अस्पृश्यता 20

"तुम्हारी बात में कुछ दम तो है, परन्तु मैं इसका रहस्य नहीं समझ पाया।''

'' इतिहासकार हमें यह समझाते रहे कि वर्णव्यवस्था से सताए हुए लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया, जिसका सार यह कि यदि वर्ण व्यवस्था न होती तो बाहर से मुसलिम जिस भी रूप में आए होते, उनकी संख्या उतनी ही रह जाती, जब कि जिन देशों में वर्ण-व्यवस्‍था नहीं थी उन पर आक्रमण के बाद देश के देश मुसलमान हो गए। तुर्कों और हूणों और शकों से तो आसपास के सभी देश थर्राते थे, परन्तु मुस्लिम सेनाओं के सामने वे टिक न सके ।''

''ठीक कहा तुमने। परन्‍तु क्या तुम यह कहना चाहते हो कि हमे वर्णव्यवस्था ने बचाया?''

देखो, पहली बात तो यह कि तुम यह न मान कर चलो कि मेरे पास सभी प्रश्नों के अन्तिम और सही जवाब हैं। मैं कई विषयों में टॉंग अड़ाता हूँ। जाहिर है मेरा किसी का ज्ञान संतोषजनक नहीं हो सकता और इसलिए मैं तुमसे अधिक गलतियॉं करता हूँ। एक और कारण है तुम्हारे हमेशा सही होने का, कि तुम कुछ कहते नहीं हो, जो सुना और पढ़ा है उसे दुहराते हो, इसलिए गलतियॉं तुमसे हो ही नहीं सकतीं। यदि गलत सिद्ध होगा भी तो वह जिसकी बात तुम दुहराते रहे हो। गलतियॉं करने का और उनसे सचेत करने का काम मेरा ही है।''

वह हँसने लगा पर ऐसी हँसी जिसमें झेंप मिली हो।

''जैसा मैं पहले कह आया हूँ किसी परिघटना के पीछे अनेक कारण होते हैं, जिनमें कुछ दृश्य होते हैं तो धुँधले और इसलिए अनुमेय और कुछ इतने सूक्ष्म और अदृश्य होते हैं जिन्हें प्रयत्न करके भी जाना नहीं जा सकता । यहॉं भी ऐसा ही लगता है। इनमें एक भूमिका वर्ण-व्यवस्था की भी हो सकती है। एक भूमिका अस्पृश्यता की भी हो सकती है और एक भूमिका हमारी मूल्य-व्‍यवस्‍था और बहुलता की भी हो सकती है। ये सभी एक दूसरे से मिल कर एक संकुल बनाते हैं और एक दूसरे को शक्ति देते हैं, जिसे आवयिकता कह सकते हैं।

''तुम एक उलझी हुई समस्या को और उलझा रहे हो ।''

''देखो हमारे इतिहास के धुरन्धंर समझे जाने वालों ने भी कुछ भूलें की हैं, जिनमें से एक रहा है कि यदि समाज वर्ण-विभाजित न होता, लड़ने का काम केवल क्षत्रियों का न होता, तो किसी आक्रमण की स्थिति में पूरा समाज उसका सामना करता और हमें हार का मुँह न देखना पड़ता। परन्तु एक विकसित समाज कबीलाई नियमों से नहीं चल सकता, जिसमें लगभग सभी सभी काम करते हैं, पर काम का दायरा सीमित होता है। कबीलाई समाज के लिए हमारे यहॉं आशुसेन और सर्वसेन का प्रयोग हुआ है, अर्थात् उसके सदस्य आनन फानन में लड़ने को तैयार हो जाते हैं और सभी के सभी लड़ते हैं। गणपति ऐसे ही कबीलाई चरण के देव है । कबीलाई समुदाय जुझारू जितना भी हो, हारता है तो पूरा कबीला। अरब से लेकर मध्येेशिया तक का और यूरोप के भी एक बड़े भाग का समाज कबीलाई रहा है और इसलिए इनके पराजित होने के बाद समूचे कबीले का इस्लाीमीकरण स्वामभाविक था। केवल ईरान की स्थिति भिन्न थी और वहाँ कुछ प्रतिरोध भी हुआ परन्तु अन्त में उसका लगभग समग्र इस्लामीकरण हो गया। भारत में यदि लड़ता क्षत्रिय था तो हारता वह अपना राज्य था, धर्म परिवर्तन की किंचित संभावना बन्दी बनाए गए सैनिकों और सरदारों में भी होती थी। उनके साथ किसी तरह का सलूक किया जा सकता था । उन्‍हें दास बना कर बेचा जा सकता था । स्त्रियों को रखैल बनाया, बेचा जा सकता था। विरोध न करने की स्थिति में भी बचाव न था। इस अपमान से बचने के लिए ही राजपूत केसरिया बाने में मरने के लिए तैयार हो कर निकलते थे स्त्रियॉं जौहर का वरण करती थी। परन्तु शेष समाज अपनी गति से एक शासक की जगह दूसरे के अधीन चलता रहता था।''

''परन्तु यह पर्याप्त कारण नहीं प्रतीत होता।''

परन्तु जो सबसे बड़ा कारण था उसे तुम भारतीय मूल्य-व्यवस्था कह सकते हो। देवों असुरों के समुद्र मंथन से कोई रत्न निकला था या नहीं, क्योंकि जिन रत्नों को गिनाया गया है वे सुदूर व्यापार से जुड़े तत्व हैं, परन्तु देवासुर संघर्ष और मूल्यों के मंथन से वह अमृत अवश्य निकला था जिसे भारतीय मूल्य् कह सकते हो और जिसे फेसबुक के हमारे एक मित्र ने अभी हाल ही में उद्धृत किया था : धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रह: धी: विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ ६. ९२ ॥ परन्तु यह बताने की जरूरत नहीं समझी थी कि वह मनुस्मति नाम के उसी बदनाम ग्रन्थ में दर्ज है जिसे सैनिटरी इंस्पेक्टर की निगाह से पढ़ा जाता रहा है इसलिए जिसकी जटिलता और उज्वल पक्षों को सिरे से गायब कर दिया गया। जो भी हो, धीरज, क्षमा, अस्तेय, अपरिग्रह, शुचिता, इन्द्रियनिग्रह, चिन्तन, ज्ञानार्जन, सत्य और क्रोध से बचना ये ही धर्म है, इन्हीं का पालन करने से मानवता की रक्षा और विकास हो सकता है, और यदि सनातन धर्म जिसके लिए ऐतिहासिक कारणों से हिन्दूं धर्म का प्रयोग होने लगा, यही है और वे जीवनादर्श, जिनके निर्वाह के बिना मानवता का वर्तमान सुखी और भविष्य सुरक्षित नहीं रह सकता वे क्‍या इसके अनुरूप नहीं हैं।''

वह हँसने लगा, ‘’तुम भी किताबी बातों को सचाई मान लेते हो। इनका निर्वाह कभी हुआ, कभी भी हुआ हो तो मुझे बताओ।‘’

’’देखो विषयान्तर हो जाएगा और फिर लौटना भी चाहें तो पुरानी जमीन न मिलेगी। पर इतना समझ लो कि आदर्श दर्शन के लिए होते हैं, वे आचरित नहीं होते, परन्तु आचरणीय होते हैं, वे हमारे आचरण को नियन्त्रित करते है और अपनी ओर बढ़ने की चुनौती पेश करते हैं। ये चुनौतियॉं ही हमें, हम जो कुछ थे, उससे अलग और ऊपर ले आई हैं। क्रूरता उन समाजों में भी होती है जो अहिंसा और दया का पाठ पढ़ाते हैं, और दया और प्रेम उन समाजों में भी होता है जिन्हें हम क्रूर समझते हैं, यहॉं तक कि हिंस्र पशुओं में भी, अन्यथा हिंस्र पशु अपने बच्चोंै से प्यार न करते, उनकी इतनी चिन्ता न करते और किन्हीं विशेष परिस्थितियों में जिसे भक्ष्य मान कर उठा ले गए थे उससे किसी कारण इतना प्रेम न उमड़ पड़ता कि उसे अपने बच्चे जैसा पालते और अपनी जमात में शामिल कर लेते। तुमने रामू भेडिये की कहानी सुनी है न? बस अब आगे मत बोलना। ठीक है।‘’

‘’चलो, ठीक।‘’

