अस्पृश्यता – 17

''तुम जो ईसाइयत के खतरे की बात कर रहे थे वह पहले समझ में नहीं आ रही थी, परन्तु कल तुमने किसी वेंकट का पोस्ट शेयर किया था, उसे पढ़कर तो मैं हैरान रह गया।''

''कहना चाहिए था, पढ़ कर पहली बार ऑंख खुली। हैरानी की क्या बात थी उसमें?''

''हैरानी इस बात की कि तुम हमारी भाषा बोल रहे थे. लिखा कि विश्वास नहीं कर पाता, क्यों? यह तो तुम्हारे मन की बात हुई, तुमने गलती से हम लोगों के मन की बात लिख दी कि ऐसी सूचनाओं और रपटों पर विश्वास करना मूर्खता है।''

''मूर्खता तुम कह सकते हो, क्योंकि ऐसी मूर्खताऍं लगातार करते आए हो। यदि मै इसे पढ़ने के बाद भी, एक राष्ट्रीय पत्र में छपने के बाद भी, इसकी सत्यता पर विश्वास नहीं करता चाहता था तो इसलिए कि यह ईसाइयत के प्रचार के उस तरीके के विपरीत है जिसे उसने उत्पीड़न का तरीका छोड़ने के बाद अपनाया और जिस पर ही लगातार काम कर रहा है, अब जिसमें पिछड़े और उपेक्षित जनों को आगे बढ़ने का अवसर देने के प्रलोभन से धर्मान्तरित किया जाता रहा है। यदि कोई घटना सामान्य नियम के विरुद्ध हो तो उस विचलन का कोई बहुत सशक्त कारण होना चाहिए। गरीब माता पिता से बच्चों को खरीद कर, अनाथ बच्चों को अपना कर, माता द्वारा परित्यक्त नवजात शिशु को अपना कर, उनका पालन करना और ईसाई बनाना और इस तरह संख्‍या वृद्धि करना समझ में आता है, परन्तु ईसाई बन जाने के बाद उन्हें उत्पीडि़त करने, मलिन स्थितियों में रखने की योजना समझ में नहीं आती। फिर इस लेख को पोस्ट करने वाले व्यक्ति ने जिस आक्रोश भरी भाषा में इसकी भूमिका लिखी है, वह सन्तुलित मन की अभिव्यक्ति नहीं लगती। इसे जिस व्यक्ति ने शेयर कर रखा था उसकी योजनाओं में एक यह भी है कि हिन्दुओं के मन में सांप्रदायिक विक्षोभ पैदा करो। वह विदेशी है और विदेशी हिन्दुत्व कातर हों तो मन में सन्देह पैदा होता है कि वे किसी योजना के अनुसार विघटनकारी का काम कर रहे हैं या सचमुच हिन्दुत्व के प्रति उनकी सहानुभूति सामान्य हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक हो गई है। फिर मदर टेरेसा के प्रति जिस अभद्र भाषा का प्रयोग किया गया है वह अशोभन है और उन पर जो लांछन लगाया गया है वह अतर्क्य है। यदि किसी का लक्ष्य अपने धर्मदायादों की संख्या बढ़ाना है तो वह संक्रमित सीरिंज के प्रयोग से उनकी जान खतरे में क्यों डालेगा?''

''तब फिर गोली मारो ऐसी रपटों को। इस पर इतना सिर खपाने की क्या जरूरत । शेयर कर के दूसरों को भी उलझन में डाल दिया।''

''तुम जिन चीजों को दरकिनार कर देते हो, मैं नहीं करता. इतने सारे असंगत तर्कों के बाद भी मैं इसे गढ़ी हुई कहानी नहीं मानता.

