फिर बीता ज़माना याद आया

"तुम एक बार कहते हो इतिहास को समझे बिना वर्तमान को जाना ही नहीं जा सकता, दूसरी बार कहते हो, इतिहास को वर्तमान में खींच कर मत लाओ। क्या यह उल्टी बात नहीं है?"

"उल्टी इसलिए लगती है कि तुम्हारी खोपड़ी उल्टी है। मैं कहता हूँ इतिहास को जानो, इतिहास को जिओ मत। जीने के लिए वर्तमान ही काफी है। इतिहास सीख लेने के लिए है, वर्तमान जीने के लिए है। भविष्य इन दोनों की सामग्री जोड़ कर सपने देखने के लिए है और तुम जैसे लोग जो इनके बीच-घाल मेल करते हैं, या इन तीनों में से किसी एक से भागते-बचते हैं, वे भाड़ में जाने के लिए हैं।"

"मैं भी इतिहास से सीख लेकर ही कह रहा हूँ, क्या तुम एक ऐसे दल को जिसने बाबरी का ध्वंस किया हो, गुजरात का नरसंहार किया हो, जिसके पास स्वयंसेवकों की इतनी बड़ी फ़ौज़ हो और जिसे रोज कवायद कराकर लड़ने के लिए तैयार रखा जाता हो, उसे तुम शान्तिप्रेमी मान सकते हो? छोड़ दो उस किताब को जो १९३९ में लिखी गई थी, मगर क्या तुम्हें नहीं मालूम कि हिट्लर की जीवनी सबसे अधिक वे ही पढ़ते हैं। उनका गणवेष, सलाम करने का तरीका सब नाजियों से लिया हुआ है। और उनकी मूँछ, खैर सबकी नहीं, पर आडवानी जी की तितली कट मूछ तो सीधे हिटलर से ली गई है यार!"

"तुमने तो इतनी चीजों का घोल बर्तमान में भी बना दिया कि समझ में नहीं आता कहाँ से शुरू करूँ। फिर भी मेरी कद-काठी देख रहे हो न। स्वभाव भी देख रहे हो। यदि मैं तन कर कहूँ मैं शेर हूँ, मुझे मामूली मत समझना, तो डरावना मान लोगे?"

वह हँसने लगा, ‘‘मानूँगा क्यों नहीं, सिंह तो तुम्हारे नाम के साथ ही लगा हुआ है।’’

हँसी में मैं भी शामिल हो गया, ‘‘अब तो कहने को कुछ बाकी रहा ही नहीं। मैं अपनी जबान में बोलूँगा तो तुम्हारी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाएगी।’’

‘‘वह तो तुम आदमी की जबान में बोलते हो तब भी गुम हो जाती है। यह तो उन विरल मौकों में से एक है जब मैंने तुम्हारी सिट्टी-पिट्टी गुम कर दी है, और बगलें झाँक रहे हो।’’

मैंने पैंतरा बदल दिया, “तुमने इतने सारे सवाल एक साथ उछाल दिए कि मैं सचमुच चक्कर में पड़ गया, इसलिए अब तुमसे ही पूछता हूँ, ‘‘संघ को समर्थन देने वाले कौन हैं? मतलब उसका सपोर्ट बेस क्या है?"

‘‘बनिया-व्यापारी।"

‘‘जब दंगे-फसाद होते हैं तो किसकी दूकानें और असबाब लूटे और जलाए जाते हैं?’’

‘‘जाहिर है जिसकी दूकानें और माल असबाब होंगे उन्हीं के ।’’

‘‘कर्फ्यू लगता है तो किसका कारोबार सबसे अधिक प्रभावित होता है?"

अब वह चौंका, ‘‘तुम साबित क्या करना चाहते हो?’’

‘‘साबित करना यह चाहता हूँ कि यह हाथ जितना भी भाँजे, दंगे फसाद नहीं चाहेगा। इससे पहले भी जैन मत हो या बौद्धमत इनको सबसे जबर्दस्त समर्थन व्यापारियों से ही मिला, क्योंकि वे चाहते थे कि यदि सभी लोग शान्ति का मन्त्र सीख लें तो लूट पाट बन्द हो जाय, वे अपना कारोबार शान्ति से कर सकें और इसलिए कई बार तो उन्होंने अपनी समस्त संपदा इन मतों को दान दे कर स्वयं भी वैराग्य ले लिया और इन मतों में दीक्षित हो गए। इतिहास से इतिहास की आत्मा को ग्रहण करो, उसकी स्पिरिट को ग्रहण करो, उसका चोंगा लबादा नहीं। उसमें तो बार-बार बदलाव होते रहते हैं और जहां कोई किसी दूसरे जैसा होना चाहता है वह उसकी भँड़ैती तो कर सकता है, हो नहीं पाता. शेर की खाल ओढ़ कर शेर दिखने वाले गधे की कहानी तक नहीं पढ़ी तुमने तो। धन्य हो। मार्क्स ने इतिहास की पुनरावृत्ति पर जो कुछ कहा है वह तो याद रखते.’’

लगा बात उसकी समझ में कुछ-कुछ आ रही है।

मैंने वातावरण को कुछ और हल्का बनाने के लिए कहा, ‘‘बुद्ध के बाद यह पहला तो संघ बना यार और तुम इसे भी कोसते रहते हो।’’ और फिर अपनी बात पर आ गया, ‘‘देखो जब बनिया-व्यापारी दंगा फसाद पसन्द नहीं करता तो उसकी पार्टी कैसे चाहेगी। तुमने सुना नही पंजाब में उग्रवादी उभार के दौर में उग्रवदियों ने कई बार संघ की शाखाओं को ही निशाना बना लिया। चलती बसों से सवारियों को उतार कर हिन्दुओं को अलग करके उन्हें गोलियों से भूनते रहे, शादी व्याह में लोग जुटे हुए हैं, एके फार्टीसेवन से निरीह लोगों पर गोलियाँ बरसने लगीं। इतने सारे उकसावों के बाद भी उन्होंने कभी सिक्खों को निशाना बनाया? कम से कम जहाँ हिन्दू बहुमत था, वहाँ तो बना सकते थे। ऐसा नहीं किया, क्योंकि उन्होंने यह होश-हवास कभी नहीं खोया कि कुछ बिगड़े दिमाग के लोगों के लिए पूरी जाति या समुदाय को न तो दोषी माना जा सकता है न ही उपद्रव से हमारा भला होना है, जब कि जैसे-को-तैसा के मुहावरे में इस तरह की प्रतिक्रिया भी किसी उत्तेजक क्षण में पहली क्रिया की तार्किक परिणति ही होती। उल्टे इन्होंने 1984 के दंगों में सिक्खों को जहाँ बचा सकते थे बचाया। बाद में अपराधियों को दंडित करने की माँग में अकाली दल के साथ खड़े हुए। और जानते हो जिस अकाली दल को हाशिये पर डालने के लिए राजीव गांधी ने उग्रवाद को सहारा दिया था, भिंडरांवाले को संत बताया था वही सिक्खों का सही प्रतिनिधि और हितैषी है इसे उन्होंने उस भयानक दौर में भी समझा था, उनकी घ्राणशक्ति तुमसे अच्छी है।“

‘‘तब फिर…” वह एक भूलभुलैया में फँस गया था।

‘‘देखो, संघ का जन्म उस दौर में आत्मरक्षा के लिए हुआ था जब आये दिन साम्प्रदायिक दंगे हो जाते थे। सरकारी तन्त्र दंगों को उकसाता था, दंगाइयों को छूट देता था, इसलिए जान माल का सबसे अधिक नुकसान हिन्दुओं को ही झेलना पड़ता था। इस किंकर्तव्यता की स्थिति में जब कुछ नहीं सूझ रहा था तब हेडगेवार ने इस संगठन की परिकल्पना की थी और नाना जी ने जो संभवतः इसके प्राथमिक सदस्यों में थे, एक बार गर्व करते हुए कहा था, कि संघ  की स्थापना  के बाद जब मुसलमानों ने हमला बोला तो हम डट कर खड़े हो गए और उन्हें भाग जाना पड़ा। उनको भगा देना इनकी सबसे बड़ी सफलता थी।"

