अस्पृश्यता – 13

‘अंग्रेजी का एक मुहावरा है, चाइना स्टोर में सॉंड़। एक बार घुसकर अपनी पर आ गया तो सब कुछ टूट कर बिखर जाएगा। तुम्हारे साथ बात करते समय हर बार ऐसा ही होता है, और इसलिए तुमसे बात करते हुए डर भी लगता लगता है और बात करने को जी भी चाहता है और फिर अपने जिन्दगी भर के किए कराए पर पानी न फिर जाए इसकी चिन्ता भी करता हूँ।‘ उसने पहली बार इतनी साफगोई से अपनी बात रखी।

‘इसे इस रूप में क्यों नहीं देखते कि तुम्हें अपने नियंत्रण में रखने की योजना बनाने वालों ने तुम्हारी ज्ञान संपदा को व्यवस्थित करने के नाम पर उसी तरह तोड़ फोड़ कर तुम्हें पकड़ा दिया कि लो इसे सँभालो और मैं पहली बार उन टुकड़ों को जोड़ कर उन्हें उनकी पुरानी पहचान दिलाने का प्रयत्न कर रहा हूँ।‘

‘परन्तु तुमने जो चित्र खींचा वह बहुत निराशाजनक था। पहंले तुम्हारी व्याख्याओं से अपनी महिमा का बोध तो जागता था। कल तुमने ईसाइयत के जिस अदृश्य जाल का खाका खींचा और हिन्दुओं की जिस अधोगति का संकेत दिया वह तो डराने वाला था।‘

'आज से ठीक तिरपन साल पहले की बात है, मैं शोध के क्रम में इतिहासलेखन की सैद्धान्तिकी पर कुछ पढ़-पढ़ा रहा था कि मेरे गाइड ने सुझा दिया कि टॉयनबी को भी पढ़ जाना। सुझाव विचित्र था, क्योंकि यह एक तरह से विश्वकोश पढ्ने जैसा था, पर, सोचा कोशिश करने में क्या जाता है। उसमें हिन्दू धर्म के बारे में जब पढा कि यह मेच्योर है, तो दिल खुश हो गया और जब इसका अर्थ, उसकी ही व्याख्या से, पता चला तो उतना ही उदास होना ही था। इसका अर्थ था, अब इसमें विकास की संभावनाऍं समाप्त हो चुकी हैं। जैसे पक्की लकड़ी होती है, कुछ वैसा ही, जिसमें वृक्ष का दूध प्रवाहित नहीं होता, बढ़ने, फैलने की संभावनाऍं नहीं बच रहतीं। टॉयनबी के लेखन में ईसाई पूर्वग्रह की शिकायत अनेक आलोचकों ने की है और लम्बे‍ अरसे से हिन्दू समाज ईसाइयत के निशाने पर रहा है, इसलिए उनके मूल्यांकन को यथातथ्य नहीं लिया जा सकता।

'तुम ज्ञान बघार रहे हो या बात कर रहे हो।'

उसी विश्वकोशीय ग्रन्थ में, सभ्यताओं की स्पंर्धा की चर्चा के प्रसंग में टॉयनबी का मत था कि जब दो सभ्‍यताएं प्रतिस्पर्धा में आती हैं तो दबंग सम्य‍ता दूसरी को दबोचने का और दबाव में आई सभ्यता उसके प्रभाव से बचने, अपने आप में सिकुड़ने और उसे नकारने का प्रयत्न करती है। फिर थक हार कर दबंग सभ्यता के जिस घटक को सबसे निरापद मानती है, उसे अपना लेती है। यह घटक अपनी जगह बना लेने के बाद उसके दूसरे तत्वों को तोड़ता, कमजोर करता, हटाता चलता है और फिर दबंग सभ्‍यता उस पर पूरी तरह हावी हो जाती है। मिसाल के लिए यदि आप औद्योगिक उत्पादन अपनाते हैं, तो बड़ी मशीनों से साथ धोती, चादर, लहँगा खतरे का कारण बनेगा। आप ने तय किया कि चलो धोती की जगह पैंट पहनते हैं। अब इस पैंट को अपनाने के बाद पालथी मार कर गद्दी पर नहीं बैठा जा सकता। जरूरत मेज और कुर्सी की होगी। पीढ़े पर बैठ कर खाना भी असुविधा पैदा करेगा, फिर आप खाने की मेज का सहारा लेंगे और इस तरह दबंग सभ्यता का जो पहला, पहली नजर में निरीह सा घटक था, दूसरी सभ्यता में प्रवेश करने के बाद एक चेन रिएेक्शकन पैदा करेगा और अन्तंत: दबंग सभ्‍यता उसे परास्त करके उस पर हावी हो जाएगी क्योंकि सभ्‍यताएं आवयविक होती हैं।'

'इसमें गलत क्‍या है।'

'सभ्य‍ताएं फनीचर नहीं हुआ करती, वेशविन्यास नहीं हुआ करतीं कि वस्त्र बदलने के साथ समाज बदल जाय और उसकी आत्मा या सरल शब्दों में कहें तो चेतना का रूप बदल जाय।

यह सभ्यता की सतही समझ है। टायनबी ने हिन्दू् सभ्यता को तो परिपक्व ही कहा था यहूदी सम्यता को मृत ही नहीं, अश्मीभूत ठहरा दिया था, फिर भी यहूदियों ने दिखा दिया था कि सभ्यताएं बिखर जाती हैं तब भी मरती नहीं हैं, और विभिन्न विजातीय परिवेशों में भी अपने चरित्र को बचाए रख लेती है। उन्‍‍हीं दिनों, इससे ठीक विपरीत, एक दृष्टि के.एम. पणिक्कर की थी जो पेरू में स्वतंत्र भारत के राजदूत रहे थे और जिनका विचार था कि जब दो सभ्यताएं एक दूसरे से टकराती हैं तो कुछ समय के लिए लगता है दबंग सभ्यता दबी हुई सभ्य‍ता पर छा गई और उसे अपने रंग में रंग लिया। यह कुछ उसी तरह होता है जैसे एक गिलास में स्याही की कुछ बूंदें डाले और घोल दें। पानी का रंग स्‍याही के रंग के अनुरूप हो जाएगा, परन्तु यदि कुछ समय बाद देखें तो पाएंगे स्याही का रंग यदि गायब नहीं है तो भी नगण्य है, पानी साफ हो गया है।

'परन्तु समीकरणों, उपमाओं या माडेलों के माध्यम से हम न तो सचाई के विशिष्ट चरित्र को समझ सकते हैं न ही अपनी समस्याओं का समाधान पा सकते हैं। इसलिए ईसाइयत के हस्तसक्षेप को, इसके चरित्र और कार्ययोजना में आए परिवर्तन को, और इसके नवविस्ता‍र के संभावित परिणामों को समझना जरूरी है।

'ईसाइयत के साथ समस्या एक भिन्न मत की नहीं है, मत तो यहॉ इतने सारे हैं, एक और सही। इसकी सबसे चौंकाने वाली बात है विदेशी हितों से इसका जुड़ाव, उनके द्वारा इसे दिया जाने वाला समर्थन, उनके द्वारा इसका संचालन, इसकी राष्ट्रनिष्‍ठा का अमरीकीकरण। इसकी सुविधाओं की अल्प-जन-लभ्‍यता, और इसके द्वारा अवान्तर विकल्‍पों और संस्थाओं का भदेसीकरण और इस स्पर्धा में अपने से भिन्न बनने और अवसर को उछल कर हथियाने की आकुतलता का मध्यवित्तीेय परिवारों में प्रसार तथा इस अपेक्षा या इन अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए कदाचार और भ्रष्टाचार का औचित्य । इससे राष्ट्रीय नैतिक प्रतिरोध क्षमता में जितनी तेजी से ह्रास आता है वह हमारी चिन्ता के केन्द्र में होना चाहिए अन्यथा हम इससे उत्पन्न होने वाले नये वर्चस्ववाद को और एक भिन्न‍ प्रकार के सामाजिक भेदभाव के आसन्न परिणामों का आकलन कर ही नहीं सकते।

'इस देश की दशा अच्छी नहीं है। कानून और व्यवस्था से गहरी शिकायते हैं। आए दिन चोरी, बलात्काकर या हत्या की घटनाएं होती रहती हैं। होती रहें, परन्तु यह किसी ईसाई के साथ नहीं होना चाहिए। यह ब्राह्मणो न परोच्‍य: का आधुनिक पाठ है और इसमें वर्णव्‍यवस्‍था बदल चुकी है। अत: जिस समस्‍या से पूरा देश जूझ रहा है वह पूरे देश के साथ हुआ करे, परन्‍तु यदि किसी ईसाई के साथ हुआ तो यह अपराधी की करतूत न हो कर ईसाइयत पर हिन्दुत्व का आक्रमण बन जाएगा। इसका शोर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मचेगा। यदि उन्हें पता है कि यह किसी अपराधी का काम है तो भी आरोप और योजनाबद्ध दुष्प्रचार हिन्दू संगठनों के विरुद्ध होगा क्योंकि अपराधी को अपराधी सिद्ध करने से इस प्रचार का लाभ नहीं मिल सकता कि वे कितनी खतरनाक स्थितियों का सामना करते हुए ‘दुखी और उत्पीडि़त मानवता के उद्धार के लिए उनके धर्मान्तरण में जुटे हैं। यह प्रचार नैतिक समर्थन के साथ समर्थन मुद्रा के अतिरिक्तन लाभ के साथ लौटता है और अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के कारण संख्या में कम होने के बावजूद इसे भारतीय प्रशासनिक और मूल्यगत ढांचे को तोड़ने, बदलने और विरूपित करने में सफलता मिली है। संघ को अमेरिकी आकलन में आतंकी संगठनों की सूची में स्थान दिलाने में भी भारतीय ईसाइयत की ही भूमिका रही है क्यों कि संघ अकेला, कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि अकेला, ऐसा संगठन है जो वनांचलों और दलित स्तरों पर प्रलोभन और झांसा दे कर धर्मान्तररण का विरोध करता रहा है। उसके कुछ उत्साही जनों ने उनको समझा बुझा कर घर वापसी, अर्थात् यदि धर्म प्रचार और धर्मान्तरण का अधिकार संविधान प्रदत्त है तो इस अधिकार से हम वंचित कैसे रह सकते हैं, इसलिए यदि तुम जिन भी तरीकों से धर्मान्तरण कराते हो, उन्हीं की सीमा में रह कर हम नवधर्मान्तरितों का धर्मान्तरण क्योंं नहीं करा सकते।

