गालियाँ खा के बेमजा न हुआ

“कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब तुम मुझे मूर्ख और नासमझ नहीं कहते और फिर भी शिकायत करते हो कि गालियाँ हम देते हैं। हम तो उनमें से हैं जो गालियाँ खा के भी बेमजा नहीं होते।“ 

“देखो, बिना कारण और प्रमाण के यदि किसी को आहत करने वाले शब्द, संकेत या भंगी से काम लिया जाय तो उसे गाली कहते हैं। जैसा बात-बेबात भर्त्सना करते हुए करते हो। जब पूरे विस्तार से समझाने के बाद तुम समझ नहीं पाते, और तुमसे जवाब भी देते नहीं बनता, तो तुम्हारी औकात बताना, तुम्हे सही राह पर लाने की कोशिश जैसा होता है। यदि इसे तुम बुद्धिमानी कहते हो तो कल से बुद्धिमान कहने लगूँगा, लेकिन तुम्हारी करनी वही रही तो कोशों के नये संस्करणों में बुद्धिमान का अर्थ बदला हुआ मिलेगा। मर्जी तुम्हारी!”

‘‘मुझे आपत्ति तुम्हारी उस नादानी से थी, जिसमें तुम पुराकथाओं को पुरातत्व से अधिक विश्वसनीय मान रहे थे।’’

‘‘मैं पुराकथाओं को तो झूठ का पुलिंदा मानता हूँ। परन्तु नजर हो तो झूठ की पर्त दर पर्त में सत्य का एक अद्भुत योग मिलेगा।

देखो, पुरातत्व से भी अधिक विश्वसनीय इसलिए कहना पड़ा कि पुरातत्व के पास हड्डी है, ठीकरे हैं, बेजान चीजें हैं। पुराकथाओं के पास जबान है, कल्पना है, दिमाग है, और एक चुनौती भरी रहस्यमयता जिसके भीतर से इतिहास की वे सचाइयाँ खुलती हैं जिन तक पहुँचने का कोई दूसरा उपाय नहीं है। साथ हो तो ठीकरों  से संगीत फूटने लगे और पुराकथाओं के चरित्रों को पाँव टिकाने को नई जमीन मिल जाए। इतिहास मूर्त हो कर उपस्थित हो जाए।“

‘‘और तुम ढोल मजीरा ले कर उसकी पूजा करने लगो।’’

मैं खीझ गया ‘‘सोच नहीं पाते तो धैर्य से सुनने की आदत तो डालो।’’ और फिर समझाना शुरू किया, “देखो हमारे वर्तमान की सबसे जटिल और दुराग्रही समस्याओं का हल न तो वर्तमान में है, न ही इतिहास में। उनका हल पुरकथाओं में है, परन्तु उनकी व्याख्या के लिए जो धैर्य, समझ और सम्मान होना चाहिए उसके बिना वे तुम्हारे सम्मुख खुलेंगी ही नहीं। तुम्हारे पेशेवर इतिहासकार तो उनके साथ गली-मुहल्ले के छेड़खानी करने वाले बददिमाग छोकरों की तरह पेश आते हैं। वे इनसे छेड़छाड़ करके इन समस्याओं को और विषाक्त बनाते हैं।“

“तो तुम्हारी सलाह है कि हमें अपनी समस्याओं के समाधान के लिए पौराणिक युग की ओर लौटना चाहिए।“

“लौट सकते हो क्या? उस समय ये समस्यायें नहीं थीं क्या? तुम लोगों की समझ इतनी उथली क्यों है। बिना सोची समझी बोल कर दूसरों से आगे बढ़ने की होड़ में तुम लोगों ने जो अनिष्ट किए हैं उसका तो बोध नहीं, टाँग अड़ाने से बाज नहीं आते। पहले भविष्य में छलांग लगा कर, पूंजीवाद को धक्का मार कर किनारे करके समाजवाद लाने चले और पिट गए, अब अगर पुराण युग में खड़े हो कर समाज को पीछे लौटने से रोकने का गुमान पालोगे, पाल तो रहे ही हो, तो कामा में चले जाओगे। यात्रा शुरू हो गई है।  कल तक पुराण का नाम लेते ही पारा चढ़ जाता था, अब पता चला कि पुराण में तो गालियों का खजाना मिल सकता है तो उसमें से छांट कर वही निकालने पर जुटे हो। आज चारों ओर असुरक्षा ही असुरक्षा दिखाई दे रही है न? तुममें तो इतना भी धैर्य नहीं कि पूछते, मैं किन सबसे जटिल समस्याओं की बात कर रहा हूं।“  

उसने झेंपते हुए प्रश्न किया, ‘‘किन समस्याओं की बात कर रहे हो?’’

