अस्पृश्यता – 11

हॉं अब बताओ, कल क्या कहने को बाकी रह गया था।

'कई बातें और कई तरह की बातें हैं। उन्हें समझे बिना हम मध्यकाल तो दूर, आधुनिक काल को भी नहीं समझ सकते। जैसे कि जिसे हम धूर्तता या मूर्खता कहते हैं वे विश्वास का अंग बन जाने के बाद समझदारों के दिमाग को भी नियन्त्रित करती है।‘

‘तुम साफ बोलना कब सीखोगे?

‘देखो ईसाइयों ने स्वर्ग और नरक का भय दिखा कर प्रलय का भय दिखा कर लोगों को धर्मान्तरित करने का जाल रचा। परन्तु यदि यह प्रलय अनन्त काल बाद आये तो स्वर्ग का लोभ और नरक का भय समाप्त हो जाये। इसलिए सृष्टि और प्रलय का दायरा कम करना था। वे प्रलय आने ही वाली है की दहशत पैदा करके अपना काम आसान करना चाहते थे।‘

‘हमारे यहाँ भी था यार। चोटी काल गही, पल में परलै होयगी, जैसी इबारतें तुम्हें याद नहीं आतीं?’

‘जीवन की नश्व रता की धारणा तो रही है। सृष्टि और प्रलय के लिए ऐसी संकरी समझ नहीं रही है। कबीर में भी परलै जीवन के लय या किसी भी कारण से किसी भी समय किसी की मौत आ जाने से है, न कि प्रलय से। हमारे यहॉं कर्म-फल के भोग के लिए इस जन्म में ही इसका कुफल भोगने, अगले जन्म में दुख या हीनतर योनि में जन्म का भय दिखाया जाता रहा इसलिए सृष्टि और प्रलय के समय को संकुचित करने की आवश्यकता न थी। परन्तु जहाँ पुनर्जन्म की अवधारणा नहीं थी, फैसले के दिन अनन्त काल के लिए सुख या यातना के स्वर्ग या नरक का ही विधान था, वहाँ अनन्त काल तक इसकी प्रतीक्षा करने पर इसका प्रभाव कम हो जाता इसलिए काल सीमा घट गई। अग्रधर्षी ईसाइयत ने इस अवधि को कम कर दिया। सत्रहवीं शताब्दी में कैथलिक आर्कबिशप जेम्स उशेर (James Ussher) ने सृष्टि की तिथि 4004 ईसापूर्व में नियत की जो ईसाई विद्वानों के बीच लम्‍बे समय तक मान्य रही। इससे पहले भी सृष्टि र्इसा के जन्म से पाँच हजार साल पहले ही सुझाई गई थी। प्रलय या होलोकास्ट का अन्देशा तो उनमें लगातार बना रहा है, जिस तरह की सामरिक तैयारी को बढ़ावा देते आए हैं उसमें यह नौबत आ भी सकती है।‘

‘तुम को तैंतीस कोटि योनियों में भटकाने के लिए बहुत लम्बेस समय की जरूरत थी, इसलिए उसके अनुसार तुमने विराट युगों और कल्पोंं की कल्पुना की। उनका पुनर्जन्मे में विश्वाकस न था इसलिए अपनी जरूरत से इसे छोटा कर लिया, इसमें हर्ज क्याल है? 

‘हो सकता है तुम्हा री बात सही हो, पर हमारी बात आधुनिक विज्ञान की सचाई के अनुरूप रही है, यह तो मानोगे। यह केवल हमारी ही नहीं अग्रधर्षी ईसाइयत के उदय से पहले की सभी सम्यूताओं में काल या एक विराट बोध रहा है। ईसाइयत ने उस बोध को नष्टई किया। और जानते हो जिस बहुदेव वाद को पैगानिज्मत कह कर इसे कई तरह से कलंकित किया गया, उसमें ठीक वैसी ही उदारता थी, दूसरे धर्मो, विश्वायसों के प्रति सहिष्णुतता का भाव था। रोम में भी इससे पहले यही हाल था। इसलिए यह बहुदेववाद की विशेषता है न कि केवल हिन्दूस समाज की।‘

‘अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के सबके पास अपने तर्क होते हैं।‘