‘‘तुम तो हर चीज को उलट-पलट देते हो। कहीं कोई बात छूट रही है, नहीं तो आज तक तो ऐसा किसी ने कहा ही नहीं।“

‘‘उलटता-पलटता कुछ नहीं हूँ। दूसरे इतिहास के घटकों को राजनीति के ईधन के रूप में देखते हैं और मैं ठहरा मार्क्सवादी इतिहासकार, अकेला मार्क्सवादी यह भी दुहरा दूँ, समय की नब्ज पर हाथ रखने वाला, इसलिए मैं किसी परिघटना के आर्थिक आधार पर पहले नजर डालता हूँ।

‘‘अब तुम्हें यह भी समझ में आ जाना चाहिए कि बात-बात पर उत्तेजित हो जाने वाली जमातें व्यापारिक कारोबार में पिछड़ी भी होती हैं, और न हों तो भी पिछड़ जाएँगी। इसलिए किसी मुसलमान दूकानदार के पास बैठो या हिन्दू बनिये के पास, जबान दोनों की बड़ी सलीस मिलेगी। मीठी, दिल जीतने वाली।

"और अब इसी से यह भी समझ सकते हो कि संघियों का आइ क्यू भले तेज हो, उनमें पढ़े लिखों के लिए न तो आदर है न पढ़ाई लिखाई पर जोर। बल्कि इसे हतोत्साहित किया जाता है।"

‘‘यह क्यों?" 

"क्योंकि छोटा बनिया जानता है कि दूकान सँभालने के लिए ज्यादा पढ़ना-लिखना ठीक नहीं। उसके बाद लड़के का दिमाग दूकान-व्यापार में लगेगा नहीं, नौकरी चाकरी पसन्द करने लगेगा और जितना कमाएगा उससे दस गुना वह अपनी कामचलाऊ पढ़ाई से अपने कारोबार से कमा लेगा। पैसा हो तो एक क्या चार पढ़े लिखों को उनकी फीस देकर अपनी सेवा में लगा सकता है।

"लेकिन….” मैं एक मिनट के लिए उसे ताड़ने के लिए रुका. वह सुन रहा था.

"लेकिन छोटी से छोटी बात पर जब वह किसी पढ़े लिखे के सामने दीन भाव से खड़ा होता है तो उसको जो हीनता अनुभव होती है वही संघ से जुड़े बुद्धिजीवियों को विद्वानों के सामने अनुभव होती है।

"उनकी दुर्दशा का रहस्य यही है कि जहाँ वे बेकसूर रहते हैं वहाँ भी तुम उनकी लानत-मलामत करने लगते हो और वे बेचारे अपमान झेलते हुए भी मीठा बोलते रहते हैं कि कभी तो तुम भी यह बात समझ ही जाओगे."  

"तुम विचारों की असहमति पर जान मारने की धमकियाँ देने वालों को, यहाँ तक कि जान मारने वालों को मीठा बोलने वाला कहोग?’’

‘‘पहले यह पड़ताल तो करो कि उनमें से कितने संघ से संबन्ध रखते हैं और कितने छुट्टा संगठनों से या चुटकी बजाते एक संगठन बना कर उनके मुखिया बन जाते हैं।"    

‘‘अच्छा यह बताओ, साफ-साफ बताना, तुम्हीं कह रहे थे कि छोटे बनियों की पार्टी है, वे पढ़े लिखे होते नहीं, छोटा बनिया सोचता है  फीस दे कर पढ़े लिखों से काम करा लेंगे। और तुमने यह भी कहा था तुम उनके पक्ष में खड़े हो रहे हो, साफ साफ बताना, इसके लिए फीस कितनी मिली है?’’

‘‘चोरों उचक्कों को यह राज नहीं बताया जाता।" मैंने कहा, और दोनों ने एक साथ ठहाका लगाया।

11/12/2015 5:3:36 PM

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