“सामाजिक स्तरभेद की, अस्पृश्यता की, धार्मिक विद्वेष की, राष्ट्रीय मनोबल और आत्मविश्वास की, धार्मिक टकराव की और हाँ, इतिहास की सही समझ की भी।“ 

वह मुझे ऐसी बुझी आँखों से देखने लगा जैसे उसकी आँखें नकली हों। बुझे स्वर में बोला, ‘‘बोलो।’’

मैंने कहा, ‘‘देखो, जिस कथा से इतिहास को समझने का हमने प्रयत्न किया उसके दावे अधिक अकाट्य हैं, परन्तु इनको न तो हम जानते थे न ही जानने की कोशिश की गई। जब पूरब सभ्य था तब पश्चिम उजड्ड था। वैसा जैसा उन्होंने यूरोप से चल कर बरास्ता मध्येशिया भारत पहुचने वाले आर्यो को चित्रित किया – बर्बर, चरवाहे, लुटेरे, सभ्यता द्रोही आदि। यदि उन्होंने यह आत्मप्रक्षेपण न किया होता तो हम समझ ही नहीं सकते थे कि उनका समाज तब कैसा था।  यूरोप अपने इतिहास का सामना हमारे इतिहास को जानने के बाद नहीं कर सकता था, इसलिए उसने हमारे इतिहास को नष्ट करना, विरूपित करना, हमारे बोधवृत्त से हटाने और इस खिसकाव से मिटाने का प्रयत्न किया। अपनी आज की उपलब्धियों को हमारे दो चार हजार साल पहले की उपलब्धियों से श्रेष्ठ सिद्ध करते हुए अपने और हमारे वर्तमान को सनातन बनाने का प्रयास किया। विश्व सभ्यता के अध्येता के रूप में स्वयं भी बेवकूफियाँ कीं और हमारे प्रबुद्ध जनों को अपने तर्कजाल में फाँस कर पूरे समाज को मूर्ख बनाने का प्रयत्न किया।’’ 

उसने मुँह बिचकाया पर बोलने का साहस न जुटा पाया।

मैंने कहा, ‘‘क्या तुम बता सकते हो, कोई विजेता सैन्यबल में अधिक शक्तिशाली होने के कारण या अपनी चातुरी के कारण, जब किसी देश को अपने अधिकार में ले लेता है, उसे दिखाई देता है कि पराजितों में विद्रोह की क्षमता नहीं है। वह आतंकित है। इस पूर्ण विजय के बाद वह क्यों हमारे अतीत को पढ़ना और उसे नष्ट करना आरंभ कर देता है?”

वह चुप रहा। मैंने मदद की, ‘‘क्योंकि राष्ट्रीय मनोबल की जड़ें इतिहास और पुराख्यान में होती हैं। अपने स्वामित्व को बनाए रखने के लिए, विद्रोह की संभावना और मनोबल को तोड़ने की प्रबल आकांक्षा उनमें होती है जो तुम्हें गुलाम बना कर रखना चाहते है और इसलिए जो राष्ट्रीय मनोबल के उस श्रोत को ही अपनी अपव्याख्या द्वारा नष्ट करना चाहते हैं. उस अतीत में जाने से डर उनको लगता है जो दासता के मूल्यों को अपनी महिमा के साथ जोड़ चुके हैं और  जो अपनी सुविधाओं को बनाए रखने के लिए संभावित विद्रोहों को दबाने में गुलाम बनाने वालों के सहयोगी बन चुके होते हैं और अपने ही समाज के शत्रु बन चुके होते हैं परन्तु हितैषी का नाटक करते हैं। इसलिए वर्तमान में सुविधाओं की तलाश करने वाले गुलाम बनाने वालों और उनकी मान्यताओं के साथ खड़े होते हैं और मुक्ति चाहने वाले नए सिरे से अपने इतिहास और पुराकथाओं से अपने हथियार तैयार करना चाहते हैं। जहां तक राष्ट्रीय मनोबल का प्रश्न है, पुराण की भूमिका इतिहास से अधिक महत्वपूर्ण होती है। परन्तु यह भी एक खतरनाक और दुधारा खेल है।“

“यार तुम भूमिका में ही इतना फैल जाते हो कि मैं थक जाता हूँ। लगता नहीं आज भी बात पूरी  हो पायेगी।“

“ठीक है। गंभीर चर्चा से वैसे भी तुम परहेज़ करते हो। चलो कल ही सही!“

12/14/2015 9:50:31 PM

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