अधूरे के अधूरे का अधूरा


जब मैं कहता हूं कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेता अपने और अपनों के लिए रियायतें माँग रहे थे तो यह एक सामान्य कथन है। यह कुछ लोगों को खटका भी होगा और एक मित्र ने लाल, बाल और पाल का नाम लेते हुए मुझे अपनी स्थिति स्पष्ट करने को भी कहा। मेरा इरादा इन महापुरुषों और इन जैसे महापुरुषों के त्याग और बलिदान और साहस को कम करके आँकना नहीं है। यदि हम कांग्रेस के भीतर के प्रथम विभाजन, जिसे नरम दल और गरम दल का नाम दिया गया, पर ध्यान दें तो मुझे नरम दल के नेता अधिक दूरदर्शी दिखाई देते हैं और यह दूरदर्शिता कांग्रेस का विरोध करने वाले सैयद अहमद में भी इस रूप में देखी जा सकती है कि इन्होंने सत्तावन के संग्राम से जो दुर्भाग्यवश विद्रोह बन कर रह गया, शिक्षा ली थी और जानते थे कि इस बीच सीधे इंगलैंड के तख्त के अधीन प्रशासन के आ जाने के कारण ब्रितानी चौकसी और ताकत बढ़ी है, जब कि भारत की सशस्त्र संग्राम छेड़ने की क्षमता को लगभग कुचल दिया गया है। मेरा अध्ययन इस विषय में मेरे अनेक मित्रों से भी कम है और अनुभव का तो सवाल ही नहीं उठता...’’

’’जब न ज्ञान है न अनुभव तो चुप तो रह सकते हो, बीच में टाँग क्यों अड़ाते हो।‘’

’’इसलिए कि अनुभव किसी के पास नहीं है, और किताबों से अलग अलग सूचनाएं मिलती हैं, पर वह दृष्टि नहीं जो तथा‍कथित नरम दलीय नेताओं के पास थी। यह नरम दल का ही बोध था जो गॉधी को हस्तान्तरित हुआ या उलट कर कहें कि यह नरम दल का नेतृत्व ही था जिसने गॉंधी की संघर्ष क्षमता को पहचाना और कांग्रेस का नेतृत्व उन्हें सौंपने का फैसला किया। गरम दल के ये तीनों नेता बहुत पढ़े-लिखे थे, साहसी थे, असाधारण वक्ता थे, परन्तु आवेश के कारण उनकी दृष्टि उतनी स्वच्छ नहीं थी जितनी गाँधी की। सुभाषचन्द्र बोस भी गरम दलीय सोच के ही थे और गॉंधी उनके मिजाज को समझ लेने के बाद उनसे भी कांग्रेस के नेतृत्व को मुक्त रखना चाहते थे। जोशीले लोग आकर्षक लगते हैं, परन्तु वस्तु्स्थिति का आकलन करने में चूक कर जाते हैं और इसलिए उनके कामों के परिणाम उतने श्रेयस्कर नहीं होते जितने उनके उत्सर्ग भाव से आशा बँधती है।

'' हमारी शक्ति उस खास चरण पर और उससे आगे भी सत्तावन की तुलना में बहुत कम हो गई थी। उससे पहले तलवार बन्दूक, बर्छा फरसा जैसे हथियार जनता के पास थे। अब एक साख लम्बाई से बड़े चाकू छुरे तक हथियार मान कर प्रतिबन्धित थे। बन्दूक सरकारी जाँच के बाद सरकार के स्वामिभक्तों को दिए जाते थे जो ब्रिटिश सत्ता के पायों-थूनियों का काम करते थे। 1818 के बाद धार्मिक संवेदना की उपेक्षा करते हुए जिस तरह की मनमानी की जाने लगी थी उससे सीख लेते हुए शासन ने संवेदनशीलता दिखाना आरंभ कर दिया था। अत: धार्मिक प्रश्नों पर उस तरह का सामाजिक विक्षोभ जो ज्वालामुखी की तरह फट पड़े, नहीं पैदा किया जा सकता था। उल्टे इसकी आँच हिन्दुओं-मुसलमानों की ओर मोड़ कर और पारस्परिक अविश्वा‍स को बढ़ाने के लिए अपनाये गये तरीकों से उस निकटता को तोड़ा जा चुका था, जो सत्तावन में पैदा हो सकी थी। अत: छिट फुट बम दागने से क्षणिक उत्तेजना तो पैदा की जा सकती थी, बदले की कार्रवाई भी की जा सकती थी, परन्तु सत्ता नहीं खत्म की जा सकती थी। यह ऐतिहासिक विवशता थी जिसका ध्यान रखते हुए ही कोई प्रभावकारी तरीका अपनाया जा सकता था।

''इस मोड़ पर केवल दो चीजें नई थीं और जिनका उपयोग किया जा सकता था। पहला था प्रेस और दूसरा था यह आश्वासन कि भारत का प्रशासन न्याायपूर्वक और भारतीयों के हितों की चिन्ता करते हुए किया जाएगा। गरम दल के नेता पहले का आलोचनात्मक तेवर के साथ पाठ कर रहे थे और नरम दल के नेता उस हितकारी शासन के आश्वासन की व्याख्या करते हुए अपनी मांगें रख रहे थे । परन्तु प्रेस पर सरकारी नियन्त्रण था और सत्ता‍ को चुनौती देने वाली या आलोचना करने वाली सामग्री को जब्त कर लिया जाता था, संपादकों, लेखकों को दंडित किया जाता था, और एक अल्पशिक्षित समाज में केवल शिक्षितों तक अपने विचार पहुँचाये तो जा सकते थे परन्तु उन्हें किसी कारगर कार्यक्रम का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता था।

"ऐसा मुझे लगता है, हो सकता है कुछ अन्य तथ्यों की ओर ध्याान जाने पर इसमें सुधार की अपेक्षा हो। विपिन चन्द्र पाल और अरबिन्दो उस बंगभंग के विरुद्ध विप्लवी गतिविधियों में शामिल हुए थे और यह मान कर शामिल हुए थे कि यह हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दरार डालने के लिए किया गया प्रयास है, परन्तु् इस प्रयास को उन्होंने अपने आन्दोलन से सफल हो जाने दिया। यदि सभी मुसलमान, यहॉं तक कि कांग्रेस में शामिल मुसलमान भी इसका समर्थन कर रहे थे तो विभाजन पर चुप रहना अधिक समझदारी रही होती, क्यों कि विरोध से ब्रिटिश कूटनीति सफल हुई। बंगाल नहीं बँटा पर दिल बॅट गए। बंगाल को प्रशासनिक द़ष्टि से अपनी विशालता के कारण बँटना ही था। मैं नही जानता नजरुल इस्लाम की कविता में फारसी शब्दों की वृद्धि का भी यह एक कारण था या नहीं, परन्तु जिसे सुनीति बाबू ने मुसलमानी बांग्ला का नाम दिया उसकी पैदाइश इससे जुड़ी हो सकती है। मैंने इसका विस्तार से अध्यंयन नहीं किया। मुस्लिम लीग की स्थापना का तो इससे सीधा संबन्ध है ही। हम प्रत्येक मामले के विस्ताार में जाऍंगे तो दिशा बदल जाएगी। एक बात का श्रेय अवश्य इन महापुरुषों को जाता है कि इन्हों ने अंग्रेजी में लिखने के साथ हिन्दी, मराठी और बांग्ला में भी लेखन किया और इस दृष्टि से हमारी समस्या के सन्दर्भ में इनका महत्व अवश्य है।

कांग्रेस के अन्य‍ नेताओं में आवेश था विजन या क्रान्‍‍तदर्शिता नहीं थी जो गांधी के पास थी। गांधी जी के साहित्य का भी मुझे आधिकारिक ज्ञान नहीं है, परन्तु जितना उलट पलट कर देख सका हूँ कहीं यह संकेत नहीं मिलता कि अपने सत्याग्रह को उस ब्राह्मणी शस्त्राागार से लिया था जिसमें प्राण देने की ठान कर अडिग भाव से जिसे गलत मानते हैं उसे मानने से इन्का्र करते रहे और आश्चणर्य यह कि यह क्रान्तिकारिता रूढि़वादी ब्राह्मणों में ही थी नवाचारी ब्राह्मण तो सुविधाओं के हाथ बिक जाते थे। रूढि़वादी ईसाइयों, रूढि़वादी ब्राह्मणों की प्रगतिशील और विद्रोही भूमिका का जिक्र हम पहले भी कर आए हैं उसे दुहराने की जरूरत नहीं।

''यह सब तुम सुना क्यों रहे हो।''

'' यह बताने के लिए कि गॉधी में एक रहस्यमय तरीके से परंपरा के जीवन्त तत्वों का नये सिरे से आविष्कार था और आधुनिकता के साथ उसका अद्भुत सामंजस्या था। ऐसा ही सामंजस्यप पूर्व और पश्चिम के तत्वों का था और ऐसा ही सामंजस्य गरम दल और नरम दल के जीवन्त तत्वों का। गांधी हिंसा का रास्ता चुनने के पक्ष में नहीं थे, परन्तु ‘’हिंसा और कायरतापूर्ण पलायन में से मैं हिंसा को ही तरजीह दूँगा।" अहिंसक मरने के डर से हिंसा से पलायन नहीं करता, मरने और पलायन करने में मरने का वरण करता है, यह रूढि़वादी ब्राह्मणों के फीरोज शाह तुगलक और औरंगजेब दोनों के जजिया के विरोध में सविनय निवेदन के साथ अपनी मॉंग रखने, मॉंग न मानी जाने पर राजादेश की अवज्ञा करने, और हाथी से कुचले जाने पर भी मरने के लिए खड़े होने वालों का एक विशाल क्षेत्र में विस्ताार हो जाना।

'गाँधी का सविनय अवज्ञा और असहयोग नरम दल के वश की बात न थी। बिना हिंसा का सहारा लिए, ‘मैं तुम्हारे गलत कानून और गलत शासन को नहीं मानता, मैं आजाद हूँ और आजाद रहूँगा और आजाद मरूँगा’ छाती तान कर नहीं कह सकता था। ऐसा व्रत लेने वालेों को भी इनके वचाव के साथ ही छुप कर रहना पड़ता और छिप कर प्रतिघात करना पड़ता था, अपनी पहचान जताने के लिए मैं झुकने को तैयार नहीं हूँ।'
'' गांधी के सत्याग्रहियों को छुपने, बचते हुए जीने और मात्र यह जताने के लिए जीने की जरूरत नहीं थी। उनके पास एक ऐसा हथियार था जिसे ले कर वे सीधे गलत कानून को चुनौती और अपनी आजादी की घोषणा ही नहीं कर सकते थे, अपने विरोधियों को नंगा भी कर सकते थे। उनमें एक अतीन्द्रिय बोध था जिसमें आधुनिकता और परंपरा, हिंसालभ्य और अहिंसालम्य लक्ष्यों का समावेश था। गॉंधी को उनके समय में भी नहीं समझा गया और उनकी गाथा गाने वालों द्वारा भी अधूरे रूप में ही समझा गया। तुम्हें क्या लगता है।''

''मुझे लगता है कि यदि मेरे हाथ में हथौड़ा होता और तुम्हें अपना मित्र समझ कर उसका तुम पर प्रयोग न करने की ठान कर बैठा होता तो भी अपने को काबू में न कर पाता और तुम्हारा सिर फटा मिलता । बात कर रहे थे कि हिंदी का आना अब इतिहास की जरूरत है और गॉंधी माहात्म्य में जुट गए। तुम पिछले जन्म मे चारण रहे होगे।

"चलो, पुनर्जन्म में तुम्हें विश्वास तो पैदा हुआ। लेकिन तुम ठीक कहते हो, मुझे न बोलना आता है, न लिखना। मैं अक्सर अपने विषय को ही भूल जाता हूँ, बोलते समय भी और लिखते समय भी। लेकिन इसका एक फायदा भी है यार। जब पता चलता है कि अरे मुझे इस विषय पर बात करनी थी और उसका तो जिक्र ही नहीं आया तो प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब इसे सलीके से कहूँगा। नतीजा वही होता है। फिर भी लाभ यह कि अपनी ही कमी को पूरा करने के लिए दूसरा लेख, दूसरी किताब आती जाती है, बाजार गरम रहता है और बात पूरी होती लगती नहीं। मरते समय कहूँगा, इसे अगले जन्म में समझाऊंगा, पर वैज्ञानिक अगले जन्म का रास्ता रोके खड़े हैं। अधूरा कहा और अधूरा लिखा है, इसे मेरे पाठक ही पूरा करेंगे। फिर भी कल मिलते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें