इतिहास की गति

“तुम वकील बहुत अच्छे हो सकते थे। सही पेशे का चुनाव करना चाहिए था। मालामाल हो जाते।“

“पेशा करता तो मालामाल तो हो जाता, पर यह क्यों सोच लिया कि सबसे अच्छी चीज पेशा करना और मालामाल होना है।“ 

उसे छकाने में मुझे बहुत मजा आता है। फतह करने को एक ही चीज है, एक दूसरे का दिल जो जिद के कारण न उसका मेरे हाथ आएगा न मेरा उसके, फिर भी खेल जारी रहेगा। मुझे ही पूछना पड़ा, ‘‘तुमको वकालत वाली बात क्यों सूझी?”

‘‘तुम्हीं ने तो कहा था, मैं जालिम के पक्ष में खड़ा हो रहा हूँ और उसे मजलूम सिद्ध करके रहूँगा और सिद्ध भी कर दिया । मैं खुद कायल हो गया, फिर याद आया तुमने बाबरी के ध्वंस को किस तरह आँखों से ओझल कर दिया। कमाल है न?”

‘‘अगर मैं कहता कि बाबरी मस्जिद कांग्रेस ने गिरवाई, उनको तो मुफत का बदनाम कर दिया, तो तुम्हारी समझ में आता?  नादान लोगों को वे ही बातें बताई जाती हैं जो उनकी समझ में आ सकें।“ 

‘‘तुम कुछ भी कह दोगे मैं मान लूँगा?’’

‘‘नहीं मानोगे, यह पहले से जानता हूँ। सही बात को मानने के लिए भी समझ, यानी सही गलत में फर्क करने की तमीज, चाहिए। हाँ इसमें थोड़ा हाथ तुम लोगों का भी था।’’ 

‘‘और तुम्हारा?’’ 

‘‘मैंने बचाने की एक छोटी सी कोशिश की थी, कामयाब नहीं हुआ। गो मैं यह मानता था कि वहाँ पहले कोई मन्दिर था।’’

‘‘और फिर भी तुम चाहते थे, मस्जिद गिराई न जाय?”

‘‘इसलिए कि प्राचीन भारतीय न्यायविचार के अनुसार उसे नहीं गिराया जाना चाहिए था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के नियमों के अनुसार उसकी रक्षा की जिम्मेदारी भारत सरकार की था और उसको किसी तरह की क्षति कानून का उल्लंघन था। और हिन्दू रीति के अनुसार उसे गिरा कर मन्दिर बनाने का औचित्य नहीं था। और इस मस्जिद में उस प्राचीन भारतीय वास्तुशिल्प का एक अघ्याय बचा हुआ था जिसका पता इसे ध्वस्त करने वालों को नहीं था। होता भी तो उसका सम्मान नहीं करते।’’ 

‘‘वह जो तुम पुरानी न्याय विचार की बात कर रहे थे और हिन्दू रीति वगैरह, की बात?’’ 

‘‘मुझे अधिकारी मान कर मत चलो। जानकारी की बात कर सकता हूँ। हमारे शास्त्रों में क्षेत्राधिकार के विषय में यह विधान रहा है कि अमुक अमुक स्थलों पर किसी व्यक्ति का अधिकार कितने समय तक रहता है।  यदि दूसरा ज़बरदस्ती उस पर कब्जा करले तो इतने समय के भीतर उस पर अपने अधिकार का दावा ठोंका जा सकता है। यदि उसके भीतर ऐसा नहीं हो सका तो वह स्थान उसका हो जाएगा, जिसने कब्जा जमा लिया है। यह पंचतन्त्र की एक कहानी में आया है और यह हमारे समय में प्रचलित कालातीत मामलों या टाइम बार्ड मामलों जैसा है। रहा रीति का तो टूटी हुई प्रतिमा या टूटा हुआ देवालय पूजा के योग्य नहीं रख जाता। प्रतिमा बनने से पहले पत्थर था, पत्थर तराश कर प्रतिमा बनने तक भी वह एक कृति था, उसमें जब देव की कल्पना करते हुए उसकी प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है तब वह देवता हो जाता । यही बात देवालय का है। एक बार जो भग्न हो गया उस मन्दिर को बनाना तो संभव नही।’’

‘‘इसमें प्राचीन वास्तुशिल्प के सुरक्षित रहने की बात?”

‘‘कानेरी की गुफाएँ तुमने देखी हों तो उनमें एक पुराना प्रेक्षागृह या नाट्यशाला है। उसकी सबसे बड़ी वि शेषता है उसकी ध्वनि व्यवस्था जिसमें एक कोने की मामूली फुसफुसाहट भी दूसरे कोने तक साफ सुनी जा सकती है। ध्वनिप्रसार की यही व्यवस्था बाबरी मस्जिद में काम में लाई गई थी। इस दृष्टि से यह एक असाधारण विरासत थी जिसकी क्षतिपूर्ति वहाँ कुछ भी बना कर नहीं की जा सकती। परन्तु न तो मस्जिद को बचाने वालों ने कभी इन पहलुओं को उठाया न उस स्थान को वापस माँगने वालों को इसका ज्ञान था। दोनों के आग्रह धार्मिक थे और इसकी ओट में धर्मभावना नहीं शुद्ध राजनीतिक लाभ था।’’

‘‘राजनीतिक लाभ के लिए धर्म का इस्तेमाल धर्म का अपमान है, धर्म को भुनाने या बेच खाने का रूप।’’ 

मै उससे सहमत था, पर साथ ही जोड़ा, ‘‘पर भाजपा को तो उसमें झोंक दिया गया। यह आग तो कांग्रेस ने लगाई थी और वि श्वास नहीं करोगे, स्वतन्त्र भारत में सबसे पहले इसे नेहरू ने शुरू किया था और वह भी आचार्य नरेन्द्र देव जैसे आदमी को हराने के लिए जिनका वह व्यक्तिगत रूप में आदर भी करते थे, परन्तु वह समाजवादी थे और समाजवादियों से उन दिनों कुछ भय बना हुआ था, इसलिए नेहरू ने इसको इस्तेमाल किया।“

‘‘आचार्य जी हार गए थे?’’ 

