्येक पौधा अलग होते हुए भी एक ही परिवेश में नहीं है, एक ही वृक्ष के एक जैसे दिखने वाले पत्तों में भी ऐसी भिन्नता है कि समान प्रतीत होते हुए भी कोई पत्ती दूसरी किसी पत्ती के सर्वसद़श और समान नहीं है। इनमें से कुछ बातों की ओर भाषावैज्ञानिकों ने ध्यान दिया है, कुछ की ओर अपनी लाज बचाने के लिए ध्यान दे ही नहीं सकते थे, जब तक कोई इनका भाषाशास्त्रीय विवेचन करने की ही न ठान ले तब तक ऐसा अध्ययन अनुपयोगी भी होगा। निष्कर्ष यह कि भिन्नताओं को अतिरंजित तूल दें तो घरों, परिवारों, अंचलों को भी भाषा के सवाल पर भी एक दूसरे के विरोध में खड़ा किया जा सकता है, और लगाव पर ध्यान दें तो उस छोर तक को अपना बनाया जा सकता है जहाँ तक भाषा के हमारे तार पहुँचते और एक नई रंगत लेकर हम तक वापस लौटते रहे है जिसे लक्ष्य करते हुए इमेनो ने भारत को एक भाषाई क्षेत्र माना था। भाषा की इस कशीदाकारी को समझने वाले घबरा जाते हैं क्योंकि यह उन सभी अध्यासों का, सभी मिथ्या प्रतीतियों का जवाब है, जिन्हें ज्ञात कारणों से प्रचारित किया और बेहयाई से जारी रखा गया और इसलिए पाश्चात्य भाषावैज्ञानिक इसको जानते हुए भी इसे अपने विवेचन में स्थान नहीं देते जब कि वे व्यक्तिगत भाषा या ईडियोलेक्ट तक को लक्ष्य कर चुके हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पहले यात्राएं पैदल ही होती थी इसलिए साधुओं आदि को एक गॉव से दूसरे में पहुँचते ठहरते और एक बोली क्षेत्र को पार करने में ही इतना समय लग जाता था कि वे इस विषय में अतिरिक्त सजगता के बिना ही अनेक भाषाएं सीखते और बोलते आगे बढ़ते जाते थे। गोरखनाथ के साथ भी ऐसा ही हुआ होगा।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">फिर भी विद्वानों के बीच एक मोटा भ्रम यह था कि भारत की सभी भाषाएँ संस्कृत से निकली हैं अत: भिन्नता के बाद भी पृथकता या अलगाव की चेतना नहीं थी। लोग अपनी बोली से इतने आसक्त होते थे कि उससे भिन्न कथन या उच्चारण का उपहास करते थे। परंतु साथ ही यह एक दुविधा भी थी की बहुत से ऐसे शब्द हैं जिन की व्याख्या संस्कृत से नहीं हो पाती। इसकी ओर ध्यान बहुत बाद में गया। संभव है हेमचन्द्र की देसी नाममाला के माध्यम से, पर मेरा अध्ययन इस क्षेत्र में इतना कामचलाऊ है कि मैं यह नहीं कह सकता कि उनसे पहले, मिसाल के लिए वररुचि ने इस पर ध्यान न दिया होगा फिर भी हुआ तो बाद का ही । और इस बोध के बाद भी अलगाव की भावना न थी, कुछ प्रश्न थे जिनका कोई हल तलाशना था। यह उत्तर से ले कर दक्षिण तक व्याप्त धारणा थी।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बांटने का काम मध्यकाल के शासकों ने नहीं किया। उन्होंने सताया, मारा, उत्पीडि़त किया पर दिलों पर चोट न की। ठीक किया, यह तुम कह सकते हो, तुलसी दास को तो शिकायत दंड की करालता से ही थी, ‘साम न दाम न भेद कछु केवल दंड कराल। भारतीय साहित्य से परिचित होने से पहले यूरोपियनों का भी एक ही हथियार था, दंड कराल। भारत में आकर उन्होंने साम, दाम और भेद से परिचय पाया और इसे अपनाया। उनका उससे पहले का इतिहास देखो, भारत से बाहर के देशों और उपनिवेशों के साथ उनके बर्ताव को देखो तो मेरी बात तुम्हारी समझ में आ जाएगी। यह सच है कि दाम का प्रयोग मध्यकालीन शासकों ने भी किया। अकबर से लेकर औरंगज़ेब तक अपनी अनेक लड़ाइयों में रिश्वत के बल पर विजय पा सके थे और उस रिश्वतखोरी को अंग्रेजों ने अपना औजार बनाया परंतु तुलसीदास ने जिस दाम की बात की थी वह इससे भिन्न थी जिसकी ओर मुड़े तो शामत आ जाएगी। परन्तु यह याद दिलाना जरूरी है कि हम पराधीन हुए इसके बाद भी विजेताओं ने हमसे बहुत कुछ सीखा, चुपचाप पचा ले गए कि लगे यह उनकी परंपरा में था, परन्तु हम उनसे कुछ नहीं सीख सके। गुलामी मन, आत्मा और मस्तिष्क के समर्पण से आती है, सामरिक पराजय से नहीं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिस आदमी ने दक्षिण को उत्तर भारत से अलग किया उसका इरादा कलह पैदा करने का यदि रहा भी हो तो उसके कारनामों से ऐसा लगता नहीं। वह मानता था कि फोर्ट विलियम कॉलेज में पढ़ाई जाने वाली या विकसित की जाने वाली भाषाएँ दक्षिण भारत के लिए उपयोगी नहीं, इसलिए मद्रास (चेन्नइ) में वैसा ही एक कॉलेज दक्षिण भारत की भाषाओं के विकास के लिए स्थापित किया जाना चाहिए। उसकी नजर में बँटवारा नहीं, प्रशासन था और अभी तक मैकाले का भाषा सिद्धान्त सामने नहीं आया था। इस व्यक्ति का नाम था एलिस। पूरा नाम Francis Whyte Ellis था जो मद्रास में कलेक्टर के पद पर नियुक्त हुआ था। उसके सहयोगियों में थे विलियम्स एर्कसिन और जान लीडेन और उन्होंने पहली बार इस बात का प्रमाण जुटाया कि दक्षिण भारत की भाषाएं उत्तर भारत की भाषाओं से भिन्न है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बांटने का काम अंग्रेजों ने उसके बाद आरंभ किया जब उनको भारत के विशालतम भू भाग पर अधिकार मिल गया, प्रतिस्पर्धी फ्रांसीसी शक्ति भारत से लुप्तप्राय हो गई और उन्हें विश्वास हो गया कि अब उनका प्रतिरोध करने वाली कोई शक्ति भारत में बच नहीं रही।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कॉल्डवेल इसी दौर में आते हैं। उन्होंने जिस समय अपना काम संभाला उस समय तक दूसरे अनेक विद्वान दक्षिण भारत और उत्तर भारत की भाषाओं के संबंध पर विचार कर चुके थे। इसकी कुछ झलक कॉल्डवेल की पुस्तक की भूमिका में भी मिल जाएगी। यदि आप किताब को ध्यान से पढ़ें तो पाएंगे कि वह न केवल उत्तर भारत को दक्षिण भारत से काटने की कोशिश कर रहा था अपितु तमिलों को मलयालियों से भी, श्रीलंका में बसे और जमे हुए तमिलों के विरुद्ध लंकावासियों को भी खड़ा कर रहा था, परन्तु उसने अपना काम इतनी ,खूबसूरती से किया कि किसी को पक्षपात का संदेह तक न हो।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपनी अनेक सीमाओं के बावजूद कॉल्डवेल की पुस्तक आज भी बहुत महत्वपूर्ण है और उससे अनेक ऐसे पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है जिनको हम उसके खिलाफ इस्तेमाल भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिए उसने प्रतिपादित किया कि द्रविडियन भाषाएं संस्कृत से निकली नहीं हो सकती, परन्तु साथ में यह भी कहा कि तमिल दक्षिण की भाषाओं में सब में अधिक रूढ़िवादी भाषा है। उसने एक अन्य संभावना ओर भी संकेत किया कि संस्कृत स्वयं तमिल जैसी किसी बोली से निकली है या नहीं इस पर अवश्य विचार किया जा सकता है। यह दूसरा विचार बहुत रोचक था और उस मान्यता को चुनौती देता था जिससे भारत पर आर्यों के आक्रमण की बात की जाती थी यदि संस्कृत तमिल जैसी किसी भाषा से निकली हुई भाषा है तो इसका विकास भारतीय भू भाग में हुआ और उन्नत विकास होने के बाद इसका प्रसार देशांतर में हुआ। यह इसमें ध्वनित था इसलिए उसने इस विचार को आगे नहीं बढ़ाया। यह काम हमारे भाषाविदों और भाषाविज्ञानियों का था जो अपना काम ठीक न कर पाए। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं तो दक्षिण और उत्तर की भाषाओं के बीच के उस सूचीकर्म या तारवर्की को भी सामने लाना चाहता था जिससे मकड़ी के एक विशाल जाले का चित्र उभरता है, परन्तु इसे समझना कौन चाहेगा।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1013877562006983</span></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-55641589220374544012016-02-05T00:40:00.000+05:302016-02-18T13:43:34.495+05:30तोड़ता हूं इस तिलिस्म को<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह बताओ तुमने शिगूफा छोड़ने के लिए ऐसा कह दिया कि हिन्दीेभाषियों के लिए तमिल का अध्ययन उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना संस्कृत का, या सचमुच ऐसा ही मानते हो?’’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’’तुम्हें क्या लगता है ? तुम जानते हो, मैं विनोद में भी झूठ नहीं बोलता। यथार्थ में ही इतना विद्रूप भरा हुआ है कि विनोद के लिए वही काफी है। उसे देखने की नजर और बयान करने की भाषा भर चाहिए। मेरे फेसबुक के एक मित्र ने लिखा कि आपने तो उत्तर दक्षिण को जोड़ दिया । मैं आधुनिक भागीरथ होने का सपना तक नहीं देखता। मैं क्या जोड़ूंगा उत्तर को दक्षिण से, इतनी सामर्थ्य नहीं। मैंने एक बार कहा था, मैं द्रष्टा हूँ, ज्ञाता नहीं। इसके साथ यह भी जोड़ लो कि आविष्कर्ता तक नहीं। मौलिक होने से घबराता हूँ। प्रामाणिक होने का प्रयत्न करता हूँ। जो देखता हूँ उसे यदि लोक विश्वास से भिन्न पाता हूँ तो बताता हूँ, तुम जो मानते हो वह सही नहीं है। देखो, यह तो ऐसा है, यह है, और इस कारण तुम को ऐसा दिख रहा है। दुर्भाग्य से मैं एक ऐसे समाज में अपनी बात रखने का प्रयत्न करता रहा हूँ जिसमें लंबी दासता के कारण आत्मविश्वास और आत्मसम्मान दोनों का अभाव है। वह इन शब्दों का अर्थ तक भूल गया है। वह दुराग्रह या हठ को आत्मविश्वास और अहंकार को आत्मसम्मान समझता है और इसमें सर्वाधिक शक्ति और अवसर उस व्यक्ति के पास होता है जो दासता के मूल्यों में दूसरों से आगे होता है। वह स्वतंत्रता का सम्मान करता है, पर यह नहीं जानता कि स्वतन्त्रता होती क्या है, जैसे वह आत्मविश्वास और आत्मसम्मान पाना चाहता है पर यह नहीं जानता कि आत्मविश्वास और आत्मसम्मान होता क्या है। जानते हो मैंने यह देखा कि जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है, जो भाषाविज्ञान हमें पढ़ाया जाता है वह गलत है तो मैंने एक व्रत लिया था कि इसे मैं सुधारूँगा और इसे अपनी एक कविता में व्यक्त किया था जो मेरे एकमात्र काव्यसंग्रह अपने समानान्तर की पहली कविता है। इसे मेरे मित्र नवल ने अपने सहज स्नेह से आग्रहपूर्वक प्रकाशित किया था, जिसमें मेरी संक्षिप्त टिप्पणी 6 दिसम्बर 1971 की है जिसमें लिखा है ’अपने समानान्तर’ में मेरी 1968-69 में लिखी गयी कविताएं संकलित हैं। सो यह प्रतिज्ञा भी इसी बीच ली गई होगी। इस कविता में की गई प्रतिज्ञा ने ही मुझे, मैं जो कुछ हूँ, बनाया है, इसलिए इसे देखो। कवियों को यह पसन्द न आएगी क्योंकि यह नारे जैसी कविता है जिसमें संकल्प होता है, कवित्व की नाजुकी नहीं होती, पर नारे लिखने वाले कवि भी समाज में होने चाहिए। कविता को सुन सको तो सुनो:</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं फिर तोड़ता हूं इस तिलिस्म को </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिसमें मैं क़ैद था </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और गढ़ता हूँ एक नया तिलिस्म</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने नाखून की मैल से।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं बनाने जा रहा हूं एक सुरंग </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो तुम्हारे दिल और संसद भवन में एक साथ खुलेगी । </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">0</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लो मैंने बंद कर दिया कोढि़यों की तरह शब्द थूकते रहना </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सावधान।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं कुछ खतरनाक शब्दों की जंजीरें खोलने जा रहा हूं </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ये तुम्हें काटेंगे और जिंदा छोड़ देंगे ताउम्र भोंकने के लिए। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">0</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अब कोई आईना </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मेरे लिए परछाइयों का कब्रिस्तान नहीं है </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अब मैं परछाइयों को आकृतियों में </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और आकृतियों को परछाइयों में बदल सकता हूं ।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">0</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘लैजरस उठो।‘ मैं नहीं कहूँगा </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं नहीं करूँगा जीवितों का अपमान</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं कहूँगा 'लैजरस आँखें खोलो'</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं अब बारूद की गंध को ऑक्सीजन में बदल सकता हूं । </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">0</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मुझे याद है </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं कई बार भाग खड़ा हुआ था कई मोर्चों से </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर आज खड़ा होता हूँ </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने विरुद्ध एक नए समर में। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">0</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं तोड़ूँगा कुछ भी नहीं </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सिर्फ परिभाषाएं सुधार दूँगा</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और कुएँ के पहाड़ बिखर जाएंगे। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">0</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुम देखना </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बेकार नहीं जाएगी मेरी फुसफुसाहट </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं धरती धँसेगी नहीं </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं झुकेगा आसमान </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर इसके स्पर्श से </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गर्व में तने कँगूरे हवा मुर्ग में बदल जाएंगे। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">0 </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लो मैं तुम्हें सौंपता हूं अपनी कविता </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुम इससे कोई भी काम ले सकते हो </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नाबदान साफ करने से लेकर </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धमनभटि्ठयां चलाने तक </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर तुम इसे बिछा कर सो नहीं सकते ।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बेशक, उस राजकुमारी को मुक्त करा सकते हो </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो तहखाने में बंद है</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिस पर विषधर नाग पहर दे रहे हैं।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘’तुम्हारी कविता तो सुन ली। कवियों की दुर्बलता है, वे निज कबित्त केहि लाग न नीका, सरस होय अथवा अति फीका वाले नियम से बँधे होते हैं। पर तुम तो अब कवि भी नहीं रह गए, बात तमिल की चल रही थी और इस बीच तुम कविया उठे। दोस्ती का लिहाज कर के चुपचाप सुन भी लिया, पर इसकी यहां कोई जरूरत थी।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं यह बताना चाहता था हमारे बौद्धिक वर्ग का बौद्धिक स्तर और सरोकार कैसे ललित साहित्य और अख़बारी सूचनाओं तक सीमित रह गया है उसमें न साहित्य की समझ है न समाज की समस्याओं की, न अपने देश की, न अपने भविष्य की, और न ही अपनी सीमा को पहचान। इसलिए आगे बढ़ने के रास्ते वही बंद करता है। एक प्रबुद्ध आलोचक, विजयमोहन सिंह ने इस संग्रह की आलोचना की थी और उन्होंने उसको समझने में कुछ ग़लतियां की थीं।