‘मैं श्रेष्ठता के लिए नहीं कह रहा था, मैं कुछ अलग ही बात करना चाहता था, तुमने टोक कर भटका दिया। नरक की आग में जलने की कल्पंना और रौरव नरक में सड़ने की कल्पतना में जलवायु की भूमिका पर कभी ध्याेन देना। वह जलवायु जिसमें सहारा के रेगिस्तान की जलाने वाली गर्मी का अनुभव जुड़ा हुआ है, दोजख की आग की बात करती है, जिसे दंडनीय मानती है उसे जिन्दा जला कर मारने में संकोच नहीं करती, और हमने अपनी आर्द्रताबहुल जलवायु के अनुसार सड़ॉंध वाले कुम्भीापाक की कल्पना की इसलिए मलिनता और सडॉंध को उस पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया कि वह कर्म से जुड़ने के साथ जाति से भी जुड़ जाय और उस जाति का व्यक्ति यदि शिक्षा, स्वच्छता, सभी मानों पर तुम्हारे बराबर या तुमसे भी आगे बढ़ा हुआ हो तो भी हमारी चेतना में उसके प्रति अस्पृुश्यता का भाव बना रह जाता है और समझदार लोगों को भी इस पर विजय पाने के लिए अपने आप से ही संघर्ष करना पड़ता है, जब कि वे इस मामले में हमसे अधिक विवेक से काम लेते रहे हैं।‘

‘तुम्हारी पहली बात में कुछ दम हो सकता है। नरक की कल्पना में, स्वर्ग की कल्प ना तो दोनों की लगभग एक जैसी ही है और साफ लगता है कि ये दोनों कल्पनाऍं किसी एक से आरंभ हो कर दूसरे तक पहुँची हैं।‘

‘अब कालरेखा पर ध्यान दे कर सोचो कि किसने किससे उधार लिया होगा।‘

‘पर जो तुम यह कहते हो कि हम मनुष्यो को जिन्दा जलाने की कल्पना तक नहीं कर सकते वह इसलिए कि तुम अपने को जानते ही नहीं, केवल दूसरों के दोष देख पाते हो। जिस समाज में सती प्रथा का चलन रहा हो, वह यह दावा कैसे कर सकता है?’ 

‘मैं दबाव में आ गया, फिर भी बचाव में कहा, ‘सती प्रथा हमारे समाज में असुर सभ्यंता से आई है, हमारे यहॉं थी ही नहीं। देखो दशरथ की रानियों में कोई सती नहीं होती, मेघनाथ की पत्नी सुलोचना होती है।‘

‘चुप रहो। अब भी अपना बचाव कर रहे हो। आई कहीं से हो, तुम यह कर सकते थे, तुमने यह किया है, इतना ही पर्याप्त है। कल्पना में आने की तो बात ही न करो। और जो यह कहते हो कि वे अस्पृश्यता से मुक्त रहे हैं, तो तुमने रंगभेद की क्रूरता को समझा ही नहीं। यदि किसी भी चीज के लिए वातावरण तैयार हो जाए, उसके प्रति श्लाघा से काम लिया जाये तो कोई समाज ऐसा नहीं है, जिसके लोग गर्हित से गर्हित काम न कर सकें। धुले हुए व्‍यक्ति या समाज नहीं होते, धुली हुई मूल्य-व्‍यवस्थाऍं होती है। मूल्य व्यवस्था तलवार से अधिक ताकतवर होती है। हमें उन मूल्यों की चिन्ता करनी चाहिए जिन पर हमें गर्व रहा है। आज तो हम उनके मूल्य अपना रहे हैं जिनमें आत्मालोचन की क्षमता तक नहीं।‘

'मैं चुप लगा गया। बात तो वह सही कह रहा था। उसके चेहरे पर यह सन्तो‍ष साफ दिखाई दे रहा था कि आज उसने मुझे लाजवाब कर दिया है। कुछ समय यह तय करने में लगा कि विषय पर आउूं तो कैसे इसी बीच वह फिर शुरू हो गया, ‘देखो, हम सबकी आदत है, इसमें पूरब पच्छिम का भेद नहीं चलता, प्रशंसा के लिए मनुष्य कुछ भी कर सकता है। गर्हित से गर्हित और क्रूर से क्रूर काम। मौत या यन्त्रणा का भय तक उसे रोमांचक लगने लगता है। मनुष्य में गर्हित से गर्हित अवस्था में अपने को समायोजित करने की अकल्पनीय क्षमता है। गुलाम बनाने का एक यह भी तरीका रहा है – गुलामी के मूल्यों का महिमामंडन । इसलिए नैतिक विवेक और मूल्य व्यवस्था को भी बार-बार परिभाषित करने की, कहो जो अनर्गल है उसे छॉंट कर आत्म-शुद्धि करने की जरूरत होती है। अपने भीतर झॉंक कर दुनिया को समझने की कोशिश होती है और तब हम पाते हैं हमारे भीतर विकृति की वे सारी संभावनाऍं हैं जो उग्र रूप ले सकती हैं, और उसी तरह के अमानवीय कृत्य करा सकती हैं जिनको हम अकल्पानीय मानते हैं – जो दिल ढूँढ़ा आपना मुझसे बुरा न कोय’ फिकरेबाजी नहीं है, एक साधक की अपने मनोलोक की गहरी पड़ताल और आत्म-संघर्ष की देन है। कबीर के इसी आत्म-बोध को गालिब नाकर्दा गुनाह कहते हैं। वह शेर याद है न तुम्हें ।‘

