अस्पृश्यता – 8

तुम्हारी अधिकांश बातें हवाई होती हैं। प्रमाण कहीं है इसका कि कारीगरों के घरों पर डाका डाला जाता था और मालमता उठा लिया जाता था? प्रमाण है इसका कि राजपूतों को पीट-पीट कर गर्हित काम करने को विवश किया गया?

कभी कभी चुप्पी एक दहशतनाक बयान बन जाती है। यदि तुम गौर करो तो पाओगे, पूरे मध्य काल में मानव यातना को ले कर एक सन्नाटा फैला है। सिर्फ दो ऐसे कवि हैं जिन्हों ने आम जनता की त्रासदी को मुखर किया। नानक देव के दो कथनों का हवाला बाबर के अत्या चार के विषय में है, परन्तु उसके बाद वह भी लगभग खामोश है। दूसरे हैं तुलसीदास। जैसे उर्दू के शायरों ने इश्क की आड़ में सत्ता के विरोध में अपनी आवाज उठाई, उसी तरह तुलसी दास कलिकाल की ओट लेकर अपने समय की पीड़ा को असाधारण साहस से मुखर करते हैं। उनकी वे कविताऍं तो मुझे याद नहीं, पर कुछ शब्द लगातार गूँजते रहते है – ‘जीविका विहीन सीद्यमान’ जनों की व्यथा, ‘कहॉं जाईं का करीं’ वाली विवशता और ‘बेचत बेटा बेटकी’ जैसी अकिंचनता, ‘आगि बड़वागि तें बड़ी है अागि पेट की’, क्षुधार्त जनों की पीड़ा, और अकाल और दुहरे शासन की पीड़ा की अभिव्यक्ति तुलसी दास को छोड़कर किसी अन्य कवि में नहीं मिलेगी। न किसी सन्त कवि में न किसी अन्य भक्त कवि में, और संभव है किसी लोककवि में भी न मिले, क्योंकि आतंक इतना गहरा था कि लोग एकान्त में भी किसी से सरकार की शिकायत नहीं कर सकते थे। तुलसीदास को तुम लोग तो प्रतिक्रियावादी कवि मानते हो और कबीर को क्रान्तिकारी बना देते हो, परन्तु कबीर, रैदास सब में सामाजिक भेदभाव की पीड़ा और उससे विद्रोह तो मिलेगा, परन्तु लोक की वेदना का, जिसके सबसे बड़े भुक्तभोगी सामाजिक भेदभाव के सताए हुए लोग ही होते थे,] एकमात्र साहसी और एक तरह से क्रान्तिकारी कवि तुलसीदास ही है। जानते हो कबीर और तुलसी में क्या अन्तर है।

वह सिर पीटने लगा, परन्तु मैंने उसकी ओर ध्यान न दिया, ‘‘कबीर आन्दोलनकारी है; तुलसी दार्शनिक कवि । लेकिन सीखा उन्होंने कबीर से भी है, जिसकी आलोचना करते हैं।

‘’यदि हमारे आज के लेखक तुलसीदास को भी समझ पाते तो वे अमेरिका के लिए हिन्दी में साहित्य नहीं लिखते जिसे भाषा सीमा के कारण अमेरिका समझ नहीं सकता और पराई संवेदना और शिल्प के कारण वह तुम्हारे लोगों के काम का नहीं रह जाता। वह तुम्हारा साहित्य समझ नहीं पाता इसलिए तुम उसे कहते तो नहीं हो, पर गँवार समझते हो और वह तुम्हें अछूत समझता है। और वह जो कुछ संस्कृत में ही लिखा जा सकता था, उसे जन भाषा में लिखने और लोक हित को सर्वोपरि रखने का आग्रह करता है वह कवि जो संस्कृत में, जिस मस्ती से लिखता था, उसी मस्ती में लिखता तो वह संस्कृत भारतीय संविधान में राष्ट्रभाषा के स्थान पर होती और उसका क्षेत्रीय अस्मिताओं के कारण विरोध भी न होता, उसके भाषादर्शन को समझो।‘’

उसके धीरज का बाँध टूट गया, ‘‘तुलसी की एक पंक्ति तो मुझे भी याद है, चलइ जोंक जिमि वक्र गति...’’ विषय कोई हो, तुम इतनी टेढ़ी टबरी चाल चलते हो कि जहाँ पहुँचना है उससे पहले ही थक कर कहते हो जहाँ के लिए निकले थे, वहाँ तो पहुँचे ही नहीं। अब कल। सीधी चाल चलते तो कबके पहुँच गए होते।‘’

‘’जिसे तुम कुचाल समझ रहे हो उसे इस रूप में भी समझ सकते हो कि बच्चे को कड़वी दवा पिलाने से पहले बहलाना भी पड़ता है और फिर झटके से उसके मुँह में वह दवा। सीधे दवा पिला दो तो उगल देगा, किए कराए पर पानी फिर जाएगा। बुरा मत मानो, जो लोग तुम लोगों को दुष्ट कहते हैं वे तुमसे भी नादान हैं। तुम शिशु सुलभ मानसिकता के, सारे अच्छे अच्छे सपने देखने वाले और सचाई को खयालों में बदल कर खयालों से लड़ने वाले प्यारे लोग हो। शमशेर बहादुर सिंह की उस आत्मालोचना पर कभी ध्यान दिया है। न दिया हो तो अब देनाः

हम अपने खयाल को सनम समझे थे
अपने को खयाल से भी कम समझे थे।
होना ही था समझना था कहाँ शमशेर
होना भी वह कहाँ था जो हम समझे थे।

‘’शमशेर क्रान्तदर्शी कवि थे। जिस सचाई पर वह आज से चालीस साल पहले पहुँच चुके थे उस तक तुम आज तब नहीं पहुँचे। और मेरे साथ भी ऐसे मित्र हैं जो प्रवीण तोगड़िया और साक्षी महाराज की लकीर पर चल कर भारत का भविष्य सुधारना चाहते हैं, उन्हीं की भाषा बोलते हैं। वे भी न समझ पाएँगे कि इतिहास में उतरना पारे को भस्म में बदलने की साधना है, वर्ना उसमें इतना जहर भरा हुआ है कि उसको पी गए तो काम से गए। बहलाने और विश्वास दिलाने की जरूरत उन्हें भी पड़ती है।‘’

‘’तुम अपना जहर तो उगलो, मैं हम तो हलाहल पीने वालों में हैं।‘’

‘’तो सीधी बात यह है कि भारतीय इतिहास का सबसे बर्बर दौर मध्यकाल था, परन्तु उस दौर के कुकृत्यों के लिए यदि उन अपराधियों की सन्तानों को दोष दिया जाय तो गलत होगा। अपनी समझ से वे कोई गलत काम कर भी नहीं रहे थे। वे सन्तानें यदि उस अपराध को छिपा कर दुनिया को यह बताना चाहें कि कुछ गलत हुआ ही नहीं, सब कुछ ठीक था, तो वे उन कुकृत्यों पर परदा डाल रही हैं और उनके दल में न होते हुए भी सह अपराधी हैं। मार्क्सेवादी इतिहास लेखन की आड़ में यही किया और चॉंदी से मुँह भर कर कराया गया। उन कुकृत्यों पर परदा डाला गया और उसको और कारगर बनाने के लिए प्राचीन भारत के इतिहास की कमियों को समझने में भी चूक की गई इसलिए कमियों का आविष्कार करके उन्हें बीभत्स बनाया गया और समूचा ध्यान उधर केन्द्रित करने का प्रयास किया गया। मार्क्सावादी इतिहासकार अलीगढ़ के जिन इतिहासकारों को कम्युनल बताते रहे हैं, उन्होंने उन कुकृत्यों को सच्चे मन से स्वीकार किया और इसलिए उसकी कोई अवांछित प्रतिक्रिया नहीं हुई। हमारे उपन्यासकार ख्वाजा बदीउज्जमा ने अपने उपन्यास सभापर्व में बड़ी वस्तुपरकता से इस्लाम के इतिहास को पेश किया, गो किया भी तो एक हिन्दू की जबानी, कुछ सावधानी बरतनी जरूरी समझी होगी, परन्तु इससे मन स्वच्छ होता है। अपने पुरखों के सुकृत्यों पर गर्व करने के साथ यदि हम उनके कुकृत्यों को सहज भाव से स्वीकार करें तो यह एक तरह का प्रायश्चित्त होता है और इससे मनोमालिन्य घटता है। उनके कुकर्मो पर पर्दा डालें और उनसे ध्यान विचलित करने के लिए दूसरों की कमियों का आविष्कार करें या सामान्य व्यावहार को गर्हणा के साथ प्रस्तुत करें तो यह मनोमालिन्य को बढ़ाता है। मार्क्सरवादी इतिहास के नाम पर यही किया गया और उसका लाभ उनको मिला जिनकों वे अपमानित करना और मिटा देना चाहते थे।

‘’तुम प्रमाणों की बात कर रहे थे। इतना पढ़ा लिखा होता तो इन पर ही भरोसा कर लिया होता। मैं भी पहले सूफियों को मंसूर की तरह इस्लामी कट्टरता का विरोधी और मानवीय प्रेम का उपासक ही समझता था। पता ही नहीं था कि मंसूर के साथ जो हुआ उससे ये बच क्यों गए। उस समझौते की तलाश तो बाद में करनी पड़ी जिसमें सूफीमत इस्लाम का नूरा पहलवान बन गया। लेकिन एक बात है। तुमको जोतिसी होना चाहिए।‘’

वह मुस्कराने लगा तो कहना पड़ा, ‘‘तुमने जो भविष्यवाणी की थी कि बात आज भी अधूरी रह जाएगी, लगता है, वह गलत नहीं थी।‘’

‘’हत्तेरे की।‘’

‘’पर इसके बाद कल मैं तुम्हें उस मध्यकालीन दरिंदगी की बातें बताउूँगा तो तुम झेल भी पाओगे और हमारे पीछे खड़े भाई उसे पचा भी पाऍंगे।‘’

30 December 2015

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