इसका प्रभाव यह पड़ा कि उसके बाद मैंने कविता से मुँह फेर लिया परन्तु कविता ने मुझसे मुँह नहीं फेरा इसलिए चोरी चोरी जो रुक न सका उसे दर्ज कर लेता हॅू। मैं कवि होने का दावा नहीं करता परन्तु क्या वे जो कविता, कहानी, और उन्हीं की आलोचना तक सीमित हैं, वे अपने सीमित दायरे में भी चीजों को समझते हैं। क्या मेरे आलोचक को पता था उन प्रयोगों का अर्थ </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तिलिस्म – एक मायावी यथार्थ, जो है नहीं, पर जिसे सही बना दिया और मान लिया गया है अर्थात् गलत मान्यताएं जो सत्य की तरह पढ़ाई जा रही है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नाखून की मैल से – अकेले दम पर, साधन हीनता के बावजूद जो कुछ सुलभ है उसी के माध्यम से सत्य की स्थापना जिसे बहुत से लोग एक नये तरह का भ्रम समझ सकते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोढि़यों की तरह शब्द थूकते रहना – ऐसी अभिव्यक्ति जो निष्प्रभाव है और अपनी व्यर्थता के कारण गर्हित। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लैजरस – लेजी व्यक्ति या समाज जो मरा तो नहीं है परन्तु किन्हीं मारक प्रभावों में अचेत है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस प्रतीकात्मिकता की व्याख्या को बढ़ाया भी जा सकता है।‘’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘’यार तुम फिर अपना राग अलापने लगे।‘’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’’राग नहीं अलाप रहा था। अपने राष्ट्रीय बौद्धिक गिरावट पर विलाप कर रहा हूँ जिसमें ललित लवंग लता परिशीलन की परिधि में भी समझ ग़ायब है, उसमें वैचारिक स्तर पर किसी नए विचार का स्वागत हो सकता है?</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''यह कविता मैंने 1969 से पहले लिखी थी। आर्यद्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता 1973 में प्रकाशित हुई थी । उसमें इन विचारों का भाष्य तो न हुआ था, पर यह स्थापना केन्द्रीय थी, यह तो पुस्तक के नाम से ही प्रकट है। गो नाम भ्रामक था, इसलिए बदलना पड़ा। उसमें यह भ्रम पैदा हो सकता था कि कोई एक आदि भाषा थी जिससे आर्य और द्रविड़ भाषाओं का जन्म हुआ और आगे का विभाजन हुआ जब कि उसमें एक से बहु नहीं, बहु के बीच एक के नियम से किसी एक भाषा का अपने निकट की भाषाओं में स्वीकार्य हो कर मानक दर मानक बनते चले जाने की प्रक्रिया है। हमारे मनस्वी लोग पुस्तक पढ़े बिना शीर्षक से ही उसकी अन्तर्वस्तु का अनुमान लगा कर उसकी छुट्टी कर देते हैं।’ </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस पुस्तक से अधिक महत्व पूर्ण रचना मैंने आज तक नहीं की। जो कुछ आगे लिखा उसी का भाष्य था। भाष्य को जिन्होंने समझा वे भी मूल को न समझ पाए अन्यथा तुम्हें मेरा कथन शिगूफा नहीं लगता।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’तुम्हारी भड़ास तो सह ली, पर अब भी समझ में नहीं आया तुम हिन्दी और तमिल के बीच किस कशीदाकारी की बात कर रहे थे।'' </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''तुम यह बताओ, तुम ठंढ, तड़ाग, ताड़, ताल का मतलब जानते हो?''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''क्या मज़ाक करते हो। मेरी हिन्दी इतनी कमजोर तो नहीं जो इनका अर्थ तक न जानूँ।'' </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''नहीं जान सकते, तुम मतलब को नहीं, ठप्पे को जानते हो। टैग को जानते हो। मतलब वहॉं छिपा मिलेगा जहाँ तुम समझोगे कि इसे यह नाम क्यों मिला। इस संज्ञा का आधार क्या है। समझे? तुम तो ताल और तालाब के बीच भी फर्क नही कर सकते क्योंकि तुम सत्ता के उपयोग की भाषा को जननी और सत की भाषा को उससे जनित मानते हो।'</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">'' पहेलियाँ मत बुझाया कर यार, कहना क्या चाहता है?''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">'' तुम कभी किसी दक्षिण भारतीय ढाबे में गए हो। किसी को पानी के लिए तन्नी का प्रयोग करते सुना है?''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''गया हूँ, सुना भी है, मतलब भी जानता था। बात बात पर इस तरह की अकड़ क्यों दिखाते हो।'' </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘यह बताने के लिए कि तन्नी का अर्थ है पानी पानी अर्थात् ठंढा पानी। तण् – पानी, नीर – पानी। पानी पानी अर्थात् ठंडा पानी। अर्थात् पानी से ही ठंढ की संकल्पना भी जुड़ी है। अब उस तण् को संस्क़ृत अौर हिन्दी के तड़ाग में देख सकते हो। ताड़ी में देख सकते हो। ठंढ में पहचान सकते हो। तड़ तो तल में बदलते देख सकते हो। अब ताल का अर्थ है जलाशय यह समझ सकते हो। और तालाब को तुम तन्नी् के नियम से पानी पानी कह सकते हो, ताल –पानी, अप्/ आप –पानी, फारसी आब –पानी और तालाब। पर अब उल्टी यात्रा करो। तर- पानी, तरंग – पानी की लहर या उसका अंगभूत, तरणी, तरना आदि पर ध्या न दो। तर तल हो सकता है, र और ल में भेद नहीं है, रलयोरभेद:, ल ळ बन कर ड़ और फिर ण बन सकता है। इस गहन स्तर पर कौन तय करेगा कि तर तण् बना या इसके विपरीत हुआ, पर जो बात निश्चित है और जिसे समझाना बहुत मुश्किल है वह यह कि ये भाषाएँ आदिम स्तर से ही एक दूसरे से जुड़ी और एक दूसरे को प्रभावित करती रही है कि यह तय कर पाना तक कठिन होता है कि कौन सा शब्द मूलत- किसका है और इस रहस्य को समझे बिना हम उन शब्दों का भी अर्थ नहीं समझ सकते जिनका नित्य प्रयोग करते हैं।'' </span></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सुन लिया, पर यह बताओगे कि तुम हर चीज को बोरडम तक क्यों पहुँचा देते हो। सुनने वाले तुम जैसों के पाले पड़ने पर सोचते हैं, मैं बहरा क्यों न हुआ। मैं बहरे समाज से ही बात करता रहा हूँ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1013344282060311</span></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span></div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-8107399755714491292016-02-05T00:14:00.000+05:302016-02-18T13:44:56.235+05:30विपन्न वर्गों का हित मातृभाषा से जुड़ा है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नरेश मेहता को नमन करते हुए</span></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">“कहाँ ग़ायब हो गए थे भाई?”</span></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">“प्रयोग कर रहा था कि 3 दिन में आदमी कितना बूढ़ा हो सकता है।‘’ </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘’पता चल गया?’’ </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘’बात करोगे तो पता चलेगा अनुभव कितना अधिक हो गया है, कमर कितनी टेढ़ी हो गई है, याददाश्त कितनी कम हो गई है, थकान कितनी बढ़ गई है, निराशा कितनी गहरी हो गई है, और संकल्प कितना दृढ़ हो गया है।‘’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘’हां कुछ तो है मैं भी देख रहा हूं - पहले से कम बेवकूफ़ लग रहे हो, चाल चलन भी गड़बड़ लग रहा है , डगमगाते हुए चल रहे थे, और मुझसे बात करते हुए तो बजरंगबली की गदा ताने हुए से लग रहे हो! लेकिन सिर्फ 3 दिनों में इतना कुछ कर डाला । कमाल है। यह हुआ कैसे?</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’’अरे यार एक मित्र ने सुझाया करपात्री बन जाओ। मैंने हाथ आगे फैला दिया। उसने कहा, इधर नहीं, उधर, देखो उधर बेचारे मध्य प्रदेश के राष्ट्र भाषा प्रचार समिति वाले सम्मान संभाले खड़े है। इस समय जब सभी सम्मानित जन अपना सम्मान त्याग रहे हैं, अपमान का शोर मचाने पर सिंहासन हिल जा रहे है, सम्मान लेने को कोई तैयार नहीं। मौका मत चूको, हाथ बढ़ा दो। मैंने सोचा बढ़ाने की ही तो बात कर रहा है, घटाने की तो नहीं, बढ़ा दिया पंचतंत्र की भाषा में, 'भाग्येन एकदपि संभवम्।' मैं क्या जानता था कि सम्मान का बोझ इतना अधिक होता है कि रीढ़ तक जवाब दे जाय।" </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अक्ल से तो काम लिया होता, किसी ने सुझाया और तुम मान गए। थोड़ा नाटक वाटक तो करना था।‘’ </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">"किया था यार, जब पहली बार चयन समिति के एक मित्र ने सूचित किया अब की बार तुम्हारी बारी तो मैंने कहा, मुझे कहाँ घसीट रहे हो, किसी दूसरे को पकड़ो। उसने कहा, अब तो जो होना था हो गया। और अगले ही दिन कलमबन्द कागज ।‘’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘’मध्य प्रदेश में, भाजपा के राज में, भाजपा के इशारे पर ही सब कुछ होता है, साहित्य, कला, संस्कृति, इतिहास से जुड़े सभी निर्णय शाखा से शाखामृग के लगाव को ध्यान में रख कर ही किए जाते हैं। यह पता था तुम्हें? </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’’दोहरा फायदा था यार, बिना शाखा से जुड़े और बिना शाखाचर बने, दोनों का लाभ मिल रहा था। और क्या चाहिए था। उत्साह दूना हो गया।‘’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’’तुमने यह पता लगाया कि यह पुरस्कार भगवान सिंह को दिया जा रहा था या डॉ. श्री भगवान सिंह को?’’ </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">"शायद दोनों को, जो पहले पहुंच जाता लेकर चला आता क्योंकि परिचय में डॉ. भगवान सिंह लिखा हुआ था जो मैं हूं नहीं और ‘श्री’ नहीं लिखा था जो कि वह है इसके खतरे थे, मौका हाथ से निकल जाता तो सिर पर हाथ मारने के सिवाए कोई चारा न रह जाता। फिर भी सावधानी बरती। कहा, मेरा टिकट आप बुक कराएँगे और तिथि भी आप ही तय करेंगे। टिकट भी मेरे पते पर आ गया तो मानना ही था कि मैं वही भगवान सिंह हूँ जो मरीज़ है, डाक्टर नहीं और श्रीहीन तो है ही । लेकिन मेरे मित्र की पत्नी, मधु को अब भी यकीन न था । कहा, भाई साहब, आप दो दिन पहले ही चले जाइए। कहीं आपके हाथ से निकल ना जाए। आप जानते नहीं हैं वहां कितने घोटाले होते हैं। मैंने लाचारी प्रकट की, ‘टिकट 24 तारीख का है, चाहूँ तो भी रिज़र्वेशन इतनी जल्दी मिलेगा नहीं।‘’ </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसने लम्बी सांस छोड़ते हुए कहा, ‘’किया भी क्या जा सकता है। चले जाइएगा, यदि बचा रहा तो मिल भी सकता है।‘’ </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">'कमाल की बात यह कि वह सचमुच बचा रह गया था।' हालाँकि वहाँ आमंत्रित दर्जनाधिक विद्वान थे, भौतिकी, जीवविज्ञान, वनस्पति विज्ञान, इतिहास, अभियान्त्रिकी, दर्शन आदि विषयों के पारंगत पर, वे इतना ही बता पाए कि उनके क्षेत्र में हिंदी में क्या काम हुआ है या हो रहा है और इस मामले में यह एक अच्छा आयोजन था, क्योंकि उनमें से किसी ने यह नहीं कहा कि इतना काम मैंने किया है, इसलिए दोबारा विचार करो और कम से कम आधा सम्मान मुझे भी दो। पहली बार लगा की हिन्दी में इतना अधिक काम हो रहा है की या तो हिंदी रहेगी या वे विषय। लेकिन साथ ही यह दुःख भी प्रकट किया जा रहा था कि इन विद्वानों की उपेक्षा हिन्दी में लिखने के कारण हो रही है। मुझे लगा वे जिस हिन्दी में लिखते हैं उसके कारण हिन्दी की उपेक्षा हुई है।"</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">"दुर्दशा हिन्दी की ही नहीं है, समस्त भारतीय भाषाओं की है क्योंकि हम बाहरी उपनिवेशवाद से मुक्त, होने के साथ आंतरिक उपनिवेशवाद के शिकार हो गए ! सत्ता का हस्तांतरण हुआ, उपनिवेशवाद का खात्मा नहीं ।"</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">"सोलह आने दुरुस्त! नए उपनिवेशवादियों के हित अंग्रेजी से जुड़े थे और अंग्रेजी को भारतीय भाषा सिद्ध करने के लिए नेहरू जी ने पूरा नगालैंड वेरियर एल्विन के हवाले कर दिया था। आश्चर्य नहीं कि अंग्रेजों के विदा होने के बाद इतनी जल्द इस देश के एक कोने में एक अंग्रेजी राज्य खड़ा कर लिया गया और संविधान में अवसर की समानता के आश्वासन के बाद भी शिक्षा में ही अवसर की समानता समाप्त कर दी गई। अल्पसंख्यक भाषा के सामने हिन्दी जैसी बड़ी भाषा की बात करना संकीर्णतावादी माना जाने लगा और अंग्रेजी को कायम रखने के लिए इसे विश्वभाषा कहा जाने लगा। यह भुला दिया गया कि दुनिया क्या अंग्रेजी पूरे यूरोप तक की भाषा नहीं है। यह अंग्रेज़ो और उनके औरस या अनौरस संतानों की ही भाषा है, वे चाहे कहीं भी बसे क्यों न हों।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">2</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैंने जो कुछ कहा वह ठीक से नहीं कह पाया फिर भी लोगों को अचरज में डालने वाला तो था ही। कहना चाहा हिन्दी क्षेत्र में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का क्या मतलब, लेकिन लगा, यह उस संस्थान और उस चयन समिति का ही अपमान होगा जिसने आपको सम्मान के योग्य समझा। इसलिए एक दो उदाहरण दे कर बताया कि आप संस्कृत सहित अपने देश की किसी भाषा को अच्छी तरह नहीं समझ सकते जब तक दक्षिण की किसी भाषा, वैदिक भाषा और अपनी मातृबोली को नहीं समझते। बताया कि हमारी बोलियों में ही कई बोलियों या भाषाओं के तत्व नहीं विद्यमान हैं अपितु बहुत से शब्द ऐसे हैं जिनका निर्माण कई बोलियों या भाषाओं के प्रभाव में हुआ है। इसका एक उदाहरण तेलुगू की एक की संख्या ओकटि है। इसमें संस्कृत का एक तमिल की प्रधान बोली के प्रभाव से ओक हो गया क्योंकि उसमें एक के लिए ओन्र का प्रयोग होता है। सो एकार ओकार में बदला और लालित्य के लिए उसमें उस बोली का अन्त्य प्रत्यय ‘टि’ लगा जिसके प्रभाव से बांग्ला में एक टि, दू टी जैसे प्रयोग चलते हैं, बांग्ला में यह एक टा भी हो सकता है और उसका प्रभाव भोजपुरी में किसी ओकार प्रिय बोली के प्रभाव से ठो हो गया, और एक ठो, दू ठो बोला जाता है। इस ठो का एक वैकल्पिक रूप गो भी है, इसलिए एक गो, दू गो भी चलता है। यह गो मराठी के आई गो या माई रे तक पहुँचा हुआ है। बताया कि जिन्हें आप संस्कृत का मूल शब्द समझते हैं, वह किसी बोली के मूल शब्द का तद्भव भी हो सकता है। उदाहरण 'सुख' का दिया जिसका प्राचीन अर्थ पानी था इसलिए चंडीगढ़ के पास जिस सुखना झील के बारे में एक सज्जन बता रहे थे, पहले यह सूख जाया करती थी इसलिए यह नाम पड़ा वह भ्रम तब टूटा जब देखा यह नाम छत्तीसगढ़ और असम में भी झीलों के साथ भी जुड़ा है। इस सुख का विलोम ही सूखा है, जहां वह नियम काम करता है जो तमिल में प्रभावी है, स्वर को दीर्घ करके विलोम बनाना । वेंडुम – चाहिए; वेंडाम - नही चाहिए। यह सूखा संस्कृत में शुष्क हो जाता है और शोषण आदि बन कर कम्युनिस्ट आंदोलन के काम आता है, परन्तु फारसी में यह खुश और खुश्क बन जाता है और अंग्रेजी में सक – चूसना, सुकुलेंट रसीला आदि अर्थ देता है। इसलिए तीन बातों पर ध्यान दें:</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पहली यह कि हमारी बोलियाँ संस्कृत से अधिक पुरानी हैं, उनके तद्भव प्रतीत होने वाले शब्द तत्सम और संस्कृत के तत्सम अपनी बोलियों के किसी शब्द का तद्भव हो सकते हैं; </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरी यह कि भारत की भाषाई दुर्गति के लिए हिन्दी वाले जिम्मेदार हैं जिन्होंने इसे राष्ट्रभाषा बनाने के अभियान में तो कोई भूमिका नहीं निभाई, सारा काम बंगालियों और गुजरातियों और मराठियों और कुछ दूर तक तमिलों ने भी किया, परन्तु संविधान में इसे राष्ट्रभाषा का स्थान मिलने के साथ ही इस तरह का तेवर अपना लिया मानो हिन्दी अंग्रेजी का स्थान ले रही है और भारत पर अंग्रेजी राज की जगह हिन्दी राज स्थापित होने वाला है। आज भी स्थिति बेकाबू नहीं है। कमी संकल्प की है। यदि और हिन्दी वाले और खास करके दलित इस बात के लिए कृतसंकल्प हो जाएं कि भारतीय भाषाएं अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त करें तो अंग्रेजी इसमें बाधक बनने की लाख कोशिशों के बाद भी बाधा नहीं डाल सकती परन्तु दलित समाज को झूठे झगड़ों में डाल कर अंग्रेजी प्रेस, ईसाई संगठन और छद्म विदेशी शक्तियां उनकी सबसे जरूरी मांग, मातृभाषा में शिक्षा और अवसर की समानता से भटकाने में समर्थ रही हैं जिसके साथ बीच बीच में मुस्लिम कट्टरतावादी भी जुड़ जाते हैं जिनके भी विपन्न वर्गों का हित मातृभाषा से जुड़ा है। इसकी ताजी मिसाल हैदराबाद से चला आन्दोलन है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तीसरी यह कि हिन्दी क्षेत्र में राष्ट्रभाषा प्रचार समितियों और संगठनों को दक्षिण भारतीय भाषाएं सिखाने का काम उसी तरह करना चाहिए जैसे दक्षिण भारतीय क्षेत्र में इनको हिन्दी सिखाने और इसका प्रचार करने में लगाना चाहिए। यदि हिन्दी प्रेमी विश्व हिन्दी सम्मेलन करने की जगह भारत पर सांस्कृतिक आक्रमण कर दें, जिस तरह दूसरी भाषाओं के दर्जनों ऐसे लोग मिलते हैं जो अधिकार से हिन्दी बोल और लिख लेते है, उसी तरह हिन्दी भाषियों में भारत की सभी भाषाओं पर अधिकार रखने वाले, उनमें लिखने और प्रवाह के साथ बोलने वाले दर्जनों विद्वान पैदा हो सकें तो वह सारा तनाव शिथिल हो जाएगा जिनके कारण सभी भारतीय भाषाओं का अहित हुआ है और शिक्षा की भाषा व्यावसायिक भाषा बन चुकी है जिस तक ग़रीबों की पहुँच नहीं और जिसके कारण यह आंतरिक उपनिवेशवाद पैदा हुआ है। लोकतन्त्र में बड़ी ताकत है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">'कोई तुम्हारी सुनेगा भी। यह तो रस्म अदायगी हुई। भाषण अच्छा ही दिया तुमने।''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''मैंने इसे यथार्थ में बदलने की अपनी छोटी सी कोशिश में पचास हजार की वह रकम यह कह कर समिति को सौंप दी कि इसे तमिल सीखने वाले या उस पर पकड़ रखने वाले किसी हिन्दी भाषी विद्वान को दें और उन्होंने इस प्रस्ताव और धनराशि को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इससे प्रेरणा तो मिलेगी ही।''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">'' तुम भावुक मूर्ख हो। इसकी क्या जरूरत थी।''</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">''भावुक मूर्ख मैं नहीं, महिमा मेहता हैं। यह पुरस्कार नरेश मेहता की स्मृति में उन्होंने आरंभ की जिसे गोविंद चन्द्र पांडे और यशदेव शल्य जैसे लोग प्राप्त कर चुके हैं। नरेश जी ने बहुत आर्थिक तंगी झेली थी पर जीवन में कभी न माथा कहीं झुका न ठसक कम हुई और पुरस्कारों से मिली जो धनराशि थी उसे शायद अपने उपयोग तक में नहीं लिया और उससे यह निधि बनी है। इतनी पवित्र उपलब्धि का उपयोग उसी विनम्रता से किसी अन्य योजना के लिए होना जरूरी था। तमिल की शिक्षा का भारत के लिए उतना ही महत्व है जितना संस्कृत शिक्षा का।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1012603168801089</span></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-26246921794806997752016-01-30T12:38:00.000+05:302016-01-30T12:38:01.549+05:30न समझे हैं न समझेंगे<div style="text-align: center;">
<b>न समझे हैं न समझेंगे कभी हिन्दोस्ताँ वाले</b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>छिपे दुबके रहेंगे अपने अपने आशियानों में।</b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>कुलों में जातियों, फिरकों में मजहब के झमेलों में</b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>फसाना बन कर रहना चाहते हैं वे फसानों में।।</b></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
अदायगी की दाद दी तो वह सिर पर सवार हो गया। बोला लो कुछ और सुनाता हूँ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने रोक दिया। धीरज की परीक्षा मत लो। है तो यह इक़बाल की पैरोडी ही न। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसका उत्साह ठंडा पड़ गया। मानना पड़ा कि है तो पैरोडी ही, पर बताया कि उर्दू में पैरोडी को ऊँचा दर्जा हासिल है। लोग दूसरों के मिसरे ले कर अगला मिसरा ठोंक देते हैं और इसी से अपने को उसकी बराबरी का मान कर आईने के सामने अपनी पीठ थपथपाते हैं। फिर एकाएक छलांग लगाया, ‘यह बताओ, तुम्हें मुस्लिम लीग से ही घृणा क्यों है?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जी में आया एक जोर का मुक्का उसके मुँह पर, सीधे नाक पर, मारूँ और पूछूँ यह खयाल तुझे आया कहाँ से? पर सोचा मेरे मुक्के से इसका कुछ बिगड़े या न बिगड़े, उत्तेजित हो कर वह जो घूँसा जमाएगा, उससे मेरे होश हवास गुम हो जाएँगे। इसलिए समझदारी का आविष्कार करते हुए कहा, ‘‘क्या मैं यह नहीं कह आया हूँ कि जो जिससे घृणा करता है उसे समझ नहीं सकता?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसके पास कोई जवाब नहीं था, चुप रहा, पर उस तरह की चुप्पी जिसका अर्थ होता है, उत्तर नहीं सूझ रहा है परन्तु मैं तुम्हारे विचार से सहमत नहीं हूँ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘मैं जानता था। सहमत होने या समझने के लिए भी कुछ समझ तो होनी चाहिए’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘पहेलियाँ मत बुझाओ।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
क्या तुम्हें पता है कि मुस्लिम लीग अंग्रेजों की चाल से ही नहीं, हमारी मूर्खता और बंगाली स्वार्थपरता से पैदा हुई थी। देखो यह मेरी समझ है। कोई दूसरा इसकी छानबीन करे तो इसमें गलतियाँ निकल सकती हैं।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“मैं समझूँ तो, कि तुम कहना क्या चाहते हो।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
देखो, अंग्रेजों ने कलकत्ता को अपनी राजधानी बनाया। इसमें ही शिक्षा और अमलातन्त्र तैयार करने के अपने प्रयोग किए। अंग्रेजी राज के नीचे से एक बंगाली राज आरंभ हुआ। बंगाल एक बड़ा राज्य था। इसके भीतर बिहार का भी काफी हिस्सा आता था। असम और ओडिशा का भी समावेश इसी में था। इनकी शिक्षा की भाषा बंगला कर दी गई थी। अध्यापक, डाक्टर, वकील, सरकारी नौकर सब में बंगालियों का प्रभुत्व था और हालत यह की बंगालियों को लम्बे समय तक मुगालता रहा की वे एक सुपीरियर रेस हैं। उनके आचार व्यवहार में इसकी छाया आज तक बची मिलेगी। बंगाली आधिपत्यवाद के चलते ओड़िया, मैथिल, असमिया और पूर्वी बंगाल की भाषाओं को बांग्ला की बोलियाँ माना जाता था। स्थानीय लोग इससे असन्तुष्ट और कुंठित अनुभव करते थे, परन्तु यह आधिपत्य भाव बंगाल के उदार माने जाने वाले लोगों में भी था। ठीक उस समय जब कांग्रेस स्वायत्तता की माँग की दिशा में बढ़ रही प्रशा सनिक तकाजे की आड़ में साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने में ब्रिटिश कूटनीति को सफलता मिली। यदि कुछ परिपक्वता दिखाई जाती, इस प्र शासनिक विभाजन को प्र शासन की समस्या मान कर इसकी ओर ध्यान न दिया गया होता तो इसने दोफाँक बटवारे का रूप नहीं लिया होता। इसकी सबसे बड़ी विषेशता थी कि कांग्रेस के भीतर हो या बाहर सभी मुसलमान विभाजन के पक्ष में थे, और सभी हिन्दू इसके विरोध में। कहें मनोवैज्ञानिक आधार पर पाकिस्तान की नींव इसी समय पड़ गई थी जिससे वह सूत्र निकला था कि मुसलमान हिन्दुओं के साथ सुख-चैन से नहीं रह सकते। जिन्ना ने इसे अधिक तार्किक बना दिया। मोटे तौर पर तुम कह सकते हो, सभी मुसलमानों के भीतर मुस्लिम लीगी चेतना दबे या खुले रूप में बनी रही है, जब कि हिन्दुओं में इसने इतना स्पष्ट तेवर नहीं लिया फिर भी इससे बचा शायद ही कोई था।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम इसे बहुत इकहरा बना दे रहे हो।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“हाँ इकहरा तो है, इकहरा इसलिए है कि हम इसके उजागर पक्ष को ले रहे हैं। चेतना के स्तर पर इसकी जड़ें बहुत पीछे तक, तुम कहना चाहो तो मध्यकाल तक, और आगे बढ़ना चाहो तो मुहम्मद साहब तक और उससे भी पीछे ले जाना चाहो तो ईसाइयत के विस्तार काल या उसके जन्म काल तक ले जा सकते हो। हम कोई निर्णय लेते समय कई युगों और युगान्तरों के सूत्रों से प्रभावित होते हैं। वे दिखाई नहीं देते पर उनका दबाब कम निर्णायक नहीं होता।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम्हारा जवाब नहीं भाई! भइस बिआनी मोहबा गढ़ में पढ़वा गिरा फरुख्खाबाद! लीग को लिए दिए पहुँच गए ईसाइयत के जन्म तक।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“इसलिए कि मुस्लिम मनोरचना के निर्माण में सामी पृष्ठभूमि का बहुत बड़ा हाथ है परन्तु मुहम्मद साहब ने उस प्रभाव को मेरे अनुमान से ईसाइयों से अपनाया था और कुछ दूर तक उन्हें ही माडल बनाया था। यह जो हिजाब है, यानी बुरका का चलन ईसाई ननों से आया लगता है । जिस कबीले में मुहम्मद साहब का जन्म हुआ था वह तो मातृप्रधान था और जिन बद्दुओं के बीच उनका बचपन बीता था उसमें तो महिलाओं को बहुत स्वतन्त्रता थी। यह ईद, बकरीद, बुतपरस्ती का विरोध सब, नामकरण और माइथालोजी तक। जालीदार टोपी जो हाल में बड़ी लोकप्रिय हुई है पोप के सर पर भी दिखाई दे जायेगी। तो मुस्लिम मनोरचना में अस्मिता के ये जो सूत्र हैं बहुत दूर तक जाते हैं और समय समय पर बखेड़े इनके माध्यम से ही पैदा किए जाते रहे हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“और बंगाल के जिस बटवारे की बात कर रहा हूँ वह भी सन 1904 में या 1905 में एकाएक नहीं आ गया। इसकी तैयार उन्नीसवीं शताब्दी में ही आरंभ हो गई थी।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“विश्वास नहीं होता। तुम अक्सर अति पर चले जाते हो।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“पहले सुनो। जान बीम्स ने जो बहुत अच्छा भाषाषास्त्री था और जिसने कंपैरेटिव ग्रामर आफ आर्यन लैंग्वेजेज लिखा था, उसकी मदद से या उकसावे से फकीर मोहन सेनापति ने ओडिया जागरण का मन्त्र फूँका और उसे एक अलग स्वतन्त्र पहचान दिलवाई। असमिया को अलग पहचान के लिए हेमचन्द्र बरुआ, शायद यही नाम था, वे संघर्ष से जुड़े थे। बंगालियों को यह जो अग्रता मिली थी वह कलकत्ता केन्द्रित थी इसलिए जैसे ओड़िया, असमिया और मैथिल भाषी नौकरियों और अन्य मामलों में उपेक्षित अनुभव करते थे उसी तरह पूर्वी बंगाल के लोग भी अपने को उपेक्षित अनुभव करते थे। पूर्वी बंगाल में मुसलिम आबादी अधिक थी, इसलिए प्रषासनिक सुविधा की आड़ में कहो, या सचमुच इस तकाजे से जब उसे बंगाल से अलग प्रान्त बनाने की घोशणा की गई तो पश्चिम बंगाल के हिन्दुओं ने इसे बंगभंग की संज्ञा दे कर हिंसक आन्दोलन आरंभ कर दिया। यह बंगभंग से अधिक उनके अपने वर्चस्व की लड़ाई थी। अब यहाँ से एक भौगोलिक विभाजन ने साम्प्रदायिक विभाजन का रूप ले लिया। 1905 में बंगाल का विभाजन हुआ था, 1906 में इसे हिन्दू मुस्लिम हितों का प्रश्न बना कर मुस्लिम लीग की स्थापना ढाका में हुई यद्यपि इसमें भाग लेने वाले 3000 प्रतिनिधियों में भारत के अमीर मुसलमानों के प्रतिनिधि ही थे।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मुस्लिम लीग की सबसे बड़ी दुर्बलता सर सैयद की उस आकांक्षा से पैदा हुई जो उन्होंने इंग्लैंड दर्शन के बाद, इंग्लैंड की हर दृष्टि से अग्रता देख कर उनके निकट आने की आकांक्षा में वैसे ही विश्वविद्यालय का सपना देखा और शिक्षा में मुस्लिम पिछड़ेपन को दूर करने के लिए शिक्षा का भार अंग्रेज प्रिंसिपल को दे दिया। जब कि मालवीय जी ने इस तरह की भूल नहीं की। संस्कृत कालेजो की बात अलग थी। वे सरकारी पहल पर खोले गए थे और सरकार ही उनके प्रिंसिपल की नियुक्ति करती थी। इसके माध्यम से वह संस्कृत विद्वानों में अपनी पसन्द का प्राचीन भारतीय इतिहास उतारती रही और इसलिए इन कालेजों के माध्यम से निकले संस्कृत विद्वान आर्य आक्रमणवादी बनते चले गए। शिक्षित मुस्लिम समाज की मनोरचना के निर्माण का काम उन्हें सौंप देना जो उस समाज का अपने लिए उपयोग करना चाहते थे, एक भारी भूल थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
परन्तु भुलाया नहीं जाना चाहिए कि आरंभ में मुस्लिम लीग मुस्लिम हितों की चिन्ता करने के लिए बनी थी। स्वतन्त्रता आन्दोलन तेज होने के साथ इस संभावना से इसने दहशत का रूप लेना शुरू किया और फिर हिन्दू-द्रोह ही नहीं हिन्दू जान-माल और सम्मान को मिटाने की डरावनी मुहिम बनती चली गई। अलगाव को तीखा करने के हथकंडे अपनाने लगी जो कलकत्ता के दंगे में या सुहरावर्दी के डाइरेक्ट ऐक्शन में देखने में आया। यह जानते हुए कि दंगा इतना बड़ा रूप लेगा तो पहले हिन्दू भले अधिक मारे जाएँ अन्ततः मुसलमानों को ही भुगतना होगा। उस दंगे में हिन्दुओं से अधिक मुसलमान मारे गए थे। पर नफरत की नहीं तो दहशत की दीवार खड़ी करने के उद्देश्य में तो सफल हो ही गए। हैरानी की बात यह कि जिन्ना पाकिस्तान की माँग मनवाने के लिए डाइरेक्ट ऐक्शन की खुली धमकी दे रहे थे और नोआखाली आदि में जो हुआ उसने मुस्लिम लीग का चेहरा अधिक हिन्दूद्वेषी बना दिया । </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
दुख की बात यह है कि इसी मुसलिम लीग की आत्मा का प्रवेश वामपन्थी आन्दोलन में हिन्दू समाज को विकृतियों का घर, इसके इतिहास को मलिताओं से ग्रस्त और हिन्दू सांस्कृतिक प्रतीकों को जहालत का प्रमाण बताते हुए, इन्हें दूर करने के नाम पर अभियान चलाए जाते रहे। जितना ही अधिक तेज आन्दोलन उतना ही अधिक गर्हित होता हुआ हिन्दू समाज। इसी के अनुरूप इतिहास लिखवाये जाते रहे, फिल्मों में इसे जगह जगह घुसाया जाता रहा, साहित्य में इसे प्रोत्साहन दिया जाता रहा और तर्कवाद के नाम पर बहुत कुछ ऐसा किया जाता रहा है जो न किया जाता तो पूरे देश का भला था। मुस्लिम हितों की चिन्ता करने वाली लीग को मैं उचित मानता हूँ और उसकी परिणति को देश और मुसलिमों सहित पूरे समाज के लिए अनिष्टकारी मानता हूँ।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
11/20/2015 12:56:29 PM</div>
Astrologer Sidharthhttp://www.blogger.com/profile/04635473785714312107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-89686608905823905422016-01-30T12:34:00.002+05:302016-01-30T12:34:38.095+05:30इतिहास पुरुष की वापसी<div style="text-align: justify;">
‘‘तुम्हारे इतिहास पुरुष की तो वापसी की गिनती शुरू हो गई। मैं तो उस दिन को सोच कर डर जाता हूँ, जब इतिहास उसे हा शिए पर डाल देगा और उसके साथ तुम भी हा शिए पर चले जाओगे।’’ वह खासे उत्साह में था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘तुम्हारी महिमा में कुछ विरुदावलियाँ बहुत पुराने जमाने से लिखी जाती रही हैं, कभी पढ़ा है तुमने?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वह उत्सुकता से मेरी ओर देखने लगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘वैसे विरुदावली तो मेरी भी लिखी गई है, पर मैं उसका पाठ स्वयं कर लेता हूँ, दूसरे किसी को इतने छोटे काम के लिए कष्ट क्या देना!’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘बताओगे भी क्या लिखा है या पहेलियाँ ही बुझाते रहोगे।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘तुम्हारी महिमा का गान तो अनन्त है, पर दो ही पर्याप्त होंगे। एक हिन्दी में दूसरी देवभाषा में। हिन्दी में है, ‘मूरख हृदय न चेत जो गुरु मिलहिं विरंचि सम।’ गरज कि मैं कितना भी समझाउूँ कोई बात तुम्हारे भेजे में घुस ही नहीं सकती, और संस्कृत में है, ‘तावदेव शोभते मूर्खः यावत् किंचिन्नभाषते।’ अर्थात् जब तक तुम मेरी बात चुपचाप सुनते रहते हो तब तक भरम बना रहता है और मुँह खोलते ही असलियत जाहिर हो जाती है।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मेरी बात सुनते हुए वह मुस्कराता रहा, ‘‘और तुम्हारी महिमा में क्या लिखा है?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘‘वक्तुरेव हि तज्जाढ्यं यत्र श्रोता न बुझ्यते।’ कि अगर मेरी बात तुम्हारी समझ में नहीं आती है, तो यह मेरी जड़ता है।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘चलो हिसाब बराबर!’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘बराबर कैसे होगा। मैं समझाता हूँ तुम समझ जाते हो, फिर अगले दिन सारे किए कराए पर पानी फिर जाता है। फिर वहीं से शुरू करते हो, इसे कम्बलबुद्धि मूर्ख कहा जाता है।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘मुझे यह सोच कर मजा आ रहा है कि तुम असलियत भाँप कर अभी से सदमे में आ गए हो। अन्तिम चोट तो तुम सँभाल ही नहीं पाओग। मुझे उसकी नहीं, तुम्हारी फिक्र हो रही है!’’ सच। उसने चिन्ता जताते हुए चिन्तित होने का अभिनय भी करना चाहा।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो उसने आगे जोड़ा, ‘एक आदमी एक चुनाव जीत गया तो तुमने उसे इतिहास पुरुष बना दिया। तो बिहार के चुनाव ने यह दिखा दिया कि इतिहास तुम्हें ठुकरा चुका है। अब देखो तो तुम्हारा इतिहास पुरुष न विकास कर पा रहा है, न महँगाई रोक पा रहा है, न विदेशों में जमा पैसे वापस ला पा रहा है, न अपने साथियों और सहयोगियों की नकेल कस पा रहा है। जिसे एक छोटी सी सफलता पर तुमने इतिहास पुरुष बना दिया था और कहने लगे थे उसे जो वह चाहे करने दो उसे इतिहास ने धक्के देना शुरू कर दिया न। कमाल की समझ है। इसी पापुलिज्म से फासिज्म पैदा होता है, भाई। इसी पापुलिज्म से हिटलर और उसका राष्ट्रवाद पैदा हुआ था, नाजीवाद। हम इसे आने नहीं दे सकते। हम अपनी जान देकर भी इसे रोकेंगे।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं तो सचमुच घबरा गया। जान दे बैठा तो बात किससे करूँगा। समझाया, देखो, तुम्हें जान देने की जरूरत नहीं है। सिर्फ अक्ल से काम लेने से काम चल जाएगा। पहली बात तो यह समझो कि जब मैं इतिहास पुरुष कहता हूँ तो इसका मतलब यह नहीं कि वह इतिहास बदल सकता है। कालदेव के सामने तो मैं पहले ही बता चुका हूँ कि एक व्यक्ति तो क्या पूरे पूरे आन्दोलन और दल तक एक तुच्छ खिलौने से अधिक कुछ नहीं। मेरा मतलब सिर्फ यह था कि वह इतिहास के एक खास बिन्दु पर पैदा प्रशासनिक शून्य को भरने के लिए कालदेव द्वारा सबसे उपयुक्त व्यक्ति उसे ही पाया गया था। चुनाव से एक साल पहले ही यह घाषित हो गया था कि हमारे मनमोहन सिंह उस कागज के टुकड़े से भी गए बीते हैं जिसे राहुल ने सार्वजनिक रूप से फाड़ कर फेंक दिया था। जो बात राहुल और उसकी अभिभाविका को पता नहीं थी, वह यह कि आर्थिक अपराधों में सीधी और खुलेआम संलिप्तता के कारण इतिहास ने उन्हें भी फाड़ कर फेंक दिया है। उसके बाद ही जनमत संग्रहों में इस शून्य को भरने वाले व्यक्ति के रूप में मोदी का चुनाव हो गया था। यह कालदेव का चुनाव था। जनता के सहज मन की अभिव्यक्ति जिस पर चुनावी प्रचार की कीचड़ और कालिख का निशान न था। इसके बाद चुनाव एक औपचारिकता थी। यदि मोदी कुछ नहीं करते एक वाक्य का भाषण देते कि आप यदि चाहते हैं कि मैं इस देश का नेतृत्व करूँ तो केवल मुझे नहीं, जिसे जिसे मैं कहूँ उसे भी चुन कर भेजिए कि मैं पूरे श्रम और सहयोग से काम कर सकूँ तो भी नतीजा वही होता जो बेकार की डंकेबाजी से हुई। ढोल नगारे से बहुत कम लाभ होता है और अक्सर तो नुकसान होता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘यदि मनमोहन सिंह उतने बेअसर, हो कर भी अनुपस्थित, न होते और कांग्रेस का आलाकमान यह सोच कर कि अपने दिन लद गए जो हाथ लगे समेट लो की हड़बड़ी में न आ गया होता तो चुनाव दलों के बीच होता, व्यक्तियों के बीच नहीं। परन्तु यह जो ताबड़तोड़ हुआ वह वह भी कालदेव के इशारे पर ही, विनाशकाले विपरीत बुद्धि के तर्क से ही, या जैसा कहते हैं देवता लाठी डंडे से नहीं मारते हैं, मति ही फेर देते हैं, और तुम खुद अपने विनाश की प्रक्रिया तेज कर देते हो, इसे कालदेव का इशारा और इतिहास पुरुष का चयन कह सकते हो। इससे पहले ऐसी नौबत कभी नहीं आई थी। इतनी बात समझ में आई या कुछ कमी रह गई है।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘मैं तो उस पर बहस ही नहीं कर रहा था। मैं तो कह रहा था उसे उसी इतिहास ने वापस लौटाना शुरू कर दिया है और उसका सदमा तुम्हें झेलना पड़ेगा।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘तुम्हें यह भूल गया कि मैंने विचारक और संस्कृतिकर्मी और यहाँ तक कि छात्रों और अध्यापको तक को व्यावहारिक राजनीति से अलग रहने की बात कही थी। इससे उनका अपना काम प्रभावित होता है। राजनीति की समझ तक प्रभावित होती है। अच्छे बुरे का फर्क नहीं रह जाता। जिस राजनीति से जुड़े हो, सिर्फ उसे सही मानने की आदत पड़ जाती है। निर्णय क्षमता खत्म हो जाती है। इसलिए मेरे विचार को चुनाव परिणाम प्रभावित नहीं कर सकते। और अगर चुनावी हार से ही वापसी शुरू होनी थी तो यह बात तो इससे भी अधिक सशक्त रूप में दिल्ली के चुनाव ने घोषित किया था। बिहार की स्थिति तो फिर भी अच्छी है।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘तुम कहना चाहते हो, बिहार के चुनाव परिणामों से तुम्हें निराशा नहीं हुई?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘निराशा हुई, पर उन कारणों से नहीं, जिन्हें तुम गिना रहे हो, या अखबार लट्ठ ले कर पीट रहे हैं। निराशा हुई इतिहास पुरुष की हार से।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वह उछल पड़ा, ‘‘भई यही तो मैं कह रहा था।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘तुम तो यह भी नहीं जानते कि बिहार के सन्दर्भ में इतिहासपुरुष कौन था? उसी प्रशासनिक शून्य से जो दूसरा संभावित विकल्प उभरा था वह नीतीश कुमार थे। उनसे आशा थी कि यदि विविध कारणों से मोदी को अवसर नहीं मिलता है तो स्वच्छ प्रशासन और विकासोन्मुखी दिशा नीतीश दे सकते हैं।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘नीतीश तो जीत ही गए। कल शपथ ग्रहण करेंगे।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘देखो, बिहार में मोदी बनाब नीतीश चुनाव नहीं था, सुशील बनाम नीतीश था। बिहार के लिए नरेन्द्र मोदी उपलब्ध नहीं थे। हर हालत में नीतीश को जीतना था। नरेन्द्र मोदी इतिहास के संकेत के विरुद्ध अपनी शक्ति आजमा रहे थे। मैं यह भी कह आया हूँ अपार शक्ति भी कालदेव के रास्ते में धूल गर्द साबित होती है। निष्प्रभाव। शक्ति अधिक लगी तो परिणाम अधिक विपरीत होंगे। इसलिए नीतीश अकेले दम पर उसी तरह जीत सकते थे जिस तरह केन्द्र के लिए मोदी जीते थे। वह चुनाव से पहले ही हार गए और हारते चले गए। तुम एक हारे हुए मुख्यमन्त्री को कल शपथ लेते देखोगे।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘अजीब आदमी हो। मुँह छिपाने को यही बहाना मिला था। कहते तो मैं अपना रूमाल निकाल कर दे देता।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘ पहली हार गठबन्धन के रूप में आई। जिस भ्रष्टाचार के विरुद्ध उन्हें इतिहास पुरुष के रूप में चुना गया था, उसके लिए विख्यात दल के साथ गठबन्धन। दूसरी नरवसनेस के रूप में आई, तान्त्रिक के पास भागने लगे। तीसरा, विकास का स्थान जातिवादी समीकरण ने ले लिया और जातिवाद को उभारतने के लिए उस विज्ञापन एजेंसी की मदद लेनी पड़ी जिसे यह भ्रम था कि मोदी का प्रचारतन्त्र उसके हाथ में था इसलिए वह जीते थे। और अन्तिम परिणाम इसके अनुरूप होना ही था, जातिवादी समीकरण में आगे पढ़ने वाला सहयोगी आगे पहुँच गया, निर्णयशक्ति उसके पास आ गई, नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने से ले कर बाद के सभी निर्णय, जैसे मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने से ले कर बाद के निर्णय पीछे से लिए जाते थे। सकल लब्धि यह कि विकास पीछे चला गया जातिवाद की वापसी हो गई। इतिहास आगे चला गया वर्तमान पीछे लौट गया। मैं इतिहासपुरुष की इस त्रासदी से दुखी हूँ। भाजपा की हार से नहीं।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसे काटो तो खून नहीं। मैंने अन्त में जोड़ा, ‘‘और वह जो फासिज्म वासिज्म की बात है न उसका एक जवाब इतिहासपुरुष ने अन्तर्राष्ट्रीय मंच से दिया है। ध्यान दिया तुमने?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसकी समझ में नहीं आया, मैं कह क्या रहा हूँ। मैंने कहा, ‘‘उसने कहा, जिन शब्दों और प्रवृत्तियों से खतरा है उनका अवसरवादी उपयोग न करो, डिफाइन करो। परिभाषित करो और फिर बात करो। जो बात उसने टेररिज्म के विषय में यूएनओ में कही, वही वह तुमसे कहता आया है। पहले सम्प्रदायवाद, भगवावाद, फासिज्म को परिभाषिात करो फिर बात करो। बताओ जो सबका साथ सबका विकास का सपना ले कर चलता है वह क्या है और जो जाति, धर्म समुदाय के नाम पर बाँट कर रखना चाहता है वह क्या है।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
11/18/2015 12:54:46 PM</div>
Astrologer Sidharthhttp://www.blogger.com/profile/04635473785714312107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-13855623494134182212016-01-29T19:19:00.000+05:302016-01-29T19:19:20.618+05:30नाच न जाने आंगन टेढ़ा<div style="text-align: justify;">
“तुम को कभी कभी पीटने का मन करता है।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“इसमें बुराई क्या है। जिसके पास जो औजार है उसी का इसतेमाल तो करेगा। अक्ल होती तो अक्ल की बात करते, नहीं है तो लाठी डंडे से ही बात करो। लाठी- डंडा ले कर आना चाहिए था। खाली हाथ क्यों चले आए।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“ मैं मज़ाक नहीं कर रहा हूँ। मुझे अपनी बात रखने का मौका दिए बिना ही उठ जाते हो, ‘चलो, अब चलें!’ के अन्दाज में। यह बात करने का कोई तरीका है?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तो अब कह लो, जो कल न कह पाए।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम पढ़ते-लिखते हो भी या जो जी में आया बकते चले जाते हो?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“सोचता हूँ जब पढ़ने वाले आसपास हैं, तो उनको सुन कर जान लूँगा, देखने वाले कम हैं, जितना देख सकूँ देखूँ। तुम बताओ क्या पढ़ना रह गया मुझसे?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुमने कहा, सारे दंगे कांग्रेस ने कराए हैं। उस शोध कार्य का पता है जिसमें बताया गया है कि दंगे इसलिए भड़कते रहे कि पुलिस बल का सांप्रदायीकरण हो गया था। और जानते हो, यह ऐसी पाये की बात है, जिसके लिए अंग्रेजी में एक मुहावरा है, ‘फ्राम हार्सेज माउथ।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“मुहावरे कई बार समझ में नहीं आते। तुम कह रहे हो वह सांप्रदायिक हो चुका था, और बता रहा था कि वह कैसे सांप्रदायिक हुआ?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“नहीं, वह सांप्रदायिक हो चुका होता तो यह बताता क्यों। वह अकेला बच रहा था और दूसरे सभी सांप्रदायिक हो चुके थे।“ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“क्या उसमें यह भी है कि कब तक सांप्रदायिक नहीं थे और कब और किन कारणों से सांप्रदायिक होने लगे और सांप्रदायीकरण की व्याधि कयों इस कदर फैलती चली गई कि उसके सिवा कोई बचा ही नहीं।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“वह अचकचाया।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“फिर तुमने मुहावरा भी गलत चुना। घोडे के मुँह से नहीं, तुम्हें कहना चाहिए था साईस के मुँह से। वह जिसे घोड़ों को साधने और सही खूराक देने, सही हालत में रखने की जिम्मेदारी दी गई थी, वह अपना काम करना तो जानता ही नहीं था, दोष उनको दे रहा था जो उसकी लापरवाही या बेवकूफी से सांप्रदायिक होते चले गए थे। इसके लिए भी अंग्रेजी में और हिन्दी में भी और सच कहो तो दूसरी भाषाओं में भी मुहावरा मिल जाएगा । अंग्रेजी का मुहावरा है अनाड़ी कारीगर अपने औजार को दोष देता है। ए बैड वर्कमैन ब्लेम्स हिज़ टूल्स। इसका हिन्दी रूप हैं नाच न आए आँगन टेढ़ा। और मैंने दूसरी भाषाओं में भी इसलिए कह दिया कि इसी बीच तमिल मुहावरा ‘नाट्ट माट्टादु तेवळियाळुक्कु कूलम् कोणम्” याद आ गया अर्थात नाच न जानने वाली देवदासी को आँगन टेढ़ा लगता है। खैर, तुम उस आदमी से कभी मिले हो?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“मिलने न मिलने से क्या होता है?” </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“मिलते तो पता चलता कि वह नजदीक की चीजों को देख पाता है या नही?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम्हें बातों को विचित्र बनाने का रोग है।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“भई ये लोग जो सर्विसेज की तैयारी करते हैं न, उन्हें बहुत दूर की चीजें देखने की ऐसी आदत पड़ जाती है कि नजदीक की चीजें देख नहीं पाते। वे चर्मचक्षु से नहीं लोभचक्षु से देखने लगते हैं। वह दोहा, बिहारी का है, शायद, ‘दिये लोभ चसमा चखनु लघु पुनि बड़ो दिखाय।’ तो उन्हें थोड़ी भी चीज बहुत बड़ी और बहुगुणित दिखाई देने लगती है। उसे जब अपने विभाग को, कम से कम अपने अधीनस्थ बल को अपने नियन्त्रण में रखना चाहिए था, निर्देशों- आदेशों का सही पालन करना सिखाना था तब उस जरूरी काम को छोड़ कर वह शोध कार्य करने लग गया। शोध की प्रेरणा और सूझ या तो कहीं से मिली होगी या उसने खुद ही भाँप लिया होगा कि कहाँ से किस तरह क्या हासिल किया जा सकता है। यह बताओ इतने निकम्मे साईस को सिपहसालार का ओहदा मिला या नहीं?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“सिपहसालार तो वह पहले से था। उसे और क्या चाहिए था?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“कुछ उससे भी बड़ा। वह जिसे मैंने कहा था, छोटा मोटा उपराज्य!”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वह थोड़ी देर सोचता सा लगा और फिर जोर की धौल मेरी जाँघ पर मारते हुए हँसा, ‘‘अब समझा, अब समझा, हाँ भाई मिला तो, मिला तो, वह वाइस चान्सलर हो गया था।“ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘तुम पता यह भी लगाना कि वह अलीगढ़ पावर सेंटर से तो नहीं जुड़ा। मैंने सुना जुड़ा था। वहाँ से जुड़ने के बाद लोग अपना काम भूल जाते हैं और इतिहासकार बन जाते हैं, इतिहास में हिन्दुओं को शास्त्रीय गालियाँ देने की योग्यता अर्जित कर लेते हैं। कोसंबी जैसा विलक्षण प्रतिभा का आदमी अलीगढ़ पावर सेंटर से जुड़ने के बाद अपनी डगर भूल गया था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“मैंने सुना इसने भी रास्ता उधर ही मोड़ लिया था। उस पावर सेंटर का प्रताप ऐसा है कि उसे इतिहास का निर्माता कहा जाता है। उसके कंट्रोलर की महिमा में जो प्रशस्ति ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था और जिसमें साम्प्रदायिक पैंतरेबाजी में माहिर सारे इतिहासकारों के लेख थे उसका शीर्षक कुछ ऐसा ही था। इतिहास निर्माता जैसा। इतिहास में केवल यह तलाश कर के कोई ला दे कि हिन्दू इतिहास, हिन्दू समाज, हिन्दू मूल्य कितने गर्हित है, हिन्दू समाज कितना सांप्रदायिक है, हिन्दी और हिन्दुस्तान सांप्रदायिकता से जुड़े हुए पद है, हिन्दी में लिखते हुए भी हिन्दी लेखकों को हिन्दीवाला कहने की आदत पड़ जाय तो उसे बाँस लगाकर ऊपर चढ़ा दिया जाता है। ऊपर वह चढ़ भी गया, अपना पुलिस का महकमा सँभाल न पाने वाले को उठा कर सर्वाधिकार संपन्न कुलपति बना दिया गया।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘तुम विषय से भाग रहे हो और व्यक्तिगत आरोप लगा रहे हो जिसे तुम स्वयं भी अच्छा नहीं मानते।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘मेरा तो इस ओर ध्यान भी उसी ने दिलाया। उसने अपने ही पत्र के संपादकीय में साहित्य अकादमी के अध्यक्ष को सांप्रदायिक करार दे दिया और बताया कि वह इस पद के योग्य नहीं थे और इसे जोड़ तोड़ से हासिल किया है। तब मुझे सचमुच वह जोड़-तोड़ दिखाई दिया जो इस व्यक्ति ने किया था। अरे भई जोड़ तोड़ की भी अपनी साधना होती है। ये साधक लोग है सिद्धि प्राप्त भी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
”लगातार दस साल तक या कम से कम सौ अंकों तक एक पत्रिका अपने पैसे से निकाल कर वह ऐसे तैसे को भेजता रहा और इस तरह संपर्कसूत्र जोड़ते हुए उन भाषाओं के प्रतिनिधियों तक को पटा लिया जिनको हिन्दी साहित्यकारों से चिढ़ थी। अज्ञेय तक जिसे न पा सके उसे उसने पहली बार पाया। योग्यता इतनी बुरी नहीं। वक्ता अच्छा है, एक विश्वविद्यालय में अध्यक्ष रह चुका है और जैसा मैं पहले कह चुका हूँ संस्थाओं के शीर्ष पदो पर दोयम दर्जे के साहित्यकारों और विद्वानों को या चुके हुए लोगों को ही जाना चाहिए, क्योंकि वहाँ प्रतिभा की नहीं प्रबन्धन की आवश्यकता होती है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“परन्तु इस आत्मप्रक्षेपण में ही तुम्हारे शोधकर्ता का अपना रहस्य और अपना जोड़तोड़ भी उजागर हो गया। तभी तो कहता हूँ हम जो लिखते या बोलते हैं उसे लोग अपने ढंग से पढ़ते और सुनते हैं और अपने को परदे से ढकने की को शिश में भी लोग अपने को नंगा कर देते हैं।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘तुम जिसके पीछे पड़ जाते हो...’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘पीछे मैं नहीं पड़ा। मोर्चे पर तुमने सिपाही को खड़ा कर दिया । इसे तो यह भी पता नहीं कि वह जो नतीजा निकाल रहा था उसका मतलब क्या है?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘मतलब भी तुम्हीं बता दो।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘जिस नतीजे पर पहुँच कर भी वह उसका सारा दोष अपनों पर मढ़ देता है, वे सीधे एक नरसंहार के अपराधी हैं जिसके लिए अर्धसैन्य बल को उकसाया गया था। वे यदि स्वतः ऐसा कर बैठे तो उनके विरुद्ध शीघ्र और कठोर कार्रवाई सरकार को करनी थी, उसने उन्हें संरक्षण दिया। उन्हें बचाने का काम किया। अर्थात् पुलिस बल को कांग्रेसी दौर में योजनाबद्ध रूप में सांप्रदायिकत बनाया जाता रहा जिससे सांप्रदायिक समस्या बनी रहे और इसका चुनावी लाभ उठाया जा सके। असहिष्णुता कांग्रेस पैदा करती है और आज भी कर रही है।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘बात तो हैरान करने वाली है पर, यार, नतीजा तो यही निकलता है।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘देखो, पुलिस बल को अपनी ट्रेनिंग के दौरान कोई ऐसा पाठ नहीं पढ़ाया जाता जिससे उसे सांप्रदायिक बनाया जा सके। यदि पुलिस बल का सांप्रदायीकरण हो गया है तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं। उस समाज का सांप्रदायीकरण हो चुका है, जिसमें से पुलिस बल के लोग आते हैं, और अलीगढ़ पावर सेंटर के लिए इतना ही काफी है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“परन्तु यह सही होता तो उस समय से ही सत्ता दक्षिणपन्थी हाथों में होती जो नहीं थी। वह कांग्रेस को ही वोट दे रही थी। अतः हिन्दु समाज का सांप्रदायीकरण नहीं हुआ था न हुआ है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“अब दूसरा विकल्प बच जाता है, कि पुलिस बल को सत्ताधारी राजनीति योजनाबद्ध रूप में सांप्रदायिक बना रही थी। उससे कहा तुर्कमान गेट तोड़ दो तो तोड़ने वालों के साथ खड़ी हो गई, मेरठ मलियाना या हाशिमपुरा कांड करा दो तो कराने को तैयार हो गई। वह तो हुक्म का इतना ताबेदार है कि सत्ता में बैठा आदमी कहे भैंस खोजने पर जुट जाओ तो भैंस खोजने चल देती है। पकड़े हुए अपराधी को छोड़ने को कहो तो छोड़ कर हाथ साबुन से धोने लगती है कि कहीं अपराधी की गन्ध उसके हाथ न लगी रह गई हो। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“वास्तविक अपराधी का बचाव करने के कारण तुम्हारे शोधार्थी की भी मुरादें पूरी हुईं और अलीगढ़ पावर सेंटर की भी पूरी हुईं, नहीं तो आइ एस की तर्ज पर पहला जघन्य अपराध तो कांग्रेस के प्रशासन में हुआ था और उस समय अलीगढ़ केन्द्र में खामोशी थी और आज वही किसी का ठीकरा किसी के सिर फोड़ता हुआ चीत्कार कर रहा है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
11/17/2015 1:10:54 PM</div>
Astrologer Sidharthhttp://www.blogger.com/profile/04635473785714312107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-16373443413854804892016-01-29T19:13:00.000+05:302016-01-29T19:13:30.381+05:30सूच्यग्रा हि अनर्थकाः<div style="text-align: justify;">
“तुम तो गुजरात में जो हुआ उसका भी जिम्मा कांग्रेस पर डाल सकते हो।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
डाल सकता हूँ, पर डालूँगा नहीं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वह हँसने लगा। डाल सकते हो जरा सुनूँ तो कैसे।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तुम्हे मालूम है बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद अयोध्या में इस बाबरी मस्जिद गिराए जाने के विरोध में साहित्यकारों, पत्रकारों, कलाकारों एक प्रदर्शन हुआ था। उसमें मुझसे भी चलने को कहा गया तो तैयार हो गया। पूछा, ‘टिकट का पैसा किसके पास भेज दूँ।‘ जबाब मिला, ‘उसका इन्तजाम हो गया है।‘ मैंने कहा, ‘उस हालत में मैं नहीं जा सकता, क्योंकि जिस भी ऐजेंसी ने भाड़े की व्यवस्था की है, वह मेरा इस्तेमाल कर रही है।‘ यह आयोजन सहमत ने किया था। स्पे शल ट्रेन का पैसा और ऊपर से एक मोटी रकम उसी कांग्रेस ने दिया था जिसके विरुद्ध नुक्कड़ नाटक करते हुए सफदर हाशमी शहीद हुए थे। इसे चिता पर रोटी सेंकना भी कह सकते हो। तुम जानते हो उसके बाद सफदर हाशमी की पत्नी, क्या नाम है उसका, माला हाशमी या जो कुछ भी हो, उसने सहमत से नाता तोड़ लिया था। मुमकिन है बाद में उससे जुड़ भी गई हो। अब सहमत नुक्कड़ नाटकों के लिए नहीं धन्धेबाजी और शगल के लिए जाना जाता है।“ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“मैं पूछ रहा हूँ कुछ और तुम बहक गए सहमत की ओर।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तो अयोध्या में जो प्रदर्शन हुआ था उसमें रामकथा से सम्बन्धित बहुत सारी सामग्री थी। मेरी अपनी पुस्तक ‘अपने अपने राम’ भी थी। अनर्गल बहुत कुछ था। जोर अनर्गल पर ही था। असल में इसमें प्रतिशोध का भाव था न कि समझ पैदा करने का प्रयत्न । प्रदर्शन का ठीक ठीक रूप क्या था यह मैं नहीं जानता, परन्तु संघ से जुड़े कुछ तत्वों ने वहाँ भारी बखेड़ा किया था। मानबहादुर सिंह ने मुझे बाद में बताया कि यदि मैं वहाँ होता तो मेरी जान भी जा सकती थी। अगर वह आयोजन उसमें भाग लेने वालों के अपने पैसे से हुआ होता और मुझे यह कोई अग्रिम सूचना देता कि वहाँ मुझ पर हमला होगा तो मैं उसके बाद भी उसमें शामिल हुआ होता और यदि मारपीट से पहले कहा-सुनी का मौका मिलता तो उन्हें समझाने का प्रयत्न भी करता कि राम की जो महिमा अपने अपने राम में है वैसा इससे पहले की किसी कृति में नहीं।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम फिर भटक गए।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“भटका नहीं हूँ। मैं कह रहा हूँ कि यदि उस प्रदर्शन की प्रतिक्रिया ऐसी उग्रता ले लेती जैसी गोधरा में देखने में आई और उसके बाद इसने भयानक आयाम लिया होता तो उसकी जितनी जिम्मेदारी अर्जुन सिंह पर आती उतनी ही जिम्मेदारी मैं गुजरात के दंगों के लिए मोदी की मानता हूँ।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बाबरी कांड के दस साल पूरे होने पर स्पेशल ट्रेन में स्वयं सेवक भर कर भेजने की व्यवस्था उन्होंने की थी और वह भीड़ उस तरह की सुशिक्षित भी नहीं थी जो सहमत वाले प्रदर्शन में थी। वे जिस तरह के उत्तेजक नारे लगाते हुए घूम रहे थे उसे टीवी पर देख कर मेरा खून खौल रहा था और मैं घबरा रहा था कि इसके परिणाम बहुत अनिष्टकर हो सकते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“अनियन्त्रित भीड़ संचित ऊर्जा का ऐसा भंडार होता है जिसका यदि किसी रूप में उन्मोचन हो वह ध्वंसकारी ही होगा। प्राकृतिक प्रकोप की तरह। यदि किसी तरह की छेड़छाड़ हो जाती तो यह अयोध्या में ही बहुत विकट रूप ले सकता था। गोधरा में इस भीड़ का चरित्र, नारेबाजी या कृत्य क्या था यह पता नहीं, परन्तु गोधरा सांप्रदायिक दृष्टि से संवेदन शील क्षेत्र है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“एक दुर्घटना हो गई और तुमने पूरे क्षेत्र को संवेदन शील ठहरा दिया।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“गोधरा में 1947 के बाद1952, 1959, 1961, 1965, 1967, 1972, 1974, 1980, 1983, 1989 और 1990 में दंगे भड़क चुके थे। और यह संभव है कि पेट्रोल आदि पहले से ही जुटा लिया गया हो कि आने पर खबर लेंगे। गोधरा के बाद गुजरात घटित होना ही था।“ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
चाणक्य का एक सूत्र है, ‘सूच्यग्रा हि अनर्थकाः भवन्ति’ । सुई की नोक जैसी चूक भी बहुत बड़े अनर्थ का कारण बन जाती है। इस बोध को हमारे यहाँ कई रूपों में दुहराया जाता रहा है। जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को अपने किसी भी कथन या कार्य में कितनी सावधानी बरतनी चाहिए यह तो इस सूत्र में है ही। उस चूक के बाद नियन्त्रण आपके हाथ से निकल जाता है, कालदेव आगे के चक्र को सँभाल लेते हैं।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“फिर आगए कालदेव पर।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“कालदेव से मेरा मतलब उन अज्ञात, दृश्य-अदृश्य अनन्त तत्वों से है जिनको चिन्हित या परिभाषित नहीं किया जा सकता।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तो मैं उस पहली चूक के लिए, जो ही अपने निर्णय और विवेक और नियन्त्रण की सीमा में थी, मोदी को जिम्मेदार मानता रहा हूँ। गुजरात को नियन्त्रित करने में कुछ प्रमाद भी हो सकता है और कुछ सबक सिखाने का भाव भी। यह स्वाभाविक है। लेकिन इसकी तुलना उन दंगों से नहीं की जा सकती जो सोच समझ कर कांग्रेस द्वारा कराए जाते रहे और जिसमें पुलिस या अर्धसैनिक बल किसी की भी मदद ली जाती रही है।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम तो हद कर देते हो।“ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“देखो मध्यकाल में शासकों ने, उनके अमलों ने हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार किए, परन्तु कभी सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए। ब्रितानी काल में सारे दंगे अंगे्रजों की खुली या दबी शह पर किए जाते रहे और इसी के बल पर उन्होंने मुसलमानों को यह भी समझा लिया था कि वे तभी तक सुरक्षित हैं जब तक अंग्रेजी शासन है। तुम्हें याद है न सर सैयद ने क्या कहा था।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“कभी इतने विस्तार से सैयद अहमद को पढ़ा नहीं।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“उनका मानना था कि यदि भारत को स्वतन्त्रता मिल भी जाय तो यूरोप का कोई दूसरा देश इस पर आक्रमण करके इसे अपने अधीन कर लेगा और किसी अन्य यूरोपीय देश का प्रशासन अंग्रेजी प्र शासन से बहुत कठोर और बुरा है इसलिए अंग्रेजों के अधीन रह कर ही हम प्रगति कर सकते हैं, इसलिए ब्रिटिश सरकार को यहाँ अनन्त काल तक रहना चाहिए। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
और कुछ ऐसा ही विश्वास हिन्दूफोबिया पैदा करके कांग्रेस ने मुस्लिम वोट सुनिश्चित करने के लिए पैदा किया और इसको बनाए रखने के लिए दंगे भी कराती रही और यह डर दिखा कर कि हिन्दूशासन से तो यह हर हालत में अच्छा है, इसका जितना लाभ उठा सकती थी, उठाती रही। हम केवल यह जानते हैं 1950 से 1990 के बीच 2500 दंगे हुए थे और उस दौर में शासन कांग्रेस का ही था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम बातें तो अच्छी गढ़ लेते हो यह जानता था, अब लगता है आँकड़े भी गढ़ लेते हो। कहाँ से मिला यह आँकड़ा।“ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“17.12.1990 को टाइम्स आफ इंडिया में संसद में विजय कुमार मल्होत्रा के बयान की रपट में यह दावा था।“ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“और तुमने मान लिया?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तब तक मानना पड़ेगा जब तक कोई दूसरा अधिक भरोसे का स्रोत नहीं मिल जाता क्योंकि संसद में किसी ने इसका खंडन नहीं किया था।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“किया भी हो तो टाइम्स आफ इंडिया का उस दौर का संपादक उसे छापता ही नहीं।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम जानते हो वोटबैंक की राजनीति कौन करता आया है? बाँट कर रखने के हथकंडे कौन अपनाता आया है? दहशतगर्दी करते हुए भी हिन्दू फोबिया उभार कर रक्षक की भूमिका में कौन आता रहा है? नहीं जानते हो तो पता लगाओ। तब पता लगेगा कि अंग्रेजों से बाँटो और राज करो की नीति विरासत में किसने ली, फिर खुद इस नतीजे पर पहुँच जाओगे कि जब तक उसका शासन रहेगा दंगों से, घृणा और दंगे-फसाद से और असुरक्षा के हथकंडों से मुक्ति नहीं मिल सकती।“ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“हिन्दू संगठनों का जो चरित्र पहले था उसमें सचमुच इनका चेहरा डरावना बना दिया गया था, परन्तु अब पहली बार एक व्यक्ति ऐसा आया है जो आपसी लड़ाई से आगे विकास की दि शा में ले जाने की बात करता है और उस पहली चूक के बाद उसने आज तक कथनी या करनी के स्तर पर ऐसा कुछ नहीं किया है जिससे उसका यह दावा ढोंग लगे। वही सैयद अहमद के उस सपने को भी पूरा कर सकता है जिसकी ओर तुम्हारा ध्यान न गया होगा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वह मेरी ओर देखने लगा । </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“उनका मानना था कि हिन्दू और मुसलमान आपसी मेल&जोल से ही अपना अधिकतम विकास कर सकते हैं। वह इसी दिशा में भीतरी और बाहरी दबावों के बीच काम कर रहा है। उसे काम करने दो। आलोचना करो, फतवेबाजी बन्द करो।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
11/16/2015 12:16:51 PM</div>
Astrologer Sidharthhttp://www.blogger.com/profile/04635473785714312107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-87188438788782874062016-01-29T19:06:00.002+05:302016-01-29T19:06:59.460+05:30इतिहास की गति - 2<div style="text-align: justify;">
“जब तुम कह रहे थे कि किसी परिघटना के असंख्य घटक होते हैं जिनमें से कोई एक न होता तो या तो वह घटित ही नहीं होती या किसी दूसरे रूप में घटित होती तो क्या तुम कुछ लोगों को जिम्मेदारी से बचाने के लिए कह रहे थे?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“देखो इतिहास को हम पूरी तरह नहीं समझ सकते। मार्क्स जब कहते हैं कि व्यक्ति अपने आप में कुछ नहीं होता वह अपने युग की अभिव्यक्ति होता है या ऐसा ही कुछ तो वह व्यक्ति की भूमिका को नकारते नहीं हैं। यह रेखांकित करते हैं कि वह जो कुछ करता या करने का प्रयत्न करते हुए नहीं कर पाता वह अकेले उसके कारण नहीं होता। इसलिए वह इतिहास की समझ पर जोर देते हैं परन्तु कितने मार्क्सवादी हैं जो इसको समझते या इसका ध्यान रखते हैं। तुम देखो तो अधिकांश तो इतिहास से ही नहीं, उन स्रोतों तक से नफरत करते हैं जिनसे इतिहास को समझा जा सकता है और दूसरे हैं जो उन स्रोतों में ही जहर घोलते हैं कि इतिहास की समझ पैदा ही न होने पाए। तुम्हारे पेशेवर इतिहासकार तो लगातार यही करते आ रहे हैं।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम अपनी बात कहो, फिर हवाई सफर पर मत निकलो।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“मैं हवाई सफर नहीं कर रह था न भाग रहा था। कह मात्र इतना रहा था कि मैं जहां से आरंभ कररूंगा उसके पीछे भी बहुत कुछ अदृश्य रह जाएगा।“ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“फिर भी।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“देखो पुरातत्व की एक नियमावली है, एक आचारसंहिता है और उसके संरक्षण के लिए कुछ कानून कायदे हैं, जैसे यही कि 1947 में में पुरातात्विक स्थल जिस भी हालत में था उससे किसी तरह की छेड़ छाड़ नहीं की जाएगी।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“यह तो मैं भी जानता हूं।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“इसके अनुसार ही जो मन्दिर, मस्जिद, पहले से पुरातत्व की संपदा है, उसमें पूजा-नमाज़ आदि नहीं होता उसमें पूजा वगैरह नहीं की जाएगी, उसमें कोई सजावट जोड़ तोड़ नहीं की जाएगी, यहां तक कि मरम्मत करते समय भी इस बात कर ध्यान रखा जाएगा कि यह लक्ष्य किया जा सके कि यहां पहले कुछ टूट गया था।“ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“यह भी जानता हूं।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“अब यह बताओ कि किसी देश का राष्ट्रपति ही इसका उल्लंघन करे तो क्या कहोगे?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“किसकी बात कर रहे हो तुम?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“फखरुद्दीन अली अहमद की। उन्होंने कहा कि पहले जवानी में मैंने एक बार कुदसिया मस्जिद में नमाज पढ़ा था इसलिए एक बार पढूंगा।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“यह शुरुआत थी और उसके बाद दिल्ली के ही नहीं दूसरी जगहों पर भी धीरे धीरे दखल बढ़ने लगा और उनमें ढांचागत बदलाव भी किए जाने लगे। पुरातत्व विभाग शिकायत करता तो पुलिस से कोई मदद नहीं मिलती। समस्या को सांप्रदायिक नुक्ते से देखा जाने लगता और वह पीछे हट जाती। यह प्रवृत्ति जिसे धार्मिक मुखौटे वाला अतिक्रमण कह सकते हो बेरोक टोक बढ़ता रहा है यह तुम जानते हो, उसी का यह दूसरा रूप था लेकिन इसकी जिम्मेदारी पुरातत्व विभाग पर नहीं थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“जिन दिनों भारतीय पुरातत्व के महानिदेशक पद पर मुनीश जोशी थे उन दिनों यह प्रवृत्ति रोकने के एक कोशिश उन्होंने ने की थी पर कोई नतीजा नहीं निकला। यह बात सबको मालूम थी कि जिसे बाबरी मस्जिद के नाम से उछाला गया उसका नाम मस्जिदे जन्मस्थान था। वह राम मन्दिर तोड़ कर ही बनाई गई थी भले यह सुल्तानी दबदबे का सिक्का जमाने के लिए किया गया हो या मजहबी जुनून में या दोनों इरादों से। उसकी पुरानी तस्वीर पर नज़र डालो तो भी पता चल जाएगा कि यह एक भव्य ढांचे को तोड़ कर उसके मलमे के (Ramkot Hill ("Rama's fort").) ऊपर बनाई गई थी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-VkCuVhkPYDU/VqtqicddSzI/AAAAAAAAjGY/cLH3_2ATB7Y/s1600/masjid%2Bmandir.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: justify;"><img border="0" height="174" src="http://1.bp.blogspot.com/-VkCuVhkPYDU/VqtqicddSzI/AAAAAAAAjGY/cLH3_2ATB7Y/s320/masjid%2Bmandir.jpg" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
तुलसी दास जब ‘मसीत को सोइबो’ की बात करते हैं तो वह यही मसीत है। इसके बाद दहशत का माहौल जारी रहा और लोगों ने घरों के अन्दर पूजापाठ के कोने या अपने अपने मन्दिर बना कर पूजा पाठ शुरू किए जिसका अन्देशा होने पर भी कुछ सिरफिरे घरों में घुस कर उन्हें तोड़ देते थे जिसमा दुखड़ा तुलसी दास रोते दिखाई देते हैं। यह स्थिति अकबर के समय तक बनी हुई थी क्योंकि अकबर स्वयं उदार हो सकते थे उनके अधीनस्थ अधिकारी और सिपहसालार उनके समय में भी अपनी ही करते थे।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुमने उनका वह दोहा पढ़ा है न ‘गोंड़ गंवार नृपाल कलि जवन महामहिपाल’’ कि सिलबट्टे तक को यह कह कर तोड़ देते थे कि इसकी भी पूना की जाती होगी। अयोध्या में रामभक्ति ऐसी कि घर-घर में मन्दिर थे पर कोई सार्वजनिक मन्दिर नहीं। तुलसी तो कलिकाल को दोष देकर सब्र कर लेते थे पर यह बात आम जानकारी में थी कि यह रामजन्मभूमि पर बनी मस्जिद है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
खीझे हुए मुनीश जोशी ने स्वराज्यप्रकाश गुप्त को जो संघ से जुड़े थे और शाखा में भी जाते थे, कहा कि वह राममन्दिर के सवाल को क्यों नहीं उठाते। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“अब फिर क्या था। स्वराज्य प्रकाश गुप्त की पहल थी जिसमें साधुओं संन्तों का वह जमघट और प्रदर्शन लालकिले के सामने हुआ था और इसी के साथ हुआ था विश्वहिन्दू परिषद और का गठन। इसके साथ ही भाजपा पर लद गया था मन्रि का कार्यक्रम, साधुओं का जमघट और राजनीतीकरण और विश्व हिन्दूपरिषद का अभियान</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पेशेवर इतिहासकारों ने सर्वविदित और सर्वमानय को सन्दिग्ध बनाने के लिए अपना पूरा जोर लगा दिया। वे ठोस प्रमाण की मांग करने लगे। राम की ऐतिहासिकता का सवाल उठाते रहे। गरज की राम ऐतिहासिक हों तो ही उनका मन्दिर बन सकता है अन्यथा नहीं। ये इतने चालाक लोग हैं कि इन्हें हर मसले को उलझाना आता है और अच्छे अच्छों को मूर्ख बनाना आता है, पर किसी परिघटना को समझते केवल इसक कोण से हैं कि इससे उनको क्या मिलेगा। सवाल पेशे का ठहरा। वे लोगों को मूर्ख बनाते रहे। इसके बाद जरूररत हुई ठोस प्रमाणों की तो</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मुनीश ने ब्रजबासी लाल को जो रामकथा से जुड़े स्थलों की खुदाई कर चुके थे इसके सटे पड़ोस में खुदाई का कार्यभार दिया और वहां पुरातात्विक प्रमाण भी निकल आए। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ये उनको भी झुठलाने का प्रयत्न करते रहे। खैर अब तो मामला कोर्ट कचहरी का बन चुका है और उससे हमें मोई लेना देना नहीं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं केवल यह कहना चाहता हूं कि अप्रिय से अप्रिय सत्य को झुठलाने या छिपाने से इतिहास विषाक्त होता है और इतनी समझ जिनमें नहीं है वे चाकरी-पेशा भले करते हों, इतिहासकार नहीं हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“स्वराज्य प्रकाश गुप्त की हैसियत क्या थी? विद्वान थे वह। बहुत अच्छे पुरातत्वविद थे। परन्तु अपनी चाकरी से अलग थे मात्र संघ के स्वयंसेवक। अकेले उनका निर्णय। भाजपा से उनको नफरत के हद तक चिढ़ थी क्योंकि उनका मानना था कि ये लोग राजनीतिक लाभ के लिए कोई समझौता कर सकते हैं। उनके हस्तक्षेप के कारण सन्तसमाज का राजनीतीकरण और विश्व हिन्दू परिषद दोनों का भाजपा के उपर लद जाना कितनी छोटी सी घटना और कितना बड़ा मोड़.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम जानते हो भाजपा की मन्दिर की लड़ाई अकादमिक स्तर पर स्वराज्यप्रकाश गुप्त लड़ते रहे। कम से कम प्रधानता उनकी ही थी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“अरे भाई वह तो तुम्हारे भी दोस्त थे, रोका क्यों नहीं।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“मैं तो उनकी शाखा का मजाक उड़ाता था और निकर कल्ट का भी। पर जब तुम्हें कुछ सिखा नहीं पाता तो उन्हें कैसे सिखा पाता।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“यह सब सबाल्टर्न मामला है। कहने में कुछ इधर उधर भी हो जैसा याद रह गया है बता दिया। सकता है। दरयाफ्त करते ठीक कर लेना। अब तुम स्वयं देखो, यदि इनमें से कोई भी कड़ी गुम होती तो घटनाक्रम क्या दिशा लेता। इसलिए इतिहास में किसी को अपराधी सिद्ध कर ना आसान है उसे और अकेले उसे जिम्मेदार मानना गलत है। जब तुम इस तरह व्याख्या करना सीख जाते हो तो जो विषाक्त था उसका विष समाप्त हो जाता है और वह अपराधी स्ख्यं एक निमित्त बन कर रह जाता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तोल्स्तोय युद्ध और शान्ति के उपसंहार में यही तो करते हैं जिसमें नैपोलियन महानायक से एक तुच्छ खिलौने में बदल जाता है। मात्र एक निमित्त।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“और ठीक यही बात जो तोल्सतोय कहते हैं गीताकार कहता है जिसमें वह काल प्रवाह में कर्ता को मात्र एक निमित्त मानता और बनने की सलाह देता है। कालोस्मि लोकान्द्वायकृत प्रवृद्ध: लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः। भारत में इतिहास भी था और एक गहरा इतिहासबोध भी था, मानोगे?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम तो निरे भाग्यवादी हो भाई। भाग्यवाद ने इस देश का बेड़ा कितना डुबोया है इसका पता है?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“मैं नहीं जानता भाग्यवाद की तुम्हारी व्याख्या क्या है, पर मेरी समझ से जो मानता है उसके बस का कुछ नहीं, जो भाग्य में लिखा होगा वही होगा और इस सोच के कारण जिसकी कर्मठता घट जाती है वह भाग्यवादी है। जो मानता है भले हमारे वश में सब कुछ न हो परन्तु हमारे किए ही जो होना है उसके बिना तो उतना भी नहीं बदलेगा जो मैं बदल सकता हूं या बदलने का प्रयत्न करता हूं और इसलिए अधिक तत्परता से, अविचलित भाव से काम करता है, वह कर्मयोगी है। और जो सोचता है मैं जो चाहूं कर सकता हूं, वह जितना भी विद्वान या शक्ति-साधन-सम्पन्न हो, वह उसी अनुपात में प्रचंड मूर्ख है और सत्यानाश की जड़ भी। मैं अपने को दूसरी श्रेणी में गिनता हूं और तुम चाहो भी तो अपने को तीसरी श्रेणी में आने से बचा नहीं सकते।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
11/14/2015 3:42:02 PM</div>
Astrologer Sidharthhttp://www.blogger.com/profile/04635473785714312107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-89698218580650071692016-01-29T19:02:00.001+05:302016-01-29T19:02:53.985+05:30इतिहास की गति<div style="text-align: justify;">
“तुम वकील बहुत अच्छे हो सकते थे। सही पेशे का चुनाव करना चाहिए था। मालामाल हो जाते।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“पेशा करता तो मालामाल तो हो जाता, पर यह क्यों सोच लिया कि सबसे अच्छी चीज पेशा करना और मालामाल होना है।“ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसे छकाने में मुझे बहुत मजा आता है। फतह करने को एक ही चीज है, एक दूसरे का दिल जो जिद के कारण न उसका मेरे हाथ आएगा न मेरा उसके, फिर भी खेल जारी रहेगा। मुझे ही पूछना पड़ा, ‘‘तुमको वकालत वाली बात क्यों सूझी?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘तुम्हीं ने तो कहा था, मैं जालिम के पक्ष में खड़ा हो रहा हूँ और उसे मजलूम सिद्ध करके रहूँगा और सिद्ध भी कर दिया । मैं खुद कायल हो गया, फिर याद आया तुमने बाबरी के ध्वंस को किस तरह आँखों से ओझल कर दिया। कमाल है न?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘अगर मैं कहता कि बाबरी मस्जिद कांग्रेस ने गिरवाई, उनको तो मुफत का बदनाम कर दिया, तो तुम्हारी समझ में आता? नादान लोगों को वे ही बातें बताई जाती हैं जो उनकी समझ में आ सकें।“ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘तुम कुछ भी कह दोगे मैं मान लूँगा?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘नहीं मानोगे, यह पहले से जानता हूँ। सही बात को मानने के लिए भी समझ, यानी सही गलत में फर्क करने की तमीज, चाहिए। हाँ इसमें थोड़ा हाथ तुम लोगों का भी था।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘और तुम्हारा?’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘मैंने बचाने की एक छोटी सी कोशिश की थी, कामयाब नहीं हुआ। गो मैं यह मानता था कि वहाँ पहले कोई मन्दिर था।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘और फिर भी तुम चाहते थे, मस्जिद गिराई न जाय?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘इसलिए कि प्राचीन भारतीय न्यायविचार के अनुसार उसे नहीं गिराया जाना चाहिए था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के नियमों के अनुसार उसकी रक्षा की जिम्मेदारी भारत सरकार की था और उसको किसी तरह की क्षति कानून का उल्लंघन था। और हिन्दू रीति के अनुसार उसे गिरा कर मन्दिर बनाने का औचित्य नहीं था। और इस मस्जिद में उस प्राचीन भारतीय वास्तुशिल्प का एक अघ्याय बचा हुआ था जिसका पता इसे ध्वस्त करने वालों को नहीं था। होता भी तो उसका सम्मान नहीं करते।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘वह जो तुम पुरानी न्याय विचार की बात कर रहे थे और हिन्दू रीति वगैरह, की बात?’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘मुझे अधिकारी मान कर मत चलो। जानकारी की बात कर सकता हूँ। हमारे शास्त्रों में क्षेत्राधिकार के विषय में यह विधान रहा है कि अमुक अमुक स्थलों पर किसी व्यक्ति का अधिकार कितने समय तक रहता है। यदि दूसरा ज़बरदस्ती उस पर कब्जा करले तो इतने समय के भीतर उस पर अपने अधिकार का दावा ठोंका जा सकता है। यदि उसके भीतर ऐसा नहीं हो सका तो वह स्थान उसका हो जाएगा, जिसने कब्जा जमा लिया है। यह पंचतन्त्र की एक कहानी में आया है और यह हमारे समय में प्रचलित कालातीत मामलों या टाइम बार्ड मामलों जैसा है। रहा रीति का तो टूटी हुई प्रतिमा या टूटा हुआ देवालय पूजा के योग्य नहीं रख जाता। प्रतिमा बनने से पहले पत्थर था, पत्थर तराश कर प्रतिमा बनने तक भी वह एक कृति था, उसमें जब देव की कल्पना करते हुए उसकी प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है तब वह देवता हो जाता । यही बात देवालय का है। एक बार जो भग्न हो गया उस मन्दिर को बनाना तो संभव नही।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘इसमें प्राचीन वास्तुशिल्प के सुरक्षित रहने की बात?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘कानेरी की गुफाएँ तुमने देखी हों तो उनमें एक पुराना प्रेक्षागृह या नाट्यशाला है। उसकी सबसे बड़ी वि शेषता है उसकी ध्वनि व्यवस्था जिसमें एक कोने की मामूली फुसफुसाहट भी दूसरे कोने तक साफ सुनी जा सकती है। ध्वनिप्रसार की यही व्यवस्था बाबरी मस्जिद में काम में लाई गई थी। इस दृष्टि से यह एक असाधारण विरासत थी जिसकी क्षतिपूर्ति वहाँ कुछ भी बना कर नहीं की जा सकती। परन्तु न तो मस्जिद को बचाने वालों ने कभी इन पहलुओं को उठाया न उस स्थान को वापस माँगने वालों को इसका ज्ञान था। दोनों के आग्रह धार्मिक थे और इसकी ओट में धर्मभावना नहीं शुद्ध राजनीतिक लाभ था।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘राजनीतिक लाभ के लिए धर्म का इस्तेमाल धर्म का अपमान है, धर्म को भुनाने या बेच खाने का रूप।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मै उससे सहमत था, पर साथ ही जोड़ा, ‘‘पर भाजपा को तो उसमें झोंक दिया गया। यह आग तो कांग्रेस ने लगाई थी और वि श्वास नहीं करोगे, स्वतन्त्र भारत में सबसे पहले इसे नेहरू ने शुरू किया था और वह भी आचार्य नरेन्द्र देव जैसे आदमी को हराने के लिए जिनका वह व्यक्तिगत रूप में आदर भी करते थे, परन्तु वह समाजवादी थे और समाजवादियों से उन दिनों कुछ भय बना हुआ था, इसलिए नेहरू ने इसको इस्तेमाल किया।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘आचार्य जी हार गए थे?’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘हारना ही था। और फिर राजीव गांधी ने हिन्दू जनमत को अपनी ओर करने के लिए जो कुछ किया वह तो सबकी जारकारी में है। ऐसी हालत में, एक ऐसा दल जिसका एक मात्र आधार हिन्दू संस्कृति और सम्मान की रक्षा था, यदि सचेत हुआ कि यह तो हमें ही अपने घर से बेदखल किया जा रहा है और अयो ध्या के साथ काशी मथुरा को भी समेट लिया तो यह तो उसकी विवशता थी। आत्मरक्षात्मक कदम। उनकी अपनी योजना इसे गिराने की नही थी, इस मुद्दे को लम्बे समय तक उठाते हुए, मुस्लिम समुदाय को अनुदार सिद्ध करते हुए हिन्दुओं का समर्थन जुटाने की थी. इसे गिराकर स्वयं को उग्र और अनुदार सिद्ध करने की नही थी. इस दुर्घटना से उनका पासा पलट गया। वे धमकी नहीं दे रहे थे, मुस्लिम समुदाय से याचना कर रहे थे। याचना का सम्मान करते हुए यदि इन तीनों स्थलों को सौंप दिया जाता तो मन्दिर की राजनीति खत्म हो जाती। इसमें मुस्लिम समुदाय की छवि उज्ज्वल होती। इस्लाम में बुतपरस्ती निषिद्ध है इसलिए कुरान की पुस्तक या मस्जिद की पूजा नहीं की जाती, नमाज कहीं भी अदा की जा सकती है। कुरान की आयतों का, न कि पोथी का महत्व है, इसलिए जो कट्टर मुस्लिम दे श हैं उनमें भी लोकनिर्माण के कार्यों में अवरोध पैदा करने वाली मस्जिदों को कई बार गिराया गया है। मुस्लिम समुदाय इस पर सहमत होता भी नजर आ रहा था. बाबरी को तो उन्होंने पहले से ही छोड़ दिया था। समुदाय के रूप में वे वे इतने संवेदनहीन भी नहीं थे कि हिन्दू भावना का आदर न करते, परन्तु उकसावे की जो भूमिका पहले ब्रितानी हुक्मरान की थी उसे उत्तराधिकार में तुमने ले लिया था। इस बार उकसाने भड़काने का काम तुमने किया. तुमने धार्मिक भावना को भावना को इतना उग्र कर दिया और इसे मुस्लिम अस्मिता से जोड़ दिया, कयोंकि सांम्प्रदायिक आग भड़काने और बुझाने के अलावा तुम्हारे पास कोई मुद्दा बच ही नही गया है। उनको लाचार हो कर तुम्हारा साथ देना पडा और जब मस्जिद का पतन हुआ तो आहत धर्म-भावना नहीं जातीय अस्मिता हुई, जिसे लेकर मुसलिम समुदाय में गहरा मलाल था, और अब भी है । यह नौबत तुम्हारी वजह से आई थी। भीड़ वि श्व हिन्दू परिषद की थी। आज तक मेरे लिए यह रहस्य है कि गिराने की योजना और उसकी जैसी-तैसी तैयारी किसकी थी। पर यह उस दौर के दृश्य माध्यमों से प्रकट था कि इस सूचना से स्वयं आडवा नी हैरान हो गए थे और फिर ‘चलो छुट्टी हुई वाली मुस्कराहट उनके होठों पर उसी भावभंगिमा के साथ आई थी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने जो कहा वह सब कहानी है। सबाल्टर्न या इतरेतर इतिहास मान लो। कुछ गलत लगे तो सुधार भी लेना। इसके परिणामो को तो जानते ही हो। कहने का मतलब तोड़-फोड़ उनकी योजना में नहीं थी। भीड़ और भावना का लाभ उठाना चाहते थे। कांग्रेस सरकार ने इसे किसी भी हस्तक्षेप के बिना हो जाने दिया। अब सही अपराधी तय करने चलो तो मुश्किल में पड़ जाओगे।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
परन्तु यह जो गोचर है वह उन असंख्य शक्तियों का क्षुद्र अंश है जिनकी दृश्य अदृश्य सक्रियता और संपुंजन से कोई परिघटना मंचित होती है। इस महानाट्य का सूत्रधार इतिहास या कालदेव की अदृश्य योजना है। यदि तुम जानना चाहोगे तो कभी बताउूंगा कि उनमें से कोई भी एक कम हो जाता तो यह घटना घटती ही नहीं या किसी अन्य रूप में घटती। जैसे हमारे म स्तिष्क के क्षुद्र अंश को ही हम जानते हैं जब कि हम जो कुछ करते हैं उसमें उस अवचेतन की भी भूमिका होती है जिसने हमारे मस्तिष्क के अधिकतम क्षेत्र को घेर रखा है पर हम उनकी भूमिका को सही सही जान नहीं सकते, उसी तरह कुछ इतिहास की घटनाओं के साथ भी होता है। हमारे निर्णय और योजनाए धरी की धरी रह जाती हैं और जो घटित होता है वह अक्सर अप्रत्याशित होता है। इसे इतिहास की गति कहो या नियति।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
11/13/2015 3:52:35 PM</div>
Astrologer Sidharthhttp://www.blogger.com/profile/04635473785714312107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-55601101802797194642016-01-29T19:01:00.001+05:302016-01-29T19:01:42.363+05:30फिर बीता ज़माना याद आया<div style="text-align: justify;">
"तुम एक बार कहते हो इतिहास को समझे बिना वर्तमान को जाना ही नहीं जा सकता, दूसरी बार कहते हो, इतिहास को वर्तमान में खींच कर मत लाओ। क्या यह उल्टी बात नहीं है?"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"उल्टी इसलिए लगती है कि तुम्हारी खोपड़ी उल्टी है। मैं कहता हूँ इतिहास को जानो, इतिहास को जिओ मत। जीने के लिए वर्तमान ही काफी है। इतिहास सीख लेने के लिए है, वर्तमान जीने के लिए है। भविष्य इन दोनों की सामग्री जोड़ कर सपने देखने के लिए है और तुम जैसे लोग जो इनके बीच-घाल मेल करते हैं, या इन तीनों में से किसी एक से भागते-बचते हैं, वे भाड़ में जाने के लिए हैं।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"मैं भी इतिहास से सीख लेकर ही कह रहा हूँ, क्या तुम एक ऐसे दल को जिसने बाबरी का ध्वंस किया हो, गुजरात का नरसंहार किया हो, जिसके पास स्वयंसेवकों की इतनी बड़ी फ़ौज़ हो और जिसे रोज कवायद कराकर लड़ने के लिए तैयार रखा जाता हो, उसे तुम शान्तिप्रेमी मान सकते हो? छोड़ दो उस किताब को जो १९३९ में लिखी गई थी, मगर क्या तुम्हें नहीं मालूम कि हिट्लर की जीवनी सबसे अधिक वे ही पढ़ते हैं। उनका गणवेष, सलाम करने का तरीका सब नाजियों से लिया हुआ है। और उनकी मूँछ, खैर सबकी नहीं, पर आडवानी जी की तितली कट मूछ तो सीधे हिटलर से ली गई है यार!"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"तुमने तो इतनी चीजों का घोल बर्तमान में भी बना दिया कि समझ में नहीं आता कहाँ से शुरू करूँ। फिर भी मेरी कद-काठी देख रहे हो न। स्वभाव भी देख रहे हो। यदि मैं तन कर कहूँ मैं शेर हूँ, मुझे मामूली मत समझना, तो डरावना मान लोगे?"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वह हँसने लगा, ‘‘मानूँगा क्यों नहीं, सिंह तो तुम्हारे नाम के साथ ही लगा हुआ है।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हँसी में मैं भी शामिल हो गया, ‘‘अब तो कहने को कुछ बाकी रहा ही नहीं। मैं अपनी जबान में बोलूँगा तो तुम्हारी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाएगी।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘वह तो तुम आदमी की जबान में बोलते हो तब भी गुम हो जाती है। यह तो उन विरल मौकों में से एक है जब मैंने तुम्हारी सिट्टी-पिट्टी गुम कर दी है, और बगलें झाँक रहे हो।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने पैंतरा बदल दिया, “तुमने इतने सारे सवाल एक साथ उछाल दिए कि मैं सचमुच चक्कर में पड़ गया, इसलिए अब तुमसे ही पूछता हूँ, ‘‘संघ को समर्थन देने वाले कौन हैं? मतलब उसका सपोर्ट बेस क्या है?"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘बनिया-व्यापारी।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘जब दंगे-फसाद होते हैं तो किसकी दूकानें और असबाब लूटे और जलाए जाते हैं?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘जाहिर है जिसकी दूकानें और माल असबाब होंगे उन्हीं के ।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘कर्फ्यू लगता है तो किसका कारोबार सबसे अधिक प्रभावित होता है?"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अब वह चौंका, ‘‘तुम साबित क्या करना चाहते हो?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘साबित करना यह चाहता हूँ कि यह हाथ जितना भी भाँजे, दंगे फसाद नहीं चाहेगा। इससे पहले भी जैन मत हो या बौद्धमत इनको सबसे जबर्दस्त समर्थन व्यापारियों से ही मिला, क्योंकि वे चाहते थे कि यदि सभी लोग शान्ति का मन्त्र सीख लें तो लूट पाट बन्द हो जाय, वे अपना कारोबार शान्ति से कर सकें और इसलिए कई बार तो उन्होंने अपनी समस्त संपदा इन मतों को दान दे कर स्वयं भी वैराग्य ले लिया और इन मतों में दीक्षित हो गए। इतिहास से इतिहास की आत्मा को ग्रहण करो, उसकी स्पिरिट को ग्रहण करो, उसका चोंगा लबादा नहीं। उसमें तो बार-बार बदलाव होते रहते हैं और जहां कोई किसी दूसरे जैसा होना चाहता है वह उसकी भँड़ैती तो कर सकता है, हो नहीं पाता. शेर की खाल ओढ़ कर शेर दिखने वाले गधे की कहानी तक नहीं पढ़ी तुमने तो। धन्य हो। मार्क्स ने इतिहास की पुनरावृत्ति पर जो कुछ कहा है वह तो याद रखते.’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लगा बात उसकी समझ में कुछ-कुछ आ रही है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने वातावरण को कुछ और हल्का बनाने के लिए कहा, ‘‘बुद्ध के बाद यह पहला तो संघ बना यार और तुम इसे भी कोसते रहते हो।’’ और फिर अपनी बात पर आ गया, ‘‘देखो जब बनिया-व्यापारी दंगा फसाद पसन्द नहीं करता तो उसकी पार्टी कैसे चाहेगी। तुमने सुना नही पंजाब में उग्रवादी उभार के दौर में उग्रवदियों ने कई बार संघ की शाखाओं को ही निशाना बना लिया। चलती बसों से सवारियों को उतार कर हिन्दुओं को अलग करके उन्हें गोलियों से भूनते रहे, शादी व्याह में लोग जुटे हुए हैं, एके फार्टीसेवन से निरीह लोगों पर गोलियाँ बरसने लगीं। इतने सारे उकसावों के बाद भी उन्होंने कभी सिक्खों को निशाना बनाया? कम से कम जहाँ हिन्दू बहुमत था, वहाँ तो बना सकते थे। ऐसा नहीं किया, क्योंकि उन्होंने यह होश-हवास कभी नहीं खोया कि कुछ बिगड़े दिमाग के लोगों के लिए पूरी जाति या समुदाय को न तो दोषी माना जा सकता है न ही उपद्रव से हमारा भला होना है, जब कि जैसे-को-तैसा के मुहावरे में इस तरह की प्रतिक्रिया भी किसी उत्तेजक क्षण में पहली क्रिया की तार्किक परिणति ही होती। उल्टे इन्होंने 1984 के दंगों में सिक्खों को जहाँ बचा सकते थे बचाया। बाद में अपराधियों को दंडित करने की माँग में अकाली दल के साथ खड़े हुए। और जानते हो जिस अकाली दल को हाशिये पर डालने के लिए राजीव गांधी ने उग्रवाद को सहारा दिया था, भिंडरांवाले को संत बताया था वही सिक्खों का सही प्रतिनिधि और हितैषी है इसे उन्होंने उस भयानक दौर में भी समझा था, उनकी घ्राणशक्ति तुमसे अच्छी है।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘तब फिर…” वह एक भूलभुलैया में फँस गया था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘देखो, संघ का जन्म उस दौर में आत्मरक्षा के लिए हुआ था जब आये दिन साम्प्रदायिक दंगे हो जाते थे। सरकारी तन्त्र दंगों को उकसाता था, दंगाइयों को छूट देता था, इसलिए जान माल का सबसे अधिक नुकसान हिन्दुओं को ही झेलना पड़ता था। इस किंकर्तव्यता की स्थिति में जब कुछ नहीं सूझ रहा था तब हेडगेवार ने इस संगठन की परिकल्पना की थी और नाना जी ने जो संभवतः इसके प्राथमिक सदस्यों में थे, एक बार गर्व करते हुए कहा था, कि संघ की स्थापना के बाद जब मुसलमानों ने हमला बोला तो हम डट कर खड़े हो गए और उन्हें भाग जाना पड़ा। उनको भगा देना इनकी सबसे बड़ी सफलता थी।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘तुम तो हर चीज को उलट-पलट देते हो। कहीं कोई बात छूट रही है, नहीं तो आज तक तो ऐसा किसी ने कहा ही नहीं।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘उलटता-पलटता कुछ नहीं हूँ। दूसरे इतिहास के घटकों को राजनीति के ईधन के रूप में देखते हैं और मैं ठहरा मार्क्सवादी इतिहासकार, अकेला मार्क्सवादी यह भी दुहरा दूँ, समय की नब्ज पर हाथ रखने वाला, इसलिए मैं किसी परिघटना के आर्थिक आधार पर पहले नजर डालता हूँ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘अब तुम्हें यह भी समझ में आ जाना चाहिए कि बात-बात पर उत्तेजित हो जाने वाली जमातें व्यापारिक कारोबार में पिछड़ी भी होती हैं, और न हों तो भी पिछड़ जाएँगी। इसलिए किसी मुसलमान दूकानदार के पास बैठो या हिन्दू बनिये के पास, जबान दोनों की बड़ी सलीस मिलेगी। मीठी, दिल जीतने वाली।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"और अब इसी से यह भी समझ सकते हो कि संघियों का आइ क्यू भले तेज हो, उनमें पढ़े लिखों के लिए न तो आदर है न पढ़ाई लिखाई पर जोर। बल्कि इसे हतोत्साहित किया जाता है।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘यह क्यों?" </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"क्योंकि छोटा बनिया जानता है कि दूकान सँभालने के लिए ज्यादा पढ़ना-लिखना ठीक नहीं। उसके बाद लड़के का दिमाग दूकान-व्यापार में लगेगा नहीं, नौकरी चाकरी पसन्द करने लगेगा और जितना कमाएगा उससे दस गुना वह अपनी कामचलाऊ पढ़ाई से अपने कारोबार से कमा लेगा। पैसा हो तो एक क्या चार पढ़े लिखों को उनकी फीस देकर अपनी सेवा में लगा सकता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"लेकिन….” मैं एक मिनट के लिए उसे ताड़ने के लिए रुका. वह सुन रहा था.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"लेकिन छोटी से छोटी बात पर जब वह किसी पढ़े लिखे के सामने दीन भाव से खड़ा होता है तो उसको जो हीनता अनुभव होती है वही संघ से जुड़े बुद्धिजीवियों को विद्वानों के सामने अनुभव होती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"उनकी दुर्दशा का रहस्य यही है कि जहाँ वे बेकसूर रहते हैं वहाँ भी तुम उनकी लानत-मलामत करने लगते हो और वे बेचारे अपमान झेलते हुए भी मीठा बोलते रहते हैं कि कभी तो तुम भी यह बात समझ ही जाओगे." </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"तुम विचारों की असहमति पर जान मारने की धमकियाँ देने वालों को, यहाँ तक कि जान मारने वालों को मीठा बोलने वाला कहोग?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘पहले यह पड़ताल तो करो कि उनमें से कितने संघ से संबन्ध रखते हैं और कितने छुट्टा संगठनों से या चुटकी बजाते एक संगठन बना कर उनके मुखिया बन जाते हैं।" </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘अच्छा यह बताओ, साफ-साफ बताना, तुम्हीं कह रहे थे कि छोटे बनियों की पार्टी है, वे पढ़े लिखे होते नहीं, छोटा बनिया सोचता है फीस दे कर पढ़े लिखों से काम करा लेंगे। और तुमने यह भी कहा था तुम उनके पक्ष में खड़े हो रहे हो, साफ साफ बताना, इसके लिए फीस कितनी मिली है?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘चोरों उचक्कों को यह राज नहीं बताया जाता।" मैंने कहा, और दोनों ने एक साथ ठहाका लगाया।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
11/12/2015 5:3:36 PM</div>
Astrologer Sidharthhttp://www.blogger.com/profile/04635473785714312107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-33820273214222014342016-01-29T19:00:00.000+05:302016-01-29T19:00:12.769+05:30काश पूछो की मुद्दा क्या है?<div style="text-align: justify;">
देश का हमने क्या अहित किया है इसका हिसाब तो कल लूँगा, परन्तु तुम करना क्या चाहते हो? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उस दहशत को, उस हिन्दू फोबिया को दूर करना जिसे अंग्रेजों ने मुस्लिम असुरक्षा की चिंता दिखाते हुए धार्मिक अलगाव को साम्प्रदायिक घृणा में बदल कर अपनी सुरक्षा सुनिश्चित की और हमें लड़ाते हुए अपने हित साधते रहे और हुआ यह उसी देश में जिसमें बिल्ली और बन्दरबांट की कहानी हजार डेढ़ हजार साल पहले से अनपढ़ों तक की जबान पर थी। तुमने अपने चुनावी हितों के लिए हिन्दू फोबिया लगातार उभारते हुए जिन्दा रखा जो ही उन सामाजिक समस्याओं की जड़ है जिन्हें लेकर इतनी छटपटाहट दिखाई दे रही है। तुम किसी व्याधि को उकसाओगे भी और उसी से चिंतित भी रहोगे दोनों एक साथ तो नहीं हो सकता। इस दहशत को जितनी बेशर्मी से तुमने उभारा है उतनी बेशर्मी से अंग्रेजों ने भी नहीं किया था, क्योंकि उनमें प्रशासनिक परिपक्वता थी। मैं उस दहशत की जड़ों की पड़ताल करते हुए उसे दूर करने का प्रयत्न कर रहा हूँ । कर पाऊँगा या नहीं यह नहीं जानता।“ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम्हें आरएसएस दूध की धुली संस्था लगती है।“ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“यार दूध की धुली चीज़ में तो बदबू आने लगेगी, अपने को भी मत धोना दूध से। पानी ही काफी है। धोने पखारने की नही, उसकी सीमाओं और संभावनाओं को नए सिरे से समझने की कोशिश करो। तुम मेरी बात सुनोगे भी या नहीं, नहीं जानता, क्योंकि यह एक दुष्चक्र का, एक विशस सर्कल का रूप ले चुका है जिसमें कोई अवलेप से मुक्त नहीं है।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“उससे सावधान रहने, डरने की कोई आवष्यकता नहीं।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"मैं जानता हूँ तुम और ऐसे करोड़ों लोग उस अवस्था में हैं जिसे पुराने लोग वशीकरण और उच्चाटन मन्त्रों का प्रभाव कहते थे. ये किसी एक के विविध रूपों में निरंतर निंदा अथवा प्रशंसा से उत्पन्न अवस्थाएँ हैं जिनमे जो कण में लगातार भरा गया है और उसे ग्रहण करने की अनुकूल परिस्थितियां भर्त्सना, उपेक्षा, तिरस्कार अथवा अनुमोदन, प्रशंसा और पुरष्कार द्वारा तैयार की जाती हैं उनमे कुछ बातों को सुनना तक सम्भव नहीं हो पता, समझना तो दूर की बात है, वही कुछ को उस नाम से जुड़ जाने के कारण हम मुग्ध भाव से स्वीकार कर लेते हैं. मुग्ध का अर्थ मूर्ख होता है यह तो जानते हो न।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"नहीं जानता हूँ तो तुम्हे देख कर जान लूँगा।" उसने चुटकी ली।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"नहीं जान पाओगे. मैं आईना दिखाता भर हूँ पर आईना तो हूँ नहीं।" मैंने कुछ चिंतित दीखते हुए कहा, ”तुम धुले हुए मस्तिष्क के आदमी जो ठहरे।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वह इसे अपनी प्रशंसा मान कर प्रसन्न हो गया, पर जब आगे कहा, "तुम्हारी ब्रैनवॉशिंग पूरी हो चुकी है। हमारी शिक्षा-प्रणाली जिनके हाथों में रही है, उन्होंने लम्बे समय से यही किया है।" तो उसकी हालत देखने लायक हो गई।