शेर याद था, दुहरा दिया, ‘नाकर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद; यारब अगर इन कर्दा गुनाहों की सजा है।‘

‘मगर बुरे विचारों या आकांक्षाओं के लिए दाद की बात समझ में नहीं आती।‘

‘तब तुम्हें कबीर की पंक्ति ही क्याा खाक समझ में आई होगी। पहला है मन की सहज गति जिसमें जघन्यतम विचार या आकांक्षाएँ पैदा हो सकती हैं, होती हैं, हुईं और इनके बाद भी मैंने कैसे आत्म-संयम बरत कर असंख्य गुनाहों से अपने को बचाया। सज्जन के मन में बुरे विचार न आते हों ऐसा नहीं है, वह उनको नियन्त्रित करने और फिर इसको एक ऐसी आदत में ढाल लेने के कारण सज्जन बनता है, जिसमें बुरे विचारों का आना कम हो जाता है या उनको प्रवेश का रास्तात आसानी से नहीं मिलता।‘

‘ठीक यही तत्व-दृष्टि ईसा की थी । सुना है न जब किसी लांछिता पर लोग पत्थर मारने चले तो क्या‍ कहा उन्होंने, ‘पहला पत्थर वह मारे जिसने कोई गुनाह न किया हो।‘ परन्तु उन्ही की आड़ में अपनी सत्ता का खेल खेलने वालों ने एक ओर तो स्त्री के सौन्दनर्य को भी उसके जादूगरनी होने का प्रमाण बना दिया था और अपनी भिक्षुणियों या नन्स को उस हिजाब में बन्द रखना आरंभ किया जिसे मुस्लिम समाज ने भी न जाने कब अपना लिया, और दूसरी ओर कई साल के बाद जब वेटिकन के टैंक की सफाई होती थी तब उससे अनगिनत नवजात शिशुओं के कंकाल निकलते थे। एक ओर वे प्रचार के लिए ईसा द्वारा उस अबला को संगसार से बचाने की कहानियॉं सुनाते रहे, दूसरी ओर पोप स्वयं जालसाजी करने, झूठ बोलने, अत्यारचार करने वालों को सन्त की गरिमा देते रहे।‘

वह चौक कर मुझे देखने लगा।‘

‘अभी यह हाल में लोक कल्या‘ण की आड़ में ईसाइयत के प्रचार का हथकंडा देखते हो, वह जानते हो उसने किससे सीखा ?’

‘मुझे डर है तुम कहोगे हिन्दुत्व के संपर्क में आने के बाद।‘

‘कई बार तुम मारे डर के लाख टके की बात बोल जाते हो। गोवा का इतिहास पढ़ो, जेवियर्स ने जितने भयंकर अत्याचार ब्राह्मणों पर किए उसकी पड़ताल करो और यह देखो कि इसके बाद भी हथियार के बल पर उन्हें धर्मान्तरित करने में उसे कितनी कम सफलता मिली और फिर अन्तत: भारत से, कहो, मदुरै से आगे उसके तरीके में क्या बदलाव आया यह देखो तो सचाई समझ में आ जाएगी। यहीं से वह खूँखार चेहरा, मानवीय सरोकारों से जुड़ता है और उसके धागों से वह संजाल बुनना आरंभ करता है जिसे समझने में नेहरू ही नहीं, हमारे प्रख्यात विद्वान भी गच्चा खा जाते हैं।‘

‘यह बताओ उसे सन्त की उपाधि इन्क्विजिशन के उन अमानवीय कारनामों के कारण मिली या अपने तरीके में आए उस बदलाव के चलते?’

‘इसका पता लगा कर तुम मुझे बताओगे। लेकिन आज का दिन तुम्हारा रहा, मैं तो जो बात कहना चाहता था उसका मौका ही न दिया तुमने। विचारधारा में एक मामूली सा हस्त क्षेप विषय को कहाँ से कहॉं पहुँचा देता है।‘

०४ जनवरी २०१६

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