"मैं मानता हूँ कि अपने साम्राज्य विस्तार कि लिए मिशनरी गर्हित से गर्हित तरीका अपना सकते हैं. मैं सोचता हूँ कि दलित भाईचारा का जो नया मिशनरी अभियान चलाया जा रहा है उसमे योजनाबद्ध रूप में गर्हित स्थितियों में रहने वाले और ईसाई मत वाली एक जमात तैयार करके ईसाईयों कि लिए आरक्षण की मांग करते हुए सरकारी नौकरियों में प्रवेश का रास्ता निकालने की योजना इसके पीछे हो सकती है और यदि ऐसा है तो यह मेरी ही नहीं सबकी चिंता का विषय होना चाहिए. परन्तु मैं न तो इतनी जल्दबाजी में किसी नतीजे पर पहुँचना चाहूंगा न इस तरह की अभद्र भाषा का प्रयोग करने की हिमायत करूंगा. इस पोस्ट में ईसाईयों की ताक़त को भी नज़रअंदाज़ किया गया है. फूँक से पहाड़ को उड़ाने की नादानी.''

''ईसाईयों की संख्या ही कितनी है इस देश में, यार? तिल का पहाड़ तो तुम बना रहे हो.''

"ईसाइयत की ताकत उससे कई गुना अधिक है जितनी ब्रिटिश साम्राज्य की थी। इस्लामी शासन रहा हो या ब्रितानी शासन ये हमें भौतिक दृष्टि से बाध्य कर पाए थे, चेतना और आत्मा पर इनका अधिकार नहीं था। कारण यह था कि ब्रितानी शासकों ने कम्पनी के दौर में यह समझ लिया था कि धार्मिक असंतोष आर्थिक और प्रशासनिक समस्याएं पैदा कर सकता है. फिर भारतीयों से सीधा संपर्क रखने के कारण उनमें ऐसे लोगों की संख्या खासी थी जो मानते थे की धार्मिक मामलों में हिदुत्व ईसाइयत से अधिक परिष्कृत है. मिशनरियों के शोर मचाने पर कि कम्पनी कि अधिकारियों का हिन्दूकरण हो रहा है पहली बार जब उन्हें प्रचार की छूट मिली तो १८५७ में यह सबक फिर लेना पड़ा कि धार्मिक संवेदनाऍं इतनी प्रबल हैं कि इन्हें उकसाना अपने लिए खतरा मोल लेना है। अत: ईसाई विश्वास में पगे होने के बाद भी उन्होंने धार्मिक हस्तक्षेप से बचने का प्रयत्न किया और अंग्रेजी के प्रवेश के बाद भी शिक्षा को सेक्युलर बनाए रखा। उनके अपने बच्चों के लिए जिनका भविष्य उनके अपने देश में था, उन्होंने कतिपय स्कूल अपनी जलवायु के अनुकूल मसूरी, देहरादून, नैनीताल आदि में खोले। वे उन्हें ईसाई धर्म और विश्वास के अनुरूप ढालते भी थे जो सर्वथा वांछित था। भारतीय शिक्षाप्रणाली उससे प्रभावित न थी और इस बात का ध्यान उन्हों ने अन्त तक रखा कि भारतीय स्कूलों की शिक्षा धर्मनिरपेक्ष रहे।

''स्वतन्त्रता के बाद अंग्रेजों के बच्चे चले गए, स्कू्ल रह गए और इसे भरने के लिए नए शासक बनने को लालायित और अब तक प्रवेश से वंचित संभ्रान्त हिन्दू परिवारों के बच्चों के लिए इनका रास्ताा खुल गया! इनमें बाइबिल आदि का भी पाठ कराया जाता था इसलिए मुस्लिम संभ्रांत वर्ग सचेत रूप में इनसे बचता रहा. इनमें तन से और नाम से हिन्दू परन्तु मनोरचना से ईसाई मूल्यों के प्रति समर्पित और अपने भारतीय आधार को खोने का खतरा न उठाने वाले हिन्दुत्व विमुख और ईसाई-मनस्क प्रभु वर्ग की रचना हुई और फिर इसने शिक्षा पर अधिकार करते हुए सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को नि:सत्व करके अपने को सार्वजनिक स्कूल या पब्लिक स्कूल और सार्वजनिक शिक्षा को सरकारी या म्यूनिस्पै‍लिटी के स्कूल के रूप में तिरस्कृत करते हुए जिस शातिर तरीके से कान्वेंट शिक्षा प्रणाली से अलग शिक्षितों कि प्रति तिरस्कार की ट्रैनिंग दी जाती रही है उसने ईसाइयत न ग्रहण करते हुए भी हिंदुत्व विमुख शिक्षितों की जमात तैयार हुई और इनके द्वारा तैयार किये हुए बौद्धिक पर्यावरण को सामान्य शिक्षा प्रणाली से निकले तरुणों ने भी मानक बौद्धिक आचार और प्रतिक्रिया के रूप में स्वीकार कर लिया. रही सही कमी तुम्हारे वाममार्गियों ने पूरी कर दी, इसलिए कहने को हिन्दू-बहुल हो पर हिन्दू endangered समुदाय है. इसे आहत करना, इसका उपहास करना, इसको अपने घर से निर्वासित करना समाचार तक नहीं बन पाता। इसके मूल्यों को पिछड़ा बताना, इसके लिए चिन्तितों को सिरफिरा या पिछड़ी मानसिकता का बताना सबसे आसान है, जब किक एक स्वर से इसी कि खुलेपन और समावेशिता की, इसके ही ही विरुद्ध दुहाई दी जाती है।

''देखो, शिक्षा मनोरचना का सबसे कारगर माध्यम है, इसीलिए सभी धर्म शिक्षा को अपने अधिकार में करते हुए उस खास जहनियत का निर्माण करते रहे हैं जिसमे उनकी अपनी कमियां भी मूल्यव्यवस्था का अंग बन जाती रही हैं और लोग उनपर गर्व करना सीख जाते रहे हैं. ईसाइयत ने हमारी मनोरचना के स्रोत पर अधिकार कर लिया, उसके माध्यम से हमें जिन उच्चाटन और मारण मन्त्रों का अभ्यास कराया गया है उनके प्रभाव क्षेत्र में हिन्दू संगठन और संस्थाऍं और उनसे जुड़े व्यक्ति ही आते है। इस दायरे से बाहर इनका प्रभाव समाप्त हो जाता है, उल्टे कदाचारी के प्रति सहानुभूति बढ़ जाती है और इनकी ओर इंगित करने वाला व्यक्तिप संकीर्ण दुराग्रही और किंचित् दुष्ट प्रकृति का प्रतीत होता है। यदि उसने आवेश से काम लिया हो तब तो हर हाल में। इस भूमिका में तो मदर टेरेसा के लिए गर्हित विशेषण का प्रयोग भी किया गया है जिसका प्रयोग करने वाले को मैं असन्तुलित चित्त का तो मान ही लेता हूँ और सामान्यत: ऐसे लोगों के प्रामाणिक कथनों को भी उनकी भर्त्सना का हिस्सा या गाली की जुगाली मान कर किनारे कर देता हूँ। परन्तु आज एकाएक यह खयाल आया कि क्या इस व्यक्ति का आक्रोश जायज नहीं है। क्या हम अपनी उपेक्षा या वर्जना से ऐसे लोगों की व्यथा को दबाने और उसे बौखलाहट बन कर प्रकट होने को बाध्य नहीं करते और जब वह बौखलाहट बन जाती है तब हमारा सारा ध्यान उस बौखलाहट में फूटे उदगारों की ओर जाता है और शिकार मिल गया वाले उत्साह से उसे उदाहृत करते हुए हम उसको एक और जख्म देने का अपराध नहीं करते.

तुम जानते हो, एक लंबे समय तक ईसाइयों को यह विश्वास था कि गुलाम के आत्मा नहीं होती। उनको चैटलध्/ कैटल याने chattel कहा भी जाता था, चैटल अर्थात चल संपत्ति. फिर यह मानते रहे कि उसके आत्मा नहीं होती इसलिए उसे किसी सीमा तक उत्पीड़ित करो उसे दर्द नहीं होता.

स्थिति गुलामों जैसी तो नहीं है फिर भी क्या हम ऐसी मानसिकता का निर्माण नहीं कर चुके हैं जिसमें लगे हिन्दू भी मनुष्य होता है पर दूसरों से कम और यह चेतना सभी सुप‍ठित हिन्‍दुओं के मन में भी घर कर गई है?

शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

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