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने विषय को मोड़ दिया, “मैं जब अपने बच्चों के पास अमेरिका में था तो फुर्सत रहती थी इसलिए टीवी भी देखता था। वहाँ कुछ शिक्षा के बड़े रोचक कार्यक्रम देखने को मिले। एक था डर और घृणा से लड़ने पर। जिन जानवरो, कीड़ों मकोड़ों से हम डरते हैं या देख कर ही भन्ना उठते हैं उनको वे छोटे बच्चों की हथेली पर ही रख देते थे। वे कुछ नहीं करते। इससे ही साहस पैदा होने पर तुमने कई बार हिंस्र जानवरों को या साँपों को भी पालने, उनको अपने शरीर पर रेंगने देने के घरेलू दृश्य देखे होंगे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“हाँ देखे तो हैं। परन्तु क्या वहाँ जानवरों को पिजड़े में रखने पर रोक नहीं हैं?” </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“नहीं, उस तरह की मूर्खतापूर्ण रोक नहीं है जिस तरह की रोक उनकी ही नक़ल पर जानवरों के प्रति क्रूरता की नकली समझ के कारण हमारे यहाँ लगा दी गयी। जीव-जंतुओं के प्रति जिज्ञासा बढ़ती, प्रेम बढ़ता है, और उनसे दूर रहने पर निष्ठुरता न भी आये, उदासीनता और असुरक्षा का भाव तो पैदा होता ही है। अन्य सामानों की तरह जानवर भी बिकते हैं। जब चाहो खरीद कर ला सकते हो। पर उसके बाद उनकी देखभाल में असावधानी बरती गई तो उसकी जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है। शिकायत मिलने पर सजा भी मिलेगी। निकट परिचय से भय दूर हो जाता है। अपरिचय एक तरह का अन्धकार है और जैसे अँधेरे से डर लगता है कि पता नहीं उसके भीतर कहाँ क्या छिपा बैठा हो, उसी तरह अपरिचय की स्थिति में लगता है कि अगला पता नहीं कब धोखा देदे और क्या कर बैठे।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वह सहमत हुआ, “हाँ यह बात तो है”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने अपनी बात जारी रखी, “हम शत्रु देशों से भी अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए लगातार उनके साथ बात करते हैं, उनके दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न करते हैं और वही काम हम अपने ही समाज के भीतर नहीं कर सकते इससे दुर्भाग्यपूण बात क्या हो सकती है।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“बात तो अपनी जगह सही लगती है।“ उसने अनमने ढंग से हामी भरी.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने उसकी खबर लेते हुए जड़ा, “और इस अस्पृश्यता के जनक तुम हो। तुम से मतलब वह शिक्षा प्रणाली जिसने वैचारिक असहिष्णुता और अस्पृश्यता को पैदा किया, बढ़ावा दिया और खुद ही रोना रो रही है कि वैचारिक असहिष्णुता बढ़ रही है और दोष दूसरों के मत्थे डाल रही है। ‘कर के खुद क़त्ल अब वह खुद हमीं से पूछते हैं, ये काम किसने किया है, ये काम किसका है?" </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वह अपनी से बाज तो आ नहीं सकता, “तुमने ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ पढी है।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुमने अपनी आँखों से कुछ देखा है?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“मैंने जो पूछा उसका जवाब तो दिया नहीं।” </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“मैंने अभी हाल ही में पढ़ी है। तुम उसे पढ़ नहीं सकते क्योंकि तुम्हे पढ़ने भी नहीं आता. तुम फ़िक़रे तलाशते हो जो रोड़े पत्थर की जगह ज़बानी जंग में काम आ सकें।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वह उत्सुकता से देखने लगा तो अपने स्वर को कुछ संयत करते हुए कहा, "देखो कोई लिखित या कथित बात हवा में नहीं होती। उसका एक सन्दर्भ होता है। उसका अर्थ और प्रभाव उस सन्दर्भ से ही निर्धारित होता है। तुमने शब्दों को देखा होगा, सन्दर्भ का ध्यान न रखा होगा। यह पुस्तक १९३९ में लिखी गई थी। उस समय बहुत काम लोग थे जो होश हवास में बातीं कर रहे थे। यह सिलसिला बहुत पहले शुरू हो गया था. १९२1 में ही जब खिलाफत आंदोलन के बाद पुस्कार में, अंग्रज़ों की कूटनीतिक चातुरी से मोपला विद्रोह का नज़राना मिला था, जिसमे हिन्दुओं को इतने बड़े पैमाने पर मारा गया था की गांधी जी तक ने कहा था उन्हें भी मारना चाहिए था। जब १९२३ में उसी मुहम्मद अली ने जिन्हे गांधी जी ने मुसलामानों का नेता माना था, कांग्रेस के मंच से कहा था, एक गिरा से गिरा हुआ मुसलमान गांधी से अच्छा होता है। जब इक़बाल जैसा शायर कहा रहा था, "न सँभलोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्तान वालो, तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दस्तानों में’, इतना ही नहीं, ऎसी खून खौलाने वाली पंक्तियाँ तक कि "मुहब्बत का जुनूँ बाक़ी नहीं है, मुसलामानों में खूँ बाक़ी नहीं है।' जब चौधरी रहमत अली का पाकिस्तान का खाका मुस्लिम लीग के ज़हन में उतर आया था और उत्तर प्रदेश की पहली सरकार को मुस्लिम लीग के अड़ंगों के कारण भंग होना पड़ा था और मुस्लिम लीग दंगे भडकाने वाले मुहावरों में धमकियां देने लगी थी और यह ऐलान करने लगी थी कि हिन्दुओं के साथ मिलकर मुसलमान रह ही नही सकते और कम्युनिस्ट पार्टी के मुस्लिम नेता दबे सुर में लीग के मुहावरे अपनाने लगे थे और उन्हें साथ रखने के लिए दूसरे भी रंग बदलने लगे थे। इतिहास को इतिहास में जाकर समझा जाता है, वर्तमान में घसीट कर नहीं। मैं इनमे से किसी को दोष नहीं देता, परन्तु तुम से भी यह चाहता हूँ कि कोई बात पूरे सन्दर्भ को सामने रख कर समझो और आज जब मैं इस समस्या के हल के लिए आज के सन्दर्भ में सवाल खड़े कर रहा हूँ तो जड़बुद्धि की तरह १९३९ के सन्दर्भ को मत रखो। वर्तमान से इतिहास में तुम लोग भागते हो, क्योंकि तुम वर्तमान का सामना नही कर सकते. बहुत अनर्थ किये हैं तुमने। अब उनसे बाहर निकलने के रास्ते तलाशने में मदद करो।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
11/11/2015 5:11:17 PM</div>
Astrologer Sidharthhttp://www.blogger.com/profile/04635473785714312107noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3233627672525271314.post-57661145029902679652016-01-29T18:58:00.000+05:302016-01-29T18:58:03.577+05:30हम भी एक मोटी समझ रखते हैं<div style="text-align: justify;">
तुम अपने को मार्क्सवादी भी कहते हो और मार्क्सवादियों को ही अपना निशाना बनाते हो। तुम्हें विश्वासघाती माने या कुलघाती, चुनाव तुम पर छोड़ता हूँ। और कभी सोचा भी है कि हमारा साथ छोड कर एक ऐसी राजनीति का साथ दे रहे हो जो मार्क्सवाद विरोधी है सबसे अधिक गालियां मार्क्स को वे ही देते हैं. जातपांत को, कहो वर्णवाद को वही आगे बढ़ाते हैं. समाज को बांटने का काम उनका ही है, हम लोग तो समाज को जोड़ने का काम करते हैं और मुझे ही तुम्हारी उल्टी सीधी सुननी पड़ती है। गलत कह रहा हूं?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम गलत कह ही नहीं सकते। जिस दिन गलत कहने की हिम्मत जुटा लोगे उसी दिन आदमी की तरह बात करने लगोगे।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“मैं आदमी की तरह बात नहीं कर रहा हूँ?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम माउथपीस की तरह बात कर रहे हो। जिसे तुम मार्क्सवाद विरोधी कह रहे हो वह तुम्हारी नहीं, उस मुस्लिम लीग का विरोध करता आया है, जिसकी प्रतिक्रिया में उसका जन्म हुआ था, और जिसका कार्यभार तुमने अपना लिया है।“ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम्हारे और उस संगठन के बीच कुछ गहरी समानताएँ हैं, यह तो जानते होगे?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“हमारी उससे क्या समानता हो सकती है? हम तो उसे फूटी आँखों भी देखना नहीं चाहते।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“गलत कह दिया। कहना चाहिए था कि हम तो अपनी आँख तक फोड़ सकते हैं कि उसे देखना न पड़े। गरज कि तुममें वह नफरत है जिसका आरोपण तुम उस पर करते हो। वे तुम्हारा विरोध करते हैं, तुमसे नफरत नहीं कर सकते, क्योंकि वे विचारो की भिन्नता और स्वतन्त्रता में विश्वास करते हैं तुम नहीं।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“विचारों की स्वतन्त्रता ही पर तो उनका हमला है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“विचारों की स्वतन्त्रता पर नहीं, गालियां देने की स्वतन्त्रता पर। हमला भो वे ज़बान से करते हैं कभी कभी वह तरीका भी अपना लेते हैं जो तुम हड़ताल के मौके पर काम में लाते रहे हो। ग़रज़ की इसे भी उन्होंने तुमसे सीखा।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“और वह जो हत्याएं हुई हैं, जिन को लेकर माहौल गर्म है।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“वे न उनके किसी सदस्य् द्वारा हुई हैं, न उनके शासित राज्य में।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“किया तो किसी हिन्दू ने ही।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तो उसका विरोध भी तो हिन्दू ही कर रहे हैं। तुम हिन्दू नहीं हो क्या? विरोध करने से रोका क्या? देखो तुम किसी भी संगठन से जुड़े हिन्दू के अपकृत्य को उनके सर मढ़ रहे हो तो किसी भी संगठन से जुड़े हिन्दू के सुकृत के श्रेय से भी वंचित न करो और फर्क करना है तो होश हवास में रह कर करो। अपनी नफ़रत के कारन घालमेल मत करो।“ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“विरोध का विरोध तो कर रहे हैं न?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“विरोध का विरोध नहीं विरोध के तरीके का विरोध और वह भी तार्किक और न्यायोचित तरीके से। इस तरह का घालमेल वे नहीं करते, नफ़रत तुममे है तुम उसे फैलाते हो एक हिन्दू के किये के लिए उससे नफ़रत और फिर हिन्दू नाम जहां जहां दिखाई दिया उससे नफरत। वे ऐसा नही करते। ज़बान तक उनकी मीठी मिलेगी, किसी से अधिक शालीन, कड़वी है तो तुम्हारी. नफ़रत से भरी। तुम बिना गाली के बात ही नहीं करते. असहिष्णुता तुममे अधिक है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“शिष्टाचार सीखना चाहो तो उनसे सीख सकते हो. वे कम पढ़े लिखे हैं. क़ायदे से अपना पक्ष नहीं रख पाते. तुम्हारे पास वाग्विदों की सेना है. तुम अपने गलत को भी सही साबित करते आये हो. पर सभ्य तुमसे अधिक वे हैं.”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम्हे हो क्या गया है, यार?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“मैंने कहा था न बौद्धिक का काम सताए हुए का पक्ष लेना है। मैं उनका पक्ष ले रहा हूँ. जवाब तुम्हे देना है। गालियां देने चलोगे तो वे तर्क से टकरा कर तुम्हारे ऊपर जा गिरेंगी. सत्य के पक्ष में हूँ इसलिए तुम्हारे वाग्विदों की पूरी फ़ौज़ को अकेले चुनौती देता हूँ। तर्क और प्रमाण के साथ आओ और मुझे गलत साबित करो। गलत साबित हो गया तो भी मेरी जीत होगी क्योंकि गलती समझ में आ जाएगी और सुधार कर लूँगा।” </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“छोडो वह बात। तुम तैश में आगये हो। हाँ, समानता की क्या बात कर रहे थे तुम। वह बताओ।“</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम्हारी पार्टी का और उसका जन्म एक ही साल में हुआ था, 1925 में। एक ही ऐतिहासिक परिस्थिति से, एक ही विक्षोभ के भीतर से। दोनों में ऐसे लोग थे जो कांग्रेस से जुड़े रहे थे, इसलिए विदेशी शासन से मुक्ति चाहते थे और कुछ समय तक कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग भी लेते रहे थे। दोनों ने कांग्रेस द्वारा तैयार की गई ज़मीन में अपनी अलग खेती शुरू की थी। दोनों जात-पांत विरोधी थे परन्तु देानों में सवर्ण ही लगातार हावी रहे।“ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“नहीं, कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में ऐसा नहीं कह सकते।“</div>
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“मैं क्या कहूँगा। मेरे पास तो अध्ययन भी कम है, अक्ल भी कम। यह तो बाबा साहब ने अनुभव किया था।“</div>
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“बाबा साहब की वजह दूसरी थी। वह समझते थे कि दलित समाज की पेट की भूख उतनी ही प्रबल है जितनी आत्मा की भूख। उसे एक धर्मव्यवस्था चाहिए जिसमें वह इसकी पूर्ति कर सके। इसलिए उन्होंने सोच-विचार कर बौद्धमत को अपने अनुकूल पाया था। हमारे यहाँ ईश्वर के लिए जगह नहीं थी।“</div>
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“यह अर्धसत्य है। तुम्हारे संगठन में सभी नहीं तो लगभग-सभी कुलीन थे। दबे पिछड़ों को अपनी फ़ौज में भरती करना चाहते थे पर उनके साथ नहीं थे वर्ना बाबा साहेब को अपनी और लाने का प्रयत्न करते. समझाने का प्रयत्न करते की ऊंची जातियां ही नहीं उनका ईश्वर भी दलितों को दबा कर रखता है। नाम सर्वहारा का लो या अल्पहारा का, उनके सपने कुलीनतान्त्रिक थे। जीवनशैली अभिजनवादी थी। उनके निजी जीवन और सार्वजनिक चेहरे में सीधा विरोध था। कभी मौका मिले तो पढ़ना ध्यान से राज थापर की वह किताब। धुन्ध छँट जाएगी।“ </div>
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वह हँसने लगा, “तुम समझते हो मैंने पढ़ा नहीं है।“</div>
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“पढ़ा तो हजम नहीं कर सके। उसकी किसी ने आलोचना भी नहीं की। रास नहीं आती थी तो उसे भूल भी गए। ऐसा न होता तो तुम भी मान लेते कि तुम्हारी पार्टी के खाने के दाँत और थे, दिखाने के दाँत और ।“ </div>
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“तुम डिस्टार्ट कर रहे हो।“</div>
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“इसीलिए तो कह रहा हूँ कि जिस किताब को तुम भी पढ़ चुके हो, उसकी ही एक इबारत को देखो तो सहीः</div>
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I understood little of it myself moving naturally and effortlessly, almost sleepwalking, towards the communists, who were as much part of the social elite of Bombay at the time as anyone else. P. 6. </div>
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“आरएसएस मोटे तौर पर बाहर भीतर एक समान थी और इसलिए अधिक अरक्षित।“</div>
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“अरक्षित। तुम यह क्यों भूल जाते हो कि ब्रितानी शासन में उस पर कभी कोई रोक-टोक नहीं लगी जब कि हमारे संगठन को भूमिगत रहना पड़ता था।“</div>
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“वह इसलिए कि वे शान्तिप्रेमी थे, तुम उपद्रवी। उनकी जड़ें भारत में थीं, तुम्हारी बाहर। वे अपनी समझ से काम कर रहे थे। तुम दूसरों के सिखाने पर। सच तो यह है कि कम्युनिस्ट पार्टी के पीछे भी ब्रितानी बुद्धि ही काम कर रही थी। वहाँ जो भी पढ़ने जाता वह मुसलमान हुआ तो कट्टर लीगी बन कर आता था और हिन्दू हुआ तो कच्चा पक्का कम्युनिस्ट।</div>
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“हाँ, तो समानता की बात तो रही गई। दोनों को बहुत अनुशासित दल माना जाता रहा है जिसका अर्थ है दोनों से जुड़ने वाले सोचना बन्द कर देते हैं और फैसला मानने की आदत डाल लेते हैं। उनकी स्वतन्त्रता उसी सीमा तक रहती है जिस सीमा तक सिखाए को भूल जाने के कारण उसे दुहराते समय अपनी इबारतें गढ़ने को लाचार होते हैं।</div>
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“परन्तु दोनों में जो सबसे बड़ा अन्तर है वह यह कि वे खंडित मानवता की बात करते हैं और तुम महामानवता के सपने दिखाते हो इसलिए हमारे सर्वोत्तम प्रतिभा सम्पन्न तरुण तुम्हारी ओर आकर्षित होते रहे हैं, जब कि उनके साथ मोटी समझ के लोगों का समूह था। वे गूंगे थे तुम वाचाल।</div>
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“परन्तु देश का जितना अहित तुमने किया है उसका शतांश भी उन्होंने नहीं किया होगा।</div>
Astrologer Sidharthhttp://www.blogger.com/profile/04635473785714312107noreply@blogger.com0