‘‘हारना ही था। और फिर राजीव गांधी ने हिन्दू जनमत को अपनी ओर करने के लिए जो कुछ किया वह तो सबकी जारकारी में है। ऐसी हालत में, एक ऐसा दल जिसका एक मात्र आधार हिन्दू संस्कृति और सम्मान की रक्षा था, यदि सचेत हुआ कि यह तो हमें ही अपने घर से बेदखल किया जा रहा है और अयो ध्या के साथ काशी मथुरा को भी समेट लिया तो यह तो उसकी विवशता थी। आत्मरक्षात्मक कदम। उनकी अपनी योजना इसे गिराने की नही थी, इस मुद्दे को लम्बे समय तक उठाते हुए, मुस्लिम समुदाय को अनुदार सिद्ध करते हुए हिन्दुओं का समर्थन जुटाने की थी. इसे गिराकर स्वयं को उग्र और अनुदार सिद्ध करने की नही थी. इस दुर्घटना से उनका पासा पलट गया। वे धमकी नहीं दे रहे थे, मुस्लिम समुदाय से याचना कर रहे थे। याचना का सम्मान करते हुए यदि इन तीनों स्थलों को सौंप दिया जाता तो मन्दिर की राजनीति खत्म हो जाती। इसमें मुस्लिम समुदाय की छवि उज्ज्वल होती। इस्लाम में बुतपरस्ती निषिद्ध है इसलिए कुरान की पुस्तक या मस्जिद की पूजा नहीं की जाती, नमाज कहीं भी अदा की जा सकती है। कुरान की आयतों का, न कि पोथी का महत्व है, इसलिए जो कट्टर मुस्लिम दे श हैं उनमें भी लोकनिर्माण के कार्यों में अवरोध पैदा करने वाली मस्जिदों को कई बार गिराया गया है। मुस्लिम समुदाय इस पर सहमत होता भी नजर आ रहा था. बाबरी को तो उन्होंने पहले से ही छोड़ दिया था। समुदाय के रूप में वे वे इतने संवेदनहीन भी नहीं थे कि हिन्दू भावना का आदर न करते, परन्तु उकसावे की जो भूमिका पहले ब्रितानी हुक्मरान की थी उसे उत्तराधिकार में तुमने ले लिया था। इस बार उकसाने भड़काने का काम तुमने किया. तुमने धार्मिक भावना को भावना को इतना उग्र कर दिया और इसे मुस्लिम अस्मिता से जोड़ दिया, कयोंकि सांम्प्रदायिक आग भड़काने और बुझाने के अलावा तुम्हारे पास कोई मुद्दा बच ही नही गया है। उनको लाचार हो कर तुम्हारा साथ देना पडा और जब मस्जिद का पतन हुआ तो आहत धर्म-भावना नहीं जातीय अस्मिता हुई, जिसे लेकर मुसलिम समुदाय में गहरा मलाल था, और अब भी है । यह नौबत तुम्हारी वजह से आई थी। भीड़ वि श्व हिन्दू परिषद की थी। आज तक मेरे लिए यह रहस्य है कि गिराने की योजना और उसकी जैसी-तैसी तैयारी किसकी थी। पर यह उस दौर के दृश्य माध्यमों से प्रकट था कि इस सूचना से स्वयं आडवा नी हैरान हो गए थे और फिर ‘चलो छुट्टी हुई वाली मुस्कराहट उनके होठों पर उसी भावभंगिमा के साथ आई थी। 

मैंने जो कहा वह सब कहानी है। सबाल्टर्न या इतरेतर इतिहास मान लो। कुछ गलत लगे तो सुधार भी लेना। इसके परिणामो को तो जानते ही हो। कहने का मतलब तोड़-फोड़ उनकी योजना में नहीं थी। भीड़ और भावना का लाभ उठाना चाहते थे। कांग्रेस सरकार ने इसे किसी भी हस्तक्षेप के बिना हो जाने दिया। अब सही अपराधी तय करने चलो तो मुश्किल में पड़ जाओगे।

परन्तु यह जो गोचर है वह उन असंख्य शक्तियों का क्षुद्र अंश है जिनकी दृश्य अदृश्य सक्रियता और संपुंजन से कोई परिघटना मंचित होती है। इस महानाट्य का सूत्रधार इतिहास या कालदेव की अदृश्य योजना है। यदि तुम जानना चाहोगे तो कभी बताउूंगा कि उनमें से कोई भी एक कम हो जाता तो यह घटना घटती ही नहीं या किसी अन्य रूप में घटती। जैसे हमारे म स्तिष्क के क्षुद्र अंश को ही हम जानते हैं जब कि हम जो कुछ करते हैं उसमें उस अवचेतन की भी भूमिका होती है जिसने हमारे मस्तिष्क के अधिकतम क्षेत्र को घेर रखा है पर हम उनकी भूमिका को सही सही जान नहीं सकते, उसी तरह कुछ इतिहास  की घटनाओं के साथ भी होता है। हमारे निर्णय और योजनाए धरी की धरी रह जाती हैं और जो घटित होता है वह अक्सर अप्रत्याशित होता है। इसे इतिहास की गति कहो या नियति।

11/13/2015 3:52:35 PM

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