’’एक बार मैं पहले भी कह आया हूँ, ये आदिम अवस्था से आए मूल्य हैं और इनको जिसे तुम वर्णवाद या ब्राह्मणवाद कहते हो, उसने भी अपनाया परन्तु, इन्हें पूरी तरह निभा न सका। ये मूल्य उसके नहीं आदिम समाज के थे। मेरी बात पर तुम्हें भरोसा न हो विल ड्यूरॉं का ‘अवर ओरिएंटल हेरिटेज पढ़ लेना, तब शायद यह तुम्हें ठीक भी लगे।

''सच कहो तो आदिम समाज के इन आदर्शों की कसौटी पर हमारा वर्णसमाज स्वयं अंशत: उन मूल्योंं से जुड़ा हुआ था जिन्हें वह राक्षसी कहने लगा। यह एक तरह का आत्म-प्रक्षेपण था। परन्तु उसने इसके सामने सिर झुकाए, इन्हेंं सर्वोपरि माना, यज्ञ और रीति‍विधान आदि से भी ऊपर, और इनसे पैदा हुई एक सार्वदेशिक मूल्य-प्रणाली जिसे आटविक समाज से ले कर अपने को सभ्य मानने वाले समाज तक सभी मानते थे और इससे विपरीत आचरण के प्रति इतनी गहरी घृणा थी कि वे प्राण दे सकते थे परन्तु उन मूल्यों को नही अपना सकते थे। और उन मूल्यों पर गर्व करने वालों से अपनत्व‍ नहीं रख सकते थे। उन्होंने अकह यातनायें सहीं, मृत्यु का वरण किया, परन्तु ऐसा धर्म या विश्वास स्वीकार न किया जिसकी मूल्य-व्यवस्था इससे उलट थी। इसी के साथ जुड़ा था वर्जना या टैबू का निषेध भाव। इन अपेक्षाओं पर खरा न उतरने वालों से परहेज या अस्पृश्यता का भाव। इस बात को दुहराने की जरूरत नहीं है कि यह अस्पृश्यता आदिम समाज से ले कर ब्राह़मणों तक एक समान व्याप्त थी ।

''क्या इसमें पुनर्जन्म‍ की भी कोई भूमिका थी।''

''कमाल है, इस ओर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया था, परन्तु उसका हाथ होना चाहिए। जो अनुचित और वर्जित हैं उसके अनुसार बन कर तो हम इस जन्म में ही राक्षस हो जाऍंगे। मरना कबूल है, यातना सह्य है, पर जन्म बिगाड़ना सह्य नहीं। इसके बिना संभवत: नैतिक प्रतिरोध दुर्बल हो जाता।

''परन्तु इस बात पर भी गौर करो कि पश्चिमी लेखकों ने दरिंदगी के अपने मूल्यों के अनुसार बार बार यह दुहराया है कि हिन्दू भीरु थे, कायर थे इसलिए हारते रहे, यह शौर्य और कायरता की परिभाषा को बदलने का दुस्साहस है जिसे उन्हें स्वयं नकारना होगा अन्यथा सभ्य नहीं कहे जा सकते। मौत के सम्मुख निडरता, नैतिक विवेक को डिगाने वाली यातना के सम्मुख निर्वेदता के असंख्य उदाहरण तुम्हें भारतीय इतिहास में मिलेंगे जिनकी तुलना ईसा के शूली पर चढ़ने की कल्पना या सचाई से ही की जा सकती है। निहत्‍थों, बच्चों , स्त्रियों, बूढ़ों, मत्त अथवा मन्दमति और विक्षिप्तों के अपकारों को क्षमा करते हुए उन पर आघात न करने वाले और कठिन परिस्थितियों में मौत और यातना से विचलित न होने वालों को तुम कायर नहीं कह सकते। कायर कहना ही हो तो उन्हें कहना होगा, जो सर्वथा सुरक्षित रह कर विजित और विवश और अरक्षणीय जनों पर अत्याचार करते थे। ऐसे लोगों को शूर कहना हो तो जल्ला‍द और कसाई के शौर्य के कसीदे पढ़ने होंगे। आज जब मानवमूल्यों में स्खलन के कारण ही यह स्थिति आ गई है कि हम मानवरचित प्रलय के निकट बढ़ते जा रहे हैं, हमें यह तय करना होगा कि दुनिया को जो मूल्य आज भी बचा सकते हैं उन्हें क्या नाम दें। हिन्दू नाम देना तो ठीक न रहेगा, परन्तु हिन्दू मूल्यों के लिए ही कोई दूसरा पर्याय तलाशना होगा।

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