मार्क्‍स की भूल

मार्क्सवादियों से तुम्हारी चिढ़ मार्क्स तक पहुँच जाती है.  तुमने कल कहा, मार्क्सवादी इतिहास-विश्लेषण मार्क्स को भी माफ़ नहीं कर सकता.

इसमें चिढ़ने जैसी कोई बात नहीं. न मैंने कोई नई बात कही. मार्क्सवाद मार्क्सभक्ति नहीं है, विश्लेषण की एक पद्धति है. यह एक दर्शन है. इसकी शक्ति को समझने में स्वयं मार्क्स से भी भूल हुई.

क्या कहते हो? मार्क्स से भी भूल हुई?

ठीक कहता हूँ. और यह बहुत अनर्थकारी भूल थी. इसने दुनिया को झकझोरा अधिक बदला कम और इतिहास की दिशा को ग़लत मोड़ दे दिया.

मैं यह सोचकर रुका कि इस पर वह कुछ न कुछ बोलेगा ज़रूर, परन्तु वह किसी तरह विचलित नही दीखा, "बोलते जाओ मैं सुन रहा हूँ."

“कई बार लगता है मैं पूरा मार्क्सवादी भी नही हूँ, कम से कम उस अर्थ में नहीं जिसमें, रक्त क्रान्ति के सपने देखे जाते हैं। मैं केवल उसके उस दार्शनिक सूत्र को ही अपने लिए पर्याप्त मानता हूँ, जिसे ऐतिहासिक और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद कहा जाता है। भौतिकवाद की भी मेरी परिभाषा कुछ अलग है। मैं निपट पदार्थवादी नहीं अपितु पुद्गलवादी हूँ। चिन्मय भूतवादी। उन्नीसवीं शताब्दी के पदार्थवाद में विश्वास नहीं करता, जिसमें परमाणु जड़ है जिससे चित खमीर की तरह पैदा होता है अपितु बीसवीं शताब्दी के भूतवाद में जिसमे जिसमें अणु की सरचना में ही ऊर्ज या इलेक्ट्रान समाहित है और जिसमें ऊर्जा द्रव्य में और द्रव्य ऊर्जा में रूपांतरित हो सकता है. मार्क्स अपने समय के वैज्ञानिक विकास को देखते अद्यतन थे पर उनके चिंतन में यह तो नही कि आगे के मार्क्सवादी अपने समय के वैज्ञानिक विकासों से मुंह फेर कर उनके समय पर ही ठहरे रहेंगे. पश्चगामिता या प्रतिगामिता इसे ही कहते हैं, जिससे बाद के मार्क्सवादी उबर नहीं पाये.

"और इस तरह मैं मार्क्स को भी विचारक के रूप में यथावत स्वीकार नही कर पाता. तहाँ तक उनकी ऐतिहासिकता की बात है, मैं वहाँ भी उनसे टकराता हूँ. मार्क्स इतिहास की गतिकी और दिशा को समझने में भी चूके. इतिहास की समझ के बिना समाज और व्यवस्था को बदला नहीं जा सकता, इसलिए ऐसे सभी लोग जो सामाजिक परिवर्तन के लिए कृतसंकल्प होते हैं, वे इतिहास के गलियारे में जाते अवश्य हैं. उन्हें स्वयं इतिहास की खोज भी करनी होती है और व्याख्या भी करनी होती है."

"क्यों, इसकी क्या ज़रूरत? हमें बदलना है जो सामने दिखाई दे रहा है. जो वर्तमान है, और समझ रहे हैं इतिहास को. इसी से तो बचना है. पुरातनपन्थिता और प्रतिगामिता से."

"यही तो चूक हुई या मूर्खता हुई हमारे मार्क्सवादियों से. पुरातन को समझना पुरातनपन्थिता नहीं है, पुरातन को जीने का प्रयास करना, उससे चिपके रहा जाना पुरातनपन्थिता है. ऐसे मार्क्सवादियों से इतिहास का भी सत्यानाश हुआ और वर्तमान का भी. तुम्हे चिकित्सा करने से पहले रोग का निदान करना होता है. केस हिस्ट्री में जाना होता है. इसके बिना ही दवा पर जुट जाओगे और उनसे सलाह लेकर दवा करोगे, जिन्होंने न बीमार को देखा न बीमारी के बारे में जानते हैं तो वही हाल होगा जो हमारे देश का और मार्क्सवादी दलों का हुआ. दवा बीमार और डॉक्टर दोनों की हालत बिगाड़ गई."

"बात कुछ कुछ समझ में आरही है."

"जो काम बीमार की केस हिस्ट्री करती है वही समाज के मामले में इतिहास करता है. मार्क्स इस विषय में सतर्क थे. अपने तई वह और ऐंगेल्स दोनों इतिहास और नृतत्व में गहरी रूचि रखते थे. उनके अध्ययन की व्यापकता चकित करती है. परन्तु वह काफी नही था. इतिहास सामाजिक शक्तियों और उन व्यक्तियों की जिनके माध्यम से यह सक्रिय होती है और जिन तरीकों से इसे हासिल किया जाता है इनको समझने की एक प्रयोगशाला है. परन्तु भौतिक विज्ञानों में भी जहाँ असंख्य शक्तियाँ किसी परिणाम को प्रभावित करती हैं उनमे भविष्य या परिणाम का पूर्वकथन प्रायः गलत होता है. जैसे कुछ समय पहले तक मौसम विज्ञान में होता रहा है. काफी हद तक यही अनिश्चितता चिकित्सा में भी बनी रहती है. इसलिए डाक्टर 'कोशिश करता है.' इतिहास का अध्ययन प्रॉक्सी से नहीं होता. हो ही नही सकता. इतिहास की समझ के मामले में इसीलिए उनसे भी चूक हुई और हीगेल से भी हुई थी. कई बार लगता है दोनों ही इतिहास का आशावादी या भविष्यवादी और सच कहो तो यूरोकेन्द्री अध्ययन कर रहे थे. मार्क्स ने तो भारत विषयक धारणा जेम्स मिल के इतिहास से ही बनाई थी जिसका विवेचन इतना नस्लवादी और कुतर्कपूर्ण है की ऑक्सफ़ोर्ड में आई.सी.ऐस. की तैयारी कर रहे प्रत्याशियों से, जिनको वह किताब पढ़ाई जाती थी, मैक्सम्युलर ने कहा था कि यदि तुम भारत को जेम्स मिल को पढ़ कर समझना चाहते हो तो समझ ही नही सकते. कोसंबी उन्हें सबसे प्रामाणिक मानते थे. ग़नीमत यह कि मार्क्स के ओरिएण्टल डेस्पॉटिज़्म की मान्यता की आलोचना कोसंबी ने प्राचीन भारत के सन्दर्भ में किया तो इरफ़ान हबीब ने मध्यकाल के विषय में. ऎसी स्थिति में जब कोई मार्क्स या एंगेल्स को प्रमाण के रूप में अपने को सही साबित करने के लिए उद्धृत करता है तो मुझे उसकी व्याख्या पर संदेह होता है. व्याख्या सही हो तो उसे किसी नज़ीर की ज़रूरत नहीं होती.”

"तुम किसकी बात कर रहे हो?"

"एक दो हों तब तो नाम लें. यह बता दूँ कि रामविलास जी और नामवर जी भी फँस जाने पर ऐसा ही करते हैं. जो भी हो न तो मार्क्स का इतिहास का ज्ञान भरोसे का है न उनकी इतिहास की व्याख्या. वह इतिहास से सीधे टकराये ही नही. जिन के माध्यम से उन्होंने इतिहास को समझा वे बेदाग़ नही थे."

"तुम यह क्यों भूल जाते हो कि किन दारुण परिस्थियों में, कितने अभावों और दबावों में, उन्हें कितना काम करना पड़ा और उन्हें समस्त दुखी और उत्पीड़ित मानवता से कितनी सहानुभूति थी."

"यहीं तो उनके  समक्ष नतशिर हो जाता हूँ. उनकी ज्ञान-साधना और लोक-मंगल-कामना को तपस्या मानता हूँ और उनको ऋषि. और यह मत समझो कि उन्हें ऋषि कहकर उनका मान बढ़ा रहा हूँ. उन्हें ऋषि कहकर यह समझने में  तुम्हारी मदद कर रहा हूँ कि ऋषि केवल वैदिक भारत में ही नही होते थे. तब तुम्हे यदि सप्तर्षि दिखाई देते थे तो आज शतर्षि मंडल मिल जाएँगे.  हाँ साथ ही यह भी समझा रहा हूँ कि ऋषियों का कहा है, इसलिए ही कोई बात मान्य नहीं हो जाती."

वह सहमत हो गया. बोला "दाग़ तो चाँद में भी है."

मैंने कहा, "तुम्हारे मुंह घी-सक्कर " पर आप जानते हैं, वहाँ न घी था न सक्कर, सिर्फ मुहावरा था और उस मुहावरे क़े साथ ही मुझे चाँद पर एक तुकबंदी याद आ गयी और मैंने सोचा उसे सुनाने का यही सही मौक़ा है, फिर भी पूछा, चाँद पर कुछ इबारतें मैंने भी लिखी हैं सुनना चाहोगे.  अपनी ही असावधानी से मेरे चंगुल में आ चुका था वह और मैंने आव देखा न ताव, अपनी तुकबंदी को पूरी बुलंदी और फारसी अदायगी से पेश करने लगा.

चाँद में शीशे तो हैं रोडे हैं कुछ पत्थर भी हैं.
गौर से फिर देखिये कुछ आशिक़ों के घर भी हैं.
शांति कुछ ऎसी कि सन्नाटे से जी घबरा उठे
यह ग़नीमत जानिए कुछ आशिकों के सर भी हैं.
यूँ तो बसने के लिए आदम हैं आदम-ज़ाद  है
और उनके ठीकरे हैं बोरिया बिस्तर भी हैं.
चाँद की कुछ रोशनी पड़ती ज़मीं पर है ज़रूर
अपने साये चाँद के भीतर भी हैं बाहर भी हैं.

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