इसे अक्षम्य अपराध सिद्ध करने के लिए जिस तरह संचार माध्यम होड़ ले रहे थे वह उस घर वापसी आयोजन से अधिक डरावना था क्योंकि ये माध्यम उस पूरे अभियान पर चुप रहे और ‘समझदारी से चुप क्यों कि चुप्पी् तोड़ने का साहस, दुस्साहस माना जाता, साहसी अपनी नौकरी से भी जाता, जब कि घर वापसी के आयोजन के विरोध का अधिकस्य़ अधिकं फलम्। मैं यह उदाहरण इसलिए रख रहा हूं कि यह समझा सकूं कि यदि कोई कर्म गर्हित है, उसे आप सामान्य स्थिति में नहीं करना चाहेंगे, उसे आपकी विवशता या आतुरता का लाभ उठाते हुए धन, दबाव में कैसे कराया जा सकता है। एक ही कानून का दुहरा पाठ कैसे हो सकता है। परन्‍तु संचार माध्‍यमों की प्रतिक्रिया पर ध्‍यान दो तो लगेगा वे स्‍वतन्‍त्र नहीं है। उनकाे कई तरीकों से ईसाई सरोकारों से बाधा और छाना जा चुका है और उसके भीतर ही अपनी उछलकूद को वे अपनी स्‍वायत्‍तता और अभिव्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता कह कर अपने को आश्‍वस्‍त करना चाहते हैं कि वे सचेत भी हैं, सन्‍तु‍लित भी और स्‍वतन्‍त्र भी। आमीन।'

‘उस जरूरतमन्‍द की रजामन्दी के बाद क्‍या किसी को आपत्ति करनी चाहिए।‘

’भय, प्रलोभन और छल की स्थिति में सहमति को सहमति नहीं कहा जा सकता। पहले तुम चयन और रजामन्दी में फर्क करना सीखो। धार्मिक स्वतन्त्रता में यह निहित होना चाहिए कि हम स्वयं स्वविवेक से, बिना किसी दबाय या प्रलोभन के, अमुक मत का वरण कर रहे हैं, हिन्दुत्व ने इसका इस सीमा तक आदर किया है कि एक ही परिवार का एक व्यक्ति जैन होता था तो दूसरा वैष्‍णव या शाक्त।, यह छूट पति पत्नी के बीच भी रही है। इस्लााम ने हमेशा तो नहीं अकबर के समय में इसका सम्मान किया और जोधाबाई हिन्दू रह कर मुस्लिम पति के साथ जीवन यापन कर सकीं, परन्तु ईसाइयत में हंगामा उन मुल्लाओं के तर्ज पर होता है कि एक बार जो मुसलमान हो गया वह स्वेच्छा से या किसी के समझाने मनाने से भी यदि अपने पुराने धर्म में वापस जाना चाहेगा तो उसे जान गँवाने की कीमत पर ही ऐसा कदम रखना होगा। एक बार मुसलमान तो हमेशा के लिए मुसलमान। यही ईसाइयत पर भी लागू है फिर एक बार हिन्‍दू तो हमेशा के लिए हिन्दूु का अधिकार भी तो हो। जो सबको सुलभ है वह हिन्‍दू को भी तो सुलभ हो।

' देखो, यह तर्क भी गर्णित के स्तर पर सही है, समाजशास्त्र में गलत है क्योंकि समाज में ऐसा एक विशाल तबका होता है जिसे गिनना तक नहीं आता और जो गणितज्ञ होते हैं वे आलसी होते हैं, सब्जी वाले से भाव तो पूछते हैं पर हिसाब लगाने का जिम्मा उसी पर छोड़ देते हैं, और व्यावहारिक अर्थशास्त्र का संचालन वह करता है जिसे गणित का कामचलाउू ज्ञान है। ‘

‘धैर्य की भी एक सीमा होती है, यार।‘ वह उठ खड़ा हुआ।

मैंने कहना चाहा, ‘विषय की तो नहीं।‘ पर चुप रहा। वह ठीक कह रहा था।

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