अस्पृश्यता - 6

"तुम कभी अमेरिका गए हो।"  आज वह कुछ पूछता इससे पहले मैंने ही पूछ लिया। 

"तुम जा रहे हो? अमेरिका की बात कैसे आ गई? आज तो कहीं गए बिना ही सारी दुनिया को घर बैठे देख लो। अमेरिका जाने की क्या ज़रूरत है।

मतलब नहीं गए हो। कोई बात नही, तुम उस रोज कह रहे थे राज थापर के ‘मेमोयर्स’ तुमने भी पढ़ रखी है। अमरीका के काले लोगों के बारे में उसमें जो टुकड़ा है उसकी याद है?

‘तुम जानते हो मुझे इसकी याद क्यों आई?’

‘याद तुम्हें आई और कारण मैं बताउूं?’

‘मैं सोच रहा था कि राज को इतनी सुविधा थी फिर भी उन्होंने वह तो देखा ही नहीं जो देखना चाहिए था। अमेरिका के मूल निवासी जो नाम मात्र को बचे रह गए थे, उनमें से किसी को देखा होता। किसी से पूछा होता कि तुम अपना इतिहास अपने बच्चों को क्यों नहीं पढ़ाते? पूछा होता तुमने उन सभ्यताओं को कहाँ दफ्न कर दिया जिनकी कुछ उपलब्धिश्यां तुम्हारे उस काल से आगे थीं जब तुम उन्हें मिटा रहे थे? पूछा होता तुम इतने कायर क्यों हो कि उनको विश्वासघात करके, उनकी आदतें बिगाड़ कर, उनमें बीमारियाँ फैला कर मारते रहे और पूरी आबादी का सफाया कर दिया और जो किसी चमत्कार से बचे रह गए उनके माध्यम से उनकी संस्कृति, उनकी भाषा की रक्षा के प्रयत्न करते हुए दुनिया को यह दिखा रहे हो कि हम सम्यता और मानवता को बचाने की कितनी कोशिश कर रहे हैं। पूछा होता विनाश के कगार पर खड़े पशुओं के लिए अभयारण्य बनाने की तर्ज पर तुमने उनके संरक्षित क्षेत्र में दखल देना तो छोड़ दिया, परन्तु उनमें नशे के कारोबार को खुली छूट दे कर तुम उनकी संस्कृति को बचा रहे हो या अधिक विकृत कर रहे हो। चलो, राज किसी शोधयात्रा पर नहीं गई थीं, इसलिए अपनी सीमाओं में उन्होंने जो देखा और जिस दृढ़ता से प्रस्तुत किया उसके कारण मेरे मन में उनके प्रति बहुत सम्मान है।‘ 

‘जब मैंने पढ़ा था तो विश्वांस नहीं हुआ था। कहीं यह सन्देह था कि अतिरंजना से काम लिया गया । जब अपनी आँखों कुछ चेहरों को, कुछ बच्चों को, वे पता नहीं कहॉं से उस पार्क में बच्चों  के खेल के लिए बने कोने में आ जाते थे, देखा तो विश्वास नहीं हुआ कि कितनी वेदना दिन रात झेलते हुए, कितना गुस्सां अपने मन में दबाए हुए, वे आज तक उस संपन्नता के बीच जी रहे हैं और क्यों  वह गुस्सा प्राय: अपराध बन कर भड़क उठता है? उतने बुझे हुए चेहरे जिन्हें देख कर कल्पना ही न  हो कि वे कभी हँसते भी होंगे, या हँसते होंगे तो कैसे लगते होंगे। केवल एक काला आदमी जो किसी अच्छे पद पर रहा होगा, एक पुस्तकालय में दिखा था जिसके चेहरे पर चमक भी थी और हाव भाव में आत्मविश्वास भी था। यह स्थिति आज भी है।

‘’एक विख्यात संगीतकार की जीवनी पढ़ रहा था, तो पता चला यातनावध की नौबत आज भी आ जाती है, सांप्रदायिक दंगे कुछ राज्यों में भड़कते ही रहते हैं और कोई जगह जहॉं केवल उनकी आबादी हो गोरों के लिए सुरक्षित नहीं मानी जाती न गोरों के बीच वे सुरक्षित अनुभव करते हैं।‘

‘अपने यहाँ क्यों नहीं देखते तुम?‘ 

‘देख कर ही कह रहा हूँ। यहॉं जुगों से चला आया सामाजिक स्तरभेद है, आर्थिक विषमता और विपन्नता है अशिक्षा है, और इन सब के बीच भी उन लोगों में भी हँसी, मजाक, चुहल होती रहती है. चेहरे पर उदासी के क्षणों में भी वह बुझा बुझा सा भाव नहीं मिलता। तभी मैं कह रहा था कि मनुष्य अपने जीवन में युगों को जीता है केवल वर्तमान क्षण को नहीं। वह दासता समाप्त  हो कर भी अन्तर्दाह के रूप में बनी रह गई। उसे हमारे समाज में सामाजिक स्तर भेद और विपन्न‍ता से पीडि़त जनों में भी नहीं देखा।‘

‘वही देखना बाकी रह गया है?‘ 
‘मैं तुम्हें वेल्डान जानसन जो बहुत बड़े संगीतकार बने और जो एक काली मॉं से एक गोरे बाप की सन्तान थे, और रंग-रूप बाप का पाया था, उनकी जीवनी के कुछ अंश सुनाना चाहूँगा: 

''कोई चारा तो है नहीं सुनना ही पड़ेगा.'

’’ दूसरे काले बच्चों और बच्चियों को वे और अधिक हिकारत से देखते थे। कुछ लड़के अक्सर उन्हें निगर कहते थे। कई बार स्कूल  से घर लौटते समय लड़कों का एक झुंड हमारे पीछे लग जाता और फिकरे कसता ‘निग्गर निग्गूर नेवर डाई, ब्लैक फेस ऐंड शाइनी आई।‘ द बायोग्रैफी आफ एन एक्सक-कलर्ड मैन, पृ. 25 

’जब स्कूल की छुट्टी होती, मैं बदहोश सा हो जाता। कुछ एक गोरे लड़के ताने मारते, ‘ओए, तू निग्गर है और मैंने कुछ काले लड़कों को यह कहते सुना कि हमें पता था यह भी काला है।‘ 28 

’मैंने अपना सिर उसकी (मॉं की गोदी में धसा दिया और बोल पड़ा मां क्या मैं निगर हूँ. मैं उसका चेहरा तो नहीं देख सकता था, पर महसूस किया कि उसने अपना हाथ मेरे सिर पर रख दिया है। 36

’और यह संघर्ष कैसे पहलू बदलता रहा। पहले लड़ाई इस बात को ले कर थी कि क्याा नीग्रो के पास आत्मा होती है । क्या उसे इन्सान कहा जा सकता है। बाद में बदल कर यह हो गई कि क्या उसमें इतनी भी अक्ल होती है कि वह अक्षर ज्ञान और जोड़ घटाना तक सीख  सके और आज यह उसकी सामाजिक पहचान की लड़ाई का रूप ले चुकी है। 130 

कालों की अपनी प्रतिक्रिया के बारे में वह लिखते हैं- 

’उनके मन में सभी गोरों के प्रति एक दबी हुई घृणा है और अपनी जान की वे कोई कीमत नहीं समझते । मैंने कई बार उनके मुँह से सुना है मैं नरक में जाने के लिए तैयार हूँ, लेकिन जो भी गोरा सामने आ गया उसकी तो छुट्टी कर ही दूँगा। 133

मुझे पक्का  विश्वास है कि दक्षिण के गोरों के पास, सिर्फ अपनी आज की खुशी के लिए नहीं बल्कि भावी सुरक्षा के लिए भी सबसे जरूरी काम है कालों की संख्या कम करना। ... उनकी संख्या् को गोली मार कर या आग में झोंक कर कम नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे इतन हताश हैं कि उनको जितनी भी यातना दे कर मारो, उनकी नफरत और गिरावट को कम करने में असरदार नहीं हो सकती। इस श्रेणी के काले गोरी चमडी़ वालों की हर चीज से नफरत करते हैं और गोरे उन्हें बिगड़ैल खच्चर समझते हैं जिससे काम लिया जा सकता है, पीटा जा सकता है और अगर वह दुलत्ती मारता है तो उसकी जान ली जा सकती है. 134-35 (पन्नोंअ की संख्या  किंडिल बुक की है न कि मद्रित पुस्तक  की)। 

तुम्हारे पास तो पूरी किताब है, पढ़ते जाओ, पर यह पवांरा सुना क्यों रहे हो? 

इसलिए कि यह बता सकूँ कि यह कहानी उस अमेरिका की है, जिसने दासता से मुक्ति के  लिए एक लंबा संघर्ष किया। जिसमें हैरिएट बीचर स्टोैव जैसे साहित्यसकार शामिल थे, थियोडोर पार्कर जैसे धर्मोपदेश शामिल थे, लायड गैरिसन जैसे जुझारू पत्रकार शामिल थे और जिसने इसके लिए एक ग़ृहयुद्ध लड़ा, जिसके संविधान में समानता को स्थान मिला, जिसमें इतने लंबे समय से सामाजिक सुरक्षा प्रदान की गई है। अनुसूचित जनों और जातियों के लिए यह सुरक्षा हमारे यहॉं अमेरिका के संविधान की नकल पर ही दिया गया लगता है, फिर भी डेढ़ सौ साल बीतने के बाद भी, रंगभेद  कानूनी तौर पर समाप्त  करने के बाद भी क्या कोई सुधार हुआ? मैं कहना चाह रहा था कि कानून सामाजिक न्याय दिलाने की द़ृष्टि से कितना पंगु है। 

तुम चाहते हो जो जैसा है वैसा ही चलने दिया जाय ? 

नहीं, मैं कहना चाहता हूँ कि यह काम कला और साहित्य का है। बौद्धिक का है। उसका काम जो अपनी जगह से खिसक कर राजनीति करने लग गया और बुद्धिजीवी बन गया। अपनी बुद्धि को बेच कर खाने कमाने वाला मेरुदंड हीन सरीसृप, पर फणा ऐसी तनी मानो कि पॉंवों पर खड़ा है।  अमेरिका का गोरा अमेरिकी काले  को अपनी कहानियों और विचारों में जगह नहीं देता। वे अपनी लड़ाई अलग लड़ते हैं। कटुता और अलगाव तो पैदा होगा और बना रहेगा ही। लेकिन जिस विषय पर बात करने चला था वह तो रह ही गया। कल सही।

28-दिसम